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महत्तरा एक स्त्री ही थी । जहाँ तक आपका स्वयं का अनुभव है जब आपने दीक्षा ली तो मुँह से ऊफ् तक न निकाला वह यशोदा कौन थी ? वह तो आपके साधनामार्ग में रुकावट बनी ऐसा हमने कहीं भी नहीं पढा । भगवन् ! आपके समय साधुओं से जादा साध्वियाँ और श्रावकों से जादा श्राविकाएँ थी । आज भी कोई अलग स्थिति नहीं है । वर्तमान में जप-तप करने में महिलाएँ ही आगे होती हैं । स्वाध्याय मंडळ नारियोंसे ही सुशोभित हैं । इतना ही नहीं, जैन अध्ययन और अध्यापन करने में स्त्रीवर्ग ही आगे है और उन्हें मार्गदर्शन करनेवाली एक प्रज्ञावान स्त्री ही है । ये तो आपने अपने ज्ञान से देखा ही होगा। फिर हमपर इतना अविश्वास क्यों ? इतनी शंकाएँ क्यों ?
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भगवन् इस समाज को भी आप भलीभाँति जानते हो । जिसे कोई शास्त्र का ज्ञान भी नहीं है, पर उन्हें किसीने शास्त्र की बात बतायी, तो वह समाज बिना समीक्षा किये आँखें मूँदकर उसपर विश्वास करता है । तो आपने स्त्रीसंग को टालने को (परित्याग) कहा, वह समाज तो स्त्रीजन्म को ही टालने लगा और स्त्रीभ्रूण हत्या तक उसकी सोच जा पहुँची है । क्या दीनदयालु भगवन् को ये पसंद है ? मंजूर है ?
भगवन् मोहनीय कर्म का उदय तो सभी जीवों का होता है, तो सिर्फ स्त्री को ही दोषी क्यों ठहराया गया ? आपने तो मोक्ष अवेदी को बताया है, तो स्त्रीवेद, पुरुषवेद की बात ही कहाँ ? अनेकान्त के पुरस्कर्ता भगवन् आपने ऐसी एकान्त की बात कैसे की ? स्त्रीस्वभाव का इतना रंजक वर्णन !
उपसंहार :
नहीं, नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता ! अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी, करुणा के अवतार, जिनकी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के प्रति
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