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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
काय कम्मुवहि सव्वे यहि परिग्गहो। अब्धिंतर परिग्गहो रागो दोसो मोहो कामो कोहो लोहो आदिति । तेसिं परिचत्तिदुं कोवि समत्थो णो । बहि-अब्भितरसंगादो गोथ होदि तत्थ अत्थि आकिंचन्ह धम्मो । भावपाहुडम्हि कुंदकुंदेण पण्णत्तोभाव-विसुद्धि- णिमित्तं बहिर-गंधस्स कीरए बागो । बाहिरचाओविहलो अब्धिंतर गंध-जुत्तस्स ॥
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काय, कर्म और उपाधि से सभी बाह्य परिग्रह हैं। आभ्यन्तर परिग्रह राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध एवं लोभ आदि हैं। उनके छोड़ने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। बाह्य और आभ्यंतर संग से जहाँ दूरी है वहाँ है आकिंचन्यधर्म । भावपाहुड में कुंदकुंद स्वामी ने कहाभाव विशुद्धि के निमित्त बहिरंग ग्रंथ/ परिग्रह का त्याग किया जाता है, परन्तु रागादि भाव रूप आभ्यंतर परिग्रह के त्याग बिना यह विफल है।
मुच्छा परिग्गहो । वत्युं पडि पदत्थं पडि अत्वं पडि मुच्छा आसत्ति कंखा अहिलासा संग्गहस्स इच्छा परपदत्यगहणस्स भावणा परिगहो त्ति ममिदं बुद्धिलक्खणो परिग्गहो । परपदत्वाणं ममत्तभावो तिमिच्छत्तो। मिच्छत्ता भावादो आकिंचन्हधम्मो ॥
मूर्च्छा परिग्रह है। वस्तु, पदार्थ, अर्थ के प्रति मूर्च्छा, आसक्ति, आकांक्षा, अभिलाषा, संग्रह की इच्छा एवं परपदार्थ के ग्रहण की भावना परिग्रह है। यह मेरा है, ऐसी बुद्धि करना परिग्रह है पर पदार्थों के प्रति ममत्व भाव होना मिध्यात्व है। मिथ्यात्व के अभाव से आकिंचन्य धर्म है।
जस्स णो किंचणं अत्थि सो त्ति आकिंचणी हवे। तस्स भावो आकिंचन्हं सम्मत्त - पडिभावणा । उपादेयो त्ति सम्मत्तो रदणत्तय-भावणा । अप्पणो परिणामो ति मुज्ज मुणि माणवा ॥
जिसका कुछ नहीं, वह आकिंचन है, उसका भाव (त्याग का भाव ) आकिंचन्य है, सम्यक्त्व की उत्तम भावना है। जो मुनि या मननशील व्यक्ति होते हैं, वे अपने आत्म परिणाम युक्त रत्नत्रय की भावना सम्यक्त्व है, ऐसा सोचकर उसे उपादेय मानते हैं। उत्तम बहुचेगे
बंभे चरिज्ज- अप्पणो बंहचेरो सव्वसंग विमुत्तो आदा सो एव बंभो तम्हि चेव चरियो बंभचेरो। णाण-सरूव-आदा बंहो तम्हि सम्मचरियं बंहचेरो बंहो बंहो एव बहम्हि घरेज जो तरस मुणेज्ज बहचेरियो । अहिंसादि गुणा जरिंस बिद्धिं पपेंति बड्ढति तस्स णामो बंहो तस्सि जो चरेज्ज तस्स बंहचेरधम्मो ।
सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं ।
सो बहचेरभावं सक्कदि खलु दुद्धरं धरदि । ( द्वा.८०) उत्तम ब्रह्मचर्य
जो ब्रह्म रूप में अपने आत्मा में विचरण करता है वह ब्रह्मचर्य है। सभी परिग्रह से विमुक्त आत्मा है, वही आत्मा ब्रह्म है, उसमें ही विचरण करना ब्रह्मचर्य है। ज्ञान स्वरूप आत्मा ब्रह्म है, उसमें सम्यक् रूप में स्थित होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म ब्रह्म है, उस ब्रह्म में