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पावतीपूजन, समाधान का प्रयास
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दो-दो टुकड़े हो गए। वही नागयुगल धरणेन्द्र पावती स्त्री-स्पर्श से व्यतीचार हो सकता है तो उसके थोड़ी दूर हुए। इसमें पार्श्वनाथ का सर्पदंपति पर क्या अनुग्रह हुआ पाम मे खड़े रहने से, देखने से, गाय से, भजन गान ही जिससे वे पाताल लोक से चलकर प्रभु सेवा में उपस्थित सही, विकार उत्पन्न होना मानना पड़ जाएगा। ध्यानस्थ हए। मरणासन्न नागदपति को णमोकार सुनाने की बात प्रभु को तो स्त्री-स्पर्श के उपसर्ग परीषह का पता भी न गुणभद्र नही लिखी है।
चला होगा।
दर असल जैन धर्मावलंबियो ने प्रचलित नागपूजन । खैर, जिस समय की यह पौराणिक घटना है वह
को भी जिन पूजा का साधन बनाया है क्योकिनागपूजा का युग था। इस कारण महेन्द्र दम्पति बुद्ध को
चारित्रं यदभागि केवलदृशादेव त्वया मुक्तये रक्षा करते है, विष्णु शेषनाग पर सोए हैं, शिव का शरीर
पुंसां तत्खलु मादृशेन बिषये काले कलो दुर्धरम् तो सपों से घिरा हुप्रा है ही, कृष्ण काले नाग के फण पर
भक्तिर्या समभूदिहं त्वये दृढा पुण्यः पुरोपाजितः त्रिभगी मुद्रा में खड़े बंशी बजा रहे हैं। इन सब स्पो को पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यत्र तत्र सम्मिलित कर लिया
संसारार्णव तारणे जिन तत. सेवास्तु पोतो मम !
जिनेन्द्र भक्ति संसार सागर से पार उतारने वाली है। गया है। धरणेन्द्र शेषनाग का ही दूसरा नाम है क्योंकि
जिन विब किसी आसन पर हो सिंहासन हो चाहे सासन शेषनाग के सर पर धरणि स्थित है ऐसी हिन्दू मान्यता है
या पद्मासन, पूज्य है । पद्मावती के शीर्ष पर जिनविब की और पद्मावती विष्णु की सहशायिनी लक्ष्मी का अपर नाम
ही पूजा होती है। स्वयं पद्मावती भी भक्त साधर्मी होने है। स शिव की भाति पार्श्वनाथ के शरीर को वेष्टित
के कारण आदरणीय है प्रतिष्ठा पाठ व मंत्र-तत्र की साधना करता है और मर पर फरण ताने हुए है। कृष्ण की भाति
भात में भी उसके आह्वान और प्राराधन किए जाते हैं क्योंकि सपिणी के सर पर प्रभु विराजमान किए गए हैं। मूर्ति
यह सब विधान जिनवाणी के दृष्टिवाद अग के विद्यानुकार की कल्पना व जैनेतर अन्य मूर्तियो की तरह सर्प के ।
वाद पूर्व में सम्मिलित हैं। एक से लेकर १४ फण तक उनकी मूर्तियों में पाए जाते हैं।
पद्मावती के सर पर विराजमान पार्श्वनाथ की मूर्ति इस प्रकार नागपूजा के आधार पर पाश्र्वनाथ की मूर्तियों
यही घोषित करती है कि वह देवाधिदेव जिनेश्वर की मे विष्णु, शिव, कृष्ण व बुद्ध चारों को नागसंबंधी पूजा ।
भक्तिमयी सेविका है। बुद्ध महायान पंथ मे तारादेवी के का कालनिक योग से ही पद्मावती की मूर्ति कला का
केशमुकुट मे बुद्ध की मूर्ति रखी हुई दिखाई जाने वाली रूप बना है ऐसा जान पड़ता है। जैनेतर विद्वान तो यहां
प्रतिमायें आठवीं शताब्दी की श्री लंका मे अनेकों पाई तक कहते है कि नागपूजा ईरान (पारस) की सपंपूजा के
जाती हैं। यदि यह जैनाचरण विधान के विपरीत है तो आधार पर खड़ी को गई है। संस्कृतियों का परस्पर
पदमावती को इसी प्रकार की मूर्तियों की कल्पना ताराविनिमय कोई नई बात नही है।
देवी की उक्त मूर्तियो के प्रवनन के पश्चात ही की गई क्षुल्लक महाराज को सकलकीर्ति की इस कल्पना पर होगी, किन्तु इप में न कोई भद्दापन है, न विचित्रता न कि नाग ने पार्श्वनाथ को फणों पर उठा लिया एतराज फरेब । सर पर प्रभु की मूति रखना भक्ति रूप का उच्चनहीं है। स्त्री पर्यायी पद्मावती पूजन में भी उन्हें एतराज तम सकेत है। अपने चितन-ध्यान में सिर में निहित प्रभु नहीं है उन्हें एतराज है स्त्रो पर्यायो पद्मावती के सर पर की मूर्ति का ही यह बाह्य कलात्मक रूप है। प्रभु के रखे जाने से, किन्तु जब पार्श्वनाथ के शरीर का धरणेन्द्र का लोप हो जाना यह ही दर्शाता है कि स्पर्श करती हुई सपिणी उन पर फणाछत्र तान रही है तो तंत्र मंत्र के प्रभाव के कारण पद्मावती पति से आगे बढ़ इससे यही सिद्ध होता है कि महाव्रती पर स्त्री-स्पर्श का गई किन्तु इस कारण से पौराणिक नागदम्पति पोर जैन कोई प्रभाव नही पड़ता चाहे वह एक या अनेक फणों श्रावकों की जिनेन्द्र भक्ति में कोई कमी नहीं आती। वाली विषधरा नाग महिला पद्मावती कितनी ही सुन्दर
२१५, मंदाकिनी एन्क्लेव, रही हो। यदि महाव्रती परम तपस्वी तीपंकर को भी
नई दिल्ली-१९००१६