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(६) 'ग्रन्थ' अध्ययन में आदर्श अध्यापक
बालचन्द मालु
'सूत्रकृतांग' इस आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन हैं । उसका चौदहवाँ अध्ययन 'ग्रन्थ' है ।
प्राचीन समय में नवदीक्षित साधु को सभी परिग्रहों को तोडकर 'गुरुकुल' में रखा जाता था । उसे आचार्यद्वारा सभी शिक्षाएँ मिलती थी । वह स्वावलम्बन से, संयम से अनुशासन में रहकर ब्रह्मचर्य पालन करता था । ऐसा शिष्य 'ग्रन्थी' कहलाता है । धर्म और आगमज्ञान परिपक्व होनेतक आचार्य उसका दुष्प्रवृत्ति से संरक्षण करते थे । गुरु के सान्निध्य से शिष्य का आचरण ओजस्वी और सम्यक्त्वी बनता था ।
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प्रतिभासम्पन्न शिष्य बनवाने के लिए गुरु को भी अनुशासन पालना पडता था । ‘ग्रन्थ' अध्ययन के मार्गदर्शन से 'आदर्श अध्यापक' बनवाने के लिए नीचे बताये हुए कुछ विशेष गुणों की जरूरत होती है ।
सबसे पहले अध्यापक को मूलत: प्रज्ञावान और समझदार होना जरूरी है। अपने विषय में प्रवीण होने के कारण ही वह सूरज के समान चारों ओर से प्रकाशित करने जैसा ज्ञान दे सकता है । अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया सजीव होती है । इसलिए अध्यापक को द्वेषभाव टालकर परस्परों में प्रेमभाव का संवर्धन करना होगा । किसी भी छोटी सी शंका का पूर्णता से समाधान करने की कला याने
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शिक्षक का शैक्षणिक मानसशास्त्र और शिक्षणशास्त्र उत्तम होना जरूरी है । सभी शंकाओं का समाधान करते समय किसी भी अर्थ का अनर्थ न करे या होनेवाले अहंकार से हमेशा दूर रहें ।
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