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शिकार बने हैं, ना तो प्लेग या (बडी माता) जैसे महाभयंकर प्रकोप से घर के घर बेघर हो रहे हैं । परन्तु हम अपने ही घर में बेघर हो रहे हैं, वो हमारे ही खुद के चार कषाय के कारण । मन का सुख पाने के प्रयास में हम आत्मिक सुख खो बैठे हैं । ये बात विस्तृत करने के लिए कवि की एक पंक्ति ही काफी
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है
" अमृत घट भरले तुझिया दारी, का वणवण फिरसी बाजारी ।"
हमारे चार कषाय ही चार वादियों के समान आत्मरूपी 'पद्मवरपुण्डरीक'
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को ऊपर उठाने के बजाय, कर्मरूपी कीचड में फँसाते जा रहे हैं। खुद की ही दिशाभूल कर रहे हैं । निराशा से भरा हुआ मन क्या ‘आहार-परिज्ञा' का पालन करेगा ? उसे भूलाने के लिए ज्यादा आहार ग्रहण किया जाता है, या उसे छिपाने के लिए उपवास का सहारा लिया जाता है । जब हम निजी जिंदगी से ही उभर नहीं पाते, तो सम्पूर्ण जगत् के सजीवता का क्या अनुभव करेंगे ? ‘प्रत्याख्यान' तो बहुत दूर की बात है । विषादभरा एकांगी दृष्टिकोण खुद के अलग-अलग आयामों को समझने में असमर्थ है, तो अनेकान्तवाद जैसा परिपूर्ण सिद्धान्त क्या हम जानें ? लेकिन हाँ ! ‘आर्द्रक' ने 'गोशालक' को दिया हुआ जवाब मुझे यहाँ सर्वथा उचित और योग्य दिखाई देता है । ऐसे लोग अनेक लोगों से घिरे होने के बावजूद भी, उनका एकान्तवास चालू रहता है । वे हमेशा अलिप्त रहते हैं । ‘स्थिति' एकसमान है, लेकिन आन्तरिक भाव डोरी के दो छोर । भ. महावीर की एकान्तवास की तार, आत्मा से जुडी हुई थी और अध्यात्मप्रत्ययिक का दोष लगनेवाले की तार, मन जैसे पुद्गल परमाणु से जुडी हुई है । एक छोर मोक्ष की तरफ जाता है, तो दूसरा छोर संसारचक्र में गिरा देता है ।
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