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(७) नरक : एक वास्तव अथवा संकल्पना ?
- संगीता मुनोत जितना गहन तिमिर अमावस में होगा, उतनी सुबह उजाली होगी, जितनी सन्देह में विरानी, उतनी विश्वास में हरियाली होगी ।
स्वर्ग-नरक है सत्य, नहीं इसमें सन्देह कहीं, प्रभुवाणी तो त्रिकाल में, सत्य सत्य सत्यही होगी ।
विश्व के सभी धर्म जिस विषयपर एकमत हैं, वह है नरक की सत्यता । नरक विषय संकल्पनात्मक नहीं है । जैनधर्म ने भौगोलिक आधारों पर बतायी हुई यह एक वास्तविकता है । यह सत्य है कि विज्ञान आजतक नरक को खोज नहीं पाया है । मात्र इसके आधार पर हम नरक के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकतें । विज्ञान की अपनी मर्यादाएँ सिद्ध है । जैसे मूलतत्त्वों की संख्या धीरे-धीरे बढती हुई विज्ञान की दृष्टि से १११ हो गयी है । जैन आगमानुसार मूलतत्त्वों की संख्या पहले ही १६८ बतायी जा चुकी है । वैसे ही शायद नरक की भी खोज की जायेगी।
सूत्रकृतांग में पाचवें नरकविभक्ति' नामक अध्ययन में, नरक का वर्णन दिखायी देता है । टीकाकारों ने इसी के आधार से नरक शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी है -
१) नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माणा इति नरकाः । २) न रमन्ते तस्मिन् इति नरकाः ।
अर्थात् पापकर्म करनेवाले प्राणी जहाँ पर वेदना, पीडा और दुःखों को भोगता है, सुख नहीं पाता, वह स्थान नरक है ।
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