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(१४) समवसरण : एक परिशीलन
सूत्रकृतांग - लेखमाला (लेखांक २) : जैन जागृति मासिकपत्रिका
व्याख्यान
: डॉ. नलिनी जोशी
शब्दांकन : सौ. चंदा समदडिया
आगम युग का प्रतिनिधित्व करनेवाले 'सूत्रकृतांग' अंग आगम में स्वपर सिद्धान्तों का उल्लेख एवं विवेचन किया गया है । इस दृष्टि से 'सूत्रकृतांग' का ऐतिहासिक महत्त्व है । बिना किसी कलह या वितंडवाद के स्व-सिद्धान्त मंडन तथा अन्य सिद्धान्तों का तर्कयुक्त खंडन इसमें मिलता है ।
'समवसरण' की रूढ मान्यता इस प्रकार है - तीर्थंकरों के उपदेश देने का इन्द्रादि देवकृत अतिवैभवपूर्ण मंच, या स्थान । यह स्वर्ण - रजत धातुओं से बना, मौल्यवान मणिरत्नों से सुशोभित, स्फटिक सिंहासनादि अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त, बारह परिषद जैसे श्रोतृवर्ग से मण्डित होता है । जहाँ सभी श्रोता आपसी वैरभाव भूलकर तीर्थंकरों की अमृतवाणी का रसपान करते हैं । ऐसा अद्भुत रम्य नजारा 'समवसरण' कहलाता है ।
'सूत्रकृतांग' के 'समवसरण' अध्ययन में 'समवसरण' शब्द का महावीरकालीन प्रचलित मूल अर्थ इस प्रकार मिलता है । जहाँ वादसंगम होता था, या विचारों के आदान-प्रदान के लिए इकट्ठा आये हुए लोगों की सभा को 'समवसरण' कहते थे । अनेक विभिन्न दार्शनिक प्रवक्ता एकत्रित होकर अपने अपने दृष्टियों की तत्त्वचर्चा या धर्मचर्चा जहाँ करते थे वह स्थान 'समवसरण ' कहलाता था । इतिहास के पन्ने खोलकर अगर हम देखते हैं तो भगवती - सूत्र या कल्पसूत्र में वर्णित महावीर - जीवन चरित्र में इन्द्रभूति, अग्निभूति आदि ग्यारह
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