Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 101
________________ गतांश से आगे अपरिग्रही हो आत्मदर्शन का अधिकारी 0 पद्मचन्द्र शास्त्री संपादक बनेकान्त' जैन का मूल अपरिग्रह है और अहिंसा आदि सभी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सभ्यचारित्र तोनों की इसी की सन्तान हैं । इसी हेतु हमारे पूर्व महापुरुषों व एकरूपताहोना मोक्ष का मार्ग है। निर्मोही-मूर्छा रहित आचार्यों ने अपना लक्ष्य अपरिग्रह को बनाया। और वे अपरिग्रही गृहस्थ मोक्षमार्ग-स्थित है और मोही ग्रहत्यागी. पूर्ण अपरिग्रही होने से पूर्व मोक्ष न पा सके । गत अंकों में मुनि नाम धारक व्यक्ति से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । 'जीव हम इसी विषय को प्राधार बनाकर जन के महत्व को वस्तु चेतना लक्षण तो सहज ही है परन्तु मिथ्यात्व परि. दर्शाते रहे हैं। हमारा उद्देश्य है कि आज का जैन, जो णाम के कारण भ्रमित हुआ अपने स्वरूप को नहीं जानता इस मूलमार्ग से भटक गया है और कही-कहीं परिग्रह इसे अज्ञानी ही कहना । अतएव ऐसा कहा कि मिथ्या समेटे ही आत्मा को देखने-दिखाने की बातें करने लगा है परिणाम के जाने से यही जीव अपने स्वरूप का अनुभव. प्रकारान्तर से तीर्थंकरों के प्राचारयुक्त व वैराग्यभाव के शीलो होतो। क्या करके ? 'इमां नवतत्व सन्तति मुक्त्वा' मार्ग से मुंह मोड़ने लगा है, वह सु-मार्ग पर आए। नव तत्त्वों की अनादि सन्तति को छोड़कर । भावार्थ इस आश्चर्य नही कि कुछ परिग्रह-प्रेमी लोग अपरिग्रह जैसे प्रकार है- संसार अवस्था मे जीवद्रव्य नी तस्वरूप परिमल जैन सिद्धान्त से मुकर रहे हों। अभी हमने लिखा णमा है, वह तो विभाव परिणति है, इसलिए नौ तस्वरूप था-'अपरिग्रही ही आत्म-दर्शन का अधिकारी।' इस पर वस्तु का अनुभव मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्वरूपी परिग्रह हमे एक विचार मिला कि को छोड़कर शुद्धनय से अपने एकत्व में आना सम्यक्त्व है।' चौथे गुण स्थान में नाम मात्र को चारित्र-परिग्रह- इसी प्रकार आत्मदर्शन के लिए भी सर्व प्रकारके उस परिग्रह त्याग व संयम नहीं होता, पर वहां पर सम्यग्दर्शन के (जो विभाव रूप है) को छोड़ना जरूरी है और इसी परिग्रह कारण आत्मानुभव हो जाता है। सो क्या यह परिग्रह के छोड़ने पर हम जोर दे रहे है और यही परिग्रह-त्याग अवस्था में आस्मानुभव की बात ठीक नही? इस गुण- जैन का मूल है। स्थान में तो जीव परिग्रही ही होता है-आदि। इसमे मतभेद नही कि सम्यग्दर्शन की अपूर्व महिमा हमारी समझ से प्रागम के विभिन्न उद्धरणो से तो है और गुणस्थानो की चर्चा भी उपयोगी है। पर हमारे अपरिग्रह में ही आत्मानुभव की पुष्टि होती है। अधिक अनुभव में ऐसा आने लगा है कि आज कुछ लोगों को क्या, सम्यग्दर्शन भी अपरिग्रही भाव में उत्पन्न होता है। पहिचान से बाह्य होने जैसे सम्यग्दर्शन और गुणस्थानों की यही सिद्ध होता है। यथा चर्चा परिग्रह-सचय का बहाना जैसी बन बैठी है और ऐसे १. सम्यग्दर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्गः। लोग चतुर्थ गुणस्थान से आगे-पीछे नहीं हटना चाहते२. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निमोंहो नैव मोहवान । आगे बढ़े तो त्याग, व्रतादि में प्रवेश का सकट और पीछे अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिने मुनेः ॥ चले तो मम्यग्दर्शन मे मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीरूप ३. एकान्ते नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः। भूत की बाधा । ऐसे जिस व्यक्ति से बात करो वह आत्म पूर्णशानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् । दर्शन को सम्यग्दर्शन से जोड़ने लगता है। कहता हैसम्यग्दर्शनमेतदेवनियमादात्मा च तावानयम्,। जिसको सम्यग्दर्णन होगा उसे ही आत्मदर्शन होगा या सम्मुक्त्वा नवतत्वसंततिमिमा आत्मायमेकोऽस्तुनः । आत्मदर्शन वाले को नियम से सम्यग्दर्शन होगा, मादि ।

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