Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनेकान्त प (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगलकिशोर मुम्पार 'युगवीर') :कि०१ जनवरी-मार्च १९९१ इस अंक में विषय १. अध्यात्म-पद २. बारहवीं शताब्दी में जैन जातियों का भविष्य -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ३. गोल्लाराष्ट्र व गोल्लापुर के श्रावक -श्री यशवंतकुमार मलैया ४. आ. कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण -डा. कमलेशकुमार जैन ५. नियमसार का विशिष्ट संस्करण प्रस्तावित -डा. रिषभचन्द जैन फौजदार ६. जैन संस्कृति और साहित्य के पोषक. -डा. गंगाराम गर्ग ७. धवल पुस्तक ४ का शुद्धि पत्र -पं. जवाहरलाल जैन भिगार ६. जैन धर्म के पोबीसवें तीर्थकर महावीर -डा.हेमन्तकुमार जैन १. निमित्ताधीन दृष्टि -श्री बाबूलाल जैन कलकत्ता वाले १०. परा-सोचिए-संपादक प्रकाशक बोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजधानी में जैन समाज द्वारा : न्याय प्रतिष्ठा समारोह न्यायमूर्ति श्री मिलापचन्व जैन का सम्मान २४ फरवरी । "भारत की न्याय प्रणाली जैनधर्म के सिद्धान्तों पर आधारित है ।" उक्त उद्गार उच्च न्यायालय के पीठासीन मुख्य न्यायाधीश न्यामूर्ति श्री मिलापचन्द जैन ने दिल्ली जैन समाज के तत्त्वावधान में आयोजित अपने स्वागत सम्मान के अवसर पर प्रकट किये। यह आयोजन वीर सेव मन्दिर के सदस्यों की ओर से दरियागंज स्थित जैन सीनियर सैकेण्डरी स्कूल के प्रांगण में हुआ । यह पहला अवसर है जब दिल्ली उच्च न्यायालय में किसी जैन ने मुख्य न्यायाधीश के पद को सुशोभित किया है । इस अवसर पर आचार्य श्री विद्यानन्द जी का आशीर्वाद श्री विमल प्रसाद जैन द्वारा पढ़कर सुनाया गया। समाज के वयोवृद्ध कार्यकर्ता रा. सा. श्री जोती प्रसाद जैन ने माल्यार्पण करके न्यायमूर्ति श्री मिलापचन्द जैन का स्वागत किया । वरिष्ठ पत्रकार एवं समाज के लोकप्रिय नेता श्री अक्षयकुमार जैन ने स्वागत भाषण पढ़ा। समारोह में पूर्व न्यायमूर्ति श्री यू. एन. भछावत, श्री जे. डी. जैन, श्री ज्ञानचन्द जैन व श्री सौभाग्यमल जैन विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। दिल्ली उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री सागरचन्द जैन के साथ-साथ दिल्ली स्थित सभी जैन न्यायाधीशों का इस अवसर पर स्वागत किया गया। समारोह की अध्यक्षता पूर्वं न्यायमूर्ति श्री मांगीलाल जैन ने की। दिल्ली जैन समाज के अध्यक्ष श्री प्रेमचन्द जैन, वीर सेवा मन्दिर के पूर्व अध्यक्ष साहू श्री अशोककुमार जैन, पूर्व निगम पार्षद श्री प्रकाशचन्द जैन, जैन कोआपरेटिव बैंक के चेयरमैन श्री महेन्द्रकुमार जैन व श्री शीलचन्द जौहरी ने न्यायमूर्ति श्री मिलापचन्द जैन का स्वागत पारंपरिक ढंग से किया । श्री 'बाबूलाल जैन ने "अनेकात" के अंक भेंट किये । समारोह का शुभारम्भ पं० जुगलकिशोर मुख्तार (संस्थापक वीर सेवा मन्दिर ) द्वारा रचित मेरी भावना के पाठ से हुआ । इसे जैन सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के बच्चों ने सस्वर गाकर प्रस्तुत किया । मंगलाचरण श्रीमती अनीता जैन ने किया और श्री ताराचन्द प्रेमी ने कविता पाठ किया । वीर सेवा मन्दिर के अध्यक्ष श्री शान्तिलाल जैन ने अतिथियों का आभार प्रकट किया। समारोह का संचालन संस्था के महासचिव श्री सुभाष जैन ( शकुन प्रकाशन) ने किया। समारोह में दिल्ली जैन समाज के कई सौ गणमान्य नेताओं-कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त बाहर के भी बहुत से प्रमुख जैन उपस्थित थे। समारोह के पश्चात् सभी अतिथियों का सामूहिक प्रीतिभोज सम्पन्न हुआ और अतिथियों को वीर सेवा मन्दिर का साहित्य भेंट किया गया । श्री भारतभूषण जैन ऐडवोकेट व श्री नन्हेंमल जैन ने अतिथियों की अगवानी की। आजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.०० ३० वार्षिक मूल्य : ६) प०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४४ किरण १ } प्रोम् ग्रर्हम् टकान परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां बिरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण संवत् २५१६, वि० सं० २०४८ अध्यात्म-पद चित चितके चिदेश कब, अशेष पर बमूं । दुखदा अपार विधि- दुचार - को, चमूं दमूं ॥ चित० ॥ तजि पुण्य-पाप पाप आप, आप में रमूं । { कब राग-आग शर्म - बाग- वाघनी शमूं ॥ चित० ॥ वृग-ज्ञान-पान तें मिथ्या अज्ञानतम दमूं । कब सर्व जीव प्राणिभूत, सत्त्व सौं छमूं ॥ चित० ॥ जल- मल्ल-कल सुकल, सुबल्ल परिनमुं । दलकें विशल्लमल्ल कब, अटल्लपद पमूं ॥ चित० ॥ कब ध्याय अज-अमर को फिर न भव विपिन भमूं । जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु हौं नमूं ॥ चित० ॥ - कविवर दौलतराम कृत जनवरी-मार्च १६६१ भावार्थ - हे जिन वह कौन-सा क्षण होगा जब में संपूर्ण विभावों का वमन करूँगा और दुखदायी अष्टकर्मों की सेना का दमन करूँगा । पुन्य-पाप को छोड़कर आत्म में लीन होऊँगा और कब सुखरूपी बाग को जलाने वाली राग-रूपी अग्नि का शमन करूँगा । सम्यग्दर्शन - ज्ञानरूपी सूर्य से मिथ्यात्व और अज्ञानरूपी अंधेरे का दमन करूँगा और समस्त जीवों से क्षमा-भाव धारण करूँगा । मलीनता से युक्त जड़ शरीर का शुक्ल ध्यान के बल से कब छोडूंगा और कब मिथ्या - माया-निदान शल्यों को छोड़ मोक्ष पद पाऊँगा । मैं मोक्ष को पाकर कब भव-वन में नहीं घूमूंगा ? हे जिन, मेरी यह प्रतिज्ञा पूरी हो इसलिए मैं नमन करता हूँ । OD Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२वीं शताब्दी में जैन जातियों का भविष्य ___D० कस्तूरचन्द कासलीवाल दिगम्बर जैन समाज में ८४ जातियां मानी जाती है। गये। उन्होंने यह भी लिखा है कि ८४ जातियों के नामों प्राचीन जैन कवियों ने जब जातियों की संख्या और नाम को उन्होंने ५-७ पोथियों को देखने के पश्चात् लिखे हैं । गिनाये तो उन्होने भी उसे ८४ नामों तक ही सीमित यदि इसमें कहीं भूल हो तो पाठक गण उसे सुधार सकते रखा । लेकिन जब मैंने खण्डेलवाल जैन समाज का वृहद् हैं :इतिहास लिखने के लिए जैन जातियों के नामों की खोज पोथी पांच सात को देखि, करि विचार यह कीनों लेख । प्रारम्भ की तो पता चला कि प्रत्येक कवि की सूची में या मे भूल्य चुक्यो होत, ताहि सुधारी लेहु भावि जोय ।।६०० कुछ प्रमुख जातियों के नाम तो एक-दूसरे से मिलते हैं इसी तरह सन् १९१४ में एक जैन गइरेक्टरी का लेविन अधिकांश नाम ऐसे हैं जिनको दूसरे विद्वानों ने का दूसर विद्वाना न प्रकाशन हुआ था। उसमे जैन जातियों के ८७ नाम नहीं गिनाये है। इस प्रकार जैन जातियों के नामों की गिनाये है और प्रत्येक जाति की संख्या भी लिखी है सख्या बढ़ते-बढ़ते २३७ तक जा पहुची।' इस सम्बन्ध में जिसके अनमार जिसके अनुसार जैन समाज की पूरी संख्या ४५०५८४ और भी खोज की आवश्यकता है। हो सकता है इस संख्या लिखी है । लेकिन यह सख्या सही प्रतीत नही होती क्योंकि में और भी वृद्धि हो जावे। लेकिन यह भी आश्चर्य है सन् १९०१ की जनगणना में समस्त जैनों की संख्या कि संस्कृत विद्वानो ने जातियों के नामों को गिनाने वाली १३,३४,१८८ आई थी इसलिए इस दृष्टि से भी दिगम्बर किसी कृति की रचना नहीं की। जैन समाज की सख्या ७ लाख से कम नहीं होनी चाहिए। महाकवि ब्रह्म जिनदास प्रथम हिन्दी कवि हैं जिन्होंने जैन डाइरेक्टरी मे गिनाई गई ८७ जातियों मे से नतन १वी शताब्दी मे चौरासी जाति जयमाल लिखी।' इसके जैन. बडे ले. धवल जैन, भवसागर, इन्द्र जैन, पुरोहित, पश्चात कविवर विनोदीलाल एवं पं० बरुतराम शाह का क्षत्रिय, सगर, मिश्र जैन, संकवाल, गांधी जैसे नाम वाली नाम आता है जिन्होंने फूल माल पच्चीसी में इन जातियों जातियों को गिनाया गया है जिनमें प्रत्येक की संख्या ५० के नामो को गिनाया। बखतराम साह ने इन बुद्धि विलास से भी कम है। तगर जाति की संख्या केवल ८ बताई गई मे जातियों के नामों को गिनाकर महत्वपूर्ण कार्य किया।' है इसी तरह दूसरी जातियां भी हैं। ब्र० जिनदास ने जिन ८४ जातियों का नामोल्लेख किया तया का नामोल्लेख किया हम यह कह सकते हैं कि दिगम्बर जैनों में ८४ है उनम बिनोदीलाल के गिनाये हुए नामों में केवल २८ जातियां मानने की परम्परा रही है किन्तु उनके नामों में जातिवो . नाम मिलते हैं। उन जातियो के नाम ऐसे हैं समानता नही रही। क्षेत्र और प्रदेश के अनुसार जातियाँ जिनका उल्लेख वेबल ब्रह्म जिनदास ने ही किया है। वनती बिगडनी रही हैं। इसके अतिरिक्त और भी ऐसी विनोदीलाल ८४ जातियों के नामों के स्थान पर केवल बहुत-सी जैन जातियां थीं जिनके अस्तित्व का आज पता ६७ जातियो के नाम हो गिना सके हैं। इसी तरह बस्त. भी नहीं लगता। मेडतवाल जाति पहिले दिगम्बर जैन राम साह द्वारा ८४ जातियो के पूरे नाम गिनाने पर भी जाति थी। बारा (राजस्थान) में नगर के बाहर जो ४६ जातियो के नाम तो ऐसे है जिनको न तो ब्रह्म जिन. नसियां है उसमें सवत् १२२४ की लेख वाली प्रतिमा को दास गिना सके है और न विनोदीलाल ने गिनाये हैं। किसी मेडनवाल वन्धुओं ने प्रतिष्ठित कराई थी। ब्रह्म वे तो हंबड जाति जैसी प्रसिद्ध जाति का नाम भी भूल जिनदास एवं बस्तराम साह दोनों ने मेड़तवाल जाति का Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२वीं शताब्दी में न जातियों का भविष्य मेडतवाल है तरह और भी गई या अन्य नामोल्लेख किया है लेकिन आज जितने की प्रायः सभी वैष्णव धर्मानुयायी है। इसी बहुत सी जातियाँ हैं जो या तो लुप्त हो धर्मावलम्बी बन गई दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, कासार, बोगार जैसी जातियों का नामोल्लेख तो हुआ है लेकिन वहाँ और भी कितनी ही कट्टर दिगम्बर धर्मानुयायी जातियाँ हैं जिनका डाइरेक्टरी में अथवा अन्य जाति जयमाल में उल्लेख नही हुआ। ऐसी जातियों में उपाध्याय जाति का नाम लिया जा सकता है जिसका किसी भी कवि ने उल्लेख नहीं किया इसी तरह खरोआ, मिठोआ, बरैय्या जैसी वर्तमान में उपलब्ध होने वाली जातियों का भी उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो प्राचीन काल में और न वर्तमान युग मे अर्थात् २०वीं शताब्दी के अन्तिम चरण तक हम यह पता नहीं लगा सके कि दि० जैन समाज में जातियों की संख्या कितनी है और उनको सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति क्या है । हमारी समाज में तीन अखिल भारतीय संस्थायें हैं लेकिन किसी भी सभा के कार्यालय मे दिगम्बर जैन समाज की सम्पूर्ण जातियों के नाम नहीं मिलेंगे। इसलिए हिन्दी कवियों ने भी उनको जितनी जातियों के नाम मिले उनका अपनी कृति मे नामोल्लेख कर दिया। वर्तमान मे उत्तरी भारत में खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार, जैसवाल, गोला पूर्व, गोलालारे, गोलसिंगारे, बघेरवाल, इंबड, नरसिंहपुरा, नागदा, पस्सीवाल, पद्मावती पुरवाल तथा दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंथम एवं खेतवाल जैसी जातियां प्रमुख जातियां हैं। ये सभी जातियां सुरक्षित रहें तथा जाति-बंधन शिथिल नहीं जाने पाये। इसलिए २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सभी जातियों द्वारा अपनी अपनी जातीय महासभायें स्थापित की गई जिससे उनके माध्यम से अपनी जाति पर नियंत्रण रखा जा सके। इसी दृष्टि से खण्डेलवाल जैन महासभा, दिगम्बर जैन अग्रवाल महासभा, परवार महासभा, जैसवाल महासभा, बचेरवाल महासभा, पस्तीवाल महासभा जैसी जाति गत महा सभायें स्थापित की गई। इन जातीय सभाओं का उद्देश्य 1 जातीय सुधारों को लागू कराना, बाल विवाह, वृद्ध विवाह अनमेल विवाह निषेध के प्रस्ताव पास करना, विवाहों मे वेश्या नृत्य बन्द करना, फिजूलखर्ची कम करना शिक्षा के विद्यालय खुलवाना बोडिंग हाउस खुलवाने जैसे प्रस्ताव पास किये जाने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे ये सभाये भी लड़ाई-झगड़े का प्लेट फार्म बन गई जिससे लोगो में जातीय महासभाओं के प्रति उदासीनता छा गई खलवाल जैन महासभा सन् १९१२ मे स्थापित हुई थी और केवल २० वर्ष चलने के पश्चात् बन्द हो गई । यही स्थिति दिगम्बर जैन अग्रवाल महासभा की हुई लेकिन छोटीछोटी जातियो की सभायें आज भी चल रही है । बघेरवात महासभा, पल्लीवाल महासभा, जैसवाल महासभा जैसे नाम आज भी सुने जाते है । मनुष्य सामाजिक प्राणी होने से वह अपनी समाज में घूमना अधिक पसन्द करता है । अपनी-अपनी जातियो मे उसको मान-सम्मान अधिक मिलता है। विवाह शादी के लिए उसे अधिक नहीं घूमना पड़ता। छोटी अर्थात् कम सख्या वाली भातियों की सभाओ का जीवित रहने का भी एक प्रमुख कारण है। जातीय सभाओं की स्थापना दि० जैन महासभा के सन् १९३० में स्वीकृति प्रस्ताव के आधार पर की गई । उस समय महासभा ही एक मात्र अखिल भारतीय स्तर की संस्था थी। लेकिन वर्तमान में अखिल भारतीय स्तर की तीन सामाजिक संस्थायें हैं जातियों की सुरक्षा एवं संवर्धन के सम्बन्ध में जिनके विचारों में साम्यता अथवा समानता नहीं है। महासभा जातियों का वही प्राचीन स्वरूप रखने के पक्ष में है वह अन्तर्जातीय विवाहो का कट्टर विरोध करती है। हमारे अधिकांश आचार्य एवं मुनिगण भी इसी विचार का समर्थन करते हैं दूसरी ओर परिषद् एव महासमिति अन्तर्जातीय विवाहो को प्रोत्साहन देती है। विचारों की इस टकराहट का जातियों की सुरक्षा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जिसको स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । अब प्रश्न यह है कि २१वी शताब्दी में इन जातियों का क्या भविष्य होगा ? क्या उनका स्वरूप ऐसा ही बना रहेगा या फिर उसमें परिवर्तन आवेगा। यदि परिवर्तन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४४,कि.. आवेगा तो फिर उसका रूप क्या होगा। हमारा सामा- पर बुरा प्रभाव पड़ने लगता है। छोटे-छोटे गांवों में एक जिक स्वरूप कैसा होगा। यह म्ब गहन चिन्तन का विषय दूसरे को देखकर असामाजिक कार्य करने में डर लगने है जिस पर प्रस्तुत निबध मे विचार किया जावेगा। वैसे लगता है जबकि शहरों में वह डर निकल जाता है । और २:वी शताब्दी लगने मे अभी १० वर्ष शेष हैं तथा २१वीं ये सब कारण भी हमारे जातीय बंधन पर बुरा प्रभाव शताब्दी पूरे होने में १०० वर्ष लगेंगे इसलिए ११० वर्षों डाल सकते है। मे हमारी ५ पीढियां निकल जावेगी और जैसी इन पीढ़ियो ४. जातीय वंधन का मुख्ल लाभ विवाह शादी के की शोध होगी जातियों के अस्तित्व पर भी वैसा ही प्रभाव नियमों का पालन करना है। गरीब अमीर सभी एक पड़ेगा। दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं। गरीब की लड़की स्वजातीय १. समाज मे उच्च शिक्षा का और अधिक प्रचार । मीर के घर चली जाती है और अमीर की लड़की का होगा । प्रजातत्र होने के कारण सबको उच्च शिक्षा प्राप्त सबंध गरीब युवक के साथ हो जाता है लेकिन अब करने का समान अवसर मिलेगा। मेडिकल, इंजीनियरिंग, हमारे युवको मे पैसे के प्रति आकर्षण है। ऊचा से ऊंचा छोटे-बड़े उद्योगों मे, व्यापारिक संगठन, राज्य एव केन्द्र दहेज लेना चाहते है इसके अतिरिक्त सुन्दर से सुन्दर सरकार की नौकरियों मे उच्च अधिकारी, विदेशो मे लडकी की तलाश की जाती है। इसलिए उसे जहां भी परिभ्रमण, भोग-विलास ऐश आराम की सामग्री में सीमा- अधिक पैसा मिले अथवा सुन्दतम लड़की मिले वहीं वह तीत वृद्धि, खान-पान में बदलाव, जैसे साधन हमें प्राप्त अपनी जातीय सीमाओं को तोड़कर भी वियाह करना होगे। ये सब चिन्ह अथवा कारण भविष्य में जातियो के चाहने लगा है। हमारी इस मनोवृत्ति मे भी दिन-प्रतिस्वरूप में बदलाव की अपेक्षा रखते है । दिन वृद्धि हो रही है और इस मनोवृत्ति के कारण भी जातीय स्वरूप कितना सुरक्षित रह सकेगा यह चिन्तनीय २. दूसरा कारण युवकों मे जैनत्व के प्रति आस्था विषय है। होने के उपरान्त भी जाति बंधन को वे अभी दबी जबान ५. धनाढ्य, उच्चाधिकारी, विदेशो में भ्रमण करने में स्वीकार करते हैं । सम्पूर्ण जैन एक हैं। एक ही उनकी वाले अथवा विदेशों में रहने वाले जैन बंधु जाति बंधन मति है इसलिए उनकी कौन-सी जाति है उनका क्या को अच्छा नही मानते । वर्तमान में जितने भी जातीय गोत्र है । मा कौन से गोत्र की है इन सब बातो की ओर सीमाओ को तोड़ने के उदाहरण ऐसे घरों में अधिक व जाने में हिचकिचाहट करने लगे है। युवको के ये विचार मिलेंगे। हमारी इस मनोवृत्ति मे धीरे-धीरे वृद्धि हो रही भी जाति बधन पर बुरा असर डालने वाले है। और है। २. वी शताब्दी में यह हमारी जाति प्रथा पर कितना २१वी शताब्दी में जातियो के स्वरूप पर प्रश्न चिन्ह । ह प्रभाव जमा सकेगी यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। लगाते है। ६. लेकिन इतना होने पर भी समाज की छोटी ३. जैन समाज पहिले गांवो में अधिक संख्या में था जातियो पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि वहाँ तथा नगरो मे बम रहना पसन्द किया जाता था लेकिन जातीय सभाओ का समाज पर कन्ट्रोल बना रहेगा और वर्तमान मे छोटे-छोटे गांव उजड़ने लगे है। व्हां के जैन उस जाति के व्यक्ति अपनी जातीय सीमाओं को तोड़ने में वन्धु रोजगार की तलाश के लिए शहरो की ओर दौड आगे आना नही चाहेगे । रहे है इमलिए आज कलकत्ता, बम्बई, देहली, जयपुर, ७. यह भी सही है कि जातियां कभी समाप्त नहीं इन्दौर, जबलपुर, सागर, कानपुर जैसे बड़े न रों में जैन होंगी। जब समस्त हिन्दू समाज में जातियां हैं और वहाँ जनसख्या बहुत बढ़ गई है। नगरों एवं महानगरों में रहने भी जातीय सीमाओ मे रहना अच्छा समझा जाता है तो के कारण हम स्वच्छन्द मनोवृत्ति के हो गये है। खानपान, फिर जैन मनाज म भी जातिया पूर्ववत च ती रहेगी। हन-सहन, धामिक वट्टरता, एक दूसरे की लाज-शर्म सब (शेष पृ० (प.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्लाराष्ट्र व गोल्लापुर के श्रावक 0 यशवंत कुमार मलया विद्वानों का यह अनुमान रहा है कि तीन जैन आदि का ही रूपांतर है। दक्षिण भारत की कई ग्वाल जातियां गोलापूर्व (गोल्लापूर्व), गोलालारे, गोलोराडे व जातियां आज भी गोल्ला कहलाती है। महाभारत मे गोलसिंघारे (गोलथगार) किसी एक ही स्थान से उत्पन्न गोपराष्ट्र नाम के एक जनपद का उल्लेख है । गोपराष्ट्र मे हुई हैं। इनके अलावा गोलापूर्व नाम की एक बड़ी बसने से ही गोलाराडे जाति का नाम हुआ होगा। गोपब्राह्मण जाति भी है। गोल देश का कुछ जैन ग्रन्थों में व राष्ट्र में राष्ट्र शब्द होने से किसी किसी ने अनुमान किया शिलालेखों मे भी उल्लेख है। इस स्थान के बारे मे विद्वानो है कि यह महाराष्ट्र के आसपास होना चाहिए, पर इसका के अलग-अलग मत रहे है । ___ कोई अन्य आधार नही है"। १. खटोरा (बुदेलखड) के निवासी नवलसाह चदेरिया गोल्ला देश की स्थिति के निर्धारण के लिए ये तथ्य ने १७६८ ई० मे वर्धमान पुराण की रचना की थी। विचारणीय हैंइसमे गोलापूर्व जाति की उत्पत्ति गोयलगढ से बनाई गई १. गोलालारे जाति का "पाट" भिड कहा गया है। है, जिसे विद्वानो ने ग्वालियर माना है। वर्धमानपुराण में गोलालारे भिंड जिले के पावई नाम के स्थान के प्राचीन दी गई अन्य बातें ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पाई निवासी माने गये है। सन् १९१४ में गोलालारा की सबसे गई हैं। अधिक जनसंख्या ललितपुर के बाद भिंड मे ही थी। २. नाथूराम जी प्रेमी ने इस विषय में लिखा था कि गोलालारे जाति की वृद्धश्रेणी खरीमा कहलाई। १८वीं सूरत के पास गोलाराडे नाम की एक जाति रहती है। सदी तक यह स्वतत्र जाति बन गई। खरीआ व गोलउनके अनुमान से यही जाति बुंदेलखंड मे आकर गोलालारे सिंघारे जातियो का अधिकतर निवास भदावर क्षेत्र में कहलाई। अ.. गोल्ला स्थान सूरत के पास कही होना (भिंड इटावा के आसपास) रहा है। मिठौआ गोलालारे चाहिए । यहाँ से ही आकर बुदेलखड मे बसे हैं। ३. स्व० परमानन्दजी शास्त्री का मत था कि गुना २. गोलापूर्व ब्राह्मण आगर इटावा आदि जिलों में जिले मे गोलाकोट नाम के स्थान से गोलापूर्व जाति की बसते है। इनकी जनसंख्या छ लाख बताई गई है। उत्पत्ति हुई। इन्हे सनाढ्य ब्राह्मणों की शाखा माना गया है" । सनाढ्य ४. सन् १९४० में प्रकाशित गोलापूर्व डाइरेक्टरी के ब्राह्मणों का निवास भी इसी क्षेत्र के आसपास है"। लेखक न्यायतीर्थ मोहनलालजी का अनुमान था कि गोला- ३. श्रवणबेल्गोला के ३ लेखो मे व कर्णाटक मे ही पूर्व जाति तत्कालीन ओरछा स्टेट से निकली है। पाये एक अन्य लेख मे किन्ही गोल्लाचार्य की शिष्य परपरा ५. रामजीतजी जैन ने इन जातियों की उत्पत्ति की में हुए कुछ जैन मुनियों का उल्लेख है। यह कहा गया है सम्भावना श्रवणबेलगोला से बताई है। कि ये दीक्षा के पूर्व गोल्लादेश के राजा थे। इन्हे 'मूल _ जिस प्रकार गुर्जर जाति के कारण गुजरात, मालव. वंदिल्ल" (अर्थात् चन्देल) वश का कहा गया है"। गण के कारण मालवा आदि नाम हुए, उसी प्रकार गोल्ला चन्देलों की राजधानी महोबा खजुराहो मे थी व उनके जाति का राज्य होने से गोल्ला देश हुआ होगा। गोल्ला राज्य का विस्तार ग्वालियर और विदिशा तक रहा था। संस्कृत के गोप या गोपाल एवं हिन्दी के ग्वाल, गावला ४. सातवी शताब्दी मे उद्योतनसूर द्वारा लिखे कुव. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ बर्ष ४४,कि.१ बनेकान्त लयमालाकहा मे कई देशभाषाओं के नाम दिये हैं। इनमें वर्मन का पौत्र था। कीर्तिगिरि (देवगढ़) का किला कीतिगोल्ला के अलावा ये देश गिनाये गये हैं ताजिक, टक्क, वर्मन आमात्य वत्सराज ने १०८९ ई० में बनवाया। कीर, सिंधु, मरु, मध्यदेश, अन्तर्वेद, कोशल, मगध, गुर्जर, मथुरा से विदिशा तक का प्रदेश जैनो के लिए अत्यंत मालव, महाराष्ट्र, आंध्र व कर्णाटक | गोल्ला देश को महत्वपूर्ण रहा है। ईस्वी पूर्व पहली-दूसरी शदी से चौथी छोड़कर अन्य सभी देशों की पहिचान आसानी से की जा सदी ई. तक यह क्षेत्र दिगम्बरो व श्वेताम्बरो दोनों का सकती है। यदि इन देशो को व प्रादिवासी क्षेत्रों को ही केन्द्र था"। इस काल की कई मूर्तियाँ मथुरा और निकाल दिया जाये, तो भारत के बीचों-बीच एक बड़ा विदिशा के आसपास पाई गयी हैं। कई जैन जातियाँ भूखण्ड बचता है । मथुरा से विदिशा तक इस भूखण्ड में इसी क्षेत्र से अलग-अलग समय पर निकली हैं या यहां बोले जाने वाली भाषा ब्रज या बुंदेली कहलाती है। विकसित हुई हैं। इनमे लमेंच, बुढ़ेले", गोलालारे, भाषाशास्त्रीय दृष्टि से ब्रज व बुंदेली बोलियाँ एक ही हैं। खरोमा, माथुर, गोलापूर्व, गोलासिंघारे, जैसवाल", अतः गोल्ला देश-भाषा ब्रज-बुदेली का ही पुरोना रूप धाकड़, पद्मावतीपुरवाल", वरैया३२, गृहपति, परवार एवं होना चाहिए। भोजक ब्राह्मण शामिल हैं। सम्भवता इसी कारण से जैन ५. वर्तमान गुजरात प्राचीन गुजरात के दक्षिण मे ग्रन्थों व लेखों मे इस क्षेत्र के लिए एक विशेष नाम गोल्लाहै। प्राचीन गुजरात के धीमाल आदि स्थान अब राजस्थान देश का प्रयोग किया गया था। मे हैं। प्राचीन मालव जनपद भी वर्तमान मालवा के हमारी गणना से चन्देल राजा देववर्मन ही गोल्लाउत्तर में था। प्राचीन चेदि यमुना के निकट था। चार्य हए । यह अलग विस्तार से विवेचन की बात है"। कलचुगियों के राज्यकाल तक यह दक्षिण की ओर खिसक देववर्मन को सिंहासन पर बैठे कुछ ही वर्ष हुए थे जब फर वर्तमान रीवां, जबलपुर आदि स्थानों तक आ गया। कलचुरि राजा लक्ष्मीकर्ण ने आक्रमण करके चन्देल राज्य कोशल के निवासियों के दक्षिण में आकर वसने से दक्षिण के प्रमख भाग पर अधिकार कर लिया। सम्भवतः देवकोसल वना। इससे पता चलता है कि उत्तर भारत वर्मन के पुत्र की युद्ध में मृत्यु हुई। देववर्मन ने उद्विग्न मे दक्षिण की ओर आकर बसने की प्रक्रिया चलती होकर राज्य त्याग कर दिया व उसके छोटे भाई कीर्ति वर्मन को राज्य मिला । गोपाल नाम के सामंत की मदद ६. वर्तमान ब्रज-बुंदेली भाषी क्षेत्र में अनेक स्थानों से कीर्तिवर्मन ने चन्देल राज्य पुनः स्थापित किया। चंदेल पररवाल जाति अब भी बड़ी संख्या में बसती है"। राज्य की वंशावलियों मे दही भी देववर्मन का नाम नहीं उपरोक्त बातों से पता चलता है कि प्राचीन गोल्ला है, उसका नाम केवल उसके ही दो लेखों में प्राप्त हुआ राष्ट्र या गोल्लादेश मथुरा, ग्वालियर के आसपास कही था। कालांतर में यह दक्षिण की ओर विदिशा के आस गोलापूर्व नाम में "पूर्व" शब्द का क्या अर्थ है ? इसे पास तक फैल गया। नवमीं शती के मध्य मे चंदेलों का किसी-किसी ने पूर्व दिशा सम्बन्धी व किसी-किसी ने पूर्व सीना उदय इमा। चदेल जयशक्ति या जेजा के नाम पर उनका काल सम्बन्धी माना जाता है। यहाँ पर ये बात विचार राज्यक्षेत्र जेजाभुक्ति या जैजाकभुक्ति कहलाया। काला- योग्य हैं। न्तर मे जहाँ-जहाँ बुदेलो का राज्य हआ, वह क्षेत्र बुंदेल- १. मध्यमिका नगरी (राजस्थान) एक के सं० ४८१ खड कहलाया। चन्देलो की राजधानी पूर्वी कोने में होने के लेख में "मालवपूर्वायां" शब्द हैं, परन्तु यहां पर से पश्चिमी भाग अधीनस्थ सामंतों के शासन में रहा। मंतव्य मालवों के सवत के अनुसार है"। ग्वालियर के कच्छपघात काफी समय तक चन्देलों के २. नवलसाह चन्दरिया ने ८४ जातियों की सूची अधीनस्थ थे। दुधई विषय में ग्यारहवी शती के आरम्भ लिखी है जिस मे अजुध्यापूर्व जाति का उल्लेख है"। संभमे सामत देवलब्धि पा शासन था जो चन्देल राजा यशो- वतः यही अब अयोध्यावासी कहलाते हैं। वर्तमान शताब्दी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्लाराष्ट्र व पोलापुर के भावक के आरम्भ तक इनमें कुछ जैन थे"। ये बुन्देलखंड के गोलापूर्वो में बहुत से गोत्र जिन ग्रामों के नाम पर बने हैं वासी हैं। आहार के कुछ चन्देलकालीन लेखों में अवध- वे सब धसान नदी के पास ही हैं । वर्तमान रूप में गोलापुरान्वय या अवध्यापुगन्वय का उल्लेख है। अवध्यापुर पूर्व जाति का विकाम यही से हुआ है। कुछ लेखकों के या अयोध्यापूर्व एक ही होना चाहिए। मत से प्राचीन दशाणं जनपद यही है। ३. डोभकुंड के १०८८ ई. के लेख में जैसवाल जाति बुन्देलखंड (जेजाभुक्ति) में रहने वाली जैन जातियों के प्रतिष्ठापक को "जायसव्यिनिर्गत" वश का कहा में गहपति व गोलापूर्व प्राचीनतम हैं। इनके पूर्व इस क्षेत्र गया है। जैसवाल जायस नगर से निकले माने गये है"। में जैन विरल ही रहे होंगे। अतः गोलापूर्व यहां आने के अतः गोल्लापूर्व का अर्थ गोल्लापुर या बालपुर नगर पहले ही जैन धर्म के पालक रहे होना चाहिए । ग्वालियर के निवासी होना चाहिए। यह नगर कहाँ है ? के आसपास कही भी जैन लेखों में गोलापूर्व जाति का "ग्वालियर" शब्द में "ग्वाल" गोप या गोल्ला का उल्लेख नहीं है। सम्भवतः मूर्ति लेखों में जाति नाम के ही रूपांतर है। परन्तु इस शब्द के उत्तरार्ध की उत्पत्ति उल्लेख की परम्परा प्रचलित होने से पहले ही ये ग्वालियर स्पष्ट नहीं है। पुस्तकों व शिलालेखों में इसे गोपाद्रि, क्षेत्र छोड चुके थे। गोपाचल आदि कहा गया है। सन् १४९५ में कवि मानिक लगभग सभी जैन जातियों की उत्पत्ति खास-खास ने इसे ग्वालियर ही लिखा था। कश्मीर में जैनुलब्दीन के नगरों व उनके आसपास के क्षेत्र से हुई है"। एक ही दरबार में जीवाज (१५वी सदी) ने इसे गोपालपर लिखा स्थान में रहने वाले सभी जैन प्राने समुदाय को एक ही पा" । प्राकृत में अक्सर 'प' का 'व' होता है, अपभ्रंश में जाति मानें, इसमें कम से कम ३-४ सौ वर्ष अवश्य लगे 'व' का भी रूपांतर हो जाता है। मुसलमान लेखकों ने होगे। रामजीत जैन एडवोकेट की पुस्तक "गोपाचलइसे गालेयूर लिखा है। यह ग्वालपुर का रूपांतर लगता सिद्धक्षेत्र" के अनुसार ग्वालियर में पायी गई जैन मूर्तियों है। ग्वालियर शब्द ग्वालखेट का भी रूपांतर हो सकता म स कइ सातवा, आठवा व नावा सदा का भा ह । अतः है जो ग्वालपुर का समानार्थी है। यदि ग्वालियर से किसी जैन जाति का उद्भव हुआ हो तो एक-दो अपवादो को छोड़कर उत्तर भारत की जैन इसमें आश्चर्य नहीं है। जातियो के लेख ग्यारहवी सदी के उत्तराधं या बारहवी वर्तमान मे ग्वालियर में जैन जातियो में से सर्वाधिक सदी के पूर्वार्ध से ही मिलना शुरू होते हैं । दक्षिण जैसवाल व उनके बाद वरहिया जाति के हैं" । डोमकुंड भारत मे भी जैन श्रेष्ठियो के लेख ग्यारहवीं सदी से ही के सन् १०८८ के लेख के अनुसार जैन मन्दिर के प्रति. मिलना शुरू होते है" । दसवीं शताब्दी में भारत का अरब ष्ठापक के पूर्वज जायस नगर से आकर बसे थे । सम्भव चीनी व्यापारियो के माध्यम से समुद्री व्यापार बढ़ गया। है यहाँ जैसनाल जाति का बसना दसवी सदी से शुरू राजपूतों के स्थायी राज्य हो जाने से आवागमन सुरक्षित हुआ हो । वरहिया जाति नरवर के निकट उरना नाम के हुआ । बडी संख्या में व्यापारी, जैन साधु व ब्राह्मण भारत स्थान से निकलो प्रतीत होती है। सम्भव है कि ग्वालियर मे दूर दूर की यात्रा करने लगे। बड़ी संख्या में जैन के प्राचीन जैन निवासी जो ग्वालियर मे ही रहे वे गोलाप्रतिष्ठायें होने लगी एवं साक्षरता फैलने से अधिक मूर्ति- लारे जाति का भाग बने या अन्य जातियो में मिल गये। लेख लिखे जाने लगे। ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में कैवल शिवपुरी जिले के ऐसा प्रतीत होता है कि नवमी-दसवी शताब्दी मे झिरी व पोहरी ग्रामों मे गोलापूवो का प्राचीन काल से चन्देलों का राज्य सुदढ हो जाने से बहा गृहपति व गोला- निवास रहा है। पूर्व जातियां जाकर बस गई। गालापूर्व धसान नदी के गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे इन तं नों जातियों किनारे जाकर बसे । गोलापूरों के प्राचीनतम लेखों में मे ईक्ष्वाकु जाति से उत्पन्न होने की श्रुति रही है। कुछ को छोड़कर बाकी सब इसी क्षेत्र मे पाये गये हैं। गोलापूर्व व गोलालारे जातियों में कुछ गोत्रों के नाम Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलते-जुलते हैं। सम्भव है तीनों का स्रोत एक ही रहा इस सम्ब-प में कस्तूरचन्द जी सुमन का एक महत्वहो। अहार के बारहवी सदी के लेखों में गोलापूर्व व पूर्ण लेख पठनीय है। इस लेख में आपने गोलापूर्व जाति गोलालारे दोनों जातियों के स्वतंत्र उल्लेख है"। सम्भन का उद्भव गोलाकोट से माना है। इस लेख मे अन्य मतो है ये नवमी-दसवीं शती मे अलग-अलग हुई हो। मोल- के बारे में ऊहापोह की है एव गोलापूर्व जाति के इतिहास सिंघारे जाति का इतिहास हात नहीं हो सका है। व वर्तमान स्थिति के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। सन्दर्भ-सची १. नाथूराम प्रेमी का मत-श्री अखिल भारतर्वीय दि० १६ यशव कुमार मलैया, 'गोलापूर्व जाति के परिप्रेक्ष्य जैन गोलावं डायरेक्टरी, प्रकाशक-मोहनलाल जैन म', पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनंदन ग्रंथ, काव्यतीर्थ, मागर १९४०, पृ० क । १९६०, पृ० १०३-१६० । २. परमानन्द शास्त्री, जैन समाज की कुछ उपजातियाँ, २०. The History and Cuiture of the Indian अनेकात, जून १९६६, पृ० ५० । People, V.II, Bhartiya Vidya Bhavan, ३. मुन्नालाल रांधेलीय का मत-गोलापूर्व डाइरेक्टरी 1954, P. 63. पृ० झ। २१. वही, पृ०६। ४. गोलापूर्व डायरेक्टरी, पृ० ग । २२. The History and Culture of the Indian ५. परमानन्द शास्त्री , अनेकान्त, जून १८६६, पृ. ५.1 People, V.II, Bhartiya Vidya Bhavan, ६. रामजीत जैन एडवोकेट, 'गोल्लादेश', अप्रकाशित लेख 1951, P. 9. ७. यशवंत कुमार मलया, 'गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की २३. J. Davson, A classic Dictionary of Hindu पहिचान'। Mythology & Religion, 1982, P. 159. ८. एल, के. अनन्तकृष्ण अय्यर, The Mysore Tribes २४. A Historical Atlas of South Asia, P. 108. ___and Castes, पृ० १६७ २४२, भाग ३, १९३० ।। ६२० । २५. शिशिर कुमार मित्र, पृ० ३२ । ६. सुदामा मिश्र, Janapad States in Aocient २६. वही । India, १९७३ । २७. Jainism', in Encyclopedia Brittanica, १०. यही। ,P.275. ११. फलचन्द सिद्धान्त शास्त्री, 'गोलापून्विय , डा.दर - २८. सम्मनलाल जैन न्यायतीर्थ, श्री लवेच दि. जैन समाज बारीलाल कोठिया अभिनंदन ग्रन्थ, १९८२ । इतिहास, १९५१ । १२. रामजीत जैन, 'गोलालारे-खरोआ उत्पत्ति',अ. लेख। १३. गोलापूर्व डाइरेक्टरी, पृ० २०० । २६. राम जी जैन, 'गोलालारे-खरोवा उत्पत्ति' अ. लेख। १४. हिन्दी विश्वकोष, सं० नगेन्द्रनाथ वस १९२३ । ३०. रामजीत जैन, जैसवाल जैन इतिहास, १९८८, प्र० १५. A Historiral Atlas of South Asia Ed. J. जसवाल जैन समाज, खालि र । E. Schwartzberg, 1978, P. 107. ३१. रामजीत जैन, 'पद्मावती पुरवाल', अप्र० लेख।। १६. हीरालाल जैन; जैन शिलालेख संग्रह,प्र. भाग १८९८ ३२. रामजीत जैन, वहियान्वय १९८७, प्र० लालमणि १७. शिशिर कुमार मित्र, The Early Rulers of प्रसाद जैन, ग्वालियर । Khajuraho, Motilal Banarsidas, 1970. ३. यशवत कुमार मलैया, "कोलाचार्य कौन थे ." १८. शारदा श्रीनिवासन, 'Dravidian Words in अप्रकाशित लेख। Desinamamala', Journal of the Oriental ३४. शिशिर कुमार मित्र, पृ० ६३ । Institute, vxxi, No. 2. Sept. 1971, p. 114. ३५ अयोध्याप्रसाद पाडेय, चन्देलकालीन बुन्देलखड का Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्लराष्ट्र व गोल्लापुर के भावक इतिहास, ९६६८, पृ० ७२ ३६. शिशिर कुमार मित्र, पृ० १ 1 पर गोल्लादेश व गोहलाचार्य की पहिचान', पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रंथ १६६६, पृ. ४४७-५४ ३७. गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा, भारतीय प्राचीन लिपि ४६. A Historical Atlas of South Asia, P. 27. ४७. यशवंत कुमार मलैया, 'वर्धमान पुराख के सोलहवें अधिकार पर विचार', अनेकान अगस्त १६७४ । माता, ११८, १० १६६ । ३८. नवलसाह रिया, वर्धमान पुराण, ३९. श्री अ० मा० दिगंबर जैन डायरेक्टरी, प्र० ठाकुरदास ४८. रामजीत जैन, 'गोपाचल सिद्धक्षेत्र, प्र. महावीरापरभगवानदास जवेरी, १९१४ । मागम सेवा समिति, ग्वालियर १९५७ पृ. ६० ४०. गोविन्ददास जैन कोठिया न्यायतीर्थ, प्राचीन शिला- ४९. रामजीत जैन, जैसवाल जैन इतिहास, पृ. ६७ । ५०. रामजीत जैन, वही, पृ० १७। ५१. रामजीत जैन, बरहियान्वय, पृ० ४२ । ५२. गोलापूर्व डायरेक्टरी । लेख, दि०जे० अ०क्षे० आहारजी, १९६२ । ४१. रामजीत जैन, जैसवाल जैन इतिहास । ४२. रामजीत जैन, गोपाचल सिद्धक्षेत्र, प्र. महावीरपर मागम सेवा समिति, ग्वालियर, ६८७, १०६ । ४३. यशवंत कुमार मलैया, 'वर्धमान पुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार, अनेकांत जून १६७४ पृ. ५८- ६ YY. Ram Bhushan Prasad Singh, Jainism in Early Medieval Karnatka, 1975, P. 113. ४५. पशवंत कुमार मलैया 'कुवलयमाला कहा के आधार (१०४ का शेषांश) हाँ १० प्रतिशत लोग जातीय सीमाओं को तोड़ सकते हैं। ८. २१वीं शताब्दी में यह भी हो सकता है कि जो व्यक्ति जातीय बंधन तोड़ना चाहेंगे उन सबको एक और जाति बन जाये । उसका नामकरण क्या होगा यह तो मैं अभी कह नहीं सकता लेकिन उनको भी किसी समुदाय में तो रहना नहीं पड़ेगा। समुदाय मे अलग तो वे भी नही जाना चाहेंगे। अन्न में इतना ही कहना चाहूंगा कि २१वी शताब्दी में जातीय स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होगा। १. जैन इतिहास प्रकाशन संस्थान, जयपुर द्वारा सन् १९८६ में प्रकाशित २. खण्डेलवाल जैन समाज का वृद्ध इतिहास प्रथम बंट-पृ० सं० ३. देखिए महाकवि ग्रहा जिनदास-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व ... ५३. यशवंत कुमार मलंया 'गोलापूर्व जाति पर विचार; अनेकांत जून ७२, पृ० १८-०२ ५४ गोविन्ददास जैन कोठिया, व्यायतीर्थ, प्राचीन शिलालेख ५५. ० कस्तूरबा सुमन, गोला पूर्वान्वय एक परिशी न सरस्वती वरदपुत्र पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनंदन ग्रंथ, १६६०, पृ० ३२-५० । COLORADO STATE UNIVERSITY सन्दर्भ-ग्रन्थ 4 जातियाँ उसी प्रकार बनी रहेंगी जैसी वर्तमान में है और जातीय सीमाओं में रहने से परिवार में मुन-शांति एव प्यार बना रहेगा। लेकिन इतना होने पर भी जातीय बंधन में शिथिलता अवश्य आयेगी इसमे किचित भी शंका नहीं है। लेकिन यह शिथिलता १०१% से अधिक नहीं होगी समाज में अधिकांश परिवार धर्मभीर एवं जाति । मीरा होते हैं इसलिए वे सीमाओं के बाहर जाना पसन्द नहीं करेंगे। ५. ६. ८६७ अमृत कलश बाबत नगर, किसान मार्ग टोंक रोड, जयपुर लेखक डा० प्रेमचन्द रावकां प्रकाशक श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर। राजस्थान पुरातन मंदिर, शेखपुर द्वारा प्रकाशित | दिगम्बर जैन डाइरेक्टरी प्रकाशन वर्ष १९१४ । खंडेलवाल जैन समाज का वृहद् इतिहास, पृ. स. ४६ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुंदकंद के ग्रंथों की पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण 0 डॉ. कमलेशकुमार जैन, जैनदर्शन प्राध्यापक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी मध्यकालीन भारतीय प्रार्यभाषाओं के अन्तर्गत प्राकृत भिन्न विविध बोलियों आदि के रूप में जानी जाने लगी। भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे सस्कृत भाषा को भगवान महावीर की परम्परा में अनेक आचार्य हए, तरह न तो राज-दरबारों की छत्र छाया में पलने का जिसमें से कुछ आचार्यों ने भगवान की मूल परम्परा का अवसर मिला और न ही इसे राजसत्ता की सुखानुभूति सम्यक निर्वाह करने में अपने को असमर्थ पाया। अतः हो सकी। किन्तु जन-साधारण का जो स्नेह प्राकृत भाषा उन्होंने उपदेशो के संकलन के समय अपने अभिप्रायों का को उपलब्ध हुआ है, वह अवश्य ही श्लाघनीय है। भी उसमें सन्निवेश कर दिया, जिससे भगवान् के मूल भगवान महावीर से कई शताब्दियों पूर्व में प्राकृत उपदेश में विकृति आ गई। फलस्वरूप दूसरी परम्परा ने भाषा जन साधारण द्वारा बोलचाल के रूप में प्रचलित भगवान् के संकलित उपदेशो को मान्यता नही दी और रही है । अत: भगवान महावीर ने अपने पुरुषार्थ से उप अपनी ही धारणा शक्ति को मर्तरूप देकर छन्दोबद्ध प्राकृत लब्ध तत्त्वज्ञान का सर्वसाधारण को लाभ पहुंचाने की में ग्रन्थो का निर्माण किया तथा मल आगमिक परम्पर दष्टि से प्राकृत भाषा को ही उपदेश देने का माध्यम ___को सुरक्षित रखा। ऐसे प्राचार्यों की परम्परा मे आचार्य चना। वे अपनी उपलब्धियों को किसी वर्ग विशेष तक कुन्दकुन्द का नाम सर्वोपरि है। सीमित नहीं रखना चाहते थे। शनैः शन. विविध प्रान्तों आचार्य कन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के उन कालजयी और विविध प्रान्तीयजनों की बोलचाल की भाषा का आचार्यों मे प्रथम हैं, जिन्होंने अध्यात्म विद्या को सर्वविकास हुआ। फलस्वरूप प्राकृत के विविध रूप दष्टि साधारण की भाषा मे सर्वसाधारण जनों के लिए सुलभ गोचर होने लगे। किया है। यद्यपि उनके द्वारा निर्मित अनेक ग्रन्थों का जब लोगो की धारणा शक्ति क्षीण होने लगी तो प्रकाशन हो चुका है तथापि उनके ग्रन्थों की हजारो प्राचीन भगवान महावीर के उपदेशो को उनकी मूल भाषा प्राकृत पांडुलिपियां आज भी विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारी में पड़ी है मौर अपने समालोचनात्मक सम्पादन एवं प्रामाणिक अनुमें स्मृति के आधार पर लिपिबद्ध किया जाने लगा। दूसरे वाद की प्रतीक्षा कर रही है। दूसरे परवर्ती कई आचार्यों ने भी अपने भावों को अभिव्यक्ति देने के लिए प्राकृत भाषा को ही माध्यम चुना। आचार्य कुन्दकुन्द के जिन उपलब्ध ग्रन्थों का प्रकाशन गोनी स्थिति मे साहित्यारूढ़ प्राकृत को एक ढांचे में बांधने अनेक संस्थाओ/विद्वानो ने किया है, वह सन्तोषजनक नही की आवश्यक्ता प्रतीत हई। अत: कालान्तर मे साहित्या- कहा जा सकता है। कुछ प्रकाशनों को छोड़कर अद्यावधि रूढ प्राकृत भाषा को कुछ आचार्यों ने व्याकरण के नियमो- आचार्य कुन्दकुन्द का जो साहित्य प्रकाश में आया है वह पनियमों में जकड़ कर अनुशातित किया और भाषा का पाण्डुलिपियों का मात्र मुद्रित रूप है। उनके सम्पादन मे प्रवाह रुक गया। प्राकृत भाषा एक स्वरूप के अन्तर्गत प्राचीन पाण्डुलिपियों का उपयोग प्रायः नहीं के बराबर सीमित हो गई। जन साधारण द्वारा बोलचाल के रूप में हमा है। जिससे लिपिकारो के प्रमादवश अथवा अज्ञानता प्रयुक्त होने के कारण यद्यपि इसका बाद में भी विकास के कारण हुई भूलों का अथवा कही-कहीं पाठकों द्वारा हुआ, किन्तु बह नामान्तरों के माध्यम से प्राकृत भाषा से अपनी सुविधा के लिए पृष्ठो के किनारों पर लिखे गये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य करकंद के प्रयों को पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण टिप्पणों का भी मूल में समावेश हो गया है। इससे यह सर्वेक्षण आवश्यक है, जिससे मूल प्रतियों की खोज की ज्ञात करना मुश्किल हो गया है कि मूलपाठ कौन है? जा सके । इसके अतिरिक्त व्याकरणप्रिय तथाकथित विद्वानों ने मूल इस प्रकार क बृहद् आयोजनों के लिए, बौद्धिकवर्ग पाठ के साथ छेड़खानी करके व्याकरण सम्मत शब्दरूपों का सहयोग तो अपेक्षित है। विश्वविद्यालय अनुदान का जामा पहिनाकर अमानत में खमानत कर डाली है। आयोग जैसी केन्द्रीय संस्थाओं के सहयोग से यह कार्य इस परिवर्तन से होने वाली हानियों की ओर उनका सहज सम्भव है। इसके लिए विश्वविद्यालयीय विद्वानों ध्यान नहीं गया । यह खेद का विषय है। एवं विश्वविद्याय अनुदान आयोग-दोनो को और से आज हिन्दुओ के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद एवं जनों प्रथम पदन्यास हो चुका है। इस क्रम मे सम्पूर्णानन्द जैनो की एक परम्परा द्वारा स्वीकृत आवाराङ्गकी विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्राकृत एव जैनागम विभागाप्राचीनता उनकी भाषा के कारण ही सिद्ध की जाती है। ध्यक्ष डा. गोकुलचन्द जैन के निर्देशन मे आचार्य कुन्दकुन्द आधुनिक युग में भाषा ही एक मात्र ऐसा मापदण्ड है जो के एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ नियमसार का समालोचनात्मक ग्रन्थों की प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता को सिद्ध कर सम्पादन डा० ऋषभचन्द्र जैन फोजरार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ कर सकता है। दिया है। किसी भी भाषा का व्याकरण तद्विषयक उपलब्ध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने मेरे द्वारा प्रस्तावित साहिम में प्रयुक्त शब्दरूपों के आधार पर किया जाता एक योजना को भी स्वीकृति दी है, जिसका विषय हैहै। अर्थात् पहले उस भाषा का साहित्य होता है और "आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत-ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिबाद में उस भाषा का व्याकरण । यही कारण कि मूल पियों का सर्वेक्षण ।" योजना को प्रस्तावित करने में मुझे साहित्य मे कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग मिलता है, जो डा० गोकुलचन्द्र जैन का सहयोग मिला है। इस योजना के अर्वाचीन व्याकरण के नियमो से मेल नहीं खाता है। ऐसे अन्तर्गत आचार्य कुन्दकुन्द के समस्त हस्तलिखित एव प्रयोगों/शब्दरूपों को वैयाकरणों द्वारा व्याकरण के नियमों प्रकाशित ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिपियो की विस्तृत सूची में न बांध पाने के कारण उन्हे आर्ष प्रयोग के नाम से तैयार की जायेगी। क्योंकि प्राचीन ग्रन्थो को प्रकाश में सम्बोधित किया है। ऐसे भाषागत परिवर्तनों से ऐति लाने के लिए सर्वेक्षण कार्यों का अत्यधिक महत्त्व है। हासिक तथ्यों एवं प्राचीन संस्कृति का विनाश होगा। इसलिए प्रस्तुत योजना के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्द के जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान में ज्ञात तेइस प्राकृत-ग्रन्थों तथा उनकी उपलब्ध आज आवश्यकता इस बात की है कि एक-एक टीकाओं की प्राचीन पाण्डुलिपियों की जानकारी एक साथ आचार्य के समस्त ग्रन्थों का समालोचनात्मक सम्पादन प्राप्त हो सकेगी। वर्तमान में आचार्य कन्दकुन्द के छपे देश-विदेश में उपलब्ध पाण्डुलिपियो के आधार पर किया ग्रन्थों में प्राचीन पाण्डुलिपियों का समुचित उपयोग न होने जाये। सम्पादन की इस प्रक्रिया में मल में किसी भी से सम्पादन विशेषज्ञ मनीषी प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने प्रकार की विकृति न आये इस बात को ध्यान में रखते उक्त छपे हुए ग्रन्थों को मुद्रित पाण्डुलिपियाँ कहा है तथा हुए सम्पादन के विश्वजनीन मापदण्डो को अपनाना होगा। समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने की आवश्यकता पर उपर्युक्त प्रकार का मौलिक एव प्रामाणिक सम्पादन अत्यधिक बल दिया है। किसी व्यक्ति विशेष द्वारा सम्भव नही है। इस सम्पादन आचार्य कुन्दकन्द के ग्रन्थो को देश-विदेश में उपलब्ध प्रक्रिया को मूर्तरूप देने के लिए अनेक विद्वानों का एक समस्त प्राचीन पाण्डुलियो के सूचीकरण से आचार्य कुन्दसाथ सहयोग अपेक्षित है। यह एक टीमवर्क है। इस कार्य कुन्द अथवा उनके ग्रन्थों पर कार्य कर रहे अनुसन्धान हेतु सर्वप्रथम देश-विदेश के प्राचीनतम ग्रन्थ-भण्डारो का (शेष पृ० १४ पर) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसारका विशिष्ट संस्करण प्रस्तावित डॉ० ऋषभचन्द्र जैन फौजदार विद्यावारिधि की उपाधि प्रदान की है। उनके प्रयत्नों से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विभिन्न योजनाएं स्वीकृत की है। राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कुन्दकुन्दविषयक अनुसंधान कार्य आरम्भ हो रहे हैं। 1 आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् महावीर की श्रमण-परंपरा के ज्योतिर्धर आचार्य है उनके उपलब्ध प्राकृत प्रन्थों में श्रमण परम्परा का सांस्कृतिक इतिहास सुरक्षित है । भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के विविध रूप इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । विगत वर्षों मे आचार्य कुन्दकुन्द की ओर जैन समाज का ध्यान विशेष रूप से गया है। उनके नाम पर संस्थाएं बनीं हैं। ग्रंथों के प्रकाशन हुए हैं । साहित्य और प्रचारप्रसार की सामग्री प्रकाशित हुई है। दिगम्बर जैन समाज की ओर से आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि समारोह मनाने के भी अनेक आयोजन हुए इस सबके बाद भी किसी भी सामाजिक संस्था की ओर से आचार्य कुन्दकुन्द विषयक उच्च अनुसन्धान और उनके प्राकृत ग्रन्थों के शुद्ध ओर प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित करने की योजना प्रकाश में नहीं आयी । अब तक जो भी सस्करण प्रकाशित हुए हैं, प्रायः पूर्व प्रकाशनों के पुनर्मुद्रण मात्र है। मूल प्राकृत पाठ नये संस्करणो मे शुद्ध होने की अपेक्षा और अधिक त्रुटिपूर्ण होता गया है । एक भी ग्रन्थ में शब्द-कोश नहीं है । यही कारण है कि प्राकृत के प्रसिद्ध विद्वान स्व० डा० ए० एन० उपाध्ये ने इन सस्करणो को "मुद्रित पाण्डु लिपिया" (प्रिन्टेड मेनुस्क्रप्टस) कहा है । जीवन के अन्तिम क्षण तक के कुकुन्द के प्रामाणिक सस्करणों की बात कहते रहे। आचार्य कुन्दकुन्द विषयक उच्च अध्ययन अनुसन्धान को विगत वर्षों मे प्राकृत एवं जैन विद्या के वरिष्ट विद्वान डा० गोकुलचन्द्र जैन ने एक नयी दिशा दी है। प्रामाणिक सस्करणो की बात को उन्होने अनेक प्रसंगों पर उठाया है। कुकुन्दादि वर्ष में उनके निर्देशन मे नियमसार तथा पर संस्कृत विश्वविद्यान वाराणसी ने दो युवा विद्वान मुझे तथा डा० महेन्द्रकुमार जैन को भारत तथा विदेशों में आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थो की शताधिक प्रतियाँ उपलब्ध है । अभी तक इनके सर्वेक्षण का प्रयत्न नही हुआ । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक योजना के अन्तर्गत यह बहु प्रतीक्षित कार्य अब आरम्भ हो गया है । डा० कमलेशकुमार जैन प्राध्यापक जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय यह महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है। नियमसार पर अनुसन्धान कार्य करते समायरमे ध्यान उसके अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण प्राकृत पाठ पर गया । मूल प्राकृत पाठ अशुद्ध होने से उसका हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी अनेक स्थलो पर त्रुटिपूर्ण है । अशुद्ध पाठ के आधार पर भाषावैज्ञानिक अध्ययन कथमपि संभव नही है। डा० गोकुलचन्द्र जैन मुझे मेरे अनुसन्धान काल से ही नियमसार का एक शुद्ध और विशिष्ट संस्करण तैयार करने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। सोभाग्य से इनके निर्देशन में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने नियमसार के सम्पादन की योजना स्वीकृत कर ली। उसके अनुसार सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के प्राकृत एवं जैनागम विभाग में विभाग के अध्यक्ष डा० गोकुलचन्द्र जैन के निर्देशन में मैंने कार्य आ-म्भ कर दिया है। इस कार्य में उन सभी का सहयोग वांछनीय है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के प्रति श्रद्धा भाव रखने है तथा जिनकी उभ्य अनुसन्धान मे कथि है नियमसार लगभग इस शताब्दी के आरम्भ में प्रकाश में आया । उस समय जाखि । प्रतियां उपलब्ध हुई उनके आधार पर इस प्रकाशन भी किया गया। इधर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसारका विशिष्ट संस्करण प्रस्तावित दशकों में इस ग्रन्थ के कई अन्य प्रकाशन भी हुए। इनमें से कुछ संस्करणों में प्राचीन पाण्डुलिपियों से मिलान करने की बात भी कही गयी है। अधिकांश प्रकाशन पूर्व संस्करणों के पुनर्मुद्रण मात्र है। अभी तक मेरी जानकारी में नियमसार के निम्नलिखित प्रकाशन आये है। प्राकृत संस्कृत-हिन्दी (१) मूल प्राकृत, संस्कृत छाया, पद्मप्रममलधारिदेव कृत तात्पर्यवृति नामक संस्कृत टीका एवं ल प्रसाद जी कृत हिन्दी भाषा टीका । प्रकाशक -- हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९१६. यह नियमसार का पहला संस्करण है । -: (२) मा एक श्रीप्रसाद जोहरी, कटरा खुशाल राय, दिल्ली ने वी०नि०सं० २४६८ में कराया है । (३) मूल प्राकृत संस्कृत छाया, पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्य सस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद तथा मूल गाथाओ का हिन्दी पद्यानुवाद प्रकाशकसाहित्य प्रकाशन एव प्रचार विभाग, कुन्दकुन्द कहान दि० जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर, सन् १९८४ । , (४) मूल प्राकृत पद्मप्रभमलवारिदेव रविन तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद, सम्पादन नायिका ज्ञानमती जी प्रकाशक दि० जैन त्रिलो दोध संस्थान, हस्तिनापुर व स. २५१ (५) मूत्र प्राकृत आपि ज्ञानमती जी कृत साद्वाद चन्द्रिका संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद प्रकाश - 140 जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, सन् १६८५ । प्राकृत-हिन्दी : (६) मूल प्राकृत एवं ब्र० शीतलप्रसादजी कृत हिंदी टीका । प्रकाशक विमलसागर जी महाराज, इन्दौर, वी० नि० सं० २०७६ । (७) कुदरत भारती के अन्तर्गत आवाद के सभी ग्रंथ मूल प्राकृत एवं हिन्दी अनुवाद, सकलन-सदनप० नालाल साहित्याचार्य, प्रकाशक - श्रुभण्डार प्रकाशन समिति सन् १९७० १३ (5) मूल प्राकृत एवं हिन्दी अनुवाद, सम्पादक - पं० बलभद्र जैन, प्रकाशक- कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली, सन् १६८७ । प्राकृत-अग्रेजी : (e) मूल प्राकृत, संस्कृत छाया, अगरसेनकृत अंग्रेजी अनु वाद एवं अंग्रेजी टीका के साथ "दी सेक्रेड बुक्स आफ दी बैम्स" वाल्यूम सेट्रन जैन पब्लिसिंग हाउस, जिताश्रम लगन से प्रकाशित सन् १९३ 1 प्राकृत-मराठी : (१०) मूल प्राकृत एव मराठी अनुवाद, प० नरेन्द्र मिसीकर न्यायतीर्थ, प्रकाशक --- गोपाल अम्बादास चवरे, कारजा, सन् १९६३ । प्राकृत - गुजराती : (११) मूल प्राकृत गाथाएं, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत टीका और मूल संस्कृत टीका का गुजराती अनुवाद, गुजरानी अनुवादक प० हिम्मतलाल जेठालाल शाह, प्रकाशक- दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़, सन् १६५१ । उक्त प्रकाशनों के अतिरिक्त यदि अन्य कोई संस्करण किसी विज्ञान व स्वाध्यायी व्यक्ति की जानकारी म हो तो कृपया सूचना देने का कष्ट करें तथा उपलब्ध भी करायें। उसका व्यय विभाग की ओर से हम वहन करेंगे। मुद्रित सस्करणों के अतिरिक्त सम्पादन के लिए मैं देश विदेश में उपलब्ध ताड़पत्र तथा कागज पर लिखित हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ एकत्रित कर रहा हूँ यदि किसी की जानकारी मे उपयोगी पाण्डुलिपियाँ हों तो उनकी सूचना दे तथा यदि उनके माध्यम से उसकी फोटो कापी प्राप्त हो सकती हो तो उपलब्ध कराये । इस पर होने वाला व्यय विभाग की ओर से हम वहन करेग । नियमसार का प्रस्तावित संस्करण सम्पादन के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानकों के अनुसार संपादित किया जायेगा। इस संस्करण में मूल प्राकून गाथाओं तथा पद्मप्रभमलधारिदेव कृतं संस्कृत टीका का सम्पादन देशविदेश में उपलब्ध प्राचीन ताड़पत्रीय तथा स्तलिखित Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४४, कि०५ अनेकान्त पाण्डलिपियों के आधार पर किया जायेगा। सम्पादित विषयों पर ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक दृष्टि से पाठ के आधार पर हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद किये विचार किया जायेगा। प्रस्तारना तथा परिशिष्टों में सभी जायेगे। पहली बार नियमसार का सम्पूर्ण शब्दकोश सम्बद्ध महत्वपूर्ण विषयों का समावेश होगा। प्रस्तुत तयार किया जा रहा है। नियमसार की कतिपय गाथायें संस्करण को सागपूर्ण बनाने हेतु विद्वानों के सुझाव सादर कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में भी यथावत् या किंचित् शब्द आमंत्रित है। परिवर्तन के साथ प्राप्त होती हैं। प्राकत के अन्य दिगम्बर रिसर्च एसोशिएट तथा श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी कतिपय गाथाओं अथवा प्राकृत एवं जैनागम विभाग विषयों में साम्य प्राप्त होता है। तुलना के लिए उन्हें सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय मूल के साथ सन्दर्भ उद्धृत किया जायेगा। उक्त सभी वाराणसी-२ (पृ० ११ का शेष) कार्यों मे महत्त्वपूर्ण सहयोग मिल सकेगा, ऐसी आशा जिन विद्वानों ने सूचीकरण का कार्य किया है अथवा कर करनी चाहिए। इससे हमारे अतीत का गौरव मुखर होगा रहे हैं, उनसे भी निभेदन है कि वे उपर्युक्त सूचना तथा हमारी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण रह सकेगी। मेरे पते पर देकर मेरा मार्गदर्शन करे। मैं उनका ऐतिहासिक तथ्यों के प्रबल साक्षी भाषायी पुरावशेष भी आभारी रहंगा। इससे इस कार्य को निर्धारित समय में अपनी कहानी स्वय कह सकेगे और हमारी अगली पीढ़ी पूर्ण किया जा सकेगा। सूचना देने वाले सवालको/मालिकों को एक शाश्वत रोशनी दे सकेगे। विद्वानों द्वारा इस कार्प-गम्पादन में जो भी व्यय होगा. अद्यावधि जिन सूची-ग्रन्थों का मुद्रण हो चुका है और उसे विश्वविद्यालय की ओर से मैं वहन करूंगा। उनमें आचार्य कुन्दकन्द के ग्रन्थो की प्राचीन पाण्डुलिपियों का उल्लेख है अथवा जिन ग्रन्थ-भण्डारो व्यक्तिगत संग्रहों सम्पर्कसूत्र : मे आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थो की हस्तलिखित प्राचीन बी २/२४६, लेन नं०१४ पांडुलिपियां उपलब्ध है, उनके संचालको/मालिको तथा रवीन्द्रपुरी, वाराणसी-२२१००५ अनेकान्त के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान--वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २ अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता--भारतीय। प्रकाशन अवधि- मासिक । सम्पादक-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय। मुद्रक-गीता प्रिटिंग एजैसी, न्यू सीलमपुर, दिल्ली-५३ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण मत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति और साहित्य के पोषक : पाण्डे लालचंद D डॉ० गंगाराम गर्ग भरतपुर राज्य तथा जगरोटी क्षेत्र (करोली हिन्डोन) विभिन्न नगरों में संभावित प्रावास-काल : में साहित्य और अध्यात्म की ज्योति जगाने वाले पाण्डे माघ कृष्ण ११ रविवार, सं० १८१६ में प्रतिलिपिलालचन्द ग्वालियर के प्रसिद्ध भट्टारक विश्वभूषण के कृत सकलकीति की संस्कृत रचना 'चारित्र शुद्धि पूजा' की प्रशिष्य और मुनि ब्रह्मसागर के शिष्य थे। अपने ग्रन्थ प्रशस्ति के आधार पर यह निश्चित है कि पांडे लालचंद विमलनाथ पुराण को प्रशस्ति मे पाण्डे लालचंद ने अपना बंगाल और गुजरात की यात्रा करते हुए संवत् १८१६ से परिचय दिया है। उसके अनुसार यह वयाना हिन्डोन पूर्व ही हिन्डोन में आ चुके थे। पांडे लालचंद ने चैत्र आने से पूर्व अपने गुरु ब्रह्मसागर के साथ बंगाल के शहर __शुक्ल ११, रविवार, संवत् १७९६ में बयाना के चन्द्रप्रभु मकसूदाबाद (मुशिदाबाद) में जगतसेठ माणिकचद के चैत्यालय में महाकवि द्यानतगय के धर्मविलास की प्रतिसान्निध्य में २० वर्ष तक रहे थे। इस स्थान से इन्होने सम्मेद शिखरजी की यात्रा तीन बार ससंघ की। जगतसेठ लिपि की ...."इति श्री धर्मविलास अन्य भाषा संपूर्ण । से विदा होकर पांडे लालचंद ब्रह्मसागर मुनि के साथ संवत् १७९६ वर्षे चैत्र मामे शुक्ल पक्षे एकादश्याम रविगिरिनार पर्वत की यात्रा पर गुजरात भी गए । गिरिनार बासरे बयाना मध्ये श्री चन्द्रप्रभ चैत्यालये श्री ब्रह्मसागर शिष्य पं० लालचंदेन लिखितोयं ग्रन्थ ।" बयामा में ही पर्वत से आकर तीन वर्ष सूरत बन्दरगाह पर रहे । सम्मेद शिखर और गिरिनार जैसे तीर्थो के समान महावीर जी कवि लालचंद ने माघ शुक्ला ५ शनिवार, संवत् १८१८ को पुन्य भूमि मानकर पांडे र ल चन्द हिन्डोन आए। में अपनी कर्मोपदेशरत्नमाला भाषा' रचना लिखी। फागुन वदी ३, संवत् १८२१ में पांडे लालचन्द ने करौली में यात्रा करि गिरनार सिखर की अति सुखदायक ! यशनंदि के 'धर्मचक्र पूजन विधान' की प्रतिलिपि की पुनि पाए हिन्डोन, जहां सब श्रावक लायक । तथा करौली मे ही उन्होंने भादों वदी ३ को 'उत्तरपुराण जिनमत को परभाव देखि, निज मत थिर कीनो। भाषा' लिखी। वैसाख सुदी ७ सवत् १८३३ को पाण्डे महावीर जिन चरण कमल को सरणी लीनो ।। लालचंद ने अपनी रचना 'वरांग चरित भाषा' करौली में ही लिखी। नथमल विलाला द्वारा रचित 'जीवन्धर हीरापुरी (हिन्डोन) मे बसे पडे लालचंद के मन में चरित' को प्रशस्ति के आधार पर सिद्ध होता है कि संवत बयाना नगर की शोभा के प्रति आकर्षण जागा, तब १८३७ के ल गमग पांडे लालचद करौली में ही स्थायी उन्होंने इस शहर मे धी चन्द्रप्रभु जिनालय को अपना तौर पर रहने लग गए थेसाधना-स्थल बनाया नगर करोली के विष श्री जिन गेह मझार । सुख सौं रहत बहुत दिन भये, पांडे लाल बयानै गए । लालचंद पडित रहै, विद्यावान उदार । देखि नगर की सोभा तबै, मन मैं हरष भयो अति तबै । पाण्डे लालचद ने वैसाख शुक्ला ५, सवत् १८२७ चंद्रप्रभु जिनराज की, प्रतिमा परम पुनीत । को 'मात्मानुमासन भाषा' तथा कार्तिक शुक्ला ११, सं० पूजा गोकुलदास नित, करै धर्म सो प्रीत । १८२६ को 'ज्ञानार्णव भाषा' हिन्डोन में लिखी। यहीं पर देखि धरम को अधिक प्रकास तिह थावक हम कोनो बास। उन्होंने संवत १८२७ मे 'वरांग चरित्र भाषा' को लिखा। