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है और इसी में 'गुरु' अपने जीवन की ' इति कर्तव्यता मानते हैं ।'
'ग्रन्थ' अध्ययन में अन्तिम १० गाथाओं में गुरु की ज्ञानपरम्परा को अग्रेसर करनेवाला शिष्य कैसे तैयार किया जाता है इसका अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में विवेचन किया है । आदर्श प्रवक्ता के लक्षण एवं आदर्श गुरु के निकष भी यहाँ बताये हैं, जो सार्वकालिक, मार्गदर्शक एवं अनुकरणीय हैं ।
जीवनोपयोगी सभी विषयों में एवं आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इ. सभी विषयों में निष्णात 'गुरु' ही शिष्य के लिए एक आदर्श शिक्षा-संस्था होती है । इसलिए गुरु के लिए भी एक कसौटी ही होती है । गुरु को हरपल सावधान रहकर सिद्धांतोचित व्यवहार ही करना होता है । इसके अलावा गुरु पारदर्शी हो, कथनी-करनी में समान हो । तथा शिष्य के हर शंका का समाधान, संशोधन करके, सोच-विचार करके ही देना चाहिए । कालानुरूप हर विषय की जानकारी गुरु को होनी चाहिए । गुरु बहुश्रुत होना चाहिए । इस तरह गुरु कैसा होना चाहिए यह बताकर अब प्रवक्ता की भाषा कैसी हो यह भी यहाँ बताया है।
ज्ञानदान का माध्यम है भाषा । इसलिए गुरु को भाषा का विशेष ध्यान रखना चाहिए । उच्चारण शुद्ध हो, शास्त्रार्थ को छिपाना नहीं चाहिए । शास्त्र से अधिक या विपरीत प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए । गुरु को अहंकार या दूसरों का परिहास नहीं करना चाहिए । द्रव्य, क्षेत्र, भाव के अनुसार स्याद्वाद से ही बोलना चाहिए । सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करें । विद्यार्थियों की क्षमता, पात्रता इ. ध्यान में लेकर उनकी मति के अनुसार दृष्टांत देकर समझाना चाहिए । वक्तृत्व के दौरान विषय के संक्षेप, विस्तार का भी विवेक रखना चाहिए । गुरु संतुष्ट होकर किसी की भौतिक उन्नति हेतु आशीर्वाद न दे या क्रोध में आकर किसी के लिए अपशब्द भी न कहें । वैसे भी जैन दर्शनानुसार
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