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वर्तमान के संदर्भ में विचारणीय
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फिर भी गिरता गया और आज स्थिति यह है कि ऊंची. अधुरा नहीं होता और संसार में ही पूरा आत्मदर्शन होने ऊँची तस्वचर्चा, खोज और प्रचार की बातें करने वाले पर मुक्ति की आवश्यकता ही न होती। इस तरह सात कई व्यक्तियों को रात्रिभोजन और अपवित्र होटलों तक तत्त्वों में से मोक्ष तत्त्व ही न मानना पड़ेगा और परिवही से परहेज नही रह गया है। यहां तक कि प्रथम तीर्थ र संसार मे ही मुक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी-जैन का के नाम से स्थापित एक प्रतिष्ठान ने तो निर्वाण उत्सव घात ही होगा। की रूपरेखा बनाने के लिए बुलाई मीटिंग हेतु छपाए कुछ लोग अपनी सयम सम्बन्धी कमजोरी को दूर निमन्त्रण पत्र में साफ शब्दो में यह तक छपाने में गौरव करने के मार्ग की शोध को छोड़ जड़-मात्र की खोज मे सममा कि-बैठक के पश्चात आप सभी रात्री मोजम लग बैठे। कहने को आज जैनियो में सैकड़ों पी-एचडी. करने को कृपा करें।-खेद !
डिग्रीधारी होंगे। खोजना पड़ेगा कि कितनो की थीसिसे आज हर व्यक्ति की दृष्टि आचार र उतनी केन्द्रित
मात्र सयम-चारित्र की शोध मे हैं ? कितनो ने श्रावकानहीं है जितनी प्रचार पर। वह स्वयं प्राचारादर्शन चार और श्रमणाचार पर स्वतत्र शोध-ग्रन्थ लिखे हैं ? होकर दूसरो के संस्कार और आचार सुधार की बातें
आचार मार को बने और कितनों ने अपने चारित्र को शोषों के अनुसार ढाला करने लगा है। यहां तक कि अपने को देखो, अपना है ? केवल लिखने से इतिश्री मानने से कुछ होना-जाना लोटा छानो, कोई किसी दूसरे का कर्ता नहीं है" आदि, जैसे नहीं है-असली प्रचार तो आवार से होता है जैसा कि गीत गाने वाले कई लोग भी दूसरों में प्रचार करके उन्हें तीर्थंकरों और त्यागियों ने आदर्श सामने रख कर कियासुधारने की धुन मे हैं। कई यश-ख्याति या अर्थ-अर्जन 'अवाग्वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम् ।'-ध्यान रहेहेतु अपने तत्प ज्ञान-सबधी बीसियो पुस्तके तक छपवाकर आचार की बढ़वारी ही प्रचार का पैमाना है। यदि बेचने और वितरित कराने की धुन मे है-पैसा समाज आचार गिर रहा है तो प्रचार कैसा ? का हो और नाम उनका । पर सर्वज्ञ ही जाने-उन यदि पुस्तकें बनाने, वितरण कराने से प्रचार माना पुस्तकों में कितनी आगमानुसारी हैं और कितनी लेखकों जाय, तब तो साठ वर्ष पहिले न तो इतनी पुस्तके थो के गहीत स्व-मनोभावों से कल्पित या कितनो कालान्तर और ना ही प्रचार में आयी, जितनी भरमार आज है। में जैन तत्त्व-सिद्धान्तों को विचार-श्रेणी मे ला खड़ा करा इसके अनुसार तो तब से आज आचार की स्थिति सैकड़ों देने वाली?
गुना श्रेष्ठ होनी चाहिए, जब मात्र बालबोध, छहढाला कुछ लोग निश्चय से आत्मा के अदृश्य, अरूपी और आदि जैसी चन्द पुस्तकें ही उपलब्ध थी। फनतः हम तो अकर्ता होने को एकांगी बाते भले ही । रते हों, पर हमने विद्वानों, त्यागियो और आगमों की रक्षा में प्रचार देखते तो ऐसी अनेकों आत्माओं को व्यावहारिक प्रतिष्ठाओं, हैं। क्या, हम ऐसा मान लें कि "तीन रतन जग मांहि" रात्रि के विवाह समारोहों, सगाई आदि मे प्रत्यक्ष रूम में में अब वीतराग देव है नहीं, और सजीव गुरुओ के सुधार देखा है -कईयों को परिग्रह सग्रही और कषायों के पुंज पर हमारा वश नहीं-हम भयभीत या कायर है। तब भी देखा है-भगवान हो जाने ये निमित्त को भी किस अजीव आगमरूपी रत्न को हम मनमर्जी से छिन्न-भिन्न रूप में मानते और क्यों जुटाते हैं ? अब तो कई लोग कर डालें-उनकी मनमानी व्याख्याएँ करें। हमारी दृष्टि परिग्रह समेटे आत्मोपलब्धि-प्रात्मदर्शन की धुन मे हैं। से तो मूल आगम को अक्षुण्ण रख, उनके शब्दार्थ किये ऐसे लोगों को विदित होना चाहिए कि -- परिग्रह मे आत्म- जाएँ और गलत रिकार्ड से बचाव के लिए उनकी मौखिक दर्शन दिगम्बरों का सिद्धान्त नहीं है-इस चर्चा में तो व्याख्याएं ही की जायें। हमारी समझ में व्याख्याओं में सवस्त्र मुक्ति और स्त्री मुक्ति जैसे विष की गन्ध है । यदि भ्रान्ति हो सकती है। ये कोई तुक नहीं कि आगमपरिग्रह में आत्म-दर्शन होता तो दिगम्बर मत ही न भाषा को लोग नहीं समझते। यदि नहीं समझते, तो होता-क्योकि आत्मदर्शन, आत्मा के अखण्ड होने से समाज को उस भाषाके ज्ञाता तैयार करने चाहिए-भला