________________
सच बताऊँ ? किसी की आत्मशुद्धि मैं नहीं कर सकती । वरना क्या प्रथम पादानपर, अपने आप को न रखती ?
और तो और मुक्त हो जाते अब तक, मेरे सुखदुःख के साथी । सारे के सारे जलचर, और उनकी जाति प्रजाति ।
और बिलकुल सीधी सी बात है, कैसे नहीं समझानी । अगर मैं पाप धो सकती हूँ, तो क्या पुण्य भी नहीं धोती ? उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, या हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति । पता नहीं उन्हें सिद्धि मिलती है या नहीं । पर हमारी तो नाहक ही जान जाती । यह मैं केवल अपने ही बारे में नहीं कहती । यही है मेरे स्वजनों की भी आपबीती । होम, हवन, अनुष्ठान के लिए कटती कितनी वनस्पति । नष्ट की जाती है उनकी, बीज, वृद्धि और उत्पत्ति । स्थावर के साथ साथ, कितने त्रस की भी बलि चढती । 'अनार्य धर्मा' ऐसे लोगों की अकाल में ही मृत्यु होती । मुझे जीवन मानकर, जो मेरा ही जीवन हरता है । भगवान् क्या दण्ड दे उसे, वह तो स्वयं कर्ता, भोक्ता है । मेरी तो समझ में नहीं आता, यह कैसी तार्किकता है । मुक्ति हेतु खुद स्नान करता है, मुक्ति प्राप्त प्रभु को भी स्नान करवाता है । उस अहिंसा के देवता को भी, फूलों से सजाया जाता है ।
११८