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१६ | अप्पा सो परमप्पा
इसका भावार्थ यह है कि वह (परमात्मा) पूर्ण है, और यह (संसारी जीवात्मा ) भी पूर्ण है । पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही बचता है । संसारी जीवों के ज्ञानादि की पूर्णता पर आवरण आ जाने से पूर्णता कुछ अंशों में निकल गई या यों कहना चाहिए कि वह आच्छादित = आवृत हो गई । किन्तु सत्पुरुषार्थ के द्वारा आवरण के हटते ही पूर्णता पुनः सोलह कलाओं से युक्त होकर परमात्मा के समान प्रकट हो सकती है । इसी दृष्टि से कहा गया है
'अप्पा सो परमप्पा'
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