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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
रागस्स दोसस्स मोहस्स होदि। णियप्प-सुद्धप्पा विहावादो अदिदूरो। सो सहावेण णिम्मलो णिरंजणो त्ति। दाणे होदि परुवयारभावो, चागे आदहिदो।।
उत्तम साधक पात्र हैं, वह सदा रत्नत्रय मार्गगामी अपना हित और दूसरे का हित भी करता है। न केवल परद्रव्यों को देना त्याग है, अपितु पर द्रव्यों के प्रति उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष एवं मोह का त्यागना/ छोड़ देना त्याग है। निजात्म शुद्धात्मा विभावों से अतिदूर है। वह स्वभाव से निर्मल एवं निरंजन भी है। दान में परोपकार भाव होता है और त्याग में आत्महित। उत्तम आकिंचण्ह धम्मो
णिस्संग णिय-अप्पाणं णिप्परिग्गहसंलहे। आकिंचण्ह समो धम्मो वत्थु गहण मुत्तिणो॥ उत्तम आकिंचन्य धर्म
जो निस्संग अपने आत्म स्वरूप को परिग्रह से रहित देखता है जो वस्तु ग्रहण से रहित हैं। उन श्रमण का आकिंचन्य धर्म है।
सयलगंथ चागो आकिंचण्हधम्मो। गंथो त्ति परिग्गहो सो बहिरब्भिंतरो दुविधो। तत्तो णिस्संगो होदूण जो साहगो आदसहावं झाएदि तस्स वट्टदि आकिंचण्हधम्मो।
जहाँ सकल ग्रंथ/परिग्रह का त्याग है वहाँ आकिंचन्य धर्म है। ग्रंथ का अर्थ परिग्रह है जो बाह्य और आभ्यंतर दो प्रकार का है। उसका निस्संग होकर जो साधक आत्म स्वभाव को ध्याता है, उसका भाव आकिंचन्यधर्म होता है।
णो किंचणं अत्थि तं आकिंचण्ह। आकिंचण्हत्तणं सयलगंथचागो सव्वलोग-ववहार-विरदो णिप्परिग्गहो णिरारंभो सरीर-सक्कार-परिहरो त्ति। णत्थि त्ति किंचणो आकिंचण्हो तस्स भावो कम्मो वा आकिंचण्ह। होदूण य णिस्संगो
णियभावं णिग्गहित्तु सुह-दुहद। णिबंदण दु वदि अणयारो तस्साकिंचण्ह॥ जिसके कुछ नहीं, उसे आकिंचन्य कहते हैं। आकिंचन्य अर्थात् सकलग्रन्थत्याग, सर्वलोक व्यवहार से विरत निष्परिग्रह, निरारंभ एवं शरीर संस्कार से रहित होना है। कुछ भी नहीं होना आकिंचन है, उसका भावकर्म आकिंचन्य है। जो अनगार नि:संग होकर अपने सुख-दु:ख के निजभाव को ग्रहण करके निर्द्वन्दभाव से युक्त होना आकिंचन्य है। आदभाव अणुसीलणं (द्वादशानुप्रेक्षा.७९)
बहि-अभिंतर-परिग्गह-सयलचागं कुणिदूण जो चरेदि आद-भावे तस्स आकिंचण्ह- धम्मो होदि। आसत्ति-ममत्त-मुच्छा परिग्गहो तस्स किंचि णो भावो मे। आत्मभाव का अनुशीलन
बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का पूर्ण त्याग करके जो आत्मभाव में रमण करता है, उसका आकिंचन्य धर्म होता है। आसक्ति, ममत्व एवं मूर्छा परिग्रह है। मेरा उसके लिए कुछ भाव नहीं।