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शंका-समाधान मृदुभाव से होगा तो किसी का भी तिरस्कार नहीं होगा। अखण्ड झरने जैसा निर्मल ज्ञान मधुर
वाणी से मार्गदर्शन देने के लिए अध्यापक निरन्तर अभ्यास करनेवालाही होना चाहिए । प्रत्येक वस्तु ‘अनेक धर्मी' होती है । इसलिए कोई भी अर्थ स्पष्ट करते समय ‘स्याद्वाद' से प्रत्येक विधान की सत्यता सामने लाए । सत्य हमेशा कडवा और कठोर होता है । इसलिए समझदारी से स्वयं की प्रशंसा टालकर, कषाय न बढाते सत्य विधान करें । बोलते समय संदिग्ध या अधूरा न बोले लेकिन विभज्जवाद से सत्य और तथ्य स्पष्ट करें । अनेकान्तवाद से किसी भी सूत्र की समीक्षा करें और निन्दा टालें । किसी भी प्रश्न का उत्तर मर्यादित हो, उसे अनावश्यक बढाना ठीक नहीं अन्यथा स्वयं के और दूसरों के पापविकारों की ओर ध्यान देना होगा ।
नया संशोधित ज्ञान निरन्तर प्राप्त करके, चिन्तन करने से समय का सदुपयोग होगा और दूसरे की मर्यादा सम्भाली जाएगी । वक्तृत्व का सम्यक् व्यवस्थापन करनेवाला कभी भी संकुचित विचार प्रस्तुत नहीं करता और दूषित दृष्टि नहीं रखता । इसी कारण सूत्र और अर्थ में सुसंगति लाना जरूरी है । अध्यापक के वाणी में सागर के संथ लहर जैसी सरलता और प्रमाणबद्धता आवश्यक है।
सद्य:स्थिति में अगर कोई अध्यापक इस अध्ययन में निहित तथ्योंपर विचार एवं अमल करेगा तो वह जरूर आदर्श अध्यापक बनेगा ।
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