Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ जैन संस्कृत और साहित्य के पोषक: पाण्डे लालचन्द दिया है। भाषा सरल तथा मधुर बज है। नरक के कष्टों हिन्दी गद्य का प्रारम्भिक रूप निश्चित करने के लिए की चर्चा का एक कथन है 'प्रात्मानुशासन भाषा' का यह उद्धरण दृष्टव्य हैनिमिष मात्र ही सुख नहीं, नरक मांहि किहु काल । जगत के जीव पाप विष प्रवीन है। कोईक शुभ परिहनहि परस्पर नारकीय, यह अनादि की चाल ।३६ णाम दीस है, सोऊ भला कहिये है। अर जो शुभ अरु कहा कहै धनि ये उकति, धरि के नौ शत कोठि।। अशुभ दोऊ ही तजि करि केवल शुद्धोपयोग का आत्मतऊ नरक के दुक्ख की, कहत न आवै तोटि। स्वरूप विष तल्लीन है तिनकी महिमा कौन कहि सके। जो कह पुरब वर बे, भूलत कारण पाइ। ते सत्पुरुषनि करि वदनीय है। पृ० १८७. यदि करावं सुराधम, मार तिनहि लराइ ॥ ऐतिहासिक महत्त्व : -ज्ञानार्णव भाषा पाण्डे लालचन्द के काव्य और गद्य को थोडी-सी वरांग चरित भाषा में 'वरांग' का सम्पूर्ण चारित्र , चर्चा करने से पूर्व उनकी जीवनी का तथ्यपूर्ण वर्णन बारह सौ में कहा गया है। 'वरांग' की वीरता के प्रसंग व्यपकता से करना ऐतिहासिक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । में युद्ध वर्णन भी है पहली बात तो यह है कि भारतवर्ष के जैन समाज में 'छुटे धनुष ते तीछन तीर, भूतल छाय लियो वर वीर।। पाज सर्वाधिक मान्य क्षेत्र 'जगरोटी' आज से २५०-३०० मानौं प्रलयकाल घनघोर, जलधारा बरसत चहुं ओर। वर्ष पूर्व भी सम्मानित था। तभी तो ब्रह्मसागर जैसे श्रेष्ठ प्रबन्धकार होने के अतितिरिक्त पांडे लालचंद मुनि और पांडे लालचन्द २० वर्ष तक बंगाल और ३ उत्तम भक्त भी थे। बड़ा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर में वर्ष सूरत रहने के पश्चात् भी जगरौटी क्षेत्र में प्राए । प्राप्त पद संग्रह ९४६ में 'लाल' छाप से १५-२० पद पांडे लालचन्द ने ४०-५० वर्ष तक इसे ही अपना साधकसंग्रहीत हैं। इन पदों में राजुल विरह के अतिरिक्त स्थल बना लिया। पांडे लालचन्द की जीवनी से दूसरा तीर्थंकर ऋषभदेव और भगवान पाश्र्वनाथ की भक्ति भी तथ्यात्मक संकेत यह है कि इस क्षेत्र मे अग्रवाल, खंडेल वाल, पल्लीवाल तथा श्रीमाल सभी उपजातियो में दिगंबर कृपा म्हांसू कोज्यो जी, थे तारो जी जिनराज। आम्नाय को मानने वाले लोगों को पर्याप्त संख्या थी। कभउ मान भंजन शिव रंजन, अधिक व्रत तुम धारा जी। पाण्डे लालचन्द द्वारा की गई विभिन्न रचनाओं की प्रतिमाता जी लिपियो से यह भी स्पष्ट है कि जैन विद्या को ग्रन्थांकित जुगल नाग प्रभु जलते उबारे, अबकी बेर हमारो जी। करवाने तथा श्रद्धा भाव से उन्हे मन्दिरो में चढ़वाने का 'पारस' नाम तिहारो प्रभु जी, अष्ट कर जारो जी।। श्रावक समुदाय में बड़ा श्रद्धा भाव था। जिसके पूर्णत: 'लाल' कहै विनती प्रभुजी सं, शरण लेप उबारो जी॥ लुप्त हो जाने के कारण जैन ग्रन्थों के अप्रकाशित रहने और दीमकों की भोज्य-सामग्री बने रहने की दुर्भाग्यपूर्ण पाण्डे लालचन्द का पद: समस्या बनी हुई है। आचार्य गुणभद्र कृत 'आत्मानुशासन' को पांडे लाल एसोसिएट प्रोफेसर चन्द ने गद्य मे लिखा है। गद्यकार ने पहले मूल प्रलोक महारानी जया स्वायत्तशासी महाविद्यालय और फिर बाद में उसकी बोधगम्य टीका लिखी है। भरतपुर (म. प्र.)

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