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प्राक्कथन
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बनाकर रहना पड़ा हो। और इसीलिये समन्तभद्रका निराकरण करनेका उन्हें साहस न हुआ हो । जो हो, अभी इस विषय में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । किन्तु इतना सुनिश्चित है कि शावर भाष्य के टीकाकार कुमारिलने समन्तभद्रकी सर्वज्ञताविषयक मान्यताको खूब आड़े हाथों लिया है। पहले तो उसने यही आपत्ति उठाई है कि कोई पुरुष अतीन्द्रियार्थदर्शी नहीं हो सकता । किन्तु चूंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरको अवतारका रूप देकर पुरुष मान लिया गया था और उन्हें भी सर्वज्ञ माना जाता था। अतः उसे कहना पड़ा कि ये त्रिमूर्ति तो वेदमय हैं अतः वे सर्वज्ञ भले ही हों किन्तु मनुष्य सर्वज्ञ कैसे हो सकता है । उसे भय था कि यदि पुरुषकी सर्वज्ञता सिद्ध हुई जाती है तो वेदके प्रामाण्यको गहरा धक्का पहुँचेगा तथा धर्ममें जो वेदका ही एकाधिकार या वेदके पोषक ब्राह्मणका एकाधिकार चला आता है उसकी नींव ही हिल जावेगी । अतः कुमारिल कहता है कि भई ! हम तो मनुष्यके धर्मज्ञ होनेका निषेध करते हैं । धर्मको छोड़कर यदि मनुष्य शेष सबको भी जान ले तो कौन मना करता है ?
जैसे आचार्य समन्तभद्रके द्वारा स्थापित सर्वज्ञताका खण्डन करके कुमारिलने अपने पूर्वज शबरस्वामीका बदला चुकाया वैसे ही कुमारिलका खण्डन करके अपने पूर्वज स्वामी समन्तभद्रका बदला भट्टाकलङ्कने और व्याजके स्वामी विद्यानन्दिने चुकाया । विद्यानन्दिने आप्तमीमांसाको लक्ष्य में रखकर ही अपनी आप्तपरीक्षाकी रचना की । जहाँ तक हम जानते हैं देव या तीर्थंकरके लिये आप्त शब्दका व्यवहार स्वामी समन्तभद्रने ही प्रचलित किया है । जो एक न केवल मार्गदर्शक किन्तु मोक्षमार्गदर्शक के लिये सर्वथा संगत है ।
आप्तमीमांसा और आप्तपरीक्षा
मीमांसा और परीक्षा में अन्तर है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार मीमांसा शब्द 'आदरणीय विचार' का वाचक है जिसमें अन्य विचारोंके साथ सोपाय मोक्षका भी विचार किया गया हो वह मीमांसा है और न्यायपूर्वक परोक्षा करनेका नाम परीक्षा है । इस दृष्टिसे तो आप्त
१. धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
सर्वमन्यद् विजानानः पुरुषः केन वार्यते ॥
२. न्यायतः परीक्षणं परीक्षा | पूजित विचारवचनश्च
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मीमांसाशब्दः ।
- प्रमा० मीमांसा पृ० २ ।
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