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६पर्व ४४ कि.१ अनेकान्त पडि लालचंद द्वारा लिखित मौलिक ग्रंथों और प्रतिलिपियों अधो लोक को कथन, अरु ऊरध लोक बिचारि । की प्रशस्ति के आधार पर स्पष्ट है कि संवत् १७६६ से भाषा पाण्डे लाल नै, कीनी मति अनसार ।" संवत् १८३७ तक पांडे लालचंद वयाना, हिन्डोन और पाण्डे लालचन्द का शिष्य वर्ग। अग्रवाल, खंडेलवाल, करौली मे आ जाकर तथा कुछ समय रहकर ४१ वर्ष पल्लीवाल और श्रीमाल चारों ही उपजातियों के श्रावक तक निरंतर जैन धर्म की ज्योति प्रज्वलित करते रहे। पाडे लालचन्द के निष्ठावान् शिष्य थे : संपतिराम राजोवृद्धावस्था मे वे करौली ही बस गए। रिया के पुत्र मोतीराम (पल्लीवाल) ने वैसाख सुदि ६ पाडे लालचन्द और महाकवि नथमल विलाला : संवत् १८३३ में पांडे लालचन्द से 'वरांग चरित भाषा' भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल के खजाने पर की प्रतिलिपि करवाई थी। मोतीराम सदावल से जाकर नौकरी करने वाले महाकवि नथमल विलाला ने 'नेमिनाथ करोली बसे थे। पांडे लालचन्द की दो रचनाओं 'ज्ञानार्णव को व्याहुलो' (स० १८१६), अनन्त चतुर्दशी की कथा' भाषा' और 'आत्मानुशासन भाषा' को लिखवाने का (स० १८२४) 'जनगुण बिलास' (स० १८२२) 'समव- निवेदन करने वाले गोधू साह के पुत्र थानसिंह कासलीशरण मंगल' का प्राधा अंश (संवत् १८२४) भरतपुर मे वाल थे। हृदयराम के पुत्र गूजरभल्ल गोगल ने 'आदिही लिखी। माघ शुक्ला गुरुवार, संवत् १८३७ मे पुराण भाषा' तथा गूजरमल के पत्र भीमसेन ने संस्कृत अपना जीवंधर चरित' नथमल ने हिमोन में पूरा किया। रचना 'धर्मचक्र पूजन विधान' की प्रतिलिपिया पाडे लालग्रंथ की प्रशस्ति के अनुसार आजीविका के प्रसग में हिन्दीन चन्द से लिखवाई थी। ये लोग बयाना छोडकर करौली रहने लगे थे बसे थे । 'कर्मोपदेश रत्नमा ना भाषा' की प्रशस्ति में पाहे मन्नोदक के जोग बसाय, बसे बहुरि हीरापुर आय । लालचन्द ने लक्ष्मीदास के तीनो पुत्रों-- राधेकृष्ण, दीपरच्या चरित्र तहां मन लाय, नथमल ने निज पर सुखदाय। चन्द तथा भूधर को अपना प्रियपात्र लिखा है । करौली में चिलिया गोत्र के श्रीपाल जैन भौना राम के लिए पांडे संवत् १८२७ मे लिखित 'वरांग चरित भाषा' मे लालचन्द ने बैसाख शुक्ला ७, संवत् १८१६ मे 'पुण्याश्रव पांडे लालचद ने नथमल बिलाला का सहयोग स्वीकार कथा कोप भाषा' को प्रतिलिपि कगई । किया है । इससे स्पष्ट है कि नथमल सवत् १८२७ से पूर्व ही हिन्डोन आ गए थे। पांडे लालचद और महा कवि नवमल बिलाला दोनों ही महापुरुषों में सारस्वत सहयोग सुवाच्र और सुन्दर लिपि मे कई ग्रन्थो के प्रतिलिपि था। नवमल विलाला ने 'सिद्धान्त सार भाषा मे मध्य कर्ता, संस्कृत, प्राकृन के प्रकाण्ड पंडिन, दार्शनिक, अध्यात्मलोक का सार तो सुषराम पल्लीवाल के सहयोग से सवत् आख्याता, उदारमना गुरु पाडे लालचन्द अच्छे कवि भी १८२४ मे भरतपुर के दीवान जी मदिर में सम्पन्न किया थे। ब्रह्मचारी कृष्णदास रचिन संस्कृत के विमलपुराण णा किन्तु उसके अपूर्ण भाग अधोलोक और ऊदलोक के को कवि ने सवत् १८३७ मे भाषाबद्ध किया। भट्टारक सार को विचारपूर्वक पाहे लालचद ने ही लिखा । नथमल वर्द्धमान का 'वराग चरित' तथा अन्य सस्कृत ग्रन्थ ज्ञाना. कृत 'सिद्धान्त सार भाषा' अपर नाम 'समवशरण मंगल' णव को गांडे लालचन्द ने सोरठा, दोहा, कुण्डलिया, सबैया, की प्रशस्ति है चौपाई, त्रिभगी, छप्पय, भुजंगी आदि विभिन्न छन्दों मे "महावीर जिन यात्रा हेत, नथमल आए सघ समेत ।। भाषाबद्ध किया। सिद्धान्तसार भाषा' का दो-तिहाई पाण्डे लालचद मौ कही, पूरन ग्रन्थ करो तुम सही। भाग तथा कर्मोपदेश रत्नमाला भाषा' लिखकर पांडे नथमल बिच रर आनिक, मर निज हेत विचारि। लालचन्द ने अपने सैद्धान्तिक ज्ञान तथा उसको कागमयी श्री सिद्धान्त जु सार की, भाषा कोनी सार । शैली में प्रस्तुत कर सकने की अपूर्व क्षमता का परिचय Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत और साहित्य के पोषक: पाण्डे लालचन्द दिया है। भाषा सरल तथा मधुर बज है। नरक के कष्टों हिन्दी गद्य का प्रारम्भिक रूप निश्चित करने के लिए की चर्चा का एक कथन है 'प्रात्मानुशासन भाषा' का यह उद्धरण दृष्टव्य हैनिमिष मात्र ही सुख नहीं, नरक मांहि किहु काल । जगत के जीव पाप विष प्रवीन है। कोईक शुभ परिहनहि परस्पर नारकीय, यह अनादि की चाल ।३६ णाम दीस है, सोऊ भला कहिये है। अर जो शुभ अरु कहा कहै धनि ये उकति, धरि के नौ शत कोठि।। अशुभ दोऊ ही तजि करि केवल शुद्धोपयोग का आत्मतऊ नरक के दुक्ख की, कहत न आवै तोटि। स्वरूप विष तल्लीन है तिनकी महिमा कौन कहि सके। जो कह पुरब वर बे, भूलत कारण पाइ। ते सत्पुरुषनि करि वदनीय है। पृ० १८७. यदि करावं सुराधम, मार तिनहि लराइ ॥ ऐतिहासिक महत्त्व : -ज्ञानार्णव भाषा पाण्डे लालचन्द के काव्य और गद्य को थोडी-सी वरांग चरित भाषा में 'वरांग' का सम्पूर्ण चारित्र , चर्चा करने से पूर्व उनकी जीवनी का तथ्यपूर्ण वर्णन बारह सौ में कहा गया है। 'वरांग' की वीरता के प्रसंग व्यपकता से करना ऐतिहासिक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । में युद्ध वर्णन भी है पहली बात तो यह है कि भारतवर्ष के जैन समाज में 'छुटे धनुष ते तीछन तीर, भूतल छाय लियो वर वीर।। पाज सर्वाधिक मान्य क्षेत्र 'जगरोटी' आज से २५०-३०० मानौं प्रलयकाल घनघोर, जलधारा बरसत चहुं ओर। वर्ष पूर्व भी सम्मानित था। तभी तो ब्रह्मसागर जैसे श्रेष्ठ प्रबन्धकार होने के अतितिरिक्त पांडे लालचंद मुनि और पांडे लालचन्द २० वर्ष तक बंगाल और ३ उत्तम भक्त भी थे। बड़ा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर में वर्ष सूरत रहने के पश्चात् भी जगरौटी क्षेत्र में प्राए । प्राप्त पद संग्रह ९४६ में 'लाल' छाप से १५-२० पद पांडे लालचन्द ने ४०-५० वर्ष तक इसे ही अपना साधकसंग्रहीत हैं। इन पदों में राजुल विरह के अतिरिक्त स्थल बना लिया। पांडे लालचन्द की जीवनी से दूसरा तीर्थंकर ऋषभदेव और भगवान पाश्र्वनाथ की भक्ति भी तथ्यात्मक संकेत यह है कि इस क्षेत्र मे अग्रवाल, खंडेल वाल, पल्लीवाल तथा श्रीमाल सभी उपजातियो में दिगंबर कृपा म्हांसू कोज्यो जी, थे तारो जी जिनराज। आम्नाय को मानने वाले लोगों को पर्याप्त संख्या थी। कभउ मान भंजन शिव रंजन, अधिक व्रत तुम धारा जी। पाण्डे लालचन्द द्वारा की गई विभिन्न रचनाओं की प्रतिमाता जी लिपियो से यह भी स्पष्ट है कि जैन विद्या को ग्रन्थांकित जुगल नाग प्रभु जलते उबारे, अबकी बेर हमारो जी। करवाने तथा श्रद्धा भाव से उन्हे मन्दिरो में चढ़वाने का 'पारस' नाम तिहारो प्रभु जी, अष्ट कर जारो जी।। श्रावक समुदाय में बड़ा श्रद्धा भाव था। जिसके पूर्णत: 'लाल' कहै विनती प्रभुजी सं, शरण लेप उबारो जी॥ लुप्त हो जाने के कारण जैन ग्रन्थों के अप्रकाशित रहने और दीमकों की भोज्य-सामग्री बने रहने की दुर्भाग्यपूर्ण पाण्डे लालचन्द का पद: समस्या बनी हुई है। आचार्य गुणभद्र कृत 'आत्मानुशासन' को पांडे लाल एसोसिएट प्रोफेसर चन्द ने गद्य मे लिखा है। गद्यकार ने पहले मूल प्रलोक महारानी जया स्वायत्तशासी महाविद्यालय और फिर बाद में उसकी बोधगम्य टीका लिखी है। भरतपुर (म. प्र.) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति चित्र संबंधी तृतीय पृ० आ. नं १८ शंका-समाधान पृ. १४ ५ विषय परिचय पृ १७ १ " 11 37 १७ "1 १८ ३१ मूल पृ. १० २८ ११ २६ ११ २७ ११ २७ १३ २५ १५ १८ ३४ २६ ३५ १६ ४० २८ ४१ ४१ xx xx xx xx ४१ धवल पु० ४ का शुद्धिपत्र निर्माता - जवाहरलाल मोतीलाल बकलावत; भीण्डर (राज०) ४३ २ ४६ १० ܘ: २२ २३ १५-१६ ४६ २३ ४६ २४ ૪૬ २५ अशुद्ध ( पृ० ३५) डेबढ़ा एक राजू के प्रतर या वर्ग प्रमारण है एक राजू चौड़ा सात राजू लम्बा ( आगत ) और एक लाख योजन ऊंचा है । अथवा १४२८५ योजन बाहल्यरूप जगत्प्रतर प्रमाण घनफल वाला है। [ देखो - पृ० ३१, ३७, ४१, ४७, ६१ आदि ।] योजन व्यास वाला तथा एक लाख योजन ऊँचा वर्तुलाकार क्षेत्र [देखो मूल पृ. ३१] X X X व्यास वाला वर्तुलाकार क्षेत्र और गमनागमन कर रहे हैं अन्योन्य गुणि घनागुलं । एकस्मिन् गुणिता प्रमाण को अर्धमात्र निष्कंभ उत्सेध के उत्सेध के १६८ (REF 12 ) १० १६८१ २० पूर्वोक्त गुणकारी से ०२१६८ इन गुणकारों से चाहिये । सयत की उत्कृष्ट अवगाहना परिधि ५००x१६+१६ शुद्ध ( पृ० ३५-३६) डेढ़ा ८८८१२००० ३६६१२ धनुष । ८८८१२००० ६६ x - ३६६१२ १ अन्योन्यगुणिते कृते घनगुलम् | एकैकस्मिन् गुणिता जाता विस्तार को अर्द्ध-अर्द्ध मात्र विष्कंभ आयाम के उत्सेध उसके (x)' १६८१ (१६ × २ × १६८ पूर्वोक्त "गुणकार गुणित अवगाहना गुणित राशि से यानी पूर्वोक्त क्षेत्रों से इन राशियों से चाहिए । संयत का उत्कृष्ट क्ष ेत्रफल परिषि (१६) + १६ ८८६८२२००० वर्ग धनुष ३६६१२ ८८८२२००० ३६११२ १६ ・x (2)` Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवल पु. ४ का शुद्धिपत्र पृष्ठ पंक्ति प्रत्तरांगल २६६१२ xx अशुद्ध शुद्ध ८५२५६५२००० ८१८५८३५५२००० -प्रत्तरागल ३६६१२ १०८+५०० १०८४५०० E२०००० हजार योजन २०००० योजन उत्तर और दक्षिण सम्बन्धी पूर्व व पश्चिम सम्बन्धी दोनो ही पार्श्वदोनों ही पार्श्वभागों में भागों मे [देखो-त्रि. सा. पू. १५० अनु० भा० विशुद्धमती जी] पूर्व और पश्चिम दक्षिण और उत्तर पूर्व और पश्चिम में दक्षिण और उत्तर मे [देखो त्रि.सा.पु. १५० अनु. आ. विशुद्ध] उत्तर और दक्षिण मे पूर्व से पूर्व और पश्चिम पार्श्वगुगलो में पश्चिम तक [देखो त्रि. सा. १३२, १३६] १३४७-६१९१४१४१२७४ १३४७%D६१; १६+१२२८, २८:२ =१४,६१X१४=१२७४ पूर्व और पश्चिम दक्षिण और उत्तर (त्रि. सा. १३४) पूर्व और पश्चिम मे दक्षिण और उत्तर की अपेक्षा पूर्व और पश्चिम दक्षिण व उत्तर[देखो-त्रि.मा. १३७ सं.टीका १८-१६ २४-२५ ३१९८००००.१७८३६ ३४ ३४ २२ ७४४+३ X २४+६=७५० ७५०-७२ = 5 १३४ छठवीं पृथिवी के प्रति समय में मरने वाली राशि को यह युक्ति से कहा है। वास्तव मे तो विग्रहगति में मुखविस्तार से करना संग्रहीत तिर्यम्च पर्याप्त मिथ्यावृष्टि तिर्यञ्च पर्याप्त जीव पर्याप्त जीव तिर्यग्लोक जीवराशि हुई, ३१६८०००० , १७८३६ ३४३ , ३४३ (७४४४२४)+(३४२४)+६=७५० ७५०-७२%६७५, ६७८-१२पर १३७ छठी पृथिवी के प्रथम पृथ्वी के द्रव्य को (देखो-ध ७।२०२) xxxxx विग्रहगति मे मुखविस्तार से गुरिणत करना संगृहीत तिर्यञ्च मिथ्यावृष्टि तिर्यञ्च जीव जीव तिर्यग्लोक जीवराशि है [उपपाद राशि का संचय एक समय मे होता है [देखो, ध. ७।३०७] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वर्ष ४४ कि० पृष्ठ ७७ ७८ ८० ८५ τε ६४ ex १०४ १२१ १३७ १४२ १४२ १५३ १६२ १६२ १६३ १६३ ૪ १६८ १६८ १७५ १७६ १७६ १६१ १६४ १६५ १९८ पंक्ति २४ २१ २० २२-२३ १३ ५ १६ २५ १५ १६ १ २६ x x x w a w २२ २२ १२ & २६ २२ २३ १३ १३ १६ २५ ४ १३ १० अशुद्ध अखातगुणे इससे संख्यात क्षेत्र के स्पर्श उसका जो असंख्यातव भाग अथवा संख्यातवां भाग लब्ध आवे उतनी असंख्यात भाग को संखेज्जदिभागेण होज्ज ? भाग प्रमाण होना चाहिए ? पर्याय राशि के बुद्धी का संज्ञी जीव अजिवो इस भव्यशरीर वाले के (१) २६=१ (२) ३५६=२ असख्यातव अनेकान्त ये उस गुणस्थान मे उस गुणस्थान में ॥४॥ २०१६, १७८ । संख्या शुद्ध असंख्यातगुणे यहाँ से संख्यात क्षेत्र को स्पर्श जो लब्ध आवे उसके अमख्यातवें अथवा संख्यातवें भागराशि असंख्यात बहुमान को संखेज्जदिभागे ण होज्ज ? [ नोट:-पू. ९३ पर ११वी पक्ति मे जो कहा गया है कि “तिरियलोगस्स संसेज्जदिभागे" संख्यातवां एकेन्द्रियो में एकेन्द्रियों में सासादन सम्यग्दृष्टियों में सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सहित सासादन गुणस्थानवर्ती उपपाद सबधी सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोका उपपाद सबंध ' (2 x ३ ) = २६ वर्गराजू या प्रतरराज् (xv) = २५६ ७ ૪૬૪૬ सूच्यंगुल के विपाकी ही है वे आकाश के प्रदेश के संख्यातवा उस पर यह शका है ] भाग क्षत्र में नहीं होना चाहिए ? स पर्याप्त राशि के बुद्धि का आहारक जीव X X X X X इस भविष्यकाल में स्पर्शनविषयक शास्ज्ञ के शायक के (१) २६६१ (२) २६ = २ व ૪૬૪' ! " सूच्यंगुल के विपाकी ही है" वे देशोन आकाश के प्रदेश संख्यात ॥५॥ २०१६, १२० [देखो मूल प्रकृत संख्या (क्रमश:) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर डा० हेमन्त कुमार जैन किया गया है वहां पर उन्हें ज्ञातपुत्र (पाली नातपुत्त) भी कहा गया है। क्योंकि वे ज्ञातृवशीय थे बिहार की जथरिया जाति अब भी अपने-आप को महावीर का वशज मानती है। तीर्थंकर परम भट्टारक देवाधिदेव भगवान् महावीर को लाखों जनमानस उन्हे अंतिम पौबीसवां तीर्थकर स्वीकार करते हैं। इतिहास उन्हें पुरुष की तरह जानता है। जिस युग मे महावीर ने जन्म लिया था, उसी युध में उनके समकालीनों मे केशकबली, मक्खली, गोशाल पबुद्धकच्चायन, पूरणकश्यप, संजय वेलट्टपुत्त और तथागत बुद्ध प्रभूति जैसी धार्मिक पुण्य विभूतिया थी । और विश्व के जाने माने महा-मानव ग्रीम मे महात्मा सुकरात, पारस में महात्मा जरथुस्त तथा चीन मे लाओत्से और कन्फ्यूशिस आदि ने अपने-अपने क्षेत्र मे क्रान्तिला दी थी। महावीर बुद्ध समकालीन थे । बिहार राज्य में आज से लगभग २५८७ वर्ष पूर्व वैशाली ( वसाढ़ पटना से ३० मील उत्तर मे ) एक समृद्धशाली राजधानी थी। इसके आस-पास हो कुण्डपुर या क्षत्रियकुण्ड के महाराजा सिद्धार्थ एवं उनकी महारानी त्रिशला ( प्रियकारिणी) की कोख से भगवान् महावीर का जन्म हुआ था। भगवान् महावीर का वाल्यावस्था का नाम वर्धमान था, एक बार भगवान महावीर अपने साथियों के साथ मैदान में खेलने के लिए गये वहा खेलते समय एक साथ आ गया, साप को देखकर उनके सभी साथी भाग गये, लेकिन वर्धमान निडर होकर वही बड़े रहे और साथ को अपने वश में कर लिया, इसी घटना के कारण सभी साथी उन्हें महावीर नाम से पुकारने लगे । जैन दर्शन साहित्य मे उन्हें वीर, अतिवीर, सम्मतिवीर, महावीर और वर्धमान यादि नामों से भी जाना जाता है उनकी अपनी और अनेक विशेषताओं एवं गुणों के कारण शतपुत्र, वैशालीय नामां से भी जाना जाता है। वान् महावीर प्रव्रजित होने के बाद पार्श्वनाथ की निर्ग्रन्थ परम्परा में दीक्षित हुए थे। इसलिए बौद्ध साहित्य में उनके लिए नि (पानी निगण्ठ) नाम से ही सम्बोधित महावीर ने तीस वर्ष को अवस्था मे राजकीय भोगोपभोगों का परित्याग कर दिया था, और आध्यास्मिक शाति की खोज के लिए मुनि दीक्षा धारण कर ली। महावीर दिगम्बर वेष धारण कर साधना और तपश्चरण में तल्लीन होकर बारह वर्ष तक कठोरतम यातनाओ के पश्चात् अपनी शारीरिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सके। जिस समय महावीर ने घर त्याग किया था और बारह वर्ष वनवास के बाद सर्वप्रथम देशना (दिव्यध्वनि) राजगृही के समीप विपुलाचल पर्वत पर की थी उस समय श्रेणिक विम्बसार राजगृही का शासक था । लगातार ३० वर्ष तक वह मगध देश के विभिन्न इलाकों में बुद्ध की तरह बिहार करते रहे और जैन धर्म का प्रचार किया । ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व महावीर ७२ वर्ष की आयु मे पावापुर से निर्वाण हुए तभी से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पावन दीपावली पर्व प्रचलित हुआ है । "महावस्तु" मे लिखा है कि बुद्ध ने वैशाली के अलारा एवं उड्डुक में अपने प्रथम गुरू की खोज की थी और उनके निर्देशन मे जैन बन कर रहे। भगवान् महावीर की माताजी चेतक वश से सबंधित थी, जो विदेह का सर्वशक्तिमान् लिच्छवि शासक था । जिसके इशारे मात्र से मस्ती एवं लिच्छवि लोग पर मिटने को तैयार रहते थे। भगवान् महावीर ने बयालिस वर्ष की अवस्था तक सम्पूर्ण मनन-चिन्तन करके समाज के समक्ष कई उदाहरण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ४४, कि० १ अनेकान्त प्रस्तुत किये जिससे सम्पूर्ण समाज की आंखें खुल गयीं। भोगे बिना छुटकारा नहीं। संसार में जितने भी प्राणी जिससे समाज को एक नयी दिशा मिली। हैं सब अपने-अपने कार्यों के कारण दुःखी हैं। भगवान् महात्मा गांधी ने जो सत्य और अहिंसा की ज्योति महावीर ने बार-बार इसी बात को दुहराया है कि व्यक्ति जलाई थी, उसकी पृष्ठभूमि मे भगवान् महावीर और को अपने कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । जो बुद्ध के नैतिक आदर्श रहे है। जैसा करता है उसे वैमा ही फल भोगना पड़ता है । कहा भगवान् महावीर ने हमेशा पशुओ की हत्या और भी गया है जो जैसा करे वो वैसा भरे । व्यक्ति जैसा यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों का निषेध किया था। प्राणियो विचार करेगा वह वसा बन सकता है वह अपने भाग्य का की हिंसा करना पाप है इसलिए उन्होने अहिंसा का विधाता स्वय है। इसलिए निर्ग्रन्थ प्रवचन में ईश्वर को प्रचार किया और उन्होन अहिंसा के बारे में इस प्रकार जगत का कर्ता स्वीकार नही किया गया है। तप आदि प्रकार महावाक्य कहे है अच्छे कर्मों द्वारा आत्मविश्वास की सर्वोच्च अवस्था को समया सव्वभूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे। ही ईश्वर बताया गया है। जैन धर्म की भारतीय दर्शन पागाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्कर ॥ को यह बहुत बड़ी देन है। ऐसी स्थिति मे जो लोग जाति अर्थात सभी जीवो के प्रति चाहे वह शत्रु हो या मित्र तिट के कारण कम के बन्धन मे फसकर इंसान समभाव रखना आर जीव हिंसा का त्याग करना बहुत समझना ही छोड़ देते थे, उनके लिए भगवान महावीर ही कठिन है। का सिद्धान। कितना प्रेरणादायक रहा होगा और उन्हे सत्य होते हुए भी, कठोर वाणी बोलने वाले के लिए तत्कालीन मिती समाज के खिलाफ कितना संघर्ष करना भगवान महावीर ने हिंसा कहा है पड़ा होगा। कर्म सिद्धान्त को ध्यान में रखकर वेदों को तहेव फरसा भासा गुरुभूओष धाइणी। मानने वाले ब्राह्मणों को लक्ष्य करते हुए भगवान् महासच्चा वि सा न वत्तवा जओ पावस्स यागमो॥ वीर ने कहाअर्थात् दूसरो को दुःख देने वाली कठोर भाषा यदि उदगेण जे सिद्धि मुदाहरति; साय च पाय उदगं कुसत्ता। सत्य भी हो तो उग नही बोलना चाहिए, इससे पाप का उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि, सिज्झिसुपामा बहवे दगसि । आश्रव होता है। भगवान् महावीर ने सच्चे त्यागी का ____ अर्थात् सुबह और शाम स्नान करने से यदि मोक्ष लक्षण बताते हुए लिखा है मिलता होता तो पानी में रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं जे य कसे पिये नोए, लद्धे वि चिट्ठि कुब्बइ। को मोक्ष मिल जाना चाहिए। इसी को और स्पष्ट करते साहीणे चयई भोए, मेहुचाई ति बुच्चई ।। हुए आगे भी कहा गया हैवत्थ गंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य । न वि मुंडिगण समणो न ओंकारेण वंभणो। अच्छंदा जे न भुजति, सो चाई त्ति बुच्चई ।। ण मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण ण तावसो।। अर्थात् जो सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी अर्थात सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता भोम् उसकी ओर से पीठ फेर लेता है और सामने आये हुए , का जाप करने से ब्राह्मण नही होता, जंगल मे रहने से भोगो का त्याग कर देता है, ही त्यागी है। वस्त्र, गध, मनि नही होता और कुश के वस्त्र पहनने से तपस्वी नहीं अलकार, स्त्री और शयन आदि वस्तुओं का जो लाचारी होता। तो फिर किससे होता हैके कारण भोग नहीं कर सकता उसे त्यागी नही कहते। कम्मुणा बभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ। आगे भी कहते हैं-- वइस्सो कम्मुणा होई, सुद्दो होइ उ कम्मुणा ।। जमिणं जगई पुढो जगा, कस्मेहि लुप्यति पाणिणो । अर्थात् कर्म (आचरण) से मनुष्य ब्राह्मण है और कर्म सयमेव कडेहि गाहई, णो तम्स मुच्चेज्जडपुठ्ठय ॥ से ही क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। अर्थात् अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो उसका फल (शेष पृ. ३० पर) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्ताधीन दृष्टि " श्री बाबूलाल जैन कलकत्ते वाले सम्पादकीय-पिछले वर्षों मे निमित्त की चर्चा विद्वानों के आग्रहवश काफी विवाद-ग्रस्त रही है काफी लोग पूजा-पाठ आदि जैसी क्रियाओ के करने से भी उदास हुए हैं। दीर्घकालीन पटाक्षेप के बाद लेखक ने पुनः इस विषय को छुआ है और आचार्यों के वाक्यो के प्रकाश में सिद्ध किया है कि निमित्त अकर्ता है। हम लेखक को मान्यता को पुष्ट करते हुए पाठकों का ध्यान इधर भी खीचना उचित समझते हैं कि पाठक 'निमित्तकर्ता नहीं' इससे व्यवहार में ऐसा भाव ही लें कि अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के प्रति अका है फिर भी निमित्त के बिना भी कार्य नहीं होता अतः अनुकूल निमित्तों का अवलम्बन लेकर कल्याण करना चाहिए। आशा है पाठक उक्त लेख को इसी दृष्टि से हृदयगम करेंगे और धार्मिक आचार-विचार जैसे निमितो को कल्याणकारी मान उन्हें अपनाए रहेंगे और अध्यात्म पर जोर देने वाले निमित्त- कर्तावादी हम सभी जन भी अपन परिबहरूप अकर्ता-निमित्तो के कृश करने मे उद्यत होगे तभी ऐसी चर्चाओ के फल मूर्तरूप लगे। -संपादक] निमित्त के बारे मे अनेकों प्रकार की चर्चा समय- कापने का निषेध के द्वारा समस्त निमित्तो के कर्तापने समय हुई है, परन्तु ऐसा लगता है निमित्त को कर्ता का निषेध किया गया है। मानने वाले अभी भी निमित्त को का मानते जा रहे हैं। अगर निमित्त को का माना जाएगा तो जो कार्य प्रश्न अभी खड़ा हुआ ही है ममाधान नही हो पा रहा है। निमित्त ने किया है अथवा निमित्त की वजह से किया समाधान होने के बाद अगर कोई सही बात को न माने गया है वह उसी के द्वारा मेटा जा सकता है । अगर राग तो उसकी खुशी है परन्तु समाधान इस ढंग का होना की उत्पन्न कर्ता स्त्री है तो राग को मिटाने वाली भी चाहिए जो न्याय, युक्ति तर्क से हमारे जीवन के हर स्थल वही होगी। उसकी इच्छा के बिना राग नही मिट पर सही उतरे। अगर वह सही उत्तर- है तो आगम से सकता। अगर ऐसा माना जाएगा तो आत्मा की मोक्ष भी उसका मिलान बैठना ही होगा। आज इसके बारे में प्राप्ति अथवा स्वर्ग, नर भी पगधीन हो जायेगा। राग कुछ विचार करते है, विद्वान लोग सी गलत का निर्णय की उत्पत्ति में भी आत्मा का कोई दोष नही होगा क्योकि करें। यह बात तो निश्चित ही है कि निमित्त कर्म नही गग का कर्ता कोई और होगा । जैसा आजकन कहते है हो सकता । कर्ता की परिभाषा है कि जो परिणमन करे कि ब्लेक के पैसे का आहार दे दिया इसलिए हम लोग वह कर्ता। कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का अथवा द्रव्य शिपलाचारी ह। गाः । अब उनका ठीक होना गहस्थो के की पर्याय का परिणमन कराने वाला नही हो सकता। कोई आधीन है अगर गहस्थ चाहेंगे तो उनका शिथलाचार अन्य द्रव्य को अथवा उसकी पर्याय या कर्ता माने तो दो मिटेगा, नही चाहेगे तो नही मिटेगा । परन्तु नरक निगोद द्रव्यों मे एकत्वपना होकर मिथ्यात्व की पुष्टि हो जाएगी। में गृहस्थ नही जाएगा शिथलाचारी ही जाएगा ऐसा इसीलिए जैन शासन मे भगवान को कर्ता नही माना है। श.यद वे नही मानते।' अगर कोई भगवान को कर्ता मानते है तो भगवान भी हमारी अगर राग-द्वेष का कर्ता दूर रा है तो संसारी आत्मा के लिए अथवः अन्य पुद्गलादि के लिए अन्य द्रव्य आत्माओं को राग द्वेष के अभाव करने का भी उपदेश हमा और उनका भगवान कर्ता है तो वे भगवान के साथ नहीं देना चाहिए क्योंकि वे क्या कर सकते है संसार मे एकत्वपने को प्राप्त हो जायेंगे । इस प्रकार भगवान के दूसरा दम्य तो रहेगा और वह जैसा करावेगा वैसा ही Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४,बर्ष ४ कि.१ अनेकान्त करना पड़ेगा क्योंकि हमारे अच्छे-बुरे का का दूसरा ही मान लिया तो संसार का कभी अभाव नहीं होगा। है। उसी प्रकार क्योंकि हम भी अन्य के लिए पर हैं आचायो ने परद्रव्य की पर्याय के साथ अन्य द्रव्य की इसलिए उस पर का भला-बुग भी हमारे हाथ मे है हम पर्याय का कोई भी सम्बन्ध और महयोग माना वह जैसा चाहेंगे वैसा उसका परिणमन करा देंगे । इसी का निमित्त नैपत्तिक के दायरे में ही आता है कर्ता कर्म के नाम अहंकार है। क्योंकि जब मैं पर का कर्ता हूं-हो दायरे में कोई भी सम्बन्ध किसी भी प्रकार का दूसरे के सकता है पर मेरा कर्ता हो सकता है तब पर के कर्ता- साथ नही हो सकता । निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध में उपापने का अहंकार मेरा भी नहीं मिट सकता और दूसरों का दान और निमित्त स्वतंत्र होते हैं पराधीनता का सवाल भी नहीं मिट सकता। इस प्रकार एक स्त्री सड़क पर जा नहीं होता। अब यह विचार करना है कि निमित्तका हमारे रही है उसको पता भी नही है कि उसको कौन देख रहा जीवन अथवा आत्मकल्याण में कोई सहयोग है या नहीं? है और देखने वाला रागी हो जाता है और कहता है इस निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध दो द्रष्यों की पर्याय में होता स्त्री ने राग करा दिया । क्या यह सत्य है ? यह तो वही है। दो द्रव्यों में नहीं होता क्योंकि द्रव्य नित्य होता है बात हुई कि "अन्धेर नगरी चौपट राजा" अगर किसी अगर द्रव्यो में माना जाएगा तो द्रव्यों का नाश नहीं होने की दीवाल गिर कर बकरी मर गयी तो दोष मसक बनाने से निमित्त नमैतिक सम्बन्ध का भी नाश नहीं हो सकेगा। वाले का है क्योकि मसक बड़ी बन गई। क्या इसी का निमित्त को तीन भागों में बांटा जा सकता है (१) नाम जनधर्म है, क्या यही जैनधर्म की दार्शनिक विचार धर्म, अधर्म, आकाश, काल का निमित्तपना (२) बाकी धारा है? क्या इसी के बल पर हम परमात्मा बनने की सब, जिसमें बाहरी पदार्थ, पुद्ग्लादि, स्पर्श रस, गंध वर्ण सोच रहे हैं ? फिर सवाल पैदा होता है कि अन्य द्रव्य कर्ता तो अभ्य प्रात्मा, देव, शास्त्र गुरु सभी आ जाते हैं-के साथ निमित्त-नैमित्तिक पना। (३) ससारी आत्मा का अष्ट नहीं है परन्तु कराता तो है । इसलिए उसी का दोष है। प्रकार के कर्मों के साथ निमित्त नमैत्तिकपना । इन तीनों इस विषय में भी आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि का सामान्य स्वरूप एक ही प्रकार का होते हुए हरेक वस्तु मे अपनी शक्तियां हैं। कोई द्रव्य "न्य वस्तु भी विशेष रूप से विचार करो पर कुछ अन्तर है। में कोई शक्ति उत्पन्न नही कर सकता । अगर किसी वस्तु जब जीव और पुद्गल अपनो किया वती शाक्त से एक में निज मे उसमें शक्ति नही है तो अन्य वस्तु के हजारो चेष्टा करने पर भी वह उस वस्तु मे कोई शक्ति पैदा नही जगह से दूसरी जगह जाते है तो धर्म द्रव्य स्वतः अपने आप निमित्त रूप रहता है वैसे हो ठहरते है तो कर सकती। अगर अन्य वस्तु अन्य वस्तु मे नई शक्तियाँ पंदा कर दे तो चेतना जड हो जाए और जड चेतन हो . अधर्म द्रव्य निमित्त रूप रहता है और जब आप अपनी जाए। फिर सवाल पैदा होता है कि उस वस्तु मे शक्ति परिणमन सकेन से द्रव्य परिणमन करता है तो काल, द्रव्य निर्मित रहता है और अवमाहना मे आकाश द्रव्य हो तो दूसरी वस्तु कुछ करती है अथवा दूसरे की वजह से कुछ होता है ? यह सवाल ही अब उत्पन्न होने की है ही इमम अनुकूल निमित के उपस्थित रहने वाली परिभाषा भी लागू हो जाती है। जगह नहीं रहती कोंकि वस्तु अपनी शक्ति रूप से परि दूसरे प्रकार के निमित्तपने में मात्र अनुकूल उपस्थिति गमन कर रही है। फिर सवाल पैदा होता है कि फिर क्या निमित्त का कोई कार्य में सहयोग है या नही । अगर की ही बात नहीं है परन्तु उपादान जिस वस्तु की पर्याय नही है तो उसको निमित्त भी क्यो कहा जाता है ? फिर का जिरा कार्य के लिए अवलम्वन लेता है उस रूप वह निमित्त नैमैतिक सम्बन्ध क्या है? आप ही परिणमन करता है। वह अवलम्बन चाहे बाहर ___ अगर निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध न हो तो संसार में वस्तु की उपस्थिति मे हो अथवा अपने अन्तर मे वस्तु कायम नहीं होगा और निमित्त नैमैत्तिक को कत्र्ता कर्म को विकल्पों में उपस्थित करके ले, पर का अवलम्बन वह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्ताधीन दृष्टि ही लेता है और जिस दृष्टिकोण से लेना है वह भी उसी पर निर्भर है तब वही रागरूप परिणमन करता है । सवाल पैदा होता है कि क्या इस प्रकार से निमित ने कुछ सहायता की ? नहीं निमित ने कुछ सहायता नहीं की परन्तु उपादान ने उसकी सहायता ली तब उपचार से कहा जाता है कि निमित्त ने सहायता की जोकि मात्र उपचार है; व्यवहार है। ऐसा मात्र निमित्त की प्रधानता दिखाने को कहा जाता है। लौकिक व्यवहारीजनों की भाषा है। फिर सवाल है कि क्या निमित्त कार्य में सहायक होता है ? उत्तर है सहायक नहीं होता परन्तु सहायता ली जाती है । वह कैसे ? अगर हम सहायक न बनावे तो कार्य नही होगा इसलिए हमारे ऊपर ही सब दारमदार है। अब अच्छे निमित्त मिलाना और बुरे से बचने का क्या सवाल है और फिर निमित्त को अच्छा बुरा कहने का भी क्या प्रयोजन है? इस पर विचार करते हैं। एक व्यक्ति एक