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कर्नाटक में जैन धर्म
गंग-वंश:
गगवश का प्रथम नरेश माधव था जो कि कोंगुणिवर्म कर्नाटक में जैनधर्म के इतिहास मे इस वश का स्थान प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है। उसने मण्डलि नामक स्थान सबसे ऊंचा है। इस वंश की स्थापना ही जैनाचार्य सह- पर काष्ठ का एक जैन मन्दिर बनवाया था और एक जन नन्दी ने की थी। एक शिलालेख मे इन आचार्य को 'नग- पीठ की भी स्थापना की थी। इसी वंश के अविनीत गंग राज्य-समुखरण' कहा गया है। शिलालेखानुसार उज्जयिनी के विषय में यह कहा जाता है कि तीर्थकर प्रतिमा सिर के राजा ने जब अहिच्छत्र के राजा पद्मनाभ पर आक्रमण पर रखकर उसने बाढ से उफनती हुई कावेरी नदी को किया तो राजा ने अपने दो पुत्रो बड्ढग और माधव को पार किया था। उसने अपने पुत्र दुविनीत गंग की शिक्षा दक्षिण की ओर भेज दिया । वे कर्नाटक के पेरूर नामक आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद के सान्निध्य मे दिलाई थी तपा स्थान में पहुंचे। उस समय वहां विद्यमान सिंहनन्दी ने लालवन नगर की जैन बसदि के लिए तथा अन्य बसदियों उनमें राजपुरुषोचित गुण देखे । बल-परीक्षा के समय आदि के लिए विविध दान दिए थे। माधव ने तलवार से एक पाषाण-स्तम्भ के टुकड़े कर दुविनीत का काल ४८१ ई. से ५२२ ई. के लगभग दिए। आचार्य ने उन्हें शिक्षा दी, मुकुट पहनाया और माना जाता है। यह पराक्रमी होने के साथ ही साप परम अपनी पिच्छी का चिह्न उन्हें दिया। उन्हे जिनधर्म से जिनभक्त और विद्यारसिक भी था। उसने कोगलि विमुख नही होने तथा कुछ दुर्गुणों से बचने पर ही कुल (कर्नाटक) मे चन्न पार्श्वनाथ नामक बसदि का निर्माण चलेगा' यह चेतावनी भी दी। बताया जाता है कि घटना कराया था। देवनन्दि पूज्यपाद उसके गुरु थे। प्रसिद्ध १८८ ई० अथवा तीसरी सदी की। इस वश ने कनाटक सस्कृत कवि भारवि भी उसके दरबार में रहे। उसने में लगभग एक हजार वर्षों तक शासन किया। उसकी पूज्यपाद द्वारा रचित पाणिनिव्याकरण को टोका का पहली राजधानी कुवलाल (आधुनिक कोलार), तलकाड कन्नड में अनुवाद भी किया था। उनके समय में तसकार (कावेरी नदी के किनारे) तथा मान्यपुर (मण्ण) रही। एक प्रमुख जैन-विद्या केन्द्र था। इतिहास में यह तलकाड (तालवनपुर) का गगवश नाम से श्री रामास्वामी अय्यंगर का मत है कि दुविनीत के ही अधिक प्रसिद्ध है। इनके द्वारा शासित प्रदेश गगवाही' उत्तराधिकारी मुकार के समय में "जैनधर्म गंगवारी का कहलाता था और उसमें मैसूर क आसपास का बहु। बडा गष्ट्रयम था।" उसने वल्लारी के समीप एक जिनालय भाम शामिल था। कर्नाटक का यही राजनश ऐसा है का भी निर्मागा कराया था। इस वश को अमली कड़ी जिसने कर्नाटक के सबसे लम्बी अवधि -ईसा को चौथो मे शिवमार पयम नामक राजा (५५० ई० में) हया है सदी से ग्यारहवी सदी तक- राज्य किया है।
जो जिनेन्द्र भगवान का परम भक्त था। उसके गुरु चन्द्रगंगवश के समय में जैन धर्म की स्थिति का आकलन सेनाचार्य थे और उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण करते हुए श्री टी. एन. रामचन्द्रन ने लिखा है, जैन धर्म कराया था तथा दान दिया था। का स्वर्णयुग साधारणतया "दक्षिण भारत में और विशेष- श्रीपुरुष मृत्तरग (७२६-७७६ ई०) नामक गंगनरेश कर कर्नाटक मे गगवश के शासका के समय में था, ने अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। उसने जिन्होंने जैनधर्म की राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार या ताल्ल विप (जिन्ना) जिनालय, श्रीपुर के पावं जिनाथा। उनके इस कथन मे अतिशयाक नही जान पड़ता। और उसके पास के लोकतिलक जिनमन्दिरको दान किन्तु यह उचित इस वश के जनधर्म क प्रकार सम्बन्धी दिया था। आचार्य विद्यानन्द ने 'श्रीपुर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' प्रयत्नों का साराश ही है। कुछ प्रमुख गंगवश) राजाओ की रचना की रचना भी श्रीपुर मे इसी नरेश के सामने का सक्षिप्त परिचय यहाँ जैनधर्म के प्रसग मे दिया जा की थी एसो अनुश्रुति है।
(क्रमशः)