________________
(१०) उपसर्गपरिज्ञा में पार्श्वस्थों का स्त्रीसंगविषयक दृष्टिकोण
अर्जुन निर्वाण उपसर्गपरिज्ञा में स्त्री को उपसर्ग के रूप में दिखाया गया है । इसके चतुर्थ उद्देशक में स्त्री को परिषह - उपसर्ग कहते हुए इस परिषह को जीतने में असमर्थ साधुओं को पार्श्वस्थ और अन्यतीर्थी कहा है ।
ऐसे साधु पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । परन्तु उनके आचरण में शिथिलता आ गई थी । इसका कारण था आजीवक एवं अन्यपन्थीय साधुओं का स्त्रीसंगविषयक दृष्टिकोण |
इन्ही विचारों को दर्शाने के लिए यहाँ निम्न उदाहरण दिए गए हैं।
-
हु
फोडे को दबाकर मवाद निकाल देने से तुरन्त आराम मिलता है वैसे ही कामसुख की इच्छा करनेवाली स्त्री से समागम करने पर होता है।
२) भेड एवं पिंग पक्षिणी का बिना हिलाए जल पिना भी उपरोक्त स्त्री समागम के बराबर है ।
१) पके
३) पूतना राक्षसी का बच्चों के प्रति लोलुप व्यवहार उसी प्रकार स्त्रीसंग भी दोषरहित ।
इन उदाहरणों से यही प्रतीत होता है कि इन साधुओं का स्त्रीसंग का विचार अच्छा नहीं है । इसके समर्थन में वे यह कहते हैं कि हम कहाँ कायम रूप से स्त्रीपरिग्रह कर रहे हैं ? जहाँ हम रात्रिनिवास करते हैं वही पर समागम सुख की इच्छा करनेवाली नारी से, हम यह सुख प्राप्त करते हैं । उसमें लिप्त नहीं होते क्यों कि कामवासना सम्पूर्णत: प्राकृतिक है । परन्तु यह विचार पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं होता । यहाँ पर स्त्री को ही कामसुख की याचिका बताया गया है।
११५