Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 144
________________ ३२, वर्ष ४,कि. ४ अनेकान्त जो समाज बनावट-दिखावटमें पंसोंको पानीकी तरह बहाता प्रकार परिचित होकर अपनी भूल को सुधार सकें।" हो-क्या वह कुछ आचारवान विद्वानों के तैयार करने पत्रिका-संचालन के समय प्रकाशित हा अनेकान्त में उसे नहीं लगा सकता? क्या वह नई-नई सस्ती किताबों की स्थापना का उद्देश्य :-"जैन समाज में एक अच्छे से, को छपाकर प्रचार करने मे आगम और धर्म की रक्षा साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्र की जरूरत बराबर मानता है ? यदि ऐसा होता रहा तो धर्म प्रभाव का महसूस हो रही है और सिद्धान्त विषयक पत्र की जरूरत सर्वथा लोप ही समझिए। यह धर्म किन्ही इधर-उधर तो उससे भी पहिले से चली आती है। इन दोनों जरूरतों झांकने वालों का नही, यह तो त्यागियो-व्रतियों और ___ को ध्यान में रखते हुए समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) पागम ज्ञाताओ क्रियावानों का धर्म है, जो उन्ही के सहारे ने अपनी उद्देश्य सिद्धि और लोकहित साधना के लिए कायम रहा है और कायम रह सकता है। यह समाज को सबसे पहिले 'अनेकान्त' नामक पत्र को निकालने का समझना है कि इसे कैसे कायम रखा जाय? महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया है।" अपनी बात और क्षमायाचन : चंकि पत्रिका अपने ४४ वर्ष पूर्ण कर रही है और ___'अनेकान्त'की ४४वें वर्ष की अन्तिम किरण पाठको को । संपादक का कर्तव्य है कि वह सम्पादन मे जान-अजान देते हुए हमे सन्तोष हो रहा है कि उनके और लेखको के या अज्ञानतावश हुई भूलो पर पाठको से क्षमा याचना सहयोग से हम 'अनेकान्त' देते रहने में समर्थ रहे । सस्था करे-हालां कि हमारी अल्पबुद्धि से हम उचित ही के अधिकारियों का पूग योग रहा। हम सभी के लिखते रहे हैं और प्रबुद्धजनों ने उसे सराहा भी है। आभारी हैं। वैसे तो हमारे केश, जैन आगम-पठन और समाज मे पाठकों को विदित हो कि हम 'अनेकान्त' पत्रिका में ही श्वेत हुए हैं ऐसे में यदि कोई श्याम केश, चिंतनक्षेत्र मे विभिन्न-शीर्षकों द्वारा जितना हम जानते हैं-संस्था की हमारी अवमानना भी करे तो वह हमें हमारी परमरा रीति-नीति, जन मान्य-आचार-विचार और सिद्धान्त तक पहुंचाने मे हमारा सहकारी ही होगा। क्योंकि अपसंबधी वास्तविक शोधो को देने का भरसक प्रयत्न करते मानित होना तो निरीह विद्वानो की परम्परा रही हैरहे हैं। हमारा लक्ष्य अन्य शोधो के साथ समाज में हम बुरा न मानेंगे। हां, ऐसे मे भी हमें अनुभव मे आई जनाचार-पालन और सिद्धान्त-ज्ञान के प्रति व्याप्त यह बात फिर भी कचोटतो रहेगी कि समाज मे सयम के उपेक्षाभाव का निरसन भी रहा है। हमारा दह निश्चय है शिथिलाचार का मर्ज हद पार कर, बेहद हो चुका है। कि जैनधर्म व्यावहारिक और निश्चय दोनो रूपों में स्व फलतः बिहारी का दोहा चरितार्थ होने जा रहा हैपर शोध का धर्म है और इसमे मुख्यता स्व-शोध की ही है-मात्र जड-शोधो की नही। जब कि आज जैनियों में "रे गन्धी मति अन्ध तू अतर दिखावत काहि ।" भी मात्र जड़-शोधे व्य प्त हो गई हैं और जिसका फल फिर भी दया-पात्रों से भी दया याचना के साथ स्पष्ट समक्ष है-पाचार-विचार और धर्म-ज्ञान में गिरा. हमारी बुढ़ापे की नम-आखे नेताओं, थोथे नारेबाजों वट। हम स्मरण करा दें कि संस्था की स्थापना मे एक ओर धर्म-धुरन्धर बनने वालों की ओर निहार उद्देश्य यह भी रहा है रही हैं कि वे समझें-सही रास्ते में आएं-जैनाचार __ "ऐसी सेवा बजाना जिसमे जैनधर्म का समीचीनरूप, और मूल-आगमों की रक्षा और विद्वानों की बढ़वारी उसके आचार-विचारों की महत्ता, तत्त्वों का रहस्य और करें। वरना, हम तो मिट जाएंगे और धर्महास का सिद्धान्तों की उपयोगिता सर्व साधारण को मालुम पड़े- पाप उनके ही माथों पर होगा। उसके हृदय पर अंकित हो जाय-और वे जैनधर्म की अगर अब भी न संभले तो, मिट जाओगे जमाने से । मूल बातों, उसकी विशेषताओ तथा उदार नीति से भले तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में ।'

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