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प्राक्कथन
प्रयत्न करता है । उस प्रयत्न में सफल होनेपर ही वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है । अतः आत्मज्ञतामें से सर्वज्ञता फलित होती है । सर्वज्ञता में से आत्मज्ञता फलित नहीं होती; क्योंकि मुमुक्षका प्रयत्न आत्मज्ञताके लिये होता है सर्वज्ञता के लिये नहीं । अतः अध्यात्मदर्शनमें केवलोको आत्मज्ञ कहना ही वास्तविक है, भूतार्थ है और सर्वज्ञ कहना अवास्तविक है, अभूतार्थ है । भूतार्थता और अभूतार्थका इतना ही अभिप्राय है । इस नयदृष्टिको भुलाकर यदि यह अर्थ निकालनेकी चेष्टा की जायगी कि व्यवहारनय जो कुछ कहता है वह दृष्टिभेदसे अयथार्थ न होकर सर्वथा अयथार्थ है तब तो स्याद्वादनय-गर्भित जिनवाणीको छोड़कर जैनों को भी शुद्धाद्वैतो अपनाना पड़ेगा | जैनसिद्धान्तरूपी वन विविध भंगोंसे गहन है उसे पार करना दुरूह है । मार्गभ्रष्ट हुए लोगोंको नयचक्र के संचारमें प्रवीण गुरु ही मार्गपर लगा सकते थे । खेद है कि आज ऐसे गुरु नहीं हैं और जिनवाणीके ज्ञाता विद्वान् लोग स्वपक्षपात या अज्ञानके वशीभूत होकर अर्थका अनर्थ करते हैं, यह जिनवाणीके आराधकोंका महद् दुर्भाग्य है, अस्तु ।
सर्वज्ञको चर्चाका अवतरण
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य समन्तभद्र के समय में बाह्य विभूति और चमत्कारों को ही तीर्थंकर होनेका मुख्य चिह्न माना जाने लगा था । साधारण जनता तो सदासे इन्हीं चमत्कारों की चकाचौंध के वशीभूत होती आई है । बुद्ध और महावीर के समय में भी उन्हींकी बहुलता दृष्टिगोचर होती है। बुद्धको अपने नये अनुयायियोंको प्रभावित करनेके लिये चमत्कार दिखाना पड़ता था । आचार्य समन्तभद्र जैसे परीक्षाप्रधानी महान् दार्शनिकको यह बात बहुत खटकी; क्योंकि चमत्कारोंकी चकाचौंध - में आप्तपुरुषकी असली विशेषताएँ जनताकी दृष्टिसे ओझल होती जाती थीं। अतः उन्होंने 'आप्तमीमांसा' नामसे एक प्रकरण-ग्रन्थ रचा जिसमें यह सिद्ध किया कि देवोंका आगमन, आकाशमें गमन, शरीरकी विशेषताएँ तो मायावी जनोंमें भी देखी जाती हैं, जादूगर भी जादूके जोरसे बहुत-सी ऐसी बातें दिखा देता है जो जनसाधारणको बुद्धिसे परे होती हैं । अतः इन बातों से किसीको आप्त नहीं माना जा सकता । आप्तपुरुष तो वही है जो निर्दोष हो, जिसका वचन युक्ति और आगमसे अविरुद्ध हो । इस
१. बुद्धचर्या, पृ० २६, ८६ आदि ।
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