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(१४) हस्तितापस के मत का संभाव्य खण्डन
- संगीता मुनोत
वध तो बस वध है, हस्तितापस का है यह कहना भावों के परिणामों को, लेकिन उसने कहाँ पहचाना । भोगरूप आमिषरत प्राणी, स्थूलरूप हिंसा कर जाना सूक्ष्मता में इसकी छिपा है, जीवन का सत्य खजाना ।।
सूत्रकृतांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ‘आर्द्रकीय' नामक छठाँ अध्ययन है। उसमें आर्द्रकमुनि, गोशालक आदि अन्यमतावलम्बियों को प्रश्नों का उत्तर देते हैं । उसी श्रृंखला में नित्य वनस्पति छेदन की अपेक्षा, एक बार हस्तिवध करना - कम पापमय है, इस मिथ्याधारणा को हस्तितापस उचित मानते हैं । आर्द्रकमुनि उसके इस भ्रम को सत्य कथनों से दूर करते हैं । ‘पंचेन्द्रिय वध में ज्यादा पाप है', इसी विषय को लेकर कुछ और तथ्यों को आपके समक्ष रखना चाहती हूँ।
यदि हम एक ही सत्य माने कि, ‘सब आत्मा समान हैं और सबको मारने में एक समान पाप है', तो फिर 'शाकाहार-मांसाहार' में भेद ही नहीं रहता । भक्ष्य-अभक्ष्य का भेद नहीं होता । क्यों लोग खेती करते ? क्यों भ. ऋषभदेव लोगों को असि-मसि-कृषि सिखाते ? बस ! एक ही प्राणी मारो और साल भर तक खाते रहो ।
जैनदर्शन में जीवों का वर्गीकरण बहुत सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है । एकेन्द्रिय जीव से उसका विकास होते-होते, अनन्त पुण्य का संचय होने पर उसको पाँच परिपूर्ण इन्द्रियाँ मिलती हैं । दस प्राण और छह पर्याप्तियाँ मिलती हैं । पुनर्जन्म को माननेवाले अन्यधर्म भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जीव
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