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१८ / अप्पा सो परमप्पा
जो सर्वशक्तिमान् है, उसको प्रत्यक्ष न देख सकने पर उसे मानने से इन्कार करने लगा है । अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रति उसकी श्रद्धा डगमगाने लगी है। वीतराग आप्त पुरुषों के वचनों को वह ठुकरा देता है । अनुमान और तर्क से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर भी वह मानने को तैयार नहीं । आत्मा के अस्तित्व को माने बिना आत्मा के विकास, कल्याण या शुद्धि की बात ऐसे लोगों के लिए कोरी बकवास होगी । फिर आत्मा से परमात्मा बनने का कथन तो और भी दूर की बात है । ऐसे लोग आधुनिक विज्ञान की भाषा में या अपने तुच्छ स्वार्थ की भाषा में ही सोचसमझ सकते हैं ।
प्रदेशी राजा : जो आत्मा को नहीं मानता था
राजप्रश्नीयसूत्र में राजा प्रदेशी का विस्तृत वर्णन मिलता है । प्रदेशी राजा नास्तिक और क्रूर बना हुआ था । वह आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, व्रत नियम आदि को बिलकुल नहीं मानता था । उसकी दृष्टि में यह सब थोथी बकवास थी । जो कोई उसके सामने आत्मा की बात करता, वह उसे प्रतितर्क करके निरुत्तर कर देता था । आत्मा का अस्तित्व नहीं मानने के कारण वह निःशंक होकर पाप कर्म करता था । वह कहता था- जब आत्मा ही नहीं है तो पुनर्जन्म, पुण्य-पाप भी कहाँ से होंगे ? और पुण्य पाप के अभाव में स्वर्ग-नरक भी सिद्ध नहीं होते । पुण्य और पाप के फल को न मानने के कारण प्रदेशी राजा का जीवन अहनिश आर्त- रौद्रध्यान में डूबा रहता था । उसकी दिनचर्या भी पापमय प्रवृत्तियों में व्यतीत होती थी । आत्मा का अस्तित्व न मानने के कारण राजा प्रदेशी धर्माचरण, नीतिनियम, न्याय, संयम, त्याग, व्रत- प्रत्याख्यान आदि के बिलकुल खिलाफ था । इतना ही नहीं, वह धर्माचरण, नीतिनियम, त्याग, व्रतनियम आदि करने वालों या इन बातों का प्रचार या उपदेश करने वालों को ढोंगी, कपटी, मायावी, जड़, मुढ़ और मिथ्याचारी कहता था । अपने राज्य में वह धर्म, न्याय-नीति आदि का प्रचार या उपदेश नहीं होने देता था । उसकी यह मान्यता दृढ हो चुकी थी कि आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, धर्म आदि की बातें कोरी बकवास | किन्तु प्रदेशी राजा में एक खूबी थी। वह जिज्ञासु था, प्रत्येक बात को निरीक्षण-परीक्षण करने के बाद ही स्वीकार करता था । साथ ही वह अपनी मान्यता के प्रति वफादार था । जिसे वह स्वयं सत्य मानता था, उसको समझने, साबित करने तथा ढूँढ़ने के प्रयोग और प्रयास उसने
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