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स्त्री को ही दोषी ठहराया गया है । जबकि ताली एक हाथ से नहीं बजती । साधु इस याचना को अस्वीकार भी कर सकता है । परन्तु उसे मान्यता देकर वह अपने स्खलनशील होने का प्रमाण ही देता है । स्त्री को परिषह मानना यह आगम विचार इसलिए सहीं नहीं लगता । इसको उपसर्ग मानने का और ऐसे उदाहरण देने का कारण यही हो सकता है कि साधु को ऐसे विचारों से घृणा निर्माण हो
और वह इनसे दूर रहें । निश्चय ही ऐसे उदाहरण निम्नस्तरवाले और एकांगी दृष्टिकोणवाले भी।
यही पर नियुक्तिकार और चूर्णिकार स्त्री को पुरुष के समान बताते हैं । वराहमिहिर यह कहते हैं कि स्वभाव से स्त्री-पुरुष समान है । उनके गुण-दुर्गुण एक जैसे ही है । परन्तु नारी जीवन और कार्यक्षेत्र ऐसा है कि दुर्गुण सामने आते हैं और गुण पीछे रह जाते हैं । परन्तु नारी अपनी बुराईयों पर विजय प्राप्त करने का हमेशा प्रयत्न करती है जबकि पुरुष ऐसा करते नहीं दिखाई देते ।