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(१३) 'वीरत्थुई' के अन्तरंग में
सूत्रकृतांग - लेखमाला ( लेखांक १ ) : जैन जागृति मासिकपत्रिका
व्याख्यान : डॉ. नलिनी जोशी
शब्दांकन : सौ. चंदा समदडिया
जैन दर्शन में प्रत्यक्ष महावीर वाणी 'द्वादशांगी' में सूत्रकृतांग दूसरे स्थानपर है । दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित इस अंग - आगम का प्रथम श्रुतस्कन्ध
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प्राचीन अर्धमागधी का दुर्लभ नमुना माना जाता है । महावीर के समकालीन विविध दार्शनिक मतों का अर्थात् स्व-पर-सिद्धान्तों का उल्लेख एवं विवेचन सूत्रकृतांग में किया गया है । इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह अंग-आगम बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
सूत्रकृतांग का छठा अध्ययन 'वीरस्तुति' है । भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मन्दिर-स्तोत्र की तरह यह स्तुति काव्य भी आद्य शब्द से अर्थात् 'पुच्छिसु णं' नाम से जाना जाता है । हर साहित्य - विधा की तरह स्तुति, स्तोत्र इस विधा का जन्मस्थान भी आगम में, आचार्य सुधर्मा द्वारा सर्वप्रथम विरचित 'वीरत्थुई' में मिलता है । 'वीर' शब्द यहाँ प्रधानतया भगवान महावीर वाचक है ।
जब ब्राह्मण या वैदिक परम्परा में महाहिंसात्मक यज्ञादि का प्रचुर मात्रा में प्रवचन था, ब्राह्मण वर्ण की मनमानी, धर्म के नामपर लोगों को सरे आम लूटना, इन सब बातों से मानव-समाज पीडित था । ऐसी परिस्थिति में भगवान महावीर ने सभी प्राणीमात्रों को शान्ति एवं सुकून देनेवाले अहिंसा एवं अनेकान्त धर्म की प्ररूपणा की । सदैव सत्य - प्रज्ञा से समीक्षा करके जो धर्म कहा, जो वैचारिक क्रान्ति की, उसकी गहरी छाप जन-मानस पर पडी । इन विचारों ने श्रमण,
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