चश्मा लगाता है। चश्मा नहीं दिखाता अगर चश्मा दिखावे तो पत्थर की मूर्ति को भी दिखा देवे । चश्मा से दिखता है ऐसा भी नही है अगर चश्मा से दिखे तो कोई आँख बंद कर चश्मा लगा ले उसको भी दिखने लगता । तब क्या कहा जावे ? चश्मे का हमने अवलम्बन लिया और उस प्रकार से लिया जो देखने में सही प्रकार है और देखने के लिए लिया और चश्मा लगाकर हमने देखा । इसलिए चश्मे का अवलम्बन हमने लिया, देखने के लिए लिया और चश्मा लगाकर हमने देखा । तब यह कहा जाता है कि चश्मे ने दिखा दिया यह उपचार कथन है। चश्मा का लगाना हमारी कमी को बता रहा है कि हमारी आंख में कमजोरी है। फिर सवाल पैदा होता है कि चश्मे ने नहीं दिखाया, चश्मे से ही देा परन्तु चश्मा बिना भी तो नही देखा जा सकना । यह बात सही है अगर आंखें कमजोर है तो देखने के लिए चश्मा बिना नही देखा जा सकता । यह समझ कर वह अपनी कमी को दूर कर दे तो चश्मे की जरूरत नहीं रहेगी । इसी प्रकार एक लकड़ी है हमसे चला नही जाता हम उसका सहारा लेते है और चलने के लिए लेते है । कंधे पर नहीं रख लेते हाथ में उस प्रकार लेते हैं जिससे चलने में सहायक हो और उसका अवलम्बन २५ लेकर हम चलते हैं। उसने सहयोग नही दिया हमने सह योग लिया और हम ही बने फिर अपनी शक्ति को बडाते जाते हैं और उसका अवलम्बन छोड़ते जाते हैं जब पूर्ण विकास शक्ति का हो जाता है अवलम्बन छूट जाता है। किसी ने माचिस दी हम चाहें तो आग लगा सकते हैं, चाहे खाना पका सकते हैं यह सब हमारे पर निर्भर है लकड़ी से किसी को मार सकते हैं, आग मे जला सकते हैं; और सहारा लेकर चल भी सकते है । उसमें जो जा पर्याय योग्यता है उसमें से किसी कार्य के लिए अवलम्बन लिया जा सकता है । देवशास्त्र गुरु का अवलम्बन हम लेते हैं। वहाँ बाहर में लेते हैं अथवा अपने उपयोग में, ज्ञान में उनका अवलम्बन लेते हैं । पुण्य के लिए भी ले सकते हैं. भेद विज्ञान के लिए भी ले सकते है यह भी हमारे पर निर्भर करता है । फिर जिस अभिप्राय से लिया उस रूप कामों परिणमन करते है तब उपचार लागू पड़ता है कि भगवान की वजह से मार्ग मिल गया । कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र में सम्यक्दर्शनादि अथवा भेदविज्ञान रूपी कार्य के निमित्तपने की योग्यता नहीं है, मिथ्यात्वादि रूप या ससार शरीर भोगो के निमित्तपने की योग्यता है अतः उनका निषेध किया गया और सच्चे देवशास्त्र गुरु के सयोग का उपदेश दिया गया। हमारे मे इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उस अवलम्बन के बिना अपने स्वभाव को देख सके । जब तक उसकी योग्यता नही बनती तब तक उनका अवलम्बन लेते है जब ऐसी योग्यता बना लेने हैं कि उनके बिना भी अपने आपको देख सके तब कोई दरकार नही रहती । परन्तु फिर भी जब स्वभाव से हटे तब फिर भावों के नीचे गिरने से रोकने को फिर उनका अवलम्बन लेना पड़ता है। किसी ने गाली निकाली गाली ने क्रोध नहीं कराया मानीने यह भी नहीं कहा कि तू मुझे सुन, यह आप ही कान में आये हुए शब्द वगंगा को सुनने को गया, वह भी इसी पर निर्भर है कि उसको इष्ट माने या अनिष्ट, इसने ही अनिष्ट माना और यही कषाय रूप परिणमन किया। गाली निकालने बाले ने क्या किया उसने तो मात्र अपना परिणमन कियां । यहां पर भी निर्मित की अधीनता नहीं है। समूचा जोर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४४,कि०१ उपादान पर ही आ रहा है। देवशास्त्र गुरु को इष्ट निमित्त चाहिए । शास्त्र-स्वाध्याय करना चाहिए यह नहीं कहना कहा सो भी इसलिए कि कषाय का होना अनिष्ट है और चाहिए क्योकि अभी तो कार्य हा भी नहीं यह कैसे कह कषाय का न होना इष्ट है ये कषाय के न होने में अव- सकते हैं। इसका उत्तर है कि एक सामान्य कथन है और लम्बन है इसलिए उपचार से इष्ट कहा है, मूल में तो ये एक व्यक्ति अथवा कार्य विशेष की अपेक्षा कथन है। इष्ट नहीं परन्तु कषाय का मंद होना या न होना इष्ट है। परन्तु सामान्य कथन में किसी का कार्य हो या न हो उसमें इसी प्रकार देवादि अनिष्ट नहीं है परन्तु वे कषाय के उस रूप के निमित्तपने की शक्ति को देख कर आचार्यों ने होने में महयोगी और कषाय का होना अनिष्ट है इम- उस कार्य के लिए उनका सहयोग मिलाने का उपदेश लिए इन्हें उपचार से अनिष्ट कहा है। दिया । मुलेठी में कफ गलाने की शक्ति है किसी का कफ उपादान जिस प परिणमन करने के सन्मुख होता गले या न गले उसकी शक्ति का निषेध नहीं कर सकते। है वह बाहरी पदार्थों को उसी रूप के कार्य के लिए सह- वह पंसारी की दुकान पे पड़ी है तब भी उसमें वह शक्ति योगी बना लेना है। हमारे में एक ऐमी धारणा बनी हुई विद्यमान है और इसी वजह से वैद्य किसीका कफ गालने को है कि कोई गाली दे तो क्रोध करना ही है, यही कारण है उसका उपयोग बताता है जब कि अभी कार्य तो हा ही नही किरोसा मगोग जड़ते ही अपनी धारणा के वसीभूत हम है। हमारे लिए निमित्त वह तभी कहलाएगी जब हमारा बिना गोचे समझे क्रोध कर लेते है । हम उसका अवलम्बन कफ गलेगा। परन्तु कफ गालने का निमित्तपना उसमे है लेने को तैयार ही रहते है और अनिष्टपना पहले से मान यह मानकर चलना होगा । यही बात देवशास्त्र गुपके रखा है। इसलिए ऐसा लगता है कि इसकी गाली निकालने प्रति है इसलिए उनका सहारे का उपदेश दिया गया है। से क्रोध हुआ या किया परन्तु गहराई से देखा जावे तो एक सवाल है कि किसी को निमित्त बनावे या न इसका पहले से नकही किया हुआ है कि ऐसा होने पर बनावे क्या यह हमारी स्वतत्रता है या निमित्त के उपऐसा करना । इस गलत मान्यता को तोड़े और यह निर्णय स्थित होने पर उसको निमित्त बनाना ही पड़ेगा? ऐसा कि कोई गारी निकालेगा तब भी मैं चाहू तो शांत रह नही है, निमित्त तो हर वम उपस्थित ही है अगर उपस्थिति -कता। मेरे को आज ऐमा ही शान्त रहना है, इस में निमित्त बनाना ही पड़े तो संसार से वस्तु का अभाव 1.:. वेष्टा-पटले की मान्यता अथवा पादत को तो होगा नही और निमित्त की उपस्थिति मिटेगी नहीं 131:।ग । धान नब बातो मे लागू पड़ती है। जब और हमारा विकार मिटेगा नही। ज्यादातर उदाहरण तमनमो भयस्था है तब तक हम जाने अनजाने, उस जो दिए जाते हैं वे पुद्गल के दिए जाते हैं और पुद्गल हमान नहीं नोने पर भी हर उपना अवलम्बन मैं अपनी समझदारी नहीं रहती अतः १०० गर्मी मिलेगी .:ो रग रूप परिण पन कर जाते हैं जब तक तो पानी को भार बनना ही पड़ेगा। किसी ने पानी के - हातात इसकी अपनी कमजोरी की बर्तन को आग पर रख दिया अब उस पानी को गर्म होना मा किया है कि ऐ. संयोग मे न जा, न ही पड़ेगा। धी को धूप में रखा उसको पिघलना ही गने -पग भएका लम्बन ले। यह इस वजह से पड़ेगा। इन सबको देख कर हमने भी यह समझ लिया -श्रीविह हमारग कर देगे परन्तु उन सयोग के कि हमतो निमित्त के अधीन है। स्फटिक के नीचे हक ग्दा : में तू परी कमी-मजोरी के कारण अपना बुरा लगाने पर लाल होगा ही। परन्तु चैतन्य के बारे में ऐसा र मा म अरछ सोगा: तू चाहे तो अपना भला नहीं है । पुद्गल के बारे में एक व्यक्ति अलग है जो वर्तन कर मकाना : . को पानी पर रखता है और पानी और भाग का निमित्त अब एक सवाल है कार्य होने के बाद निमित्त कह- नैमित्तिकपने को मिला देता है और कार्य हो जाता है। जाता है अथवा पहले से ही निमित्तपना है। क्योंकि कार्य परन्तु बाहरी संयोग मिलने पर भी चेतन चाहे तो उसका ने के बाद निमित्त कहा जाता है तब मन्दिर में जाना अवलम्बन ले अथवा न ले, किस कार्य के लिए ले यह भी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्ताधीन दृष्टि २७ उसी पर निर्भर है। इसलिए कार्य का होना न होना प्रबलता होती है तो बाहरी निरपयोगी पदार्थ में भी यह निमित्ताधीन नही रहा पर-तु इसके अपनी समझदारी के अपने कार्य का निमित्तपना बना लेता है जैसे पत्थर की अधीन रहा । इसलिए चेतन के बारे में विचार करते हुए ठोकर लगने पर यह विचार करना कि जो देखकर नही पुद्गल की स्थिति को देख कर वैसा नही समझना चलता उसको ठोकर लगती है इसी प्रकार अगर मैं मावचाहिए। क्योकि जीव मे ज्ञान शक्ति है इसलिए निमित्त धान नही रहता तो कषाय की ठोकर खानी पड़ती है। बनाना, नही बनाना, किस कार्य के लिए अवलम्बन लेना यहां पर भी उपादान की सभी तरह से स्वतन्त्रता कायम सभी कुछ उसी पर निर्भर है। परन्तु पुद्गल को वैसा रहती है। निमित्त का, वैसे कार्य के लिए निमित्त मिल जाए, या अब सवाल आता है आठ कर्मों के निमित्तपने का। मिला दिया जाए तो वह कार्य हो जाता है परन्तु उपादान कोई कह सकता है कि यहा तो जीव पराधीन जरूर मे तद्परिणमन की शक्ति होनी चाहिए । इसी वजह होगा । इसी पर विचार करना है । आठ कर्मों में कुछ से कार के साथ पेट्रोल का निमित्त उसी ढग से, उसी रूप से पुद्गल विपाकी है उनका निमित्त नमैत्तिक सम्बन्ध मिला दिया जाता है तो वह कार्यरूप परणित होती है अथवा पुद्गल का पुद्गल के साथ है अत: उनके उदय काल में कहना चाहिए कि पेट्रोल का अवलम्बन पाकर कार अपनी शरीरादि की अथवा संयोगो की वैसी स्थिति होती है। उपादान शक्ति से चली। जीव के बारे मे पर का अवलम्बन विचार उनका करना जो जीव विपाकी है जिनका फल लेकर परिणमन किया ऐसा मानना है जबकि पुद्गल में अव से जीव के ज्ञान दर्शनादि गुणों का घात होता है। मुख्य लंबन पाकर चाहे वह स्वतः मिले या किसीके मिलानेसे मिले रूप से चार घातिया कर्मों का विचार करना है। उन तब पूदगल उस कार्य रूप में परिणमन करता है। यही बात चारों मे से भी मोहनीय कर्म जो दर्शन जोहनीय और सभी पुद्ग्लादि के साथ लागू है। सूर्य की गर्मी पाकर समुद्र चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का है वही समूचे का पानी भाप रूप परिणमन कर रहा है, यहां किसी अन्य कर्मों की जड़ है वही ससार का कारण है । मुख्य रूप से ने निमित्त को नही जुटाया परन्तु कार के चलने मे पेट्रोल उसी का प्रात्मा के साथ किस प्रकार का निमित्त नमत्तिकका सम्बन्ध किसी अन्य ने जुटाया वह अवलम्बन पाकर पना है यह विचार करना है । एक बात तो यह समझ चलने रूप परिणमन हुआ। लेनी चाहिए कि हरेक कर्मों का सम्बन्ध अपने अपने कार्यों ___अब फिर एक सवाल होता है कि जब उपादान को के साथ अलग-अलग है । आत्मा के चारित्र और दर्शन से उस रूप परिणमन करना है तो वे सब निमित्त मिलेंगे ही मोह का सम्बन्ध है अन्य किसी भी कार्य से इस कर्म ही। ऐसा मानने पर भी एक बात तो निश्चित हो गई कि का सम्बन्ध नहीं है । करणानुयोग का कथन भी व्यवहार कार्य होने में निमित्त का अबलम्बन है चाहे बात को उपा-दृष्टि से किया गया है अतः सब जगह कर्म का कर्तापने दान की तरफ से कहा जावे अथवा निमित्त की तरफ से। की भाषा मे ही कथन है उस उपचार कथन को हमने क्या हम बाहरी निमित्तों को जुटा सकते है यह एक वास्तविक मान लिया है परिणमन जीव ने किया, कहा गया सवाल खड़ा होता है। उसके बारे में विचार करते है कि कर्म ने करा दिया और हमने भी यही मान लिया। यह द्रव्य दृष्टि से तो यह कार्य जीव का नहीं है और जीव नहीं समझा कि यह व्यवहार दृष्टि का कशन है। सर्वार्थ यह कार्य कर भी नहीं सकता। परन्तु पर्याय दृष्टि में यह सिद्धि में पूज्यपाद स्वामी ने उदय की परिभाषा करते हुए अपने योग उपयोग का जिम्मेदार है और उस योग उप- यह कहा है कि फल की प्राप्ति वह उदय है यानि जितना योग के निमित्तपने से कार्य सम्पादन होते हैं, इसलिए इस उदय है उतनी फल की प्राप्ति है ऐसा नहीं है परन्तु दृष्टि से इसका जुटाने वाला और हटाने वाला भी बताया जितनी फल की प्राप्ति है उतना उदय है। तब सवाल है और इस दृष्टि से इस बात का उपदेश दिया है, नहीं आता है कि बाकी फल का क्या हुआ जो हमने नहीं तो उपदेश निरर्थक हो जाएगा । जब इसके भीतर ज्यादा लिया। उसका उत्तर है कि उसका उदयाभावी क्षय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वर्ष ४४, कि० १ हो गया अथवा संक्रमण हो गया अथवा देशघाती आदि रूप होकर निर्जर गया । कर्म अपना समय पूरा होने पर निर्जर होने को प्राया । हमने जितना फल लिया उतना उदय कहलाया बाकी उदयाभावी क्षय हो गया। अगर ज्यादा लेने की पेष्टा को तो उदिग्गा हो गयी। यह हमारे पर निर्भर है हम कितना फल लेते है ज्यादा या कम सवाल पैदा होता है कि अगर हम बिल्कुल नहीं लेवे तो कषाय से रहित हो जायेगे ? उसका उत्तर है कि इसके लिए आत्मशक्ति की दर कार है जितनी हमारे में आत्मशक्ति है उतनी भी हम पूरी नही लगाते अगर पूरी भी लगा दे तो उतना ही उदयाभावी अय होगा जितनी गुणस्थानों के अनुसार आत्मशक्ति है। अगर उससे आगे आत्मशक्ति बढ़ती है तो गुणस्थान भी बदली हो जाता है । हरेक गुणस्थान में एक कम से कम (Mini) एक ज्यादा से ज्यादा (Maximum) शक्ति का उपयोग हम करते है। जैसे हमारी शक्ति १ से ४ तक है ज्यादा से ज्यादा उस गुणस्थान मे हम चार प्वाइंट तक शक्ति लगा सकते हैं। अगर हमारे पास ४ से १० तक शक्ति है तो हमारा गुणस्थान दूसरा होगा। एक छ । वर्ष का बच्चा एक पत्थर को नहीं हटा सकता है मात्र हिला सकता है परन्तु वही बड़ा होकर शक्ति का संग्रह करके उसको उल्टा सकता है। यही बात जीव की है चौथे गुणस्थान मे जितनी शक्ति है उतना ही कार्य कर सकता है। वहां पर जो राग द्वेपादि होते है वे उसकी शक्ति की कमी की वजह से होते हैं उसे उतना फल ग्रहण करना पड़ता है । तब उपचार से कहते हैं कर्म ने फल दे दिया वह जब अपनी शक्ति आत्मानुभव के द्वारा बढ़ा लेता है तब वही अप्रत्या स्थानावरण- - प्रत्याख्यानावरण रूप हो जाती है । क्योंकि अब उसमें इतनी शक्ति का संग्रह है कि यह तद् रूप फल नही लेता है। इस प्रकार से यहां पर भी जीव की स्वतंत्रता है फल कितना लेना है यह जीव की शक्ति पर निर्भर है । यही कारण है कि पंचास्तिकाय मे आचार्य ने लिखा है कि द्रव्य प्रत्ययों का उदय होने पर भी जीव भाव मोह रूपन परिणमन करें। अब फिर सवाल पैदा होता है कि क्या कर्म मे फलदान शक्ति है अथवा वह मात्र थर्मामीटर है । दमका अनेकान्त उत्तर है कि जैसे पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है हरेक फल को या चीज को अपनी तरफ खेच लेती है । वैसे ही पुद्गल कर्म अथवा मोहनीय कर्म मे भी संसारी आत्मा को रागद्वेषरूप परिणमन करने में खिचाव की शक्ति है यह मानना जरूरी है क्योकि अगर ऐसा नही मानते हैं। तो सम्यक्दृष्टि आत्मा सामायिक कर रहा है, परिणामों को सम्भाल रहा है, स्वभाव की तरफ दष्टि करने का पूरा कर रहा है परन्तु अनेक प्रकार ऊल-जलूल विकल्प और विपरीत परिणाम लाख चेष्टा करने पर भी हो जाते है । इससे मालूम देता है कि अपनी शक्ति से खिचाव ज्यादा है तब वैसा परिणमन कर जाता है। जैसे चुबक और लोहा हैं । लोहा अगर भारी है और चुम्बक मे शक्ति कम है तो लोहे को नहीं खेच सकेगा । अगर सूई पड़ी होगी तो उसको बैंच लेगा एक प्रादमी एक आदमी का हाथ पकड़कर खींच रहा है वह भी उधर जाना चाहता है तब उस आदमी की और दूसरे आदमी की दोनो की शक्ति मिल कर खंचाव होगा | अगर वह नहीं जाना चाहता है और अपनी शक्ति को खेचाव से विपरीत दिशा में नया देता तो पहले आदमी की शक्ति में से दूसरे की शक्ति कम करने पर अगर पहले वाले मे ज्यादा शक्ति बचती है तो उतना खिंचाव होगा। मिध्यादृष्टि उस विचाव की तरफ जाना चाहता है अतः कर्मशक्ति और उसकी शक्ति एक दिशा मे काम करती है । सम्यकदृष्टि खिचाव की तरफ नही जाना चाहता अतः जितनी शक्ति उसने खिचाव के विरुद्ध मे लगाई उतनी कम होकर बाकी का कर्म की तरफ खिचाव हुआ । ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों मे आत्मशक्ति बढ़ती जाती है अतः कार्य का खिचाव कम होता जाता है। यहां भी कर्म की वजह से उधर गया यह करणानुयोग का कथन है और अपनी आरमशक्ति की कमी की वजह से उधर गया यह अध्यात्म का कथन है। विचार किया जावे तो दोनों का एक ही अर्थ है। जीव की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है, इसका भी कारण आत्मबल की कमी है। दूसरे की बरजोरी नहीं है वह पुरुषार्थ बढ़ाकर आत्म-बल बढ़ा सकता है । अगर आत्मबन नहीं बढ़ाना है तो यह उसकी वजह कही जाएगी। आत्मबल भी मम से गुणस्थानों के अनुसार ही बढ़ता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमिसाधीन दृष्टि २६ अगर जीव प्रायोग्यलब्धि में तत्व चितवन में उपयोग संस्कार को फिर मजबूत कर देता है। अगर वह ज्यादा लगाता है तो मिथ्यात्व ढीला पड़ने लगता है और करणलब्धि मजबूत हो जाता है तो जीव उस संस्कारो के आधीन में अपने स्वभाव को देखने की चेष्टा कराता है तब मिथ्यात्व हो जाता है। उस मस्कारो को मेटने के लिए उसका हटने लगता है। यहां पर ऐसा समझना चाहिए कि एक विरोधी उससे भी ज्यादा मजबूत सस्कार पैदा करना कमरे के किवाड़ बंद है और कहा जाता है कि किव ड खुले होगा। उसीका नाम प्रात्मानुभव है जिम्से पहले वाला बिना बाहर नहीं जा सकता है परन्तु साथ में सजी पचे न्द्रय संस्कार मिटे और नया नही आवे तभी संवर और को यह भी कहा जा रहा है कि तू चाहे तो किवाड़ खोल निर्जरा होती है। सकता है, किवाड़ खुले हुए ही है तेरे अ.गे बढ़ने की देरी है इससे यह निश्चित हआ कि यह जीव अपनी शक्ति जैसे हवाई अड्डे में फाटक बन्द रहता है और बन्द देख के अनुसार अपना बचाव कर सकता है। यह कर्म को कर वह खड़ा रहे तो यह उसकी खुशी है । परन्तु आगे ज्यादा निमित्त बनावे, कम बनावे यह उमी पर निर्भर है बढ़ता जाता है तो फाटक खुलता जाता यही बात कर्म के इसलिए यहां भी इसकी स्वाधीनता है। बारे में है। सभी चीज हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करती इसी के बारे मे प० टोडरमल जी तीन उदाहरण है। एक बार राग करने पर आत्मा पर उगी जाति का तीन प्रकार के कमों के बारे मे दिये है। सस्कार और मजबूत हो जाता है । इस प्रकार हर समय १. अधातिया कर्मों के निमित्त से बाहरी सामग्री का हमारे सस्कार मजबूत होते जाते है जब बहुत मजबूत हो सम्बन्ध बने है-यावत् कर्म का उदय रहे तावत् बाह्य जाते है तब आत्मा अपने ही सस्कारी के आधीन हा जाती सामग्री तैसे ही बनी रहे। है और तदरूप परिणमन अपनी इच्छा के विरुद्ध करने २. काह पुरुष के सिर पर मोहन धूलि परी है लगती है। यह हमारी अपनी पैदा की हुई पराधीनता है। तिसकरी सो पुरुष बावला भया'..."बावलापना तिस उस सस्कारो को तोड़ने के लिए उससे विपरीत सस्कारो मोहन धलि ही करी भया देखिए है। के उपाय करने होगे । जैसे पर मे, शरीर मे एकपने के ३. जैसे सूर्य के उदयकाल । वर्ष च सवा चकवीनि का सस्कार मजबूत करते जा रहे है उस सस्कार को तोड़ने के का संयोग होय, तहा रात्रि विषै. . . . . . 'सूर्यास्त का लिए शरीर से भिन्नपने के संस्कार पंदा करने को वैसी निमित्त पाय आप ही विछर है ऐना ही निमित नैमित्तिक चेष्टा कानी होगी। निरन्तर आत्मा के भिन्नपन को बनि रह्या है तसे ही कर्म का निमित्त नै मेत्तिक भाव जानो। भावना भानी पड़ेगी वह भी उतनी ही गहराई में जितनी दूसरा उदाहरण मोह कर्म की अपेक्षा है। इसी शरीर में अपनेपने की भावना भाई है तब वे सस्कार बात को ऊपर में खिचाव नाम देकर कहा गया है । टेंगे इसीका नाम निर्जरा है। एक काटा चुभा हुअा है पहला उदाहरण अघाति कर्मों का है। अगर उसको निकालना है तो सुई को कांटे की लम्वाई से पं० जी ने नवमी अध्याय मे निमित्त के बारे मे ऐसा नीचा ले जाकर निकालना होगा। शरीर के एकत्वपने के कहा है कि एक कारण तो ऐसे है जाके भए कार्य सिद्धि हो संस्कारको तोड़ने के लिए उससे ज्यादा गहरा मजबूत सस्कार होय जैसे सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र की एकता। कोई कारण शरीर से भिन्नता का चाहिए । हम उतना पुरुपार्थ नही ऐन है जाके भए बिना तो कार्य न होप और जाक भए करते तब पहला संस्कार नहीं टूटता यही कर्म की थ्योरी कार्य होय या न भी होय जैन मुनि लिंग धारे बिना.. । है। राग का सस्कार मेटने को भी उतना जोरदार पुरु- कई कारण तो ऐसे हैं जो मुख्याने तो जाके भए कार्य षार्थ चाहिए तब गग मिटेगा । किसी व्यक्ति को माला होय अर काहू के बिना भए भी कार्य सिद्धि होय जैसे कहने की आदत पड़ गई। अब वह आदत से लाचार हो अनशनादि बाह्य तप । यहा पर भी साधन मे कारण का गया और च हे-अनचाहे जाने-अनजाने साला निकल जाता उपचार करके साधन को कारण कहा। वहां पर उसको है। जब एक बार साला निकलता है तो पहले के साधन ही मानना चाहिए कारण नहीं मानना चाहिए। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष ४४, कि० १ में इसी बात को लेकर निश्वयवहारानंवि के कान मे कारण का निषेध करके साधनपने की स्थापना की है। ऐसा ही प्रवचन सार में चरणानुयोग चूलिका के शुरु साधनपने की स्थापना की ओर माधन की परिभाषा भी रखी कि "तेरे प्रसाद से अपने रूप को प्राप्त कर लू यहां पर वह प्राप्त करा दे, उससे प्राप्त हो जावे दोनों का निषेध करो मैं प्राप्त कर लू तेरे प्रसाद से अर्थात् तेरा अवलम्बन लेकर मैं प्राप्त कर लू, यह परि भाषा सभी निमित्तो के लिए बन जाती है । अतः निमित्त कर्ता नही, कराता नही, निमित्त से होता नही परन्तु जिसका अवलम्बन लेकर हम कार्य करते हैं वह निमित्त नाम पाता है यही परिभाषा बनती है। कर्मों में भी (मोहाटिक में चुंबक की तरह विवाद तो मानना है परन्तु कार्य हमारी प्रात्मशक्ति के अनुसार ही कम ज्यादा होता है । जब आत्मशक्ति कम है तब कर्म का तीव्र उदय कहलाता है जब आत्मशक्ति ज्यादा है तो कर्म का मद उदय कहलाता है । ! अगर कोई कहे कि उपादान उस समय की अपनी पर्याय योग्यता के अनुसार परिणयन करता है वहां निमित्त के सहयोग का क्या सवाल है ? उसका उत्तर है कि लगड़े बादमी की पर्याय योग्यता लकड़ी का सहारा लेकर चलने की है। भले बगे आदमी की योग्यता निरालम्बन चलने की है । इसलिए वह पर्याय्योग्यता कहने में भी निमित्त सापेक्षता आ जाती है। श्रनेकान्त वह दुख सुख का कर्ता, रागद्वेष का कर्ता, निमित को मानता है क्योंकि संसार में हमारे अपने सिवाय सभी पर है अतः सभी निमित्त हो सकते हैं इसलिए समस्त जीव अजीवादि के प्रति उसकी गम्भवना में राग-द्वेष रहता है, जो कि अनंतानुबंधि कहलाता है। इसलिए जो निमित्त को कर्ता मानता है वह मिध्यादृष्टि रहता है। आगम में कारणानुयोग और चनुयोग में नितिको कर्ता कहकर वर्णन किया है जो उाचार है अर्थात् निमित्त में कर्तापने का उपचार है वारत में कर्ता नहीं है, इसको लेकर समयसारजी में ऐसा कहा है कि जो ऐसे मानता है वह सांखामति है चाहे अरहतके मत का मानने वाला मुनि भी क्यों नही होवे । पहारी जीवो को समझाने की आचायों ने भाषा में वर्णन है नहीं तो व्यवहारी लोकों को समझ मे ही आ सकता था। जैसे कोट को छोटा हो गया कहना यह लौकिक भाषा वास्तव में तो पहनने वाला मोटा हो गया यह सही भाषा है | वैसे ही निमित्त को कर्ता कहने की लौकिक भाषा है सभी इसी भाषा का इस्तेमाल करते है जैसे उसने ऐसा कर दिया, मैंने ऐसा कर दिया आदि। परन्तु वास्तव में लौकिक भाषा का अर्थ तो हम ठीक समझते है परन्तु उसी भाषा का उपयोग परमार्थ कथन में आचार्य करते है तो हम उसी को लौकिक भाषा जैसा अर्थ न करके उसका परमार्थरूप अर्थ कर लेते हैं। वही असल मे हमारी अज्ञानता का मुख्य कारण है । अगर दो द्रव्यों की पर्याय का निमित्त मेत्तिक सम्बन्ध नहीं मानेगे तो संसार भी नही बनेगा अथवा उसका अभाव भी नही बनेगा। अगर उसमे कर्ता कर्म सम्बन्ध मान लिया तो कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। 00 ( पृ० २२ का शेपाश) 1 निमित्ताधीनदृष्टि का अर्थ है मिध्यादृष्टि क्योंकि यह मानता है कि निमित्त ने ऐसा कर दिया। मैं, मेरा सब कुछ, मोक्ष मार्ग भी निमित्त के आधीन है । अत: अपने भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ का ही मार्ग अपनाया है। पार्श्वनाथ मे अहिंसा, सत्य, अस्त्य और अरिग्रह का वर्णन इस प्रकार है-आया है जो स्थानाग सूत्र २६६ के अनुसार इस प्रकार है(१) सव्वातो पाणाति वायाओ वेरमणं । भगवान् महावीर ने इन चार अर्थात् स प्रकार के प्रणयात सेवित (अहिंसा) बहुत बल और जोर दिया है। जयन्ती के अवसर पर उनके आ नाना चाहिए। (२) एवं (ग) मुगाबाबाओ बेरमण । अर्थात् सभी प्रकार के असत्य से विपरीत (सत्य) (३) सव्वातो अदिन्न दाणाओ वेन्मणं । धत् सभी प्रकार के अदत्तादान से विरति ( अचौर्य ) (४) सम्पातो वाद णाओ वे मणं । अर्थात् सब प्रकार के बहिर्धा आदान से विरति । ( परिग्रह ) ( अपरिग्रह ) धर्मों के पालन पर अत: व इस महावीर महावाक्यों को अप 00 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए ! क्या प्रभिनन्दन का यही तरीका है ? जैसे वाचना परीषह विजयी होने में मुनि स्वयं नहीं मांगते, चन्दे से निर्मित आहारादि ग्रहण नहीं करते वैसे ही ज्ञानी होने के कारण विद्वान भी स्वयं याचना नही करते और पर-याचना द्वारा दूसरों से अपने लिए एकत्रित द्रव्य को ग्रहण भी नहीं करते । मला, जिस ज्ञानगुण के कारण मुनि अपने साधु पद जैसी पंचम श्रेणी में रहते भी अपनी गणना चतुर्थ परमेष्ठी ( उपाध्याय) के रूप में पाते है, उस ज्ञान की महिमा को हीन कैसे माना जा सकता है ? ज्ञानी तो याचना नहीं करता वह तो उपाय परमेष्ठी की भांति अपने ज्ञानद्वारा याचकों की झोली भरने का काम हो करता है और पूज्य पं० फूलचन्द जी ने जीवन भर यही किया है। हमें हार्दिक वेदना हुई जब हमने एक पत्र मे प्रकाशित 'श्री पं० फूलचन्द जी सि० शास्त्री का अभिनन्दन' शीर्षक से ऐसी सूचना देखी जिसमे एक लाख रुपयों की राशि संचित कर उन्हें समर्पित करने को लिखा परन्तु माथ में दातारों से राशि देने की अपील उन्हें यह प्रलोभन देकर की गई है कि तारों के नाम की सूची विभिन्न जैन पत्रों में प्रकाशित कर दी जाएगी। यह पर खेद हुआ क्योंकि ऐसा इस प्रकार से करना न तो अभिनन्दन करने वालो के लिए शोभास्पद रहा और न जिनका अभिनन्दन किया जा रहा है उनके लिए उपयुक्त रहा। पंडित जी को अभिनन्दित कर राशि देना तो उचित है परन्तु अच्छा तो यह होता कि राशि इकट्ठी कर उनको अभिनन्दन के समय सबकी या किसी सस्था की ओर से भेट की जाती। जब इतने बर्ष कल ही चुके थे, अभी तक यह कार्य नहीं किया जा सका था तब एक-दो मास और निकल जाते । पंडित जी को भेंट करने को इस प्रकार पत्रो मे पंगा इकट्ठा करने की अपील निकलवाना निदनीय है। यह पंडित जी के उस्कारों, उनकी अपावृति और ज्ञानगुण के सर्वधा विपरीत है। आश्चर्य है कि उक्त रूप से अभिनन्दन व द्रव्य भेंट करने का निश्वय जयपुर पचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर उन मुमुक्षुओ द्वारा हुआ जिनकी प्रतिष्ठा की जड़ो मे पंडित विद्यमान है और जिनके प्रयत्नों से मुमुक्षु समाज प्रकाशित है। यदि तनिक भी कृतज्ञता का भाव होता तो ये लोग पंडित जी की रात को अपने हों याचनावृत्ति के बिना भी सहज ही दे सकते थे । हमें वेद इसलिए हुआ कि हमारे मन में पंडित जी के प्रति अत्यन्त सम्मान है, उनके उपकारों के प्रति अत्यन्त कृतज्ञता का भाव हैं। उनकी उम्र की हो चुकी है। इस अन्त समय में उनको भेंट करने की राशि की अपील इस प्रकार खुले रूप में निकालना अपमानजनक और उनके नाम से भिक्षावृत्ति है । देखा जाय तो मुमुक्षुओ के प्रति पंडित जी के ऐसे अगणित उपकार हैं जिन पर लाखों मुमुक्षुओं और मुमुक्षु मण्डलों की समस्त चल अचल संपत्ति निछावर कर दी जाय तो भी थोड़ी है। हमें दुख तब शायद न हुआ होता जब ऐसा उपक्रम 'मरणोपरान्त' हुआ होना क्योंकि आज मरणोपरांत ऐसे उपक्रमोंकी परिपाटी चल पड़ी है और लोग [अ०] महावीर व कुन्दकुन्द के बाद भी उनके नाम पर आज चन्दा चिट्ठा कर उनकी कीर्ति भुनाने में लगे हैं, आदि । हम तो श्रद्धेय पुण्य पडित जी का उनके जीवन में सम्मान करते रहे है और करते हैं। उनकी अयाचीकवृत्ति, परोपकारिता और निकिता हमे प्रेरणादायी रही है और रहेगी। उनके चरणो मे सादर नमन । कुछ शोध और सेमिनार जब हम मानकर चल रहे हैं कि हम अनादि हैं श्रीर हमारा वीतराग धर्म-सिद्धांत अनादि है तब यदि कोई हमे और हमारे धर्म को अन्य किन्ही गाधनों से किसी खास निधन काल (४-६ हजार वर्ष पूर्व) का सिद्ध करने का प्रयास करे अथवा हमारे वीतराग देवों का रामो देवीदेवताओं से एकत्व सिद्ध करने का प्रयत्न करे तो हम उसे बुद्धिमान न कहेंगे और न हम पुद्गलपिडों की खोज के माध्यमों से अपने और अपने अनादि धर्म को प्राचीन या नवीन सिद्ध करने को हो महत्व देंगे। भला अनादित्व मे प्राचीनत्व या नवीनत्व कैसा और वीतरागत्य मे सरागत्व फेस? हमारे तीर्थंकरों ने छह द्रयों को और उनमे होने वाले परिवर्तनों को अनादिनिधन और अपने-अपने रूपों मे भिन्नस्वभाव और स्वत माना है और स्पष्ट क Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ४४, कि०१ है-'आत्मस्वभाव पर भाव भिन्नं ।'-जैसे रागादिक वास्तव में हमारे सेमीनार मुल सिद्धांतों, आगम वैभाविकभाव अनादि है वैसे ही वीतरागतारूप जैनधर्म कथानको और जैनाचार की पूष्टि में ही होने चाहिएऔर उसके सिद्धांतो का अस्तित्व भी अनादि है। विरोध मे नहीं । क्योंकि "नान्यथावादिनों जिनः'। हमारे जब हम आज के कई जैन-वेत्ताओं को आगम के सेमीनार इतिहास या पुरातत्व को लेकर किन्हीं नए समीविपरीत जाते देखते है तब आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि करणों के लिए नहीं हों--विवादों या भ्रमों के उत्पादक न या तो उन्हें जिनवाणी पर विश्वास नहीं या फिर वे अपने हों इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए । जो लोग इतिहास को अधिक बुद्धिमान साबित करने के लिए भांनि-भांति के और पूरातत्व के आधार पर कुछ का कुछ सिद्ध करना नाटक रचते है । पोई इतिहास के नाम पर और कोई चाहें और जिनसे हमारे आगम कथानकों का मेल न बैठे परातत्व के सन्दर्भ से जिनवाणी को झुटलाने के असफल ऐसे लोगों से हमारा निवेदन है कि वे इति का हास अर्थात् प्रयत्न करते है-आचार से जो जैन का मूल प्रतीक है, बीते-समाप्त हए का हास (हास्य) न करें-हमारे आगम उन्हे कोई सरोकार नहीं । आज जगह-जगह सेमीनार होते सर्वथा सत्य है, उनकी ही पुष्टि हो। हैं, उनमें जैनागम, जैनाचार और जैन-सिद्धांतो की पुष्टि दिसम्बर, १९८८ में हमने 'ऋषभ और शिव एक में कितने होते है-यह विचारणीय है। व्यक्तित्व' जैसे विचार के प्रसंग में जैन आगमानुसार हमने देखा है कई जैन सेमीनारो मे जैन और अजैन शिव-कथा को देकर ऋषभ से शिव की भिन्नता को विद्वानो को दूर-दूर से आते हुए मार्ग-व्यय, दक्षिणा आदि दर्शाया था-दोनो के स्वरूप को भिन्नता को स्पष्ट किया लेते हए, उनकी सेवा-सुश्रूषा होते हुए। कई विद्वान् था। यदि किसी भांति शोधकों की दष्टि (नो गलत है) अपना निबंध लाते हैं और वाच देते है। कई निबध तो लोगों के गले उतर गई और ऋषभ और शिव दोनो मे पुराने और कई-कई सेमीनारो मे वाँचे 'हए होते हो तब महद अन्तर होने पर भी यदि उन्होंने दोनो को एक मान भी आश्चर्य नहीं । श्रोता सुन लेते हैं और प्रत्येक वाचन लिया तो दिग्भ्रमित बहुत से जैनी शिव-भक्त बन जायंगे के बाद श्रोताओ को प्रश्नोत्तरों के लिए इतना समय भी और जैन का घात होगा । हमारा विश्वास है कि कट्टर होने नही मिता जो समाधान हो सके । जब कि काफी समय । से शिव का ए पुजारी भी ऋषभ का उपासक नहीं बनेगा। मिलना चाहिए । फिर एक सेमीनार में एक ही विषय को ऐसे ही एक शोध अभी सामने आया है पावं को छुआ जाना चाहि।, आदि । ___ व्रात्य सिद्ध करना । यह कहां तक सही हो सकता है ? यदि सेमीनार आगम-कथन की पुष्टि की दृष्टि से हो पर प्रसिद्ध कोशकारो ने 'व्रात्य' शब्द को सस्कारहीन, और आयोजक लोग किसी एक विषय को महीनो पूर्व पतित, भील आदि के रूपो में माना है। फिर भी येन-केन निर्धारित कर संभावित निमंत्रित विद्वानो को विषय सुझाए प्रकारेण र दि पाव को व्रात्य मान भी लिया जाय और और महीनो पूर्व सभी निमत्रित विद्वान परस्पर के निवधो ये भी मान लिया जाय कि कोशकागे ने ईष्यावश व्रात्य का विधिवत् पारायण कर एक-दूसरे के विचारो मे शब्द के अर्थ को हीन रूप में दर्शाया है। तब भी इससे सामजस्थ बिठालें-और आगमानुकूल विषय का निर्धारण जैन की अनादिता या पाश्र्व के व्यक्तित्व मे क्या फर्क पड़ता कर ले--तब कही सेमीनार बुलाने का उपक्रम हो, तब है? फिर यह भी दखा जाय कि व्रात्य शब्द किस जनशास्त्र मे व्रती या पार्श्व के लिए आया है? हमारे शास्त्रो मे कुछ फल समक्ष आ सकते है । आयोजक चाहे तो निबंध व्रात्य शब्द है भी या नहीं? हमने तो कही देखा नही। महीनो पूर्व मगाकर टकित कराकर विद्वानो को भेज सके हमे यह इष्ट है कि जो भी विचारणा हो अपने वर्ततो विचारणा का कार्य सहज हो सके। ऐसा न होने से मान-रूप और आचार विचार को जैनानुरूप ढालने के लिए वर्तमान कई सेमीनारो का फल अधूरा या विपरीत भी हो सिद्धांतो के कथनो को पुष्टि के सन्दर्भ म ही हो-किसी सकता है। कई-कई बार तो श्रोता भ्राति मे भी पड जाता आगम काट-छाट मे या दिग्भ्रमित करने मे न हो। हमारे है कि हमारे ग्रागम-कथा सत्य है या इन सेमीनारो म विचार किसी विरोध मे नहीं अपितु आगम-रक्षण में हैं। प्रगट विचार सत्य है। प्राशा है सोचेगे। -सम्पादक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x ४० वर्ष पूर्व-वर्णी जी को कलम से जो घर छोड़ देते हैं वे भी गृहस्थों के सदृश व्यग्न रहते हैं। कोई तो केवल परोपकार के चक्र में पड़कर स्वकीय ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं। कोई हम त्यागी हैं, हमारे द्वारा संसार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान में चूर रह कर काल पूर्ण करते हैं । x शान्ति का मार्ग सर्व लोकेषणा से परे है। लोक-प्रतिष्ठा के अर्थ, त्याग-व्रत-संयमादि का अर्जन करना, धूल के अर्थ रत्न को चूर्ण करने के समान है। पंचेन्द्रिय के विषयों को सुख के अर्थ सेवन करना जीवन के लिए विष भक्षण करना है। जो विद्वान् हैं वह भी जो कार्य करते हैं आत्म-प्रतिष्ठा के लिए ही करते हैं। यदि वे व्याख्यान देते हैं तब यही भाव उनके हृदयों में रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशंसा हो-लोग कहें कि आप धन्य हैं, हमने तो ऐसा व्याख्यान नहीं सुना जैसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगों का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरुषों द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ। इत्यादि वाक्यों को सुनकर व्याख्याता महोदय प्रसन्न हो जाते हैं। x x मेरा यह दृढ़लम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पंडित वर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है । यदि उनके कोई बात अपनी प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्रविहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते हैं। आजकल बड़े-बड़े विद्वान यह उपदेश देते हैं कि स्वाध्याय करो। यही आत्म-कल्याण का मार्ग है। उनसे यह प्रश्न करना चाहिए-महानुभाव, आपने आजन्म विद्याभ्यास किया, सहस्रों को उपदेश दिया, स्वाध्याय तो आपका जीवन ही है। परन्तु देखते हैं आप स्वयं स्वाध्याय करने का कुछ लाभ नहीं लेते। प्रायः जितनी बातों का उपदेश आप करते हैं हम भी कर देते हैं। प्रत्युत, एक बात हम लोगों में विशेष है कि हम आपके उपदेश से दान करते हैं, परन्तु आप में वह बात नहीं देखी जाती। आपके पास चाहे पचास हजार रुपया हो जावे परन्तु आप उसमें से दान न करेंगे। आप जिन विद्यालयों द्वारा विद्वान हए, उनके अर्थ शायद किसी ने ही कुछ रुपए भेजे होंगे। तथा जगत को उपदेश धर्म जानने का देवेंगे परन्तु अपने बालकों को एम०ए० ही बनाया होगा। अन्य को मद्य-मांस-मधु के त्याम का उपदेश देते हैं। आपसे, कोई पूछे कि आपके अष्टमल गुण हैं? तो हँस देवेंगे। व्याख्यान देते देते पानी का गिलास कई बार आ जावे तो कोई बड़ी बात नहीं। हमारे श्रोतागण भी इसी में प्रसन्न हैं कि पण्डित जी ने सभी को प्रसन्न कर लिया। -वर्णों वाणी - - कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरी देवो मैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन प्रति संग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों घोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द 1 -प्रशस्ति संग्रह भाग २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय घौर परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । 1 reeबेलगोल और दक्षिण के समय जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ६.०० ... ... जैन साहित्य और इतिहास पर विवाद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४, सविस्य । ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) : संपादक पं. बासचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री प्रेम लावली (तीन भागों में) सं० पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रो जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन Jaina Bibliography: Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. १५.०० १००० 5-83 १२-०० प्रत्येक भाग ४०-०० २-०० प्रिन्टेड पत्रिका बुक-पैकि 600-00 : [सम्पादन] परामर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक ---बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मुदित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली- ५३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका मासिक अनेकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') बर्ष४:कि०२ मप्रैल-जून १९९५ इस अंक में विषय १. मन को सीख २. तत्त्वार्थवातिक में प्रयुक्त ग्रन्थ -डा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ३. जिनसेन के अनुसार ऋषभदेव का योगदान -जस्टिस एम०एल० जैन ४. वसुनन्दिकृत उपासकाध्ययन में व्यसन मुक्ति -श्री श्रीराम मिश्र ५. नियमसार का समालोचनात्मक सम्पादन -डा० ऋषभचन्द जैन फौजदार ६. अहार का शान्तिनाथ प्रतिमा लेख -डा० कस्तूरचन्द जैन 'सुमन' ७. धवल पुस्तक ४ का शुद्धि पत्र -पं जवाहरलाल शास्त्री ८. गुजरी महल में संरक्षित शान्तिनाप प्रतिमाएं -डा० नरेश कुमार पाठक ६.केवल उपादान को नियामक मानना एकान्तवाद है -पं० मुन्नालाल 'प्रभाकर' १०. अपरिग्रही ही आत्म-दर्शन का अधिकारी -श्री पपचन्द्र शास्त्री 'सम्पादक' ११. जरा सोचिए-सम्पादक १२. बाल ब्रह्मचारिणी श्री कोमलकुमारी के नाम पत्र -श्री विमल प्रसाद जैन कवर पृ. २ प्रकाशक: बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल ब्रह्मचारिणी श्री कौशलकुमारी के नाम पत्र नई दिल्ली-२ १-७-६१ आदरणीय बहिन कौशल जी, सादर नमस्कार । नैतिक शिक्षा समिति नई दिल्ली के मार्गदर्शन में चलाए गए नैतिक शिक्षण शिविर का समापन आज आपके सानिध्य में कैलाश नगर दिल्ली में सम्पन्न हभा। मैंमे आपका प्रवचन आज तक नहीं समा था, हालांकि बहुत प्रशंसा सुनता आ रहा था ? आज पहिली बार ही प्रवचन सुनने को मिला और सुनकर बहुत दुःख हुआ और साथ ही आश्चर्य भी। आपने अपने प्रवचन में निम्नलिखित बातें कहीं उससे बहुत से प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं तथा वहां उपस्थित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पर चर्चा भी की। आपने कहा "मैं आगम के विरुद्ध बोल रही हूं। महावीर स्वामी के संबंध में अक्सर कहा जाता है कि उन्होंने नारी जाति को काफी स्वतंत्रता दी परन्तु मैं तो कहूंगी कि महावीर स्वामी ने जिनका अनुशासन चल रहा है, नारी जाति के प्रति बड़ा अन्याय किया है क्योंकि उन्होंने कहा है कि नारी मोक्ष नहीं जा सकती। आयिका ज्ञानमती माता जी की तपस्या २०-२५ वर्षों से भी अधिक है और ज्ञानवान भी हैं परन्तु उनको भी उस मुनि को नमस्कार करना पड़ेगा, वह चाहे कुछ दिन पहिले ही मुनि क्यों न बना हो।" उपरोक्त प्रवचन से निम्नलिखित प्रश्न उत्पन्न होते हैं १. क्या दि० त्यागी चाहे वह किसी भी पद पर हो, आगम के विस्द्ध बोल सकता है ? २. क्या महावीर भगवान ने कोई ऐसी अलग बात की जो उनसे पूर्व अन्य तीर्थकरों ने न की हो? ३. क्या नारी जाति को मोक्ष होने की मनाही केवल महावीर स्वामी ने की उससे पूर्व नारी भव से मोक्ष होने की बात आगम में कहीं भी कही गई है ? ४. क्या आर्यिका ज्ञानमती जी को इतना ज्ञात नही है कि नारी किसी भी पद पर हो उसका पद मुनि से छोटा है और उसे मुनि को नमस्कार करना होगा? ५. क्या शास्त्रों का इतना अध्ययन करने के पश्चात भी अभी तक स्त्री को मोक्ष न होने के कारण की जानकारी नहीं हो पाई है ? ___ यदि आप समझती हैं कि जो आपने प्रवचन में कहा है वह आपकी मान्यताओं के अनुसार सही है तो आपको यह बात सिद्धान्तों एवं तर्क से सिद्ध करनी चाहिए ! त्यागी होते हुए आगम के बिरुद्ध बोलना जनता में भ्रम उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा और उसका परिणाम ऐसा ही होगा जैसे श्वेताम्बर समाज की उत्पत्ति हुई। सादर, क्षमा प्रार्थी विमल प्रसाद जैन, मंत्री दि. जैन नैतिक शिक्षा-समिति, नई दिल्ली, माजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.००... वार्षिक मूल्य :) २०, इस अंक का मूल्य । १ रुपया ५० पैसे विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह मावश्यक नहीं कि सम्पावक-मण्डल लेषक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४४ किरण २ अनेकान परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०४८ मन को सीख कुटेव यह, करन विषै को धावं है । अनादि तें, निज स्वरूप न लखावे है ॥ { "रे मन, तेरी को इनही के वश तू पराधीन छिन छीन समाकुल, दुरगति विपति चखावे है | रे मन० ॥ फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुख पावे है। अप्रैल-न १६६१ रसना इन्द्रीवश झष जल में, कंटक कण्ठ छिदावे है ।। रे मन० ॥ गन्ध-लोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावे है। नयन - विषयवश दीपशिखा में, अङ्ग पतङ्ग जरावं है | रे मन० ॥ करन - विषयवश हिरन अरन में, खल कर प्रान लुभाव है। 'दौलत' तज इनको जिनको मज, यह गुरु सीख सुनावे है | रे मन० ॥ - कविवर दौलतराम भावार्थ - हे मन, तेरी यह बुरी आदत है कि तू इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ता है। तू इन इन्द्रियों के वश के कारण अनादि से निज स्वरूप को नहीं पहिचान पा रहा है और पराधीन होकर क्षणक्षण क्षीण होकर व्याकुल हो रहा है और विपत्ति सह रहा है । स्पर्शन इन्द्रिय के कारण हाथी गढ़े में गिरकर, रसना के कारण मछली काँटे में अपना गला छिदा कर, घ्राण के विषय गंध का लोभी भरा कमल में प्राण गँवा कर, चक्षु वश पतंगा दीप- शिखा में जल कर और कर्ण के विषयवश हिरण वन में शिकारी द्वारा अपने प्राण गँवाता है । अतः तू इन विषयों को छोड़ कर जिन भगवान का भजन कर, तुझे ऐसी गुरु को सोख है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवार्तिक में प्रयुक्त ग्रंथ डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर अकलहकदेव बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होने तत्त्वार्थ- व्याख्यानतो विशेषप्रतिषत्तिवहि सन्देहादलक्षणम्" वातिक ग्राथ सैकड़ों ग्रन्थो के आलोडन विलोडन के बाद (पा० म० पस्पशहिक सू०६) लिखा था। तत्त्वार्थवार्तिक मे उद्धृत अथवा निर्दिष्ट निमित्त का ण हेतुषु सर्वासां प्राय: दर्शनात (पा.म. तत्तत् ग्रन्थों के अश इस बात के प्रमाण है कि अकलङ्कदेव २/३/२३) का ज्ञान बहन विस्तृत था। उनके तत्त्वार्थवार्तिक मे जिन- जेनेत व्याकरण- अकल डूदेव ने पूज्यपाद के जिन ग्रन्थों का उपयोग हुआ है, उनका विवरण यहां दिया जैनेन्द्र व्याकरण के अनेक सूत्र उद्धृत किए हैं ? वे जैनेन्द्र जा रहा है व्याकरण के अच्छे जाना थे। तत्त्वार्थ वार्तिक में जैनेन्द्र पातञ्जल महाभाष्य--अब लकदेव को महा व्याकरण के उद्धरण इस प्रकार हैभाष्यकार पतञ्जलि की शैली प्रिय थी। उन्होने तत्त्वार्थ करणाधिकरण यो" (जैने० २/४/६९) वार्तिक में पतञ्जलि के मत की आलोचना करके उसमें युड् व्याबहुलम् (जने० २/३/६४) अनेकान्त को घटित किया है। साथ ही स्थान-स्थान पर सर्वादि सर्वनाम" (जने० १/१/३५) महाभाष्य से अनेक उदाहरण और पक्तियां ली है-- टिदादि (जैने० (१/१/:३ अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो वा'षा०म० १/२/४७) ज्वलितिकसंताण्ण: जैने०७२/१/११२ गौणमुख्ययोर्मुस । संप्रत्यग.' (पा० मा० /३/८२) अपादाने अहीयबहोः" (जने वा०४/२/५०) अभ्यहितम् पूर्वम् निपतति (पा० म० २/२/३४) आद्यादिभ्य उपसख्यानम् (जैने०४/२/४९) अन्तरेणापि नाप्रत्ययं गुणपधानो भवति निर्देशः' समानस्य तदादेश्च"ज. बा० ३/३/३५) (पा० म० २/४/२१: साधनं कृता" (जैने० १/३/२६) द्वयेकयोः (पा. सू०१/४/२२) मयूर व्यंसकादित्वा द्वा८ (मयत्यसकादयश्च जमे. विशेषण विशेष्येण (पा सू०२/१५७) समुदायेषुहि प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते' समानस्य तदादेश्च" (जैने. वा० ३/३/३१) (पा०म० पस्पशाहिक) दष्टि साम्नि च जाते च अण् डिद्वा विधीयते' स्वार्थे को वा(जै०३/१/६१) (प. महा०२/४/७) देवता द्वन्द्वे" (जने०४/३/१३८) . अवयवेन विग्रहः समुदायो वृत्त्यर्थः (पा. म० आनङ् द्वन्द्वे" (ज० ४/११३८) २/२/२४) सामीप्येऽधेध्युपरि" ५/३/५ वर्णानुपलब्धी चातदर्थगते" (प.० म• प्रत्याहा ५) तदस्मिन् (जैने० ३/ /५८) व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिनंहि सन्देहा दलक्षणम" अपादाने ऽहीयरुहो" (जने० ४/३/५०) (पा० महा० प्रत्या० सू० ६) आद्यादिभ्य. उपसख्यानम्" (जने. ४/२/४९) द्वयोयोरिति ग्रहणमन्यार्थमुक्तम्" (पा० म. १/१/ अहोयरहो:" (जने० ४/३/५०) २२) दुतायो तपरकरणे मध्यमबिलम्बितयोरूपसख्यानम१४ द्वन्द्वसु (जने० १/३/६८) (1०म० १/१/६०) अल्पातरम्" जैने० १/३/१००) नजिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा पथंगति' विशेषणं, विशेव्येण (जैने० १/३/१२) (प० म० ३/९/१२) ह्वतः" (जने ० ३/९/६१) गुणसन्द्राबो द्रव्यम्" (पा० म०५/१/११९) द्रव्येभव्ये २ (जैने० ४/१/१५८) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवातिक में प्रयुक्त प्रन्य कृकमिक सा" (जैने० ५/४/३४) अभिधर्मकोश-अभिधर्मकोश (२०१७) में कहा अजायत्" (जैने० १॥३।६६) गया है कि पाच इन्द्रिय और मानस ज्ञान में एक क्षण संख्यकाद्वीप्सायां" (जैने० ४।२।४८) पूर्व का ज्ञान मन" है। ऐसे मन से होने वाले ज्ञान को साधनं कृताः बहुल" (जने० ११३।२६) मानस प्रत्यक्ष कहते है । अकलङ्कदेब का कहना है कि वह स्त्रियांक्ति:" (जैने० २।१।७५) अतीत असत् मन ज्ञान का कारण कैसे हो सकता है ? अष्टाध्यायी-अकलङ्कदेव ने कर्तुरीपिसक्तम् कर्म" यदि पूर्व का नाश और उत्तर की उत्पत्ति को एक साथ (पाणिनि ४४९) जैसे कुछ सूत्र पाणिनीय व्याकरण मानकर कार्य-कारण भाव की पल्पना की जाती है तो से उदधत किए उन्हीने 'गर्गाः शतंदण्ड्यताम्' जैसे कुछ विनाश और उत्पत्तिमान भिन्न सन्तानवर्ती क्षणों में भी उदाहरण दिए हैं। यह पाणिनि के कारक प्रकरण में कार्यकारणभाव मानना पड़ेगा। यदि एक सन्तानवर्ती 'गर्गाः शत दण्डयति' रूप में आया है। इन सबसे ज्ञात क्षणो में किसी शक्ति या योग्यता को स्वीकार करेंगे तो होता है कि उन्हें पाणिनीय व्याकरण की अच्छी जान- तो क्षणिकत्व की प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है ?" कारी थी? अभिधर्मकोश में कहा गया है-'तत्राकाशमनावृतिः' वाक्पदीय-अकलदेव ने तत्त्वार्थवार्तेक मे (१५) अर्थात् प्रकाश नाम की कोई वस्तु नहीं है, केबल वाक्पदीय की एक कारिका उद्धृत की है-- आवरण का प्रभाव मात्र है ? अकलङ्कदेव ने इसका खण्डन शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदरविद्येवोपवर्ण्यते । ___करते हुए कहा है कि आकाश आवरण का अभावमात्र अन्नागमविकल्पा हि स्वय विद्या प्रवर्तते (वाक्पदीय नहीं है, अपितु वस्तुभूत है; क्योकि नाम के समान उसकी २।२३५) सिद्धि होती है। जैसे नाम और वेदना आदि अमूर्त होने अन्य वैयाकरणो के समान वाक्पदी के रचयिता से अनावरण रूप होकर भी सत् है, ऐसा जाना जाता भतहरि स्फोटवाद को मानते है। स्फोटवाद के अनु- है। अन्यत्र 'षण्णा नन्तरातीत विज्ञान' यद्धि तन्मनः सार ध्वनियाँ क्षणिक है, वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और (अभिकोश) को उद्धृत करते हुए अकलङ्कदेव ने उसके अनन्तर क्षरण में नष्ट हो जाती है ? वे जब अनन्तर क्षण प्रतिवाद मे कहा है कि मन का पृथक् अस्तित्व न मान में नष्ट हो जाती हैं, तब तो अपने स्वरूप का बोध कराने कर विज्ञान को मन कहना ठीक नहीं है क्योकि पूर्व ज्ञान में भी मीणशक्ति वाली हैं, अत. अर्थान्तर का ज्ञान कराने __ को जाने का उसमें सामर्थ्य नही है ? में वे समर्थ नहीं हैं ? यदि ध्वनिया अर्थान्तर का ज्ञान प्रमाण समुच्चय--अकलङ्कदेव न प्रत्यक्ष के लक्षण कराने में समर्थ होतीं तो पदो से पदार्थों के समान प्रति के प्रम में बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष लक्षण हेतु प्रमाण समुच्चय वर्ण से अर्थ का ज्ञान होना चाहिए और एक वर्ण के द्वारा को इस रूप मे उदधत किया है ? अर्थबोध होने पर वर्णान्तर का उपादान निरर्थक होगा? प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्यादि योजना । क्रम से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का सहभाव रूप सघात असाधारणहेतुत्वादक्षस्तद् व्यपदिष्यते ॥ भी संभव नही है, जिससे अर्थबोध हो सके। अत: उन (प्रमाणसमुच्चय १।३।४) म्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला, अर्थ के प्रतिपादन मे इसके उत्तर मे अकलङ्कदेव ने कहा है क्या वह समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय कल्पना पे सर्वथा रहित है अथवा कञ्चित् कल्पना से शम्बस्फोट स्वीकार करना चाहिए? रहित है ? यदि सर्वथा कल्पनागढ प्रमाणज्ञान है तो आदि ___ अकलकूदेव ने स्फोटवाद का खण्डन किया है। कल्पना से अपोढ है, इत्यादि बचन व्याघात होगा? यदि क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य-व्यजक भाव नहीं है।" कञ्चित् कल्पना से रहित सिद्धान्त स्वीकार करते हो व्यंग्य-व्यंजक भाव कैसे नहीं है, इसका विस्तृत विवेचन तो एकान्तवाद का त्याग होने से पूनः स्ववचन व्याघात राजवातिक मे किया गया है।" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसमुच्चय में कहा है-'योगिनां गुरुनिर्देशाद् क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यलक्षण । व्यतिभिन्नार्थ मात्रदक्' अर्थात् योगियों के गुरुनिर्देश (वैशे० १।११५) (अर्थात् आगम उपदेश के) बिना पदार्थमात्र का अवबोष दिक्कालावकाशं च कियावभ्यो वैधात् निष्किहो जाता है ? इसके निषेध में प्रकलङ्कदेव ने कहा है कि याणि । एतेन कर्माणि गुणाश्च व्याख्याताः निः क्रिया:" (वैशे० ५।२।२१-२२) यह कथन ठीक नहीं है ? अक्षं अक्ष प्रति वर्तते अर्थात् प्रक्ष मात्मन्यात्ममनसोः सयोगविशेषात् आत्मप्रत्यम्" प्रक्ष के प्रति जो हो, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं और योगियों (बशे० ९ ११) के अक्ष (इन्द्रिय) जन्य ज्ञान नहीं हैं, क्योकि योगियों के आत्म सयोग प्रयत्नाभ्यां हस्ते“कर्म (वैशे० ५।१।१) इन्द्रियों का अभाव है ? बोदो के द्वारा कल्पित कोई योगी व्यवस्थातः । शास्त्रसामर्थ्याच्च नाना ही नहीं हैं। क्योंकि विशेष लक्षण का प्रभाव है तथा (वैशे० ३।२।२०-२१) निर्वाण प्राप्ति मे सबका अभाव बौद्ध मानते हैं । अग्नेरूद्धज्वलन वायोश्चतिर्यपवनम् अणुमनसोश्चाद्य अन्य मतों के लक्षण देते हुए अकलङ्कदेव ने प्रमाण कर्मत्येतान्य दृष्ट कारित नि उपसर्पणमपसर्पणमसितपीत समुच्चय की पंक्ति 'कल्पनापोढं प्रत्यक्षं' को उधृत किया संयोगाः कायान्तरसयोगश्चेति अदृष्टकारितानि है।" इस प्रकार अकलङ्क ने दिङ्नाग के ग्रन्थो का सम्य (वैशे० ५।२।१३।१७) गवलोकन किया था, इसकी पुष्टि होती है ? प्रयत्न योगपद्यात् योगपनाचक' मन:(वैशे० ३।२।३) न्यायसन-न्यायदर्शन के अनुसार दुःखादि की उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकूञ्चत प्रमारण गमनमिति निवत्ति होना मोक्ष है ? इसके समर्थन में अकलङ्कदेव ने कर्माणि" (वैशे०१७) म्यायसूत्र का एक सूत्र उद्धत किया है-"दुःखजना - ऋक्संहिता-ऋग्वेद दशम मण्डल में सबससे प्रवत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभान्निः कहा गया है-'पुरुष एवेदं सर्व यदभत यच्च भाव्यं" माधिगमः" अर्थात दुःखजन्म प्रवृत्ति दोष और मिथ्या अर्थात् जो कुछ हो चुका है और आगे होगा, वह सब ज्ञान का उत्तरोत्तर अपाय हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति परुष रूप । होती है।" ___ इसके विरोध में अकलङ्कदेव ने कहा है कि उक्त प्रत्यक्ष के अनगमतों के लक्षण मे भी न्यायसूत्र को प्रकार की कल्पना कर लेने पर यह वध्य और घातक है, उधत किया है-'इन्द्रियार्थमान्निकर्षोत्पन्न ज्ञानमव्य यह भेद नही हो सकता । चेतनशक्ति (ब्रह्म) का ही यदि पदेश्यमन्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष' अर्थात् इन्द्रिय सारा परिणमन माना जाता है तो घट, पट आदि रूप से और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाले अव्यपदेश्म, दृष्टिगोचर होने वाले सारे जगत् का लोप हो जायगा निर्विकल्पक, अव्यभिचारी प्रो. व्यवसायात्मक ज्ञान को । और ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष विरोध भी आता है तथा प्रत्यक्ष कहते।" प्रमाण और प्रमाणाभास का भेद भी नहीं रहेगा इत्यादि। योगभाष्य-योगदर्शन में पातजलयोगदर्शन पर मैत्रायणोपनिषद-तत्त्वार्थवार्तिक में 'अग्निहोत्रं सभाग्य मिलता है। तत्त्वार्थवार्तिक में रूप शब्द के जुहुयात् स्वर्गकामः' अर्थात् स्वर्गकामी अग्निहोत्र यज्ञ भनेक अर्थ बतलाते समय एक अर्थ स्वभाव भी बताया करें, मैत्रायणोपनिषद् के वाक्य का कर्ता की असंभवता तथा उसके प्रमाणस्वरूप योगभाव्य का चतन्य पुरुषस्य के आधार पर खण्डन किया गया है।" स्वरूपं वाक्य उद्धृत किया गया है। यहां रूप का अर्थ मनस्मति-तत्त्वार्थवार्तिक के आठवें अध्याय के स्वभाव है। प्रथम सूत्र की व्याख्या में मनुस्मृति के 'यज्ञार्थ पशवा वैशेषिकसत्र-तत्त्वार्थबार्तिक मे अनेक स्थान पर सष्टा: स्वयनेव स्वयंभवा" इस वाक्य का खण्डन किया वैशेषिक सूत्र उद्धृत किए गए है? जैसे गया है तथा इस हेतु अनेक प्रमाण" दिए गए हैं। तत्त्व भावेन व्याख्यातम" (वैशे० ७२।२८) ___ भगवदगीता---अवधिज्ञान आत्मोत्थ होने से परोक्ष आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षाद्यन्निष्पद्यतेतदन्यत्"। नही है, इसके समर्थन मे भगवद्गीता का यह पद्य उद्धत (वैशे० ३।१८) किया गया है Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवातिक में प्रयुक्त प्रन्य इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः पर मनः । असख्येयाः प्रदेशाः धर्माधम कजीवानाम् । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धे: परतरो हि सः ॥ भग० ३१४२) लोकाकाशेऽवगाहः । अर्थात् इन्द्रियों पर हैं। इन्द्रियों से भी परे मन है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । मन से भी परे बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है। तत्त्वार्थाधिगममाष्य-तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा न होने से अवधिज्ञान द्वारा स्वीकृत पाठ की अकलङ्कदेव ने कही-कहीं आलोको परोक्ष नही कह सकते । इन्द्रियों को ही पर कहा चना की है। कही-कही भाष्य मे सूत्र रूप से कही गई जाता है। कई पंक्तियो का विस्तृत व्याख्यान राजवातिक मे पाया सांख्यकारिका-तत्त्वार्थवातिक के प्रथम अध्याय के जाता है। बन्धेऽधिको पारिणामिको (त.सू. ५॥३७) के प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सांख्यकारिका को चवालिसवी __ स्थान पर भाष्यकार ने 'बन्धे समाधिको पारिणामिको' कारिका के 'विपर्ययाद् बन्ध:' अश को उद्धृत किया गया कहा है। अकलङ्कदेव ने इति अपरे सूत्र पठन्ति के निर्देश है। पूरी कारिका इस प्रकार है के साथ इस पाठ की समालोचना की है । बन्धे समाधिको धर्मणगमन मूवं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । परिणामिको' का तात्पर्य है कि द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यत बन्धः ॥ रूप भी परिणामक (परिणमन कराने वाला) है। आप प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के ४३वें वार्तिक में उप- मे विरोध होने से यह पाठ उपयुक्त नही है। ऐसा मानने युक्त कारिका की विस्तृत व्याख्या की गई है। आगे पर सैद्धान्तिक विरोध आता है। क्योकि वर्गणा मे बन्धविस्तृत रूप से ज्ञान मात्र से मोक्ष होता है, इसका खण्डन विधान के नोआगम बन्धविकल्प.सादि वससिक बन्धनिर्देश किया गया है। मे कहा गया है कि 'विषम स्निग्धता' और विषम रूक्षता तत्त्वार्थ सूत्र-तत्त्वार्थ वार्तिक की समस्त रचना में भेद होता है। इसके अनुसार ही 'गुणसाम्ये सदृशाना' तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रो की व्याख्या के रूप में की गई है। यह सूत्र कहा गया है। इस सूत्र से जब समगुण वालो के अतः क्रमिक रूप से सूत्रों का उल्लेख हुआ है। इसके बन्ध का प्रतिषेध (निषेध) कर दिया है, तब बन्ध में 'सम' अतिरिक्त व्याख्या के बीच-बीच में कहीं तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र भी पारिणामिक होता है, यह कथन आर्षविरोधी है, अतः उद्धृत किए गए हैं । उदाहरणार्थ कुछ सूत्र इस प्रकार हैं- विद्वानों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। (क्रमशः) सन्दर्भ सूची १. 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीतिलोके' ३३. ॥१८१, ३४. ४१६२, ३५. ४।२018, काव्याख्यान पा० म० १११२२, तत्त्वार्थवातिक ३६.४४।२०१६, ३७. ४।२११४, ३८. ४॥२१॥५, शश२६ ३६. ४।२१।५, ४०. ५१०१, ४१. ५।१।२७, २. तत्त्वार्थवातिक १।३।१२, ३. १।५।२८, ४. १।६।१ ४२. ५।२।२, ४३. ६।१२, ४४. ६।४।८, ४५. ६।८१७ ५. वही २।२।१, ६. २।२।१, ७. २०२।१, ६. २।८।१, शश, ६. रारा ७.स . सदा ४६.६।१२।३, ४६१ ४ ४७.८।३।१, ० ४८, ६११३, ६, ४१४३, १०. २११४१४, ११. २।१८।४, १२. ३११८१४ ४६. ६।१।१३, ५०. १।१२।१५, ५१. ५।२४१५ १३.३।२१२, १४. ४॥२२१,१५. ५११६, १६. शराः ५२. षण्णामतातरातीतं विज्ञान वितामतः । १७.४१७११६, १८, ५।२६।५, १६. ११४, श१२।११ मे उष्वत । २०.११२५, २१. ११११११, २२. ११११११, ५३. तस्वार्थवातिक ११२।११, ५४.५।१८।११, २३. १।१३।१, २४. २०३८।१, २५. २।३८१, २६.३.१६।३,२७.४।३।३, २८. ४।३।३ २६.१४॥२, ५८, वही ॥१२॥४-१० ३०. ४१४३, ३१. ४.१२१७, ३२. ४१२७, (शेष पृ० ११ पर) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसेन के अनुसार ऋषभदेव का योगदान 7 जस्टिस श्री एम० एल० जैन नवी शताब्दी के जिनसेन ने अपने महाकाव्य प्रादि. इन्द्र देवों के साथ उपस्थित हुआ और आज्ञानुसार इस पुराण में भगवान् वृषभदेव के समस्त जीवन का विशद प्रकार रचना कीवर्णन किया है जिसके दो क्ष अत्यन्त रोचक हैं-युवराज- सर्वप्रथम अयोध्या के केन्द्र में व चारो दिशाओं में काल और राज्यकाल । आइए इनकी संक्षिप्त झलक देखी जाए : तदनन्तर निम्न देशों की स्थापना की-कोशल, युवराज काल महादेश, मुकौशल अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, साकेत अश्मक, अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिद्ध नम: कहकर सिद्धमातृका रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अग, बग, सुह्य, समुद्रक, अक्षरावली अपने दोनो हाथों से लिखकर लिपि सिखाई काश्मीर, उशीनर. आवर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशांणं, दूसरी पुत्री सुन्दरी को स्थान क्रम से गरिणत सिखाया। कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजागल, करहाट, महाराष्ट्र, दोनों पुत्रियों को व्याकरण, छन्द, अल कार का प. सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोशल, देश देने के साथ-साथ मो से भी अधिक अध्याय वाला चोल, केरल, दारु, अभिसार, सोवीर,शूरमेन, अपरान्तक, व्याकरण लिखा पोर अनेक अध्यायो वाला छन्दशास्त्र विदेह, सिंध, गांधार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, रचा जिसमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, एकद्विप्रिलघुक्रिया, आरट, वाहीक, तरुहक. शक और केकय । संख्या और अध्वयोग का निरूपण किया। शब्दालकार इन देशो में सिंचाई व्यवस्था कायम को। सीमाऔर अर्थालकार सिखाए तथा दशप्राणवाले अलंकार संग्रह सुरक्षा के लिए किले किलेदार व अन्नपाल बनाए । मध्यकी रचना भी की। वर्ती इलाको की रक्षा का भार सौपा लुब्धक, आरण्य, अपने पुत्रों को भी अम्नाय के अनुसार अलग-अलग चेरट, पुलिन्द, शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों को। लोकोपकारी शास्त्र पढ़ाए खासकर(१) भरत को अर्थशास्त्र । इन सब देशों में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर अटारी (२) वृषभसेन को नत्य और गंधर्वशास्त्र । से घेरकर राजधानियाँ कायम की। (३) अमन्तविजय को चित्रकला के साथ अन्य कलाएं फिर निकृष्ट गांव, बड़ेगाव, खेट, खर्वट, महम्ब, तथा विश्वकर्मा की वास्तु विधा। पत्तन. द्रोण मुख, धान्यसंवाह, आदि ग्राम व नगरों की (४) बाहुबली को कामनीति, स्त्रीपुरुष लक्षण पशु रचना की और इन्द्र ने पुरन्दर नाम पाया। __ लक्षणतंत्र, प्रायवेव, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा प्रावि। गांवों के बाहर शूद्रों व किसानों-के रहने के लिए यह सब तो किया कल्पवृक्षों के रहते-रहते। कल्प- बाड़ से घिरे घर बनाए। बाग और तालाब बनवाए। वृक्षों को समाप्ति पर प्रजा मे दुख व्याप्त हो गया तो नदी, पहाड, गुफा, श्मशाम, थूअर, बबूल, वन, पुल आदि भगवान् वृषभदेव ने पूर्व और पश्चिम के विदेह क्षेत्रो में के द्वाग गांवों की सीमाए निर्धारित की। एक गांव की प्रचलित वर्णव्यवस्था, आजीविका के साधन, घर ग्राम सीमा एक कोस ओर बड़े-बड़े गावो की सीमा पांच कोस आदि की रचना के अनुकरण मे अपने पिता के राज्य में रखी गई। भी यही सब स्थापित करने के लिए इन्द्र को बुलाया। अहीरों के घोष, दस गांवों के बीच में एक बड़ा गांव, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसेन के अनुसार ऋषभदेवका योगवाम करे। दो सो गांवों का खवंट, चारसो गांवो का नदी किनारे नियम बनाना प्रारंभ कर दिया और कई नियम बनाए। द्रोणमुख, आठसो गांवों पर राजधानी स्थापित की। उनमें सबसे प्रमुख थे विवाह व्यवस्था के। उपरोक्त प्रकार मे नाभिराय के साम्राज्य की रचना विवाह व्यवस्था- निगम इस पकार रखे करके इन्द्र तो आज्ञापालन करके स्वर्ग चला गया। गएऋषभदेव ने तब प्राजीविका को म्यवस्था को हाथ में लिया () शूद्र, केवल शूद्र कन्या के साथ हो विवाह करे। जो इस प्रकार रखी गई (२) वैश्य, वैश्यकन्या और शूद्र कन्या के साथ विवाह (१) असि-शस्त्र धारण कर सेवा करना। () मषि- लिखना। (३) क्षत्रिय, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्या के साथ (३) कृषि-जमीन जोतना-बोना । विवाह करे। (४) विद्या- शास्त्र पढ़ाना, नृत्य गायन करना। १४) ब्राह्मण, इस वर्ण को स्थापना तो करेगे भरत (५) वाणिज्य- व्यापार करना । परन्तु भगवान् ने नियम बनाया कि ब्राह्मण (६) शिल्प---हाथ की कुशलता जैसे चित्र खीचना, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्या के साथ' फूल पत्ते काटना आदि। भी विवाह कर सकता था। आजीविका के साधनो का इस प्रकार छह भागों में दण्ड व्यवस्था विभाजन करने के पश्चात् भगवान वृषभदेव ने लोगो को यदि कोई वर्ण के लिए निश्चित प्रजीविका छोड़कर निम्न प्रकार वर्षों में बांटा - दूसरे वर्ण की आजीविका करे तो वण्ड का पात्र होगा यह क्षत्रिय-इन्हें भगवान् ने अपनी दोनों भज ओ मे मुख्य नियम था। हा, मा, धिक् इन तीन प्रकार के दण्डो की व्यवस्था शास्त्र धारण कर शस्त्र विद्या द्वारा मतगण की शिक्षा . दी। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है इस मत्स्य वैश्य- इन्हे । गवान् उमओ के यात्रा करना दिखलाकर परदेशगमन व व्यापार करना सिखाया। न्याय को बंद किपा गया। द देने के लिए बण्ड घर नियुक्त किए गए ताकि दुष्ट जनों का निग्रह किया जा शद्र- इन्हे अपने पैरो से ग्वृत्ति (नीच वृत्ति) सेवा सके । राजाओ का काम था बेगार कराना, दण्ड देना व सुश्रुषा करने के लिए कायम किया, इन शूद्रो को कारु, कर वसूल करना किन्तु करो द्वारा धन की वसूली मे अकारु, स्पृश्य और अस्पृश्य इस प्रकार विभक्त किया। अधिक पीड़ा न हो ऐसो हिदायत की गई। कारु जैसे धोबी, स्पृश्य जैसे नाई और प्रजाब ह्य लोगो को यह सब कर लेने के बाद सम्राट् वषगदेव ने हार, अस्पृश्य करार दि ।। अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ क्ष वयो को महामाण्डलिक बाह्मण-इस वर्ण की भगवान् ने स्थापना तो नहीं घोषित किया और उनपे प्रत्येक के नीचे चार हजार की परन्तु भविष्य में उनके लिए पढ़ना-पढ़ाना यह व्यव राजा रखे गए। सोमप्रभ को फरराज, हरि अथवा साय निश्चित किया। हरिकान्त को हरिवंश का राजा, कम्पन अथवा श्रीधर इतनी व्यवस्था करने कराने के पश्चाद् भगवान् का को नायवंशका नायक, काश्या अथवा मघवा को उग्रवश स्वयं उनके पिता नअपना मुकूट उतार कर उनके सर का राजा घोषित किया। महामाण्डलिको के ऊपर कच्छ पर रखकर बडी धूमधाम से राज्याभिषेक किया । व महाकच्छ प्रधिराज स्थापित किः । बाहुबली को युवराज बनाया गया। इतना बड़ा साम्राज्य और उसकी इस प्रकार से राज्य काल व्यवस्था स्थापित करने के कारण भगवान के कई नाम पड़ राज्यभार संभालते ही भगवान ने प्रजा लिए गए (शेष पृ.११ पर) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दिकृत उपासकाध्ययन में व्यसनमुक्ति वर्णन श्रीराम मिश्र, रिसर्च फैलो, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, वाराणसी होकर पापमयी अनेक अकायों को करता है। जुआ खेलने वाले पर स्वयं उसकी माता तक का विश्वास नही रहता। इस तरह जुआ खेलने में अनेक भयानक दोष को जानकर उत्तम पुरुष को इसका त्याग करना चाहिए । शौरसेनी प्राकृत वाङ्मय मे वसुनन्दिकृत उपालकाध्ययन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ मे धावक के आचार-विचार का वर्णन किया गया है। श्रावकाचार पर संस्कृत में अनेक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, किन्तु शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध वसुनन्दि का उपासकाध्ययन श्रावकाचार का स्वतन्त्र रूप से विवेचन करने वाला एकमात्र ग्रन्थ है । वसुनन्दि श्रावकाचार मे धावक के प्रायः सभी कर्तव्यों का वर्णन किया है, तथापि "व्यसनमुक्ति" का विस्तार से वर्णन किया गया है । व्यसनमुक्ति के अन्तर्गत सात व्यसनों और उसके सेवन से प्राप्त होने वाले फल का विस्तार से वर्णन किया गया है। दर्शन श्रावक के वर्णन प्रसंग में वसुनन्दि ने सातो व्यसनों का नाम बताते हुए उनके सेवन से होने वाले दुष्परिणामों का भी वर्णन किया है। जुआ खेलना, शराब पीना, मांस खाना, वेश्यागमन करना, चोरी करना, शिकार खेलना और परदारा सेवन करना, ये सात व्यसन दुर्गतिगमन के कारणभूत पाप है। इन सातो व्यसनों का वसुनन्दिने वर्णन किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है : १. द्यूतवोष वर्णन : जुआ खेलने वाले पुरुष के क्रोध, मान, माया और लोग ये चारों कषाय तीव्र होती है, जिससे जीव अधिक पाप को प्राप्त होता है। उस पाप के कारण यह जीव जन्म, जरा, मरणरूपी तरंगों वाले दुःखरूप सलिल मे भरे हुए और चतुर्गतिगमन रूप आवतों से संयुक्त संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। उस संसार मे जुआ खेलने के फल से यह जीव शरण रहित होकर छेदन, वन, कर्तन आदि के अनन्त दुःख को पाता है । जुआ खेलने से अन्धा हुआ मनुष्य अपने माता-पिता तथा इष्ट मित्र आदि को कुछ न समझते हुए स्वच्छन्द द्यूतक्रीड़ा के दुष्परिणामों में राजा युधिष्ठिर का उदाहरण प्रसिद्ध है। वन ने लिखा है कि परम तत्ववादी राजा युधिष्ठिर जुआ के सेलने से राज्य से भ्रष्ट हुए तथा पूरे परिवार के साथ नाना प्रकार के कष्ट को सहते हुए बारह वर्ष तक वनवास में रहे' । २. मद्यदोष-वर्णम' : द्यूतदोष के समान ही वसुनन्दि ने मद्यदोष का भी सुन्दर ढंग से चित्रण किया है। मद्यपान से मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्यों को करता है, और इसी लिए इस लोक तथा परलोक मे अनन्त दुःखो को भोगता है। शराब पीने वाला लोक मर्यादा का उल्लंघन कर नाना प्रकार के कुकृत्यों को करता है। वह बेसुध होकर अपने धन का नाश करते हुए इधर-उधर भटकता है तथा अनेक पापों का भागी होता है । उस पाप से वह जन्म जरा, मरणरूप क्रूर जानवरों आकीर्ण संसार रूपी कान्तार मे पड़कर अनन्त दुख को पाता है। किसी मनीषि ने कहा है कि- "शराब वह दीमक है, जो मनुष्य के दिमाग को घाट लेता है तथा वह मनुष्य जो भी कुकर्म कर दे, उसके लिए असम्भव नहीं ।" इम तरह मद्यपान के अनेक दोषो को जान करके मन, वचन और कृत कारित और अनुमोदना से इसका त्याग करना चाहिए। मद्यपान के परि णाम स्वरूप यादव कुल का विनाश हुआ। वसुनन्दिने इसे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। एक बार उद्यान में कीड़ा करते हुए यादव ने प्यास से व्याकुल होकर पुरानी शराब को जल समझकर पी लिया, जिससे वे नष्ट हो गये । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसुनन्विकृत उपासकाध्ययन में व्यसनमक्ति वर्णन ३. मांसदोष-वर्णन :-- जो मुक्त के श है त जिनके रोंगटे भय के मारे ___मांस दोष का वर्णन करते हुए वसुनन्दि ने कहा है खडे हो गये हैं, तथा जो अपनी ओर पीठ करके मंह मे कि मांस को खाने से मनुष्य का दर्प बढ़ता है। दर्प के तृण को दबाये हुए भाग रहा है. मे अपराधी भी दोन बढ़ने से मनुष्य के अन्दर नाना प्रकार की इच्छायें जागत जीवो को शूरवीर नही मारते हैं। जिस प्रकार गौ, ब्राह्मण होती हैं । इन इच्छाओ के प्रबल होने पर वह शराब तथा और स्त्रियों के मारने में महापाप होता है। उसी प्रकार जुआ आदि का सेवन करता है और उनके दोषों को भी अन्य प्राणियों के घात में भी महापाप होता है। अतः भोगता है। शिकार खेलने के पाप से रह जीव संसार में अनन्त दुःख को प्राप्त होता है। इसलिए देश विरत श्रावकों को अनः __ मांस भक्षण के दुष्परिणामो मे वसुनन्दि ने एक चन्द्र व्यसनी के साथ-साथ शिकार का भी त्याग करना पूर के बक राजा का उदाहरण दिया है। एक-चन्क्र चाहिए। नामक नगर मे मांस खाने से गद्ध बक राक्षस राज्य पद पारद्धिदोष का दृष्टान्त भी वसुनन्दि ने पारम्परिक से प्रष्ट हुआ तथा अपयश से मर कर नरक में गया। ही दिया है। लिखा है-गजा ब्रह्मदत चक्रवर्ती होकर ४. वेश्यादोष-वर्णन': तथा चौदह रत्नों के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी शिकार खेलने से मर र नरक में गया और तरह-तरह के कष्टो वेश्यादोष का वर्णन करते हुए वसुनन्दि ने लिखा है को सहता रहा। कि जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ समागम करता है, वह कारू, किरात, चाहाल, डोम, पारथी ६. चौर्यदोष-वर्णन" : आदि का जठा खाता है। क्योंकि वेश्या इन सबके साथ व्यसनों के क्रम में छठे स्थान पर चौर्यदोष का वर्णन निवास करती है। वेश्या हर एक के सामने उसको चाटु- करते हा वसुनन्दि ने लिखा है कि-दूसरे को धन चुराने कारिता करती है और अपने को उसी का बताती है, वाला मनुष्य इस लोक तथा परलोक में असाता बहुल, जिससे नीच मनुष्य उसकी दासा स्वीकार करते हुए अर्थात् प्रचुर दुःखो मे भरी हुई अनेको यातनाओ को पाता वेश्या के द्वारा किये गये अपमानों को भी सहन करता है। है और कभी भी सुख नहीं पाता। पराये धन को हरकर सबकी नजरो से बचने के लिए इधर-उधर भागता है। वेश्या संसर्ग जनित पाप से जीव घोर ससार-सागर चोर अपने माता-पिता, गुरू, मित्र, स्वामी और मे भयानक दुखों को प्राप्त होता है । इमलिए मन, वचन, तपस्वी आदि को भी कुछ नही गिनता, उनके पास भी काय से वेश्या गमन का सर्वथा त्याग करना चाहिए। वेश्यागमन के दुष्परिणामों को बनने के लिए वसुनन्दि ने जो कुछ पाता है, उसे भी बलात् हरण कर लेता है। चोरी करने वाला व्यक्ति आत्मा के विनाश को, लज्जा, चारुदत्त का उदाहरण दिया है। सभी विषयों में निपुण होने पर भी चारुदत्त वेश्यावृत्ति के कारण धन खोकर घोर अभिमान, यश और शील के विनाश को तथा परलोक में दुःख पाया और परदेश जाना पड़ा। भय को भी कुछ नही गिनता और हमेशा चोरी करने का साहस करता है। चोर व्यक्ति इस लोक तथा परलोक मे ५. पारविदोष-वर्णन : भी अनन्त दु ख को पाना है। इसलिए श्रावक को चोरी पाचवें व्यसन के रूप में वसुनन्दि पारद्धिदोष अर्थात् का त्याग करना चाहि । न्यासापहार भी चोरी ही है। निरीह जीवो का शिकार करने से प्राप्त दोषों का वर्णन न्यासापहार में वसुनन्दि ने श्रीभूति का उदाहरण दिया है। करते हुए कहते हैं कि-सम्यग्दर्शन का प्रधान गुण यतः न्यासापहार अर्थात् धरोह को अपहरण करने के अनुकम्पा अर्थात् दया कही गयी है। अत: शिकार खेलने दोष से दह पावर श्रीमति आर्तध्यान से मरकर संसारवाला मनुष्य सम्यग्दर्शन का विराधक होता है । सागर में दीर्घकाल तक फिरता रहा। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, बर्ष ४, कि०२ अनेकान्त ७. परदारादोष-वर्णन" : स्वामी होकर भी परस्त्री हरण के पाप से राजा रावण सातवे व्यसन के रूप में वसूनन्दि ने परस्त्री का हरण अपने पूरे कुल के साथ मर कर नरक को गया"। करना या उसके तरफ अभिलषित होने से प्राप्तदोष का इस प्रकार वसनन्दि सातों व्यसनो का संक्षेप में वर्णन वर्णन करते हुए लिखा है कि-जो निर्बुद्धि पुरुष परायी करते हुए कहते है, कि जो व्यक्ति सातों ही व्यसनों का स्त्री को देखकर उसको प्राप्त करने का इच्छुक होता है, सेवन करता है, उसके दु.खो का वर्णन नही किया जा वह उसके द्वारा पाता तो कुछ नही है, बल्कि पाप को ही सकता । साकेत नगर में रुद्रदत्त सातो ही व्यसनो का सेवन बटोरता है। करके मरकर नरक गया और फिर दीर्घकाल तक संसार जब वह परस्त्री को नही पाता, तो इधर-उधर में भ्रमता फिग"। विलाप करता हुमा, गाता हुआ भटकता है। वह व्यक्ति वसुनन्दि ने सातों व्यसनों के उदाहरण के रूप मे यह नहीं सोचता है कि परायी स्त्री भी मुझे चाहती है या प्रत्येक व्यसन के पारपरिक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। नही? केवल उसको प्राप्त करने की चिन्ता में हमेशा द्यूतदोष मे राजा युधिष्ठिर का, मद्यदोष में यादवों का, इबा रहता है। ऐसे पुरुष का कहीं भी मन नहीं लगता। मांसदोष में गद्धवक राक्षस का, वेश्यागमन मे चारुदत्त का, उसे मीठा भोजन भी नही रुचता। विरह मे संतप्त रहता पारविदोष में ब्रह्लदत्त का, चोर्य में श्रीभूति का और परहै। उसे नींद भी नही आती। नाना प्रकार के कष्टो को दाराहरणदोष गे रावण का वर्णन किया है। ये सभी सहते हुए इस ससार-समुद्र के भीतर भ्रमण करता है। उदाहरण आचीन प्राकृत तथा संस्कृत वाङ्मय मे भी इसलिए परिगहीत या अपरिगहीत परस्त्रियों का मन, प्राप्त होते हैं। वचन, काय से त्याग करना चाहिए । श्रावकाचार के अध्ययन की दृष्टि से तथा मानव परस्तान मे वसुनन्दि ने रावण का उदाहरण कल्याण की दृष्टि से व्यसन मुक्ति के सन्दर्भ में यह अध्ययन दिया है। विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरो का महत्वपूर्ण एवं उपयोगी होगा। सन्दर्भ-सूची १. जूयं खेलंतस्स है कोहो माया य माण लोहा य । पिविऊण जुण्ण मज्ज णछा ते जादवा तेण ॥ एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो वहुगं ।।६० वसु. भा. १२६ पाबेण तेजर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्खमलिलम्मि। ५. मसासणेण वड्ढह दपो दप्पेण मज्जमहिलसइ । चंडगइममणावतम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि वसू. श्रा.६१ जूय पि रम इ तो तपि वपिणए पाउणइ दोषे ।। वसु० श्रा०८६ २. रज्जट मंस वसणं बारह संवच्छराणि वणवासी। ६. मसासणेण गिद्धो वगरक्खो एगचक्कणयरम्म । पत्तो तहावमाण जूएण जुहिहिलो गया । रज्जाओ पढमटठो अयसेण मुओ गमओ णरय ।। वसु० श्रा० १२५ ७. कारुय किशय-चंडाल-डोब-पारघियाण मुच्छिट्ठ । ३. मज्जेण जरी अवसो कुणेइ कम्मागिग बिदणिज्जाइ । रो भक्खेइ जो सह वमइ एयरति पि वेस्साए । इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतय दुक्खं ॥ ___वसु० श्रा० गाथा संख्या ८८ वसु० श्रा०१२५८. सव्वत्थ णिकुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो पि। ख इऊरण घणं पत्तो दुक्खं परदेशगमणं च ।। पावेण तेण बहुतो जाइ-जरा-मरणसावयाइण्णे । वसु. श्रा० १२८ पाइ अणंतदुक्ख पडिमो ससारकंतारे ॥ ६. सम्मतस्स पडाणो अणुकंवा वण्णिओ गुणो जम्हा । वसु० था. ७८ पारद्धिरमणसीलो सम्मतविराहपो तम्हा ।। ४. उज्जाम्मि रमता तिसाभिभूया जलं ति णाखण। बसु० श्रा०६४ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनम्बिकृत उपासकाध्ययन में व्यसनमुक्त वर्णन गो-बंभण- महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं । तह इलरपाणिघाए वि होइ पावं ण सदेहो ॥ वसु० श्रा० १८ १०. होउण चक्कवट्टी चउदहरणाहिओ वि संपत्तो । मरिण बंभदतो निरयं पारद्धिरमणेण ॥ वसु० श्रा० १२६ ११. परदत्वहरणसीलो इहपरलोए असावबहुलाबो पाउण्ड जायणायण कयाविह पलाएछ । वसु० श्रा० १०१ जगणेइ माय वप्पं गुरू-मित्त सामिण तवस्सिं वा । पण हरइ छ कि विष्णुं किपि जन॥ि वसु० प्रा० १०४ १२. नासावहारदोसे दंडणं पाविण सिरिमूई । मरिऊणं अट्टझाणेण हिडिओ दोहससारे || वसु० ० श्रा० १३० इक्ष्वाकु -- इक्षुरस का संग्रह करने का उपदेश देने के कारण । गौतम - उत्तम स्वर्ग सर्वार्थ सिद्धि से आए थे इस कारण (गो याने स्वर्ग ) काश्यप - काश्य ( तेज) के रक्षक होने के कारण मनु और कुलक प्रजा की आजीविका का मनन किया इस कारण प्रजापति, आदि ब्रह्मा, विधाता, विश्वकर्मा, सृष्टा इन नामों से भी भगवान् जाने जाने लगे । ( पृ० ७ का स यह राज्यकाल तिरेसठ लाख पूर्व तक चला जिसमे प्रभु पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न बने रहे सारे राम इन्द्र उनके ५६. प्रमारणसमु० १३ स्वार्थपातिक १।१२।११ ६०. न्यायसून ११२ स्वार्थवार्तिक १।१।४५ ६१. न्यायसूत्र ११४०० वातिक १०२२६ ६२. योगाय १२ स्वार्थवा ६२. स्वार्थवार्तिक १०१०१८ ६५. २८२४, १३. दट्ठूण परकलतं णिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं । णय किपि तस्य पावद पाव एमेव असे ॥ ६४. १।१०१८, ६६.५२६, ५०७६. ६७. ५।२६, वसु० भा० ११२ freeसद्द रूप गाय यियसिरं हणमपि। परमहिलमलभमाणो अमप्पलाव पि जपे ।। ११ वसु० श्रा० ११३ कवि कुणइ रद्द मिट्ठ पि य भोयणं ण भुजेइ । छिपि अलहमाणो अच्छs विरहेण सतत्तो ॥ वसु० ० श्रा० ११५ १४. होउण खयरणाहो वयक्खओ अद्धचक्कवट्ठी वि । मरिकन गओ वारय परिस्थि हरमेण लंकेसो ॥ वसु० ० १३ १४. साकेत सत्तवि वसाई सतवि मरिण गओ णिरय भमिओ पुणदीहससारे || वसु० श्रा० १३३ भोगोपभोग की सामग्री भेजता रहा क्यों तीर्थकर न तो स्तनपान करते है और न पृथ्वी पर का भोजन ग्रहण । उनके भोजन स्वर्ग से आया करते हैं । ( पृ० ५ का शेषांश) भगवान् ऋषभदेव का कितना बड़ा योगदान था इसकी थोड़ी-सी झलक ही है यह भव्य जन आदिपुराण का पारायण ( स्वाध्याय नामक तप) करे और महाकवि भगवजिनसेनाचार्य के विशाल ज्ञान, काव्यकला, कल्पना, तथ्य, शब्द, अलकार, छन्द के साथ-साथ धर्म का आनन्द प्राप्त करे ताकि मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्त करने में समर्थ हो सके। मन्दाकिनी नई दिल्ली ६६. ५।१७।२३, ७२. ६।१३, ७०.५।१७ ३७, ७३.८११२६, ६८. ५०१०१, ७१.५।१६२४, ७४. ८।१।२६, ७५. ६/३६, ७६.८११७, ७७. मनुस्मृति ५।३६७८ तस्वार्थवार्षिक १२२-२७, ८१. ११०५०-५४, ७६. १२२४८०. वही १११।१३ ८२. ५०१०१००१. २१०११ ८४ ३०२ ८५.५०३७२४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार का समालोचनात्मक सम्पादन ['नियमसार का समालोचनात्मक सम्पादन' योजना के अन्तर्गत तैयार प्रारंभिक निवेदन विभगत तथा कृन्कृम्य के विशेष अध्येताओं के सम्म प्रस्तुत है। लेखक ] । नियमसार की प्राकृत गाथाओ का मूलपाठ सम्पादन के विशेष उद्देश्य से यहां प्रस्तुत है। मुद्रित प्रतियों में प्राकृत पाठ अत्यधिक अशुद्ध है। इससे अनुवाद एव अध्ययन भी प्रभावित हुए हैं। नियमसार पर पी-एच० डी० उपाधि के लिए अनुसन्धान कार्य करते समय उक्त तथ्य सामने आये प्राकृत पाठ अशुद्ध होने से भाषाशास्त्रीय अध्ययन सम्भव नही हुआ । इन बातों पर अनुसन्धान कार्य के मार्गनिर्देशक आचार्य गोकुलचन्द्र जैन से निरन्तर विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने नियमसार का मानक संस्करण तैयार करने पर बल दिया । सम्पादन योजना बनवाई। उसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भिज वाया । सोभाग्य से प्रायोग ने योजना स्वीकृत कर ली और मुझे "रिसर्च एशोसिएटशिप अवार्ड" की । डा० ऋषभचन्व जैन 'फौजदार ' किये गये मूल प्राकृत पाठ का यह नियममार का प्रस्तुत मूल प्राकृत पाठ उक्त सम्पादन योजना का एक अंग है। इसका आधार अद्यावधि प्रकशित विभिन्न सस्करण हैं । नियनसार सर्वथम सन् 1916 में जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुआ । इसका सम्पादन शीतलप्रसाद ने गोधो के दि० जैन मन्दिर, जयपुर की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि के आधार पर किया है । बाद के दशकों में नियमसार के अनेक प्रकाशन हुए है उन सभी में मूल प्राकृत पाठ व पुनर्मुद्रित है किसी मे भी पाठ को शुद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया गया। बाद के प्रकाशनों में अशुद्धियां तथा पाठ भेद बढ़ते में गये हैं। मुद्रण की त्रुटियां अलग है। कुछ जान-बूझकर भी पाठ परिवर्तित किये गये है। पं० बलभद्र जैन ने प्रयत्नपूर्वक 255 पाठ परिवर्तित किये है | व्याकरण और छन्दोनुशासन के अनुसार पाठ बदले गये हैं । कुछ सस्करणो मे प्राकृत पाठ को सस्कृत छाया के अधिक निकट लाने के लिए बदला गया है। किसी भी संस्करण मेनियमसार की उत्तर तथा दक्षिण भारत में उपलब्ध प्राचीन पाण्डुलिपियों का उपयोग नही किया गया । सम्पादन के अन्य स्वीकार्य मानक भी नही अपनाये गये । त्रुटिपूर्ण पाठ के कारण कई स्थलों पर अर्थ मे सगति नहीं बैठती गाथाओं का गेयात्मकतत्व भी प्रभावित हुआ है । प्राचीन पारम्परिक सिद्धान्त ग्रन्थों की भाषा को बाद में लिखे गये व्याकरण एवं छन्दशास्त्र के अनुसार परिवर्तित करना सम्पादन नियमो के विरुद्ध है । इससे प्राचीन भाषा का स्वरूप एवं स्वभाव विकृत होता है । अब तक नियमसार के 15 संस्करण उपलब्ध हुए है । इस मूल प्राकृत पाठ को तैयार करने में इनका उपयोग किया गया है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सस्करणो की भी जानकारी मिली है। उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है । उक्त संस्करण संस्कृत टीका, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती या मराठी अनुवाद के साथ प्रकाशित हैं। नियमसार के हिन्दी और गुजराती पद्यानुवाद भी हुए हैं। 1916 ई० प्रथम संस्करण मे एक पाण्डुलिपि का उपयोग हुआ है । सोनगढ़ से 1951 में प्रकाशित गुजराती संस्करण में तीन पाण्डुलिपियों को सूचना है उनका परिचय वहाँ उपलब्ध नहीं है। बाद के संस्करणों में पाण्डुलिपियों का उपयोग नही किया गया। किसी भी संस्करण मे पाण्डुलिपियों की सूचना भी नही है । पिछले दशक में नियमसार के सर्वाधिक प्रकाशन हुए हैं। कुकुर का द्विसहस्राब्दि समारोह भी दो वर्ष तक मनाया गया, किन्तु कहीं से भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के प्रामाणिक सस्करण तैयार करने की योजना सामने नही Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार का समालोचनात्मक सम्पावन 119 130 जेण्ह 147 158 170 आई : आश्चर्य इस बात का है कि कुन्दकुन्द के नाम पर 135 मोक्खंगप मोक्खगयं स्थापित संस्थाओं द्वारा भी इस दिशा में प्रयत्न नहीं किये 137,138 किह, कह कह गये। 140 घरू घर नियमसार के पहले संस्करण मे मूल प्राकृत गाथाएं 141 पिज्कृतो, पज्जुत्तो, णिज्जुत्ती, मणेइ दो बार छपी हैं। उन दोनो मे भी पाठ भिन्नता है। मणति उदाहरण के लिए कुछ पाठ इस प्रकार है 142 णिज्जेत्ती, वावस्सयं णिज्जुदी, वावस्सयं गाथा संख्या II आवस्सयं 11; वरतवचरणा वरतवचरण 141,146,147 आवास आवस्स परिहाण परिहारं 144,149 आवासय आबस्सय जोण्ड 156 मति मणेइ 142 कम्भ वाबस्सयति कम्भमावासयति 147 सामण्ण गुण सामाइयगुणं कुणदि कुहि 155 पहिक्कमणादिय पडिक्कणादी 153 सज्झाउं सज्झाओ पडिवज्ज य पडिज्जिय 167 पच्छतस्प्त पंच्छत्तस्स 165 णिच्छयणयएण णिन्छयणएण 169 किल दूमण होदि किं दूसणं होई 166,169 दूसण सण णव णवि जागदि ण विजाणदि 185 पुवावरविरोधो जदि पुग्धावर यविरोहो 171 अप्पगो अप्पणी , समयग्गा समयण्हा साकट्ठ सा अक्वं सभी संस्करणो मे पारम्परिक रूप से कुछ पाठ अशुद्ध 179,160,191 य होइ छाते आ रहे हैं । इम ओर अभी तक किमी का ध्यान नही गया। यहा कुछ पाठ एव उनके स्थान पर संभावित नियमसार की 30 प्राचीन पांडुलिपियों की जानकारी पाठ दिय जा रह है-- अभी मिली है। शास्त्र भडारो के सर्वेक्षण का कार्य जस गाथा संख्या मुद्रित पाठ सम्मावित पाठ रहा है। राजस्थान के शास्त्र भडारो से चार पांडलिपियों (1) (2) (3) की जीराक्स कापियां प्राप्त हो चुकी है। शेष के लिए अत्ता, अत्तो पा प्रयत्न किए जा रहे है। 6 छुहहभीरूरोसो छुहतण्हाभीरोसो प्रस्तुत सम्पादन योजना में सर्वप्रथम ग्रन्थ का मूल 32 चावि प्राकृत पाठ तैयार किया जायेगा। इसका सर्वाधिक सपदा, सपदी सपया प्रशस्त आधार प्राचीन पांडुलिपियां होगी। उत्तर और जे एरिसा एदेरिसा दक्षिण भारत में अलग-अलग समय में पांडुलिपियां लिखी 77,78,79,80,81 कत्तीर्ण कत्ताण गई हैं। इनमे देवनगरी एव कन्नड़ लिपि की पाडुलिपियां 95 मसुह प्रमुख हैं। देश-विदेश मे उपलब्ध सभी पांडुलिपियों का 97 णवि मुच्चइ ण विमुच्चइ सर्वेक्षण किया जा रहा है। परीक्षण के बाद सर्वाधिक 114 पूरी गाथा महत्वपूर्ण एव प्राचीन प्रतियो का उपयोग किया जायेगा। 115 खुए चदु विह कसाए खु चहुविहे कमाए नियमसार की कतिपय गाथाएं कुन्दकुन्द के अन्य समज्जिय य अज्जिय ग्रन्थो मे यथावत् प्राप्त होती है। कुछ किचिव शब्द परि 175 हदि झाण भावि 32 72 असुह 118 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन किया जायेगा । कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में तथा दिगम्बर श्वेताम्बर प्रन्थों में यथावत् या किंचिद् शब्द परिवर्तन के साथ उपलब्ध एवं विषयवस्तु की दृष्टि ने साम्य रखने वाली नियमसार की गाथाओं का अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा । प्रकाशित एक भी संस्करण में शब्दकोश नहीं है । इसलिए परिशिष्ट मे नियमसार का सम्पूर्ण प्राकृत शब्द कोश दिया जायगा । पारिभाषिक शब्दों का विश्लेषण पृथक रूप से प्रस्तुत किया जायेगा। मूलगायानुक्रमणिका, संस्कृत टीका के पथों की अनुक्रमणिका एवं विष्ट सामग्री के स्वतन्त्र परिशिष्ट होंगे । १४४४, कि० २ वर्तन के साथ मिलती है । विषयवस्तु की दृष्टि से उनमें साम्य है। अन्य दिगम्बर श्वेताम्बर प्रन्थों मे भी कतिपय गाथाएं उपलब्ध हैं । मूल पाठ सशोधन में इस सामग्री के समुचित उपयोग का ध्यान रखा जायेगा । नियमसार मे कुछ प्राचीन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग पारम्परिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कुछ का विषयवस्तु की दृष्टि से उल्लेखनीय है। ऐसे शब्दों को सैकड़ों वर्ष पश्चात् निर्मित व्याकरणशास्त्र एवं छन्दशास्त्र के नियमों के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता। भाषाशास्त्र की दृष्टि से भी यह उपयुक्त नही है । मूल शकृत पात्र के संशोधन में उक्त सभी तथ्यो का ध्यान रखा जायेगा । इसके साथ प्राकृत भाषा एवं विषय के अधिकारी विद्वानों का भी यथासम्भव सहयोग प्राप्त किया जायेगा । सम्पादित पाठ के अनुरूप हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद किये जायेंगे। प्रस्तावना मे सम्पादन सामग्री का परिचय होगा । इसमें सम्पादन में प्रयुक्त ताडपत्रीय पांडुलिनियो; हस्तलिखित कलीय पालियों तथा प्रकाशित सस्करणों का विवरण मुख्य है अज्ञात तासापों के आभार से कुन्दकुन्द के समय एवं कृतियों पर विचार होगा टीकाकार के विषय में भी विचार किया जायेगा। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से ग्रन्थ का अध्ययन समाविष्ट होगा । साथ में नियमसार की गाथाओ का भाषा एवं विषयवस्तु उपर्युक्त तथ्यों के साथ नियमसार की प्राकृत गाथाओं को आके समक्ष प्रस्तुत करते हुए विनम्र निवेदन है कि आपकी दृष्टि मे जो प्राकृत पाठ विचारणोय लगते हो, उन्हें रेखांकित कर दें उन पाठो को जांचने और शुद्ध करने के लिए उपयुक्त स्थल- सामग्री सुझायें तथा परम्परागत शास्त्री के अपने व्यापक ग्रध्ययन के आधार पर समावित पाठ भी सुझावे । सम्पादन योजना के विषय मे सुझाव विस्तार मे स्वतन्त्र रूप से अंकित करने की कृपा करें। आपके सहयोग और मार्गदर्शन को हभ अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं और उसका आदर पूर्वक उल्लेख करें | सं० [सं० बि० बि० वाराणसी जिनवाणी की रक्षा का उपाय श्रुतकेवली गणधर वेब और परम्परित, ज्ञानी, प्राचीन मान्य परम दिगम्बराचार्य पूर्ण अपरिग्रही राग-बिरोधरहित होने से वस्तु तत्व का यथार्थ वर्णन कर सके। हमें उनके वचन प्रमाण करने चाहिए और शास्त्र की गद्दी पर उन्हीं का वाचन करना चाहिए। आजकल यश या द्रव्य-अर्जन के लिए पुस्तकों के रूप में पक्षपातपूर्ण बहुत कुछ (अपनी समझ से लिखने की परिपाटो चल पड़ी है और परीक्षा दुष्कर है। अतः आधुनिक लेखकों की पुस्तकें गहो पर स्वीकार नहीं की जानी चाहिए । जिनवाणी के संरक्षण का यह एक उपाय है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार का शान्तिनाथ प्रतिमा लेख डा. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एम० ए. पी-एच० डी० काव्यतीर्थ भारतीय इतिहास में अभिलेखों का अनठा योगदान पंक्ति 2. द्व देवपाल इति ॥1॥ श्री लपाल इति तत्तनयो रहा है। अभिलेखों की प्रामाणिक उनके मौलिक स्वरूप (कमल-पुष्प) वरेण्यः युण्यक मूत्तिरभवद्वसुबाटिमें ही प्राप्त होती है और उनका अन्त परीक्षण भी उनकी कायां (म्)। कोत्तिज्जंग त्र (य)-- मौलिक स्थिति से ही होता है। जिनमे काल का निर्देश पक्ति 3. परिभ्रणस (श्र) मार्त्ता यस्यस्थिराजनि जिनायनहीं होता उनका काल निर्णय लिपि और लेखन शैली से तन (कमल-पुष्प) च्छलेन ॥2॥ एकस्तावद नूनहो किया जाता है। अब तक जो जैन अभिलेख संग्रह वुद्धिनिधिना श्री (श्री) शान्ति चेत्या लप्रकाश में आये है, उनमें लेखको ने उनके मोलिक रूप को पंक्ति 4. यो दिष्टया (दृष्ट्या) नंद (नन्द) पुरे पर: प्रकट नहीं होने दिया है। अभिलेखो म लेखको ने अपनी परनर.नंद (नन्द) पद: श्री (धी मता । येन छाप लगा दी है। अभिलेखों से मूललेख की पक्ति के श्री (श्री) मदनेस (श) सा (कमल-पुष्प) गरपुर अन्त और प्रारम्भ का बोध नहीं होता। प्राचीन अभि- तज्जन्मनो निम्मिमे सोय (सोऽयं) इरे (धे) ष्ठि लेखों मे सरेफ वर्ण द्वित्व वर्ण में प्रयुक्त हुए है। इसी वरिष्ठ राहणा इति इरी (श्री रल्हणाख्याद्प्रकार स्थान की बचत करने के लिए प्राचीन अभिलेखा पंक्ति 5. ॥3॥ तस्माद आयत कुलाम्वर पूर्णाचंद्र (चन्द्रः) में अनुनासिको क स्थान में अनुस्वार का प्रयोग हुआ है। श्री (श्री) जाहस्तदनुजोद (कमल-पुष्प) य चंद्र ख वर्ण के लिए 'ष' तथा श और 4 वर्गों के लिए म वर्ण । चन्द्र) नामा। एक: परोपकृति हेतु कृतावतारो के प्रयोग भी द्रष्टव्य है । इन विशेषताओ का प्रकाशित धात्मकः पुनरमो। अभिलेखों मे अभाव है। पंक्ति 6. घ सुदानसारः ॥4 ताभ्यामसे (शे) ष दुरितोष अतः प्रस्तुत अभिलेख में अभिनेख का मौलिक स्वरूप स (श) मैक हेतु (तु) निर्मा (कमल-पुष्प) पित रखा गया है। शुद्ध रूप कोष्टक के भीतर दिये गये है भुवनभूषण भूतमेतत् । परी (श्री) शान्ति चैत्य जिससे मौलिक और शुद्ध दोनो रूप पाठको को प्राप्त मति (मिति) नित्य सुख प्रदा-(नात्) होगे। अभिलेख के साथ ही अभिलेखी अन्य सामग्री का पकिन 7. मुक्ति दि (श्रि) वदनवीक्षण लोलुपाभ्याम् अपेक्षित विवेचना भी दी गई है। इससे अभिलेख के 1100 छ छ छ ।। (कमल-पुष्प) सवत् 1237 माध्यम से प्राचीन इतिहास को जानने समझने में भी मार्ग सुदि 3 स (शु) के स्त्रो (श्री) मत्परमाडिदेव सुविधा होगी ऐसा मेरा विश्वास है। परमद्धिदेव) विजय गज्येप्रामाणिक रूप से अहार का अतीत निम्न पक्तियो मे नित म पंक्ति 8. चंद्र (चन्द्र) भारकर समुद्रतारका यावत्र जनद्रष्टव्य है चित्तहारका । धर्म ।। (कमल-पुष्प) रि कृत अहार शान्तिनाथ-प्रतिमालेख मूलपाठ सु । शु)द्ध कीर्तन तावद (दे) व जयतास्सु. पंक्ति 1. ओ नमो वीतरागाय ।। ग्र (ग) हपतिवशसरोरुह कीर्तनम् ।। (61 सह (कमल-पुरु) स रस्मिः (रपिमः) सहस्रकट पंक्ति 9. वाल्हणस्थ मुतः परी (श्री) मान् रूपकारो महा. यः । वाणपुरे व्यघिताशी (सी) स्री (श्री) मति।। पा (कनल-पुष्प) पटो वास्तु सा (शा) मानि स्त्रज्ञस्तेन विवं (बिम्ब) सुनिम्मित (तम्॥ (7)m Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष४,कि०२ अनेकान्त छन्द-परिचय आनन्द देनेवाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्म इम अभिलेख के प्रथम श्लोक में आर्या दूसरे, चौथे, स्थान श्री मदनेशसागरपुर मे वनवाया था। और पांचवें इलोको मे वसन्ततमिलका, तीसरे श्लोक मे श्लोक 4. उनके कुल रूपी आकाश के लिए पूर्णचन्द्र के शार्दूलविक्रीडित, छठे श्लोक मे रथोद्धता और सातवे समान श्री जाहड उत्पन्न हुए। उनके छोटे भाई श्लोक में अनुष्टुप छन्द है। उदयचन्द्र थे। उनका जन्म प्रधानता मे परापपाठ टिप्पणी कार के लिए हुआ था। वे धर्मात्मा और अमोघ. दानी थे। 1. मूलपाठ में न और म वर्गों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग हुआ है। श्लोक 5. मुक्ति रूपी लक्ष्मी के मुखावलोकन के लोलूपी 2श के स्थान में स और स के स्थान मे श के उन दोनों भाइयो के द्वारा ममस्त पापों के क्षय प्रयोग भी हुए हैं। का कारण, पृथिवी का भूषण-स्वरूप शाश्वत् 3. श्री तीन प्रकार से लिखा गया है--धी, श्री सुख को देनेवाला श्री शान्तिनाथ भगवान का और ली। बिम्ब निर्मित कराया गया। 4. ई स्वर की मात्रा वर्ण के ऊपर घुमावदार आकति सम्वत् 1237 अगहन सुदी 3, शुक्रवार श्रीमान् लिए है। वर्ण की ऊपरी आड़ी रेखा से संयुक्त नहीं है। जिला 5. वर्ण मे उ स्वर की मात्रा अन्य वर्गों के समान श्लोक 6. इस लोक मे जब तक चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र और लो नीचे संयुक्त की गई है। तारागण मनुष्यों के चित्तो का हरण करते हैं 6. 'ए' स्वर की मात्रा के लिए वर्ण के पहले एक तब तक धर्मकारियो का रचा हुआ सुकीतिमय बड़ी रेखा का व्यवहार हुआ है। यह सुकोर्तन विजयी रहे। 7. और च वर्ण व वर्ण की आकृतिक लिए हैं। लोक 7. वाल्हण के पुत्र महामतिशाली मूर्ति-निर्माता 8. शा वर्ण ल वर्ण की आकृति में अकित है। और वास्तुशास्त्र के ज्ञाता श्रीमान् पापट हुए । 9. ब के स्थान में 'व' वर्ण का प्रयोग हुआ है। उनके द्वारा इस प्रतिमा को रचना की गई। 10. सरेफ वर्ण द्वित्व वर्ण में अंकित हैं। अभिलेख में उल्लिखित नगर 11. पांचवें श्लोक के अन्त मे 'एज' शब्द अनावश्यक प्रतीत होता है। वाणपुर-इस नगर का नाम प्रस्तुत प्रतिमा-लेख की भावार्थ प्रथम पक्ति मे आया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीमान लोक 1. वीतराग (देव) के लिए नमस्कार है । जिन्होंने देवपाल ने यहां सहस्रकूट चैत्यालय निर्मित कराया था। बानपुर में सहस्रक्ट चं त्यालय बनवाया वे यह स्थान मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से अठारह मील गृहपति वंश रूपी कमलो को प्रफुल्लित करने के दूर पश्चिम मे वाणपुर ग्राम के शहर गेड से किनारे अज लिए सूर्य स्वरूप देवपाल यहां (इस नगर मे हुए। भी स्थित है। डा. नरेन्द्रकुमार टीमगढ़ के सौजन्य से श्लोक 2. उनके बसुहाटिका नगरी में पवित्रता की मूर्ति 15/11/90 के प्रातः इस सहस्रकूट के दर्शन करन का एक रत्नपाल नामक पुत्र हुए जिनकी कीत्ति सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तीनों लोकों में परिभ्रमण करने के श्रम से थक- यह चैत्यालय सात भागो में विभाजित रहा है। कर जिनायतन के बहाने स्थिर हो गई : ऊपरी सातवा भाग नहीं है। प्रतिमा की गणना करने श्लोक 3. श्री रल्हण (रत्नपाल) के श्रेष्ठियो मे प्रमुख पर उनकी 1000 संख्या पूर्ण न होने पर यह संभावना श्रीमान् गल्हण का जन्म हुआ : वे समग्रबुद्धि के तर्क संगत प्रतीत हुई । ऊपरी अश की अपूर्णता से भी यह निधान थे। उन्होने श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक स्यालय नन्दपुर में और सभी लोगों को डा० नरेन्द्र कुमार जी के सहयोग से पपासन और Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहार का शान्तिनाथ प्रतिमा सेव खड्गासन प्रतिमाओ की निम्न प्रकार गणना की गई। पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशाओ मे कुल 239-239 प्रतिमाएं हैं। ऊपर से नीचे छह घण्टो मे वे इस क्रम में हैं - 23,63, 64.43, 33 और 13 कुल 2391 उत्तर की ओर कुल 207 प्रतिमाएं विराजमान है। ये प्रति माए ऊपर से नीचे छह खण्डों में इस क्रम में विराजमान हैं-23, 67, 64, 31, 3 और 13 । चारों दिशाओं की कुल 924 प्रतिमाएं है ऐसा प्रतीत होता है कि सातवें भाग में चारों ओर 16-16 प्रतिमाएं रही है। पूर्व और दक्षिण की ओर मध्य में स्थित प्रतिमा के ऊपर पांच फणवाला सर्प अंकित है अतः वे प्रतिमाए तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की कही जा सकती है। पश्चिम मे चन्द्रप्रभ और उत्तर में नेमिनाथ तीर्थंकरों की प्रतिमाए हैं। यहां बायीं ओर दो पंक्ति का लेख है 1. अनेकान्त, वर्ष 9 किरण 10, पृष्ठ 384-385 से साभार । 1. यांगलिपीहिणी बाहिि • ( अपठनीय) 2. दायीं ओर एक पंक्ति णा लेख है जिसमे सम्वत् 1009 पढ़ने में आता है । यह सम्वत् 1109 होना भी संभावित है । यहा आदिनाथ, भरत और बाहुबलि की पंडित प्रतिमायें भी हैं एक फलक पर आदिनाथ प्रतिमा की दायी ओर वहुवलि और बायी ओर भरत प्रतिभा है । एक शिलाखंड पर आदिनाथ की मुख्य प्रतिमा सहित 53 प्रतिमायें अंकित है । प्रतिमाओं की सख्या से इस शिलाखंड पर नन्दीश्वर द्वीप के 52 जिनालयो की स्थापना की गई प्रतीत होती है। अन्य अनेक प्रतिमायें है। यह स्थान दर्शनीय है। वसुहाटिका - इस स्थली मे सभवतः मदनेशसागरपुर नगर का मुख्य बाजार था । रत्नपाल के पिता देवपाल यहीं रहते थे । संभवतः वे अपने समय के र्धा क पुरुष थे । पं० अमृतलाल शास्त्री ने चन्देल मदनवर्मदेव को नष्ट भ्रष्ट राजधानी का यह नाम बताया है । परन्तु राजधानी के नष्ट भ्रष्ट हो जाने से नगर के नामों में परिवर्तन हुआ नही पढ़ा गया अतः शास्त्री जी का कथन तर्कसगत प्रतीत नहीं होता है यह मदनेशसागरपुर के किसी वार्ड का नाम १७ या मुख्य बाजार का ही नाम रहा प्रतीत होता है। मदनेशसागरपुर - प्रस्तुत अभिलेख मे शान्तिनाथस्यालय के निर्माता गहण को इस नगर का निवासी बताया गया है। बारहवी शताब्दी में यहां चन्देल मदन वर्मा का शासन था। उसने यहां एक तालाब बनवाया था जिसका नामकरण उसने अपने नाम पर किया था जो आज भी 'मदनसागर' के नाम से जाना जाता है। मदन वर्मा की संभवतः यह नगर राजधानी थी । वसुहाटिका और अहार इसी के नाम है। गरहण के बाबा वसुहाटिका में और पिता इस नगर मे रहते थे। दोनों में दूरी संभवतः विशेष नहीं थी। लश्कर-वालियर के समान दोनों निकटवर्ती रहे प्रतीत होते हैं। नम्बपुर प्रस्तुत प्रतिमालेख के तीसरे श्लोक में गल्हण द्वारा यहां शान्तिनाथ चैत्यालय बनवाया जाना बताया गया है । अहार के समीपवर्ती नवरों और ग्रामों में नावई ( नवागढ़) एक ऐसा स्थान है जहां बारहवीं शताब्दी की कला से युक्त शान्तिनाथ प्रतिमा विराजमान है। म नावई को नन्दपुर से समीकृत किया जा सकता है और नावई का ही पूर्व नाम नन्दपुर माना जा सकता है । बहार का समीपवर्ती होने से नारायणपुर को भी नन्दपुर से समीकृत किया जा सकता है क्योकि वहाँ इस काल के आज भी अवशेष विद्यमान हैं। यद्यपि यहां सम्प्रति शान्तिनाथ प्रतिमान मन्दिर मे विद्यमान नहीं है चन्द्रप्रभ प्रतिमा है परन्तु शान्तिनाथ प्रतिमा के विराजमान रहे होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है । प्रतिमा-परिचय परिकर बड़गासन मुद्रा में विराजमान इस शान्तिनाथ प्रतिमा की हथेलियों के नीचे सोघमं और ईशान स्वर्गों के इन्द्र चंमर ढोरते हुए सेवा रत खड़े हैं। बायीं - ओर का इन्द्र चंगर दायें हाथ में और दायीं ओर का इन्द्र बायें हाथ में लिए है। दोनो इन्द्र आभूषणों से भूषित हैं। उनके सिर मुकुटबद्ध है। कानों में गोल कुंडल हैं। गले में दो-दो हार धारण किये हैं। प्रथम हार पांच लड़ियों का और दूसरा हार तीन लड़ियों का है। एक हार वक्षस्थल तक आया है और दूसरा हार वक्षस्थल के नीचे से होकर पृष्ठ भाग की ओर गया है । इनके हाथों में कंगन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४४, कि०२ अनेकान्त और बाहों में भुजबन्ध है। कटि प्रदेश में मेखला है अगुठे से सिर तक को अवगाहना 16 फुट 8 इंच है। जिसमें छोटी छोटी घंटिकायें लटक रही हैं। पैरों में तीन- आसन को नीचाई 19 इच है। प्रासन सहित प्रतिमा की तोन कड़े और पायल धारण किये हैं। अवगाहना 18 फुट 3 इंच है। प्रतिमा पर मटियाले रंग इन इन्द्रों के नीचे दोनों ओर एक-एक पुरुषाकृति का चमकदार पालिश है। यह प्रतिमा भी आततायियों की अंकित है। ये दोनों पुरुष रत्नाभरणों से विभूषित है। ऋर दष्टि से ओझल न हो सकी। इसका वाहभाग व दायां इनके सिरों पर तारांकित किरीट हैं। कानों में गोल हाथ, नासिका और पैरो के अंगूठे खण्डित कर दिये गये कंडल हैं। बाहुओं मे भुजबन्धन और हाथों में कंगन धारण थे जो नये बनवाकर जोड़े गए है । पं० पन्नालाल शास्त्री किये हैं । इनके कटि प्रदेश में मेखला भी अकित है । दोनो साढमलवालों ने 72 तोला पन्ना प्राप्त करके पालिश हाथों में ये पुष्प धारण किये हैं। इनके हार नाभि प्रदेश कारायी थी किन्तु पालिश का पूर्व पालिश से मिलान का स्पर्श कर रहे हैं। इनकी नुकीली मूंछ और दाढ़ी भी नही हो सका है। जोड स्पष्ट दिखाई देते है। सिर के है। वेश-भषा से दोनों कोई राजकुमार या श्रेष्ठी पुत्र केश घुघराले है। हथेलियों पर कमल पुष्पों का सुन्दर प्रतीत होते हैं। पं. बलभद्र जैन ने इसे शान्तिनाथ- अंकन हआ है। प्रतिमा के निर्माता जाहड़ ओर उदयचन्द्र की प्रतिमायें प्रतिमा इतनी मनोज्ञ है कि जो एक बार दर्शन कर होने की उदघोषणा की है जो तर्क संगत प्रतीत होती है। ता है वह प्राकृष्ट हए बिना नहीं रहता। उसको दर्शना. आसन भिलाषा कम नही होती। इस शताब्दी के अद्वितीय सन्त प्रतिमा जिस आसन पर बिराजमान है उसके मध्य परम पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी ने इस प्रतिमा के दर्शन में चार इंच स्थान मे चक्र उत्कीर्ण है। इसमे बाईम आरे करके इस प्रतिमा को उत्तर भारत का गोमटेश्वर का कारों के मध्य से एक रेखा नीचे की पोर जाती हुई था। प्रसिद्ध सन्त आचार्य विद्यासागर महाराज को संभवतः चक्र के दो आरे इस रेखा मे विलीन आकृष्ट होकर यहां जंगल में चातुर्मास स्थापित करना हो गये हैं। आरों की संख्या चौबीस ही रही ज्ञात होती पड़ा। इमको मनोशता देखते ही बनती है। है। इस चक्र की दोनों ओर आमने-सामने मुख किये चिह्न ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्वरूप दो हरिण अकित हैं । वे पूछ ऊपर की ओर उठाए हए वर्तमान मे यह प्रतिमा अहार (टीकमगढ़) क्षेत्र मे हैं।बागेके पर मुड़ हुए है। मुख और शीर्ष भाग खडित है। मन्दिर सख्या एक के गर्भालय में विराजमान है। यह मन्दिर सर्वाधिक प्राचीन मन्दिर है। यहाँ शान्तिनाथचिह्न स्थल के नीचे 9.इच चौड़े और 31 इंच लम्बे पाषाण खंड पर संस्कृत भाषा और नागरी लिपि मे9 प्रतिमा के विराजमान होने से यह शान्तिनाथ-मन्दिर के नाम से विश्रुत है। पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है जो प्रस्तुत लेख के आरम्भ मे ही यह स्थान अतीत मे वैभव और समृद्धि का केन्द्र रहा बताया जा चुका हैं। इस अभिलेख की प्रत्येक पंक्ति एक है। समय ने फरवट बदली। यह जन शून्य हो गया। इंच के स्थान में है। सातवी पंक्ति का मारम्कि अशा अश यहा सघन वन हो गया। जगली क्रूर पशु रहने लगे। भग्न है। अभिलेख के मध्य मे एक पुष्प अकित है। क्षेत्र ईसवी 1884 में स्व. बजाज सबदलप्रसाद जी के मंत्री डा० कपूरचन्द्र जी टीकमगढ़ इस अभिलेख को नारायणपुर तथा वैद्यरत्न ५० भगवानदास जी पठा ढड़. आज भी सुरक्षित रखे हुए है । उनका धार्मिक-स्नेह सराह कना (अहार का पूर्व नाम) आये । यहाँ सर्व प्रथम उन्हें नीय है। लकड़हारों और चरवाहो से विदित हुआ था कि समीपप्रतिमा-परिचय वर्ती जगल मे एक टीले के खण्डहर मे एक विशालकाय यह भव्य प्रतिमा 22 फुट 3 इंच ऊंचे और 4 फुट । प्रतिमा है जिसे लोग 'महादेव' के नाम से पूजते हैं। दोनो 7 इंच चोड़े देशी पाषाण के एक शिलाखण से खड्गासन व्यक्ति अनेक ग्रामवासियों को लेकर वहाँ गये। मसालें मुद्रा में शिल्पी पापट द्वारा निर्मित की गई थी। इसकी जलाकर उन्होने खण्डहर मे प्रवेश किया और इस प्रतिमा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार का शान्तिनाथ प्रतिमा लेख के दर्शन किये। प्रतिमा देखकर दोनों व्यक्ति हर्षविभोर के साथ-साथ - इसका भी निर्माण हुआ। गल्हण इसके हो गये । इस स्थान के विकास के लिए दोनो ने समीपवती निर्माता थे। जैनो को आमत्रित किया और कार्तिक कृष्ण द्वितीया मेले प्राप्ति स्थल की तिथि निश्चित की तथा मेला भरवाया। इनके यह स्थान मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में टीकमगढ मरणोपरान्त इनके पुत्रो ने क्षेत्र को सम्हाला। श्री बजाज से 20 किलो मीटर दूर पूर्व की ओर मदनसागर के तट बदलीप्रसाद जी सभापति और प० वारेलाल जी पठा पर स्थित है। पक्के रोड से जुड़ा है। बल्देवगढ़, छतरपुर मंत्री बनाये गये । ईसवी 1919 से ईसवी 1981 तक जानेवाली बसे इसी स्थान से होकर जाती हैं। श्री पं० वारेलाल जी ने लगातार 52 तक क्षेत्र की सेवा प्रस्तुत प्रतिमालेत से ज्ञात होता है कि यह स्थान की। क्षेत्र का बहुमुखी विकास हुआ। पं० वारेलाल जी सम्वत् 1937 मे चन्देल राजा परमद्धिदेव के राज्य में के मरणोपरान्त उनके ज्येष्ठ पुष डा. कपूरचन्द्र जी था। इसका शासन काल ईसवी 1166 से ईसवी 1203 टीकमगढ़ मंत्री बनाये गए जो आज भी तन मन धन से तक रहा बताया गया है। यह इस वश का भन्तिम महान सेवा-रत है। नरेश था। परिस्थितियो से विवश होकर ईसवी 1203 जहाँ यह प्रतिमा प्राप्त हुई वह स्थान 6 फुट गहरा में इसने कुतुबुद्दीन ऐबक को आधीनता स्वीकार कर ली इसमें दो प्रवेशद्वार थे। एक दरवाजे की दोनो ओर दो ' इस शासक के राज्य काल तक यह क्षेत्र समद्धिमय कमरे थे । एक कमरा बीच मे था। एक कमरे मे तलघर था । मन्दिर की चारो ओर दालान थी जिसमे तीन ओर बना रहा। इसके पश्चात् समय ने करवट बदली इसका की दालान गिर गई थी। इस खण्डहर की खुदाई मे 29 पतन आरम्भ हुआ और वह इतनी पराकाष्ठा पर जा मनोज्ञ प्रतिमायें निकली थी जो क्षेत्रीय संग्रहालय मे पहचा कि लोग स्थान छोड़ने के लिए विवश हो गए। विराजमान है। फलस्वरूप यह स्थान निर्जन हो गया । मन्दिर ध्वस्त होकर खण्डहर बन गया और नगर के स्थान में वृक्ष हो गए। मन्दिर की शिखर के पूर्वी भाग में निर्मित गन्धकुटी यह स्थान जगल बन गया। क्रूर पशु रहने लगे थे। मे खड्गासन मुद्रा में एक प्रतिभा विराजमान है। इसके प्रकृति का नियम है कि वस्तु का समा एक-सा नही केश घुघराले है । स्कन्ध भाग से इसके हाथ खण्डित है जो रहता । उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उन्नति वाद में जोड़े गए है । प्रतिमा की दोनो और सूड उठाए होती ही है। समय आया। इस स्थान का भी परिवर्तन एक-एक हाथी की प्रतिमा ह। हाथियों के नीचे उड़ते हुआ और इतना हुआ कि जगल मे मगल हो गया। हुए मालाधारी देवाकृतियां है। इन देवो के नीचे चमर क्षेत्र को मनोज्ञ बनाने में वर्तमान मत्री श्री डा. वाही इन्द्र सेवा में खडे है। इन दोनो इन्द्रो के नीचे दोनो कपूरचन्द्र जी और बजाज मूलचन्द्र जी न रायगपुर वालो ओर एक-एक उपासकों की करबद्ध प्रतिमायें है । आसान के पूर्वजो का विशेष योगदान रहा है। साहू शान्तिप्रसाद पर अलंकरण स्वरूप पूर्व की ओर मुख किये दो सिंहा जी ने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराकर प्रगति में चार चाँद कृतियां भी अकित की गई है। चिह्न का अकन भी किया लगाये हैं। मंत्री डा. कपूरचन्द्र जी टीकमगढ की समर्पण गया है किन्तु दूर से देखने के कारण पहिचाना नही जा भाव से की जा रही क्षेत्रीय सेवा सराहनीय है। सका। छत के पास शिखर का पूर्व-पश्चिम भाग 19 फुट दानवीरों से कामना करता हूं कि इस क्षेत्र को 10 इंच तथा उत्तर-दक्षिण भाग 70 इव चौड़ा है। आर्थिक सहयोग देकर अपनी लक्ष्मी का उपयोग अवश्य मन्दिर का निर्माण पत्थर से हुआ है। करें। इस क्षेत्र के दर्शन और क्षेत्र को दिया गया आर्थिक सभवत: इस मन्दिर का निर्माण शान्तिनाथ प्रतिमा- योगदान विशेष पुण्यकारा होगा। अकुत शान्ति प्राप्त प्रतिष्ठा काल सम्वत् 1237 मे हुआ था। प्रतिमा निर्माण होगी ऐसा मेरा विश्वास है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतीक से बागे। धवल पु० ४ का शुद्धिपत्र निर्माता -जवाहरलाल मोतीलाल बकतावत; भीण्डर (राज.) अशुद्ध देवराशि देयराशि अ (जगप्रतर) (अ-१) र (जगत्प्रतर) १५ १६-१-१०००.०४३११६ १६ १०००.०४३११६ पंक्ति १९८ १९८ (अ-१) १६-२. १९८ ११८ १९८ १९८ प्राप्तशलाका मान में से लेकर सोलह प्रतिषु 'सुवर्ण' इति पाठः लेकर क्षेत्रफलों का अनुपात सोलह प्रतिषु सुण्णं इति पाठः। २०० २०५ २०५ २०८ २११ १(१६न-१)1_१(४न-१)]_T (१६-१)1_[१ (४-१) 1 L (१६-१)J L (४-१) (१६-१) (1-१) । अउत्त। अउत्तं भागों से मागों से राजुप्रततररूप राजुप्रतररूप योनिगती योनिनी [नोट-इसी प्रकार सर्वत्र अनुवाद में 'योनि मती' का 'योनिनी' करना चाहिए ३१ (चरम) तिर्यच तिर्यञ्च हो जाता है। कस्यासंख्येयभाग: लॊकल्यासंख्येयभागः स्थिर और स्थित और २. पूर्वोक्त पूर्वोक्त समुचतुरस्त्र समुचतुरस्र ३२ वह क्षेत्र के वह क्षेत्र २४ लोक बाहत्य योजन बाहल्य अ-क प्रत्यो आ-क प्रत्योः २१२ २६ २१६ २१९ २४ २१६ २२१ २२१ १२२ २९.५६ राजुप्रतर, २८९२६ राजप्रतर विश्कम्म वाले २२२ २२४ २२५ नही विष्कम्भ वाले नहीं है। देवों के अगम्य २८ देवों नेअगम्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२६ २२६ २२६ २३० २३१ २३१ R २३१ २३३ २३६ २४३ २४५ २४८ Pre २४८ २४६ २६४ २६४ २६७ २६८ २६८ २५६ २६६ २०१ २७२ २७३ २७६ २७६ २०६ २७६ पंक्ति ३२ ३१ २७ १५ १६ १७ २५ १४ ܐ २५ २२ १८ १६ २५ २६ २४ २५ १३ १६ २५ X २ १३ १ १८ १५ १६ २३ २५ २६ तदाफोसणं X X X X ऊपके नहीं होता है ? संख्यात पनांगुल प्रमाण अशुद्ध संख्यात अगुल प्रमाण, चांगुल बाहुल्यवाला और भवनवासी देवों ने नौ योजन बाहुल्य द्विदोत भीतर ही होने साधर्म (४) पृथिवों विशेष ० ४ का शुद्धिपत्र एथ वि राजुप्रतको दर्शना सासादन सम्यग्दृष्टि मनुष्यों का उत्पन्न सम्यदृष्टि भी ओघपना चाहिए। तिर्यग्लोक के भागो चेव वैकविकमित्रका जो का मिथ्यादृष्टि अर्थात अर्थात आदेश मार्गणा के अन्तर्गत वेदप्ररूपणा मे शुद्ध तदा फोसणं ? १. प्रतिषु " मारणं" इति पाठः । ऊपर के नहीं होता है ? X X X X सख्यात घनांगुल प्रमाण अंगुल बाहुल्य वाला ऐसा व्यतरवासी देवो ने [क्योकि पृ. २३० को द्विचरमपंक्ति से व्यन्तरदेव प्रकृत हो गये है ।] नौ सौ योजन बाहल्य द्विदोत भीतर होते साधर्म्य (३) (४) पृथिवी विशेष सासादन सम्यग्दुष्ट मनुष्यों में उत्पन्न सम्यग्दृष्टि भी इनके ओपना चाहिए; क्योकि तिर्यग्लोक के भावे चैव किविष्टि जीवों का एत्थ वि ११ राजुप्रतर को वर्शाना मिध्यावृष्टि अर्थात् अर्थात् ' आदेशमार्गणा के अन्तर्गत यहां वेदप्ररूपणा मे" [नोट-कोई अर्थान्तर न समझ ले इस दृष्टि से ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ -मकान्त mकि.. पृष्ठ पंक्ति २८१ २८३ २८६ २९२ अशुद्ध जेणोघेण सारिच्छेएगत्तं? क्योंकि, लम्धि के उपशमसम्यग्दृष्टि हुई थी साथ उपापद क्षेत्र परूपणा डेढ़ राजु पर समाप्त २२२ १९२ २६३ २६६ २९६ ३०५ असंख्यातवा बन जाना है। असंख्यातवा छोड़कर पदों के उपपा पद आहारएसु सम्भवित देशोनाः । सयोगिकेवलिनां ३०७ ३०९ ३०६ जेणोघेण सारिच्छो एगत्त? क्योंकि, एक लब्धि के उपशमसम्यग्दृष्टि हुए भी साथ उपपाद क्षेत्रप्ररूपणा डेढ़ राजु पर तेजोलेश्या वालों का उपपाद क्षेत्र समाप्त असंख्याता बन जाता है। असंख्यातवा छोड़कर शेष पदों के उपपाद पद अण्णाहारासु सम्भावित देशोनाः । असयतसम्यग्दष्टिभिः लोकस्या संख्येय . भागः षट्चतुर्दशभागाः वा देशोनः। सयोगिकेवलिना स्वय (अन्यरूप) परिणमित प्रवृत्त सादिसपर्यवसानश्चेति । निर्जीर्णाः क्योंकि सभी राशिया प्रतिपक्ष सहित पाई जाती है। प्रतिभग्न होने के काल सहित "सव्वद्धा" उत्कृष्टकाल की (अन्तर्मुहूर्त की) हो गया, मथवा मिथ्यादृष्टे अपवर्तनाघात से असंखेज्जासखेज्जाणो प्रतरपल्य पोग्गलपरियट्टेसु पुण्णेसु [एकेन्द्रियेषु आवल्यसंख्येय भागप्रमितपुद्गलपरिवर्तनः अनन्तकालात्मकः परिभ्रमणकालः । (दृष्यताम् पृ. ३८८ 'सूत्र १०९' इत्यस्य धवला टीका) स्वय परिणमित प्रवृत्त ३२१ ३२४ ३३२ ३३६ १४ ३४५ ३४६ सादिसपर्यवासनश्चेति निर्जीणाः कि क्षय होने वाली सभी राशियो के प्रतिपक्ष सहित पाई जाती हैं। प्रतिभाग कालसहित 'सर्वाता' एकसमय की हो गया। पुनः मिथ्यादृष्ठे उद्वर्तनापात से असंखेज्जासंखेज्जाणि प्रतर, पल्य पोग्गलपरियट्टेसुप्पण्णेसु २५४ २७ ३६५ ३७२ १८३ 1८६ ३८६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४१७ ४२० ४२२ ४२२ YEY ४३७ ४४५ ૪૪૧ ४४५ ३४० ४४५ ४४५ ४४५ ४४५ xxx ४५६ ४६१ ४६१ ४६.३ ૪૬૪ ૪૬૪ ४६४ ४६८ ४६८ ४७५ ४७७ ४७७ ४८८ ४८५ ४८५ ३३६ पंक्ति १५ १६ १८ २२ २६ १३ ६ ७ 5-& २८ १० २०-२१ २२ २४ २६ ६ १३ २४ २३ २४ 2५ २६ १३ १८ ܘܪ १८ २६-३० ३ ५ २८ १६ अशुद्ध शेष रहने पर अपने योग के मुहूर्त के उदय में आये प्रदेश पर और णिरयगदीएण मणुस नदीएण तिखिगईएण एक जीव के सासादन गुणस्थान के देवगदी एण नरक गति मे उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना यहणमंतो मच्छिय प्रस्तार के उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूतों से ०४ कात्रि पतित वर्धमान शका तंज और गुणस्थानो का सादिया नहीं है। अर्थात् फिर तो भव्यत्व को बनादि अनन्त भी होना पड़ेगा, उक्कस्सेण वे समया; इहि सामान्योक्तः । सूत्र और आचायों के शुद्ध ॥ समाप्त ॥ पूर्ण होने पर अपने गुणस्थान के मुहूर्त के उपार्जित किये स्थान (सीमा वा तल) पर या रिगरयगदीए ण मसनदीए ण तिरिक्ईए न उद्वर्तनाघात कम अड़ाई सगरोपम काल से अधिककाल अधिक अढ़ाई सागरोपमकास अढ़ाई सागरोपम काल के सासादन गुणस्थान के एक देवगदीए ण नरकगति में उत्पन्न नही कराना उत्पन्न नहीं कराना उत्पन्न नहीं कराना उत्पन्न नहीं कराना सभ्य जहणमंतो मुडुतमच्छिय प्रस्तार में उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूतों मे से अपवर्तनाचात विवक्षित पर्याय के पतित होनीकृत) शका वर्धमान तेज और २३ गुणस्थानो में शुक्ललेश्या का सादि नहीं है। अनादि-अनन्त भव्यत्व भी होना चाहिए, उक्करण आवलियाए असंखेज्जदिभागे . एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयो, उक्कस्सेण बे समया; इच्चे एहि सामान्योक्तः कालः । सूत्राचायों के [कारण देखो - षट्डागमपरिशीलन पू. ६९६ ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित शान्तिनाथ की प्रतिमाएं । नरेश कुमार पाठक शान्तिनाथ इस अवसपिणी के सोलहवें तीर्थकर हैं। ध्यानस्थ मुद्रा में विराजमान है। कुन्तलित केशों से युक्त हस्तिनापुर के शासक विश्वसेन उनके पिता और अचिरा उष्णोस एवं लम्बे कर्ण चाप है। ऊपर त्रिछत्र एव पीछे उनकी माता थी। जैन परम्परा में उल्लेख है, कि शान्ति प्रभामंडल है, देवता के पाश्व में ऊपरी भाग में दो जिन नाप के गर्भ में आने के पूर्व हस्तिनापुर नगर मे महामारी प्रतिमाएं कायोत्सर्ग मे एवं दो जिन प्रतिमाएं पद्मासन में का रोग फैला, इस पर इनके गर्भ में आते ही महामारी अंकित है। पादपीठ पर उनके लांछन हिरण (मग) बैठा का प्रकोप शान्त हो गया। इसी कारण बालक का नाम हुआ अंकित है। लगभग 12वी शती ईस्वी की मति की शान्तिनाष रखा गया। शान्तिशाथ ने 25 हजार वर्षों कलात्मक अभिव्यक्ति कच्छपघात युगीन शिल्प कला के तक चक्रवर्ती पद से सम्पूर्ण भारत पर शासन किया और अनुरूप हैं। उसके बाद शान्तिनाथ को हस्तिनापुर के सहस्त्राम्र उद्यान (ब) कायोत्सर्ग : कायोत्सर्ग में निर्मित तीर्थकर में नन्दिवृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ सम्मेद शिखर शान्तिनाथ की दो प्रतिमाएं संग्रहालय मे संरक्षित है। इनकी निर्माण स्थली है। पढावली (जिला-मुरैना) से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में शान्तिनाथ का लांछन मृग और यक्ष-यक्षी गरूड (या शिल्पांक्ति सोलहवें तीर्थन्कर (स० क्र० 127) शान्तिनाथ' वाराह) एवं निर्वाणी (या धारिणी) है । दिगम्बर परम्परा के दोनों हाथो में पूर्ण विकसित पुष्प लगे हुए हैं । सिर पर में मक्षी का नाम महामानसी है।' कुन्तलित केश कर्णचाप, वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। केन्द्रीय संग्रहालय गजरी महल ग्वालियर में सोलहवें तीर्थकर के दायें-बायें परिचारक इन्द्र आदि आंशिक रूप तीर्थकर शान्तिनाथ की चार दुर्लभ प्रतिमाएं संग्रहित हैं, से खण्डित अवस्था में अंकित है। पादपीठ पर उनका जिन्हें मुद्राओं के आधार पर दो भागो मे बाटा जा है। लाछन हिरण बैठा हुआ है। पादपीठ के नीचे दायें यक्ष (अ) पद्मासन (ब) कायोत्सर्ग। गरूड बायें यक्षरणी महामानसी है। तीर्थकर के पार्श्व में (अ) पचासन : पद्मासन मे निर्मित तीर्थकर दायें दो कायोत्सर्ग मुद्रा मे जिन प्रतिमा बाये एक शान्तिनाथ की दो प्रतिमाएं संग्रहालय में संरक्षित हैं। कायोत्सर्ग जिन प्रतिमा का आलेखन है। 11वीं शती विदिशा से प्राप्त पय पादपीठ पर पद्मासन में बैठे हुए ईस्वी को प्रतिमा की मुख मुद्रा सौम्य एवं भावपूर्ण है। शान्तिनाथ' का सिर टूटा हुआ है (स०• 132) पाद- बसई (जिला-दतिया) से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में पीठ पर विपरीत दिशा में मुख किये सिंह प्रतिमा मध्य में अंकित तीर्थकर शान्तिनाथ (स० ० 760) के सिर पर चक्र है । दोनों ओर शान्तिनाथ का ध्वज लाछन दो हिरण कुन्तलित केश वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित है। वितान प्रतिमानों का अंकन है। 10वी शती ईस्वी की मूर्ति का में त्रिछत्र, ऊपरी भाग मे कायोत्सर्ग मे दो जिन प्रतिमा, पत्थर के क्षरण के कारण कलात्मकता समाप्त हो गई है। पार्श्व में दोनों ओर परिचारकों का आलेखन है। पादपीठ बसई (जिला-दतिया) से प्राप्त तीर्थकर शान्तिनाथ पर विक्रम संवत् 1386) ईस्वी सन् 1259) का लेखा (स.क्र०) 763) सिंह के पादपीठ पर पद्मासन की उत्कीर्ण है। मुख मुद्रा शान्त है। सन्दर्भ-सची 1. हस्तीमल जैन धर्म का मौलिक इतिहास' खंड-1, इस प्रतिमा को जैन तीर्थकर लिखा है। जयपुर 1971 पृष्ठ-114-18. 4. शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृष्ठ 471, क्रमांक 127. 2. तिवारी मारूति नन्दन प्रसाव "जैन प्रतिमा विज्ञान" वाराणसी 1981 पृष्ठ 108. 5. ठाकुर एस० आर० कैप्लीग आफ स्काचर्स इन दी 3. शर्मा राजकुमार "मध्यप्रदेश के पुरातत्व का सन्दर्भ आर्केलोजीकल म्यूजियम ग्वालियर एम. बी. अन्य" भोपाल 1974 पृ.471 क्रमांक: 132 पर पृष्ठ 22, क्रमांक 15. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल उपादान को नियामक मानना एकान्तवाद है पं० मुन्नालाल जैन प्रभाकर निमिन उपादान की चर्चा न जाने कब मे चली आ दर्शाया है तथा इमी लेख मे कहा है 'पुद्गल कर्म अथवा रही है। खानिगा में अनेक विद्वानो के बीन भी चर्चा मोहनीय कर्म में भी संसारी आत्मा को रागद्वेष रूप परिणचली जिसके विषय में पं० फूलचन्द जी ने काफी प्रश्न मन करने में खिचाव की शक्ति है' ये दोनों बातें आगम के उपस्थित किये और इनका उत्तर पं० वशीधर जी व प्रतिकूल तो है ही परस्पर विरुद्ध भी है। रतनचंद जी मुक्तार मारब ने दिया परन्तु कोई ममाधान कर्ता की परिभाषा समय सार कलश ५१ में अमृत नहीं हो सका और अब फिर एक पत्रिका से निमित्त कुछ चन्द्राचार्य ने ' यः परिणमनि स कर्ता इत्यादि' की है । नही है जो कुछ होता है वह उपादान से ही होता है। इस कथ। स जीव तथा पुदर दोनो ही कर्ता हैं। क्योंकि इस लेख को पढकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर समा दोनो ही परिणमन करते है। तथा समय सार गाथा घान न होने का कारण क्या है ? जिनकी धारणा बन गई ८०, ८१, ८२ मे स्पष्ट वताया है कि पुद्गल के परिणहै कि जो मैं जानता हूं वही सत्य है । जब तक इस धारणा मन में (कर्म रूप) जीव निमित्त है उसी प्रकार जीव को एक तरफ करके ठंडे दिम से दूसरे के विचारों भी जिसको पुद्गल कर्म निमित्त है (राग द्वेष रूप) को न सुनेंगे न देखेंगे और न गहराई से विचार करेंगे परिणमन कर है तथा जैन सिद्धान्तप्रवेशिका में उपातब तक वस्तु का सत्य स्वरूप समझ में नही आ दान तथा निमित्त दोनो को कारण कहा है। जो पदार्थ सकता जैसा मोक्ष मार्ग प्रकाश पृष्ठ २१ मे कहा है कि कार्य रूप परिणमन करता है उपको उपादान कारण तथा जिस जीव का भला होनहार है उसके ऐसा विचार आये जो उसमे सहायक होता है उसको निमित्त कारण कहा है मैं कौन हं यह संसार का परिच केमे बन रहा है ऐसे है। जीव तथा पदगल दोनों उपादान भी है और निमित्त विचार से उद्यम वंत भया अति प्रीति कर शास्त्र सुने है. भी। जब जीव कार्य रूप परिणमन करता है तब वह किछ पूछना होय तो पूछे है बहुरि गुरुनि कर कहया अर्थ उपादान कारण कहलाता है और युद्गलकर्म निमित्त को अपने अन्तरगविषे बारम्बार विचारे है इस विचार से कारण कहलाता है। इसी प्रकार जब पुद्गल वर्गणायें बस्त का निर्णय हो है। यदि हम सच्चे, दिल से वस्तु के कर्म रूप पग्गिा मन करती हैं तब पुद्गल उपादान कारण स्वरूप का निर्णय करना चाहते है तो हमे आनी मान्यता तथा जीव के राग द्वेष भाव निमित्त कारण कहलाते हैं। का पक्ष न लेकर वस्तु के स्वरूप का बार-बार विचार मोंकि दोनो ही पदार्थं परिणमन शोल है इसलिए दोनों करना होगा। निमित्ताधीन दृष्टि शीर्षक लेख में बहुत से ही उपादान है और दोनो ही निमित्त है दोनों समान है प्रसंग तो पुराने हैं जिनके उतर विद्वानो द्वारा दिये जा कोई कमजोर और बलवान नही है न एक द्रव्य दूसरे चके हैं ज. मोटर पेट्रोल से नहीं चलती, स्त्री रोग होने द्रव्य का जोगवरी से कर्ना है इसके लिए समय सार मे निमित्त कारण नही आदि। कुछ प्रसंग विचारणीय है गाथा ८० देखिए इसमें दोनों को एक दूसरे का निमित्त उन पर विचार करते है-(१) लेख में कहा है निमित्त कारण बताया है। और जो यह कथन है कि 'पुद्गल का न", कराता नहीं निमित्त से होता नहीं परन्तु कर्म (मोहनीय) में संसारी आत्मा को रागद्वेष रूप जिसका अवलम्बन लेकर हम कार्य करते है वह निमित्त परिणमन करने की खिचाव शक्ति ज्यादा है ऐसा नाम पाता है। यहां पर निमित्त को कुछ नहीं है ऐसा मानना जरूरी है क्योंकि सम्यग्द्रष्टी आरमा मामायिक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६,४४,०२ के समय अपने परिणामों को संभालता है परन्तु उसके अनेक प्रकार के विकल्प उठते हैं उनका कारण मोहनीय कर्म की खिचाव की ज्यादा शक्ति है' वह भी ठीक नहीं । है क्योंकि अगर मोहनीय कर्म की शक्ति ज्यादा है तो वह जीव शक्ति को कम करके एक दिन नाश भी कर देगा जबकि आगम में द्रव्य को नित्य कहा गया है । सम्यक द्रष्टी के सामायिक के समय ऊल-जलूल विकल्प क्यों उड़ते हैं इसके लिए मोक्षशास्त्र के दशमें अध्याय में कहा है जैसे कुम्हार के द्वारा घुमाये गये चाक से घुमाने की क्रिया बन्द करने के बाद भी चाक काफी देर तक घूमता रहता है उसी प्रकार यह जीव अपनी अज्ञानता के कारण से अनादि काल से पर पदों के संयोग वियोग तथा उनके अनुकूल-प्रतिकूल परिणमन करता आ रहा है जिससे विकल्पों के उठने के संस्कार बहुत दृढ हो रहे हैं जिसको चारित्रमोह कहते है उसी चारित्रमोह के कारण से अनेक प्रकार के ऊल-जलूल विकल्प उठते है न कि मोहनीय कर्म की ज्यादा खिचाव की शक्ति से । यदि यह जीव अपने उपयोग को तत्व विचार मे लगावे तो अभ्यास करते-करते एक दिन विवेक की जागृति अवश्य हो बायेगी पोर अल-जलूल विचार आने बन्द हो जायेंगे। अन्य सभी पदार्थ अपने से भिन्न दोचने लगेंगे इसके लिए समय सार गाथा २०० में कहा है । धात एवं सम्यष्टिः मात्मानं जानाति ज्ञायक स्वमाये । उदयं कर्म विपाक च मुंयति तत्वं विजानन् ॥ २०० सम्यग्द्रष्टि अपने को ज्ञायक स्वभाव जानता है और के यथार्थ स्वरूप को जानता हृथा कर्म के उदय को वस्तु कर्म का विपाक जान उसे छोड़ता है। जिससे प्रागामी कर्मबंध रुक जाता है । जब कर्म की स्थिति समाप्त होने को होती है उस समय उसमें फल देने की शक्ति प्रगट होती है जिसको कर्म का विपाक या उदय भी कहते हैं । उसके पश्चात कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जाता है फल देकर भी और बिना फल दिये भी निर्जरा अवश्य होती है। तब कर्म के पतन को रोकने के लिए कोई समर्थं नहीं होता। यहां विशेष है कि कर्म फल जोरावरी से नही दे सकता यदि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपने उपयोग को अपने में लगाये तो कर्म अविपाक निर्जरा को प्राप्त होगा । और यदि जीव पुरुषार्थ चूक गया तो कर्म बंध हो जायगा क्योंकि दोनों द्रव्य स्वतंत्र है एक दूसरे के साथ कोई जोरावरी नहीं कर सकता। इसी माधना के आधार पर सिद्ध पर्याप्त होती है। यहां कर्म के विपाक तथा उदय पर भी विचार करें पुद्गल कम के उदय में जीव के विकारी भाव उत्पन्न होते हैं रागद्वेषादि अर्थात् इच्छाये होना यह कर्म का उदय है कर्म के उदय होने पर उस इच्छा के अनुरूप परिणमन करना या न करना जीव के आधीन है। यदि इस जीव ने अपने पुरुषार्थं की शक्ति से परिणमन को रोक लिया तो आगामी कर्म बंध नहीं होगा पुद्गल कर्म उदय आकर बिना फल दिये चला जायगा जैसा आगम मे कहा है 'आतम के हित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय' प्रर्थात् इच्छाओ के उत्पन्न होने पर अपनी शक्ति के द्वारा उस परिणति को रोके तो बंध रुक जाय। और भी कहा है 'रोकी न चाद निज शक्ति खोय शिवरूप निराकुलता न जोय' । पृष्ठ २७ पर लेख में लिखा है 'फल की प्राप्ति-उदय । यहां उदय के विषय में भी विचार करना है। उदय का अर्थ आत्मा मे विकारी भावो का अनुभव मात्र है नवीन बध नहीं नवीन बंधतो उदय के विशक से होगा अर्थात् उदय के अनुसार परिणमन करने से । कर्म के विपाक से बध नही । यदि जीव अमावधान है तो उदय मात्र होगा और यदि विपाक के समय अपने स्वरूप मे सावधान है। तो बिना उदय आये खिर जायगा, जिसे अविपाक निर्जरा कहा है। फल दो प्रकार होता है उदय को भी फल कहते है और नवीन बंध को फल कहते है नवीन वध जीव के रागद्वेष रूप परिणति का फल है और विकारी भावों का अनुभव मात्र होना पुद्गल कर्मों का फल है। इसके लिए गाथा २०० तथा कलश १३७ और दोनों टीकाओ का गहराई से अध्ययन करे । कारण अनेक प्रकार होते हैं कुछ कारण ऐसे होते हैं जिनके होने पर कार्य हो भी और न भी हो जैसे मुनि लिंग । यदि मुनि लिंग को पहिले बाह्य परिग्रह का त्याग करके समस्त अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया तब तो केवल ज्ञान रूपी कार्य हो जायगा और जब तक लेश मात्र भी अन्तरंग परिग्रह रहेगा केवल ज्ञान नहीं होगा यहाँ भी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल उपादान को नियामक मानना एकान्तवाद है २७ समस्त सहयोगी सामग्री के सद्भाव तथा विरोधी कारण कर्म काण गाया ८७६ में एकांत मा के ३६३ अंगों का के अभाव होने का नियम है। अगर कोई दोनों द्रव्यों में वर्णन किया हैं उनमें १८० किया वादियों के ८४ अक्रिया निर्मित नैमित्तिक सम्बन्ध ना मान कर केवल दो द्रव्यो वादियों के अज्ञानवादियों के ६७ तथा ३२ वैनयिकवादियों को पर्यायों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध माने तो वह के भेदों में एक नियतवाद नाम का एकांत मत का भी आगम के प्रतिकूल होगा जैसा कि लेख में पृष्ठ २४ पर वर्णन गाथा ८८२ में किया है। कहा है कि दो द्रव्यों मे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नही लेख मे पृष्ठ २४ पर कहा है 'जीव और पुद्गल होता। पर ऐसा आगम मे कही देखने में नहीं आया क्यों अपनी क्रियावती शक्ति से एक जगह से दूसरी जगह जाते द्रव्य का लक्षण सत है और सत को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है तब धर्म द्रव्य स्वत: अपन आप निमित्त रूप रहता है। युक्त कहा है और सत का कभी नाश नहीं होता इसलिए यहा प्रश्न उठता है । जब निमित्त कुछ कर्ता ही नही जैसा द्रव्यों की प्रत्येक पर्यायों में सत पना मौजूद रहता है लेख में पृष्ठ २३ म कहा फिर निमित्त को उपस्थिति की इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि दो द्रव्यो में निमित्त क्या आवश्यकता पड़ी इसका यही अर्थ हुआ कि निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं होता। ऐमा मानने से जिन के विना कार्य नही होता अगर निमित्त के बिना अकेले पर्यायों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्म मानोगे उस समय सत उपादान की योग्यता से ही कार्य होता है तो जीव जव का अभाव होने से द्रव्य का नाश हो जायगा जो असम्भव समस्त कर्मों से छूट जाता है तब ऊर्ध्व गमन स्वभाव होने है इसलिए ऐसा कहना कि दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिक पर ऊपर को गगन करता है जैसा मोक्षशास्त्र के १०वें सम्बन्ध नहीं होता ठीक नहीं हैं। अध्याय में कहा है तब गमन करते-करते लोक के अंत में जब जो कार्य होना होता है उसी समय दोनो द्रव्यों क्यों ठहर जाता है अलोका काश में भी क्यो गमन नहीं की उसी समय की अवस्थाओ का सयोग सम्बन्ध अवश्य करता है इसका उत्तर उसी अध्याय मे दिया है धर्मास्तिहोता है इसी को निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध कहते है कायाभावात अर्थात् धर्म द्रव्य के अभाव मे क्रियावती अकेले एक कारण से चाहे वह उपादान हो चाहे निमिः, शक्ति के होने पर भी निमित्त (धर्म-द्रव्य) के बिना गमन कार्य नही होता क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रत्येक सामग्री को रूप कार्य नही हो सकता इससे स्पष्ट है कि उपादान तथा असमर्थ कारण कहते है और असमर्थ कारण कार्य का निमित्त दोनों के सहयोग से कार्य होता है अकेले उपादान नियामक नहीं है ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिका ४०५ पर की योग्यता से नही योग्यता तो दोनों जीव तथा पदगल द्रव्यों मे हमेशा होती है फिर भी धर्म द्रव्य के अभाव होने लेख में पृष्ट २३ पर ये भी कहा है कि 'पदि राग पर गमन रूप क्रिया नही होती जब भी जिस समय जो कार्य के होने में स्त्री निमित्त करता है तो स्त्री राग के मेटने में होना होता है उस समय दोनो द्रव्यो के संयोग होता है भी निमित्त हो जायगी'। ये हम पहिले कह चुके हैं कि तथा विरोधी कारण का अभाव होता है जिसको समर्थ कोई द्रव्य चाहे उपादान हो चाहे निमित्त दोनो स्वतत्र है कारण कहते हैं तब कार्य नियम से होता है । भिन्न-भिन्न एक दूसरे की इच्छा के आधीन नहीं। अगर पुरुष स्त्री प्रत्येक सामग्री को असमर्थ कारण कहते हैं । असमर्थ को देख हर भोगो के चितवन मे लगता है तो राग कारण कार्य का नियामक नही है (जै० सि. प्रवेशिका उत्पन्न हो जायगा और यदि वही पुरुष स्त्री को देख कर ४०५) फिर अकेला उपादान कार्य का नियामक कैसे हो संसार की असारता का विचार करता है तो वैराग्य की सकता है। समय मार की गाथा १३०-१३१ की टीका में उत्पत्ती होगी। विचार करना इसके अपने प्राधीन है स्त्री कहा है-'यथा खलु पुद्गलस्य स्वय परिणाम स्वभावत्वे की इच्छा के प्राधीन नहीं। और यदि किसी एक से कार्य सत्यपि कारणानु विधायित्वात् कार्याणां' अर्थात् पुद्गल को उत्पत्ती पानोगे चाहे वह उपादान हो चाहें निमित्त द्रव्य स्वयं परिणाम स्वभावी होने पर भी जैमा कारण हो एकाम्त नाम का मिथ्यात्व हो जायगा जैसा कि मोमट्टसार उस स्वरूप कार्य हो . है। उसी प्रकार जीव के भी स्वयं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ वर्ष ४४०२ परिणाम स्वभावी होने पर जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है ऐसे जीव के परिणाम का तथा पुद्गल के परि णाम का परस्पर हेतुत्व का स्थापन होने पर भी जीव छोर पुद्गल के परस्पर व्याप्य व्यापक भाव के अभाव से कर्ता कर्म पने की असिद्धि होन पर भी निमित्तमित्तिक भाव मात्र का निषेध नहीं है क्योंकि परस्पर निमित्त मात्र होने से ही दोनो का परिणाम है [टोका गाथा ५१, ५२ ] क्योंकि जिस समय जो कार्य होना होता है उस समय जीव तथा पुद्गल दोनो द्रव्यो की पर्यायों का सयोग अवश्य होता है इसी को निमित्त नैमिालक संबंध मात्र कहते हैं। निमित्त मिसिक सम्बन्ध माष भी इसलिये कहा है कि कोई द्रव्य एक दूसरे पर जोरावरी नही करता जैसे सूर्यादय होने पर चकवा चकली स्वयं मिल जाते हैं तथा सूर्यास्त होने पर बिछुड़ जाते हैं काई अन्य उन्हें मिलाता या पृथक नहीं करता स्वय ही ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है। कारण मा कई प्रकार के होते हैं जिनके होने पर कार्य होता ही है जैसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारय इस तीना को एकता होन पर केवलज्ञान रूपी कार्य होता ही है । और भी कहा हैजत्तु जदा जेण जहा जस्स य नियमेण हीदि तत्तु तदा । रोग वहा तस्सहने ईदि बाद गियांद वादो दु६६२ ।। 1 जो जिस समय जिससे जैसे जिसके नियम से होता है वह उस समय उससे तसे उसके ही होता है। एसा नियम से ही सब वस्तु को मानना उसे नियतवाद कहते है । आगम मे अनेको जगह ऐसा स्पष्ट कहने पर भी एक अकेले उपादान से ही कार्य की सिद्धि मानना एकान्तवाद नाम का मिथ्यात्व है। इसके अतिरिक्त एसा मानना भी आगम के प्रतिकूल है कि जब उपादान जिस रूप परिण मन करने के सन्मुख होता है तब वह गहरी पदार्थों को उसी कार्य के लिए सहयोगी बना लेता है जैसा कि लेख मे सम्पादकीय गोट का ठीक है कि इस विषय पर पहिले काफी चर्चा हो चुकी है। हमारी दृष्टि से तो जब 'जैनतत्त्वमीमांसा' और 'जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा' जैसी कृतियों में निमित्त उपादान के निष्कर्ष निकालने को पर्याप्त सामग्री (शास्त्रीय उद्धरणों सहित) देने वाले उद्भट विद्वान् तक किसी निर्णय पर एकमत न हो सके हों, सब साधारण लेखो और साधारण पाठको को क्या बिमान ? निश्चय ही यह स्थित आध्यात्मिक है और पक्षपात व आग्रही बुद्धि से दूर अपरिग्रही मन की पकड़ का है । देखें - कौन कितना अपरिग्रह की ओर बढ़ता है ? यस ख्याति विवादविजयी और के भाव से कौन कितनी दूर रहता है ? : " प्रका पृष्ठ २६ पर कहा है । निमित्त नीमत्तिक की परिभाषा इस प्रकार है । जिस समय जो कार्य होना होता है उसी समय वही कार्य होता है और उसी समय के दोनो पदार्थ उपादान तथा निमित्त का सयोग सम्बन्ध होता है उसी कार्य के लिए उसी समय दोनो पदार्थों की उसी समय की पर्याय का सयोग सम्बन्ध होता है इसी संयोग सम्बन्ध को निमित्त नैतिक सम्बन्ध कहते है गोमटसार कर्म काण्ड गाथा ६८२ बहुत खुलासा किया है इसके अतिरिक्त निमित्तनैमित्तिक शब्द आगम में अनेकों जगह आया है। तथा वर्णोजी महाराज कहा करते थे 'जो-जो भाषी बीत राग न सो-सो होस। वीरा रे अनहोनी कबहु न होय काहे होत अधीरा ' इस पर एक बार ईससे में किसी ने प्रश्न र' कर दिया कि हम तब जाने जब इस समय अंगूर आजांय । तब वर्णीजी बोले निमित्त नमित्तक सम्बन्ध होगा तो आ जायेंगे। कोई व्यक्ति उसी समय अगूर लेकर पहुंच गया इसका अर्थ ऐसा न करना कि वर्णीजी के कहने से घागये यदि ऐसा अर्थ कर लिया तो एकान्त मिध्यात्व हो जायेगा, क्योंकि ये सिद्धान्त है कि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के आधीन नही निमित्त उपादान की चर्चा के समाधान के लिए निमित्त नैमित्तिक संबंध की परिभाषा भली प्रकार समझना होगा वरना एकान्त मिथ्यात्व हो जायेगा । एक समय मे होने वाले कार्य के लिए हर समय के किसी भी उपादान निमित्त के संयोग सम्बन्ध को कार्य का नियामक मानना एकान्त ऐसा नियम से सब वस्तु के मानना मिथ्यानितवाद है जैसा गेमटसार मे कहा है । बहुचचित निमित्त उपादान के विषय में हमारा वितन आगमनुरूप है। विद्वान् चितन करेगे तो बहुत-सी प्रतियां दूर होगी ऐसा हमें विश्वास है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रही ही आत्मदर्शन का अधिकारी दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द आदि ने जिनवाणी के रहस्यो को खोला ओर अध्यात्म का उपदेश दिया और यह सब उनके पूर्ण अपरिग्रही होने से ही सम्भव हो सका । क्योंकि परिग्रही - रागी, द्वेषी मे ऐसी सामर्थ्य ही नहीं कि वह वस्तुतस्व का पूरा सही-सही विवेचन कर सके। यह बात आत्म-तत्त्व के विवेचन मे तो और भी आवश्यक है। भला, जिसे आत्मानुभव न हो यह उसके स्वरूप का दिग्दर्शन कैसे करा पाएगा? फिर, जैनदर्शन में तो आत्मा को रूप, रस, गंध स्पर्शं रहित - अदृश्य बताया है, उसको पकड़ बाह्य इन्द्रियो और राग-द्वेषी व परिग्रही मन से भी सर्वथा असम्भव है । आत्म-स्वरूप तो वीतरागता मे ही प्राप्त हो पाता है । इसलिए हमारे तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने पहिले वीतरागी होने का उद्यम किया-दृश्य संसार से मोह को छोड़ा और दृश्य संसार से मोह के छोड़ने के लिए पहिने बारह भावनाओ के द्वारा अपने में वैराग्य समा लेने का प्रयत्न किया । अतीत लम्बे काल से उक्त क्रम मे विपरीतपना समा बैठा है— लोग राग-द्वेषादिपरिग्रह के त्याग के बिना अन्तरंग और बहिरंग परियो को समेटे हुए, अरूपी आत्मा को पहिचानने पहिचनवाने की रट लगाए हुए स्वयं भ्रमित हैं और दूसरो को भ्रमित कर सांसारिक सुखसुविधाओं के जुटाने मे मग्न है और लोग भी आत्मदर्शन के बहाने विषयों में मग्न है। इस कारण जैन का जो ह्रास किसी लम्बे काल में संभावित था वह जल्दी-जल्दी हो रहा है । थोड़े वर्षों में ही इस आत्म-दर्शन के विपरीत मार्ग ने आभ्यन्तर और बाह्य दोनो प्रकार के जैनत्व को रसातल में पहुंचा दियान खुदा ही मिला न विसा सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।" इन्हें आत्मा तो मिली ही नही इनका चारित्र भी स्वाहा हो गया। लोग चिल्ला रहे है-आज जेनी, जंनी नही रहा। जैनियों में दो दर्जे मुख्य हैं - एक श्रावक का और दूसरा मुनि का और ये दोनों ही मुख्यतः चारित्र के आधार पर निर्भर हैं । सो लोगो ने उस चारित्र की तो उपेक्षा कर दो जो चारित्र त्यागरूप और आत्म-स्वरूप की प्राप्ति पद्मचन्द्र शास्त्री संपादक 'अनेकान्त' का आधार है । यदि चारित्र की मुख्यता न होती तो उक्त दोनों दर्जे का विधान भी न हुआ होता। सभी इस बात को बखूबी जानते हैं कि उक्त दोनों दर्ज न तो कोरे सम्यम्दर्शन की अपेक्षा से हैं और ना ही कोरे सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से है । खेद है कि लोगो ने विपरीत मार्ग पकड़ चारित्र के बिना ही आत्म-दर्शन के गीत गाने शुरू कर दिए । जब कि यह पता ही नही लग पाता कि सम्यग्दर्शन किसे है और किसे नहीं ? आत्मदर्शन किसे हुआ, किसे नही । हाँ, यह अवश्य हुआ कि लोग बाह्य चारित्र को दियाला मानने के प्रति अधिक जागरुक हुए उन्होने रागादि विकारों के हटाने की बात प्रारम्भ की पर रागादि हटाने के बजाय वे स्वयं उनमें अधिक लिप्त होते गए। यहाँ तक कि उन्होंने आत्मा की बात करते हुए परिग्रह सचय का मार्ग अपना लिया बहुत से आत्मदर्शन की बात करने वाले फूटी कौड़ी के धनी भी पोर परिग्रही बन गए हों, तब भी आश्चर्य नहीं। जब कि आत्मदर्शन में मिध्यात्व व बाह्य परिग्रह की निवृत्ति जरूरी है। इस प्रकार कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आत्म-धर्म अपरिग्रह रूप था वह इनके परिग्रह-संचय का व्यापार बन गया । कहा जाने लगा कि जब तक अंतरग भावना न हो बाह्याचार कोरा दिखाया है पर प्रश्न होता है कि क्या अन्तर की प्रेरणा के अनुसार बाह्य प्रवृत्ति नहीं होती ? बाह्य करनी में अन्तर प्रेरणा प्रमुख है— चाहे वह सरल वृत्ति मे हो या कुटिल - मायाचार रूप हो । हाँ, इतना अवश्य है कि सरल-वृत्ति शुभ और कुटिल अशुभरूप होती है । ऐसी स्थिति मे भी जो शुभ-अशुभ दोनों को हय कहा गया है वह शुद्ध की अपेक्षा से कहा गया है और वह सर्वथा अपरिषद् वृत्ति में कहा गया है। जबकि आज परिग्रहियों मे शुभ और अशुभ दोनो से निवृत्ति - ( वह भी परिग्रह को बढ़ाते हुए) की चर्चा चल पड़ी है यानी कीचड़ में पैर बाते हुए कोई शुद्ध होने की बात कर रहा हो। यही कारण है कि आज का जैन नामधारी अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के चारित्र से हीन हो गया है और जिसकी पिता समाज मे व्याप्त हो गई है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, बर्ष ४४, कि०२ भनेकास हमारे तीर्थंकर आदि महापुरुषान पहिले दृश्य-रूपी कि क्या वे सब गुण और क्रियाएं नि.सार हैं? यदि निःसार पदाथों को चितन का लक्ष्य बनाया----उन्होंने अनित्य हैं तो केवली ने इनका विधान क्यों किया? इसे विचारें। आदि बारह भावनामो के माध्यम से पर-से राग हटाया और यह भी विचारें कि यदि बाह्य क्रिया या निमित्त पहिऔर पर-का राग छोड़ने के बाद स्व मे रह सके । यदि वे चान का अल्प-बहुत्व भी माध्यम नहीं तो परमपद में स्थित पर को अपनाए हुए स्व मे रह पाए हों तो देखें। भला, परमेष्ठियो को पहिचान का माध्यम क्या है ? आखिर यह कैसे सम्भव था कि बाह्य मे अटका रहा जाता और साध्वागार में वणित मूलोत्तरगुण आचार ही तो है अंतर में प्रवेश हो जाता ? आज तो लोग अन्तर-वाहर जिनसे साध्वादि की पहिचान की जाती है। यदि ऐसा दोनों में एक साथ लिप्त होना चाहते है-काम-भोग अरु नही तो हम कैसे कह सकते है कि आज श्रावक नही या मोक्ष पयानो।' सो यह कदापि सम्भव नही है। मुनि नही। फलतः अन्तरग और बाह्य दोनो को साथ लोग बड़ी-बड़ी चर्चाएं करते हैं । षटकारक, निमित लेकर चलना चाहिए। उपादान, अकर्तृत्व आदि जैसे कथन सामने आते है। पर, जब हम चारित्र की बात करते है तब कई निश्चया ऐसी चर्चाएं मोक्षमार्ग मे लगे उन लोगो को हितकारी हो भासियों को सन्देह हो जाता है और वे चारित्र की परिसकती हैं जो परिग्रहो स दूर-आत्म-चितन मे हो । परि भाषा पूछते है--उनका कहना होता है कि चारित्र तो ग्रही से एसी नाशा नहीं कि वह इन चर्चाओ से सुलट अन्तरंग ही है-बहिरंग तो छलावा भी हो सकता है। सो सकेगा-वह तो निमित्ता में फंसा ही रहगा और उस हम स्पष्ट कर दे कि आचाया । बाह्य और अन्तरंग दोनो कर्तृत्व बुद्धि भी बना रहगी। भ्रष्टता का मुख्य कारण प्रकार के चारित्रो को चारित्र म भित किया है। आचार्य यह भी है कि लोग चर्चाओं में तो निमित्त को अकर्ता कहते हैं कि- 'ससार कारणानवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: मानते रहे और स्वार्थपूति क लिएानामत्ता का बुटात भा कर्मादाननिमित्त कियोपरमः सम्पचारित्रम्'---अर्थात रहे। ऐसे लोगो के उपदश से लोग निमित्ता को अकर्ता ससार (बंध) के कारणो मे निवान की ओर लगे जानी मान पूजा आदि से विरत होने लग और निमित्त को का कर्म ग्रहण की निमित्तभू। करनी से विराम लेना अकर्ता मानने वाल और व्यवहार को मिया मानने वाले सम्यक्चारित्र है।' इसपे अन्तर ओर बहिरग दोनों प्रकार स्वय से और भक्त बनाने क माह म पच-कल्याणक आदि की क्रियाओ से विराम लेना गमित ह-दोनो ही एक दूसरे निमित्तो का जुटात रह । एस लोगा का सापना चाहिए मे निमित्त है। अत: ज्ञानी जीव अपने ज्ञान के अनुसार था कि यदि निमित्त अकर्ता है ता य उन्हे क्यो जुटात रह? दानो से ही निवृत्त हाना है। जहाँ इसका ज्ञान नहीं पहप्रवचन करना, स्वाध्याय के प्रथ प्रचारित करना भाता चता उसका तो प्रश्न ही नहीं है। सो अमूर्तिक आत्मा आखिर निमित्त है. शिविर आदि लगाना भी निमित्त है, की पकड का तो इसे प्रश्न ही नहीं उठता। ये तो अपने फिर इनकी भरमार क्यो हो रही है ? इत्यादि प्रश्न ज्ञान और इन्द्रियग्राह्यरूपी पदार्थों को पहिचानने में समर्थ विचारणीय है ? है और उन्ही को पहिचान कर बारह भावनाओ के द्वारा जहां तक 'आचारो प्रथमो धर्मः' की बात है वहाँ यही उनकी असारता का अनुभव कर उनस विरक्त हो सकता मानना पड़ेगा कि बाह्याचार अतरग की प्रवृत्ति को ओर है और पर से विरक्त होने पर ये स्वय में रह सकता है अन्तरंग की प्रवृत्ति बाह्याचार को निमित्त है और इन जब कि आज लोग अरूपी आत्मा की पकड़ की बात निमित्तो को जुटाए बिना उद्धार नहीं। फिर चाहे वे करते हे और दश्य रूपी को जकड़कर पकड़े रहते हैं । ऐसा निमित्तकर्ता हो या उदासीन हो--कार्य तो उन्ही के माध्यम विपरीत-परिग्रह मार्ग जैन के ह्रास का कारण हुआ है से होगा। कदाचित् तत्त्व दृष्टि से निमित्तका न मी हो परिग्रही को आत्म-दर्शन नही होता। तो भी क्या? श्रावक और माधु के सभी गुण और सभी आज तो प्राय ऐसा भी देखने में आ रहा है कि लोग क्रियाएँ उसके पद की भापक है और वे सब निमित्त है- परिग्रह के चक्कर मे अधिक है। कुछ लोग तो अपरिऐसे में वे कर्ता है या नही यह प्रश्न नहो, प्रश्न तो गह है ग्रहियों से भी परिग्रह प्राप्त करने को कामना मे उनकी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिपही ही प्रारमदर्शन का अधिकारी सेवा सुश्रूषा तक को अपना धन्धा बनाए बैठे हैं-भले ही पर द्राविणी-प्राणायाम किया जाता है वह भी स्व-हित में वे मानस से उनके भक्त न हों। हमे दुख का अनुभव होता नहीं, वह भी इच्छारूपी परिग्रह का ही अंश है। उससे है जब हम ऐसी विपरीत परिस्थितियां देखते हैं। भला, जन का मोह ही बढ़ता है । फलत:--धर्म सेवा भी धर्म के जैन सिद्धान्तानुसार जिस दिगम्बर से लोगो को दिगम्बरत्व लिए होनी चाहिए अन्य किसी सासारिक लाभके लिए नहीं। की ओर बढ़ने की प्रेरणा लेनी चाहिए-त्याग की सीढ़ी जैन के जैनत्व का माप, अपरिग्रही बनने की दिशा चढनी चाहिए उस दिगम्बर के बहाने उसकी आड़ लेकर की मात्रा की घटा-बढी से होता है। जितनी, जैसी परिग्रह परिग्रह अर्जन कैसा? की मात्रा में कमी होगी, प्राणी उतना ओर वैसा ही हमारे भाग्य से हमारे दिगम्बर मुनियो मे, अब ऐसे जैनी होगा और परिग्रह की जितनी जैसी माया बढ़ी होगी साधु भी विद्यमान है, जिनकी प्रखर-प्रज्ञा एवं प्रवचन शक्ति प्राणी उतना और वैसा ही जैन पद से पतित होगा। का लोहा तक माना जा रहा है, जो धर्म के स्वरूप का जैनियों में आज तो स्थिति बिल्कुल विपरीत चल रही है, अपनी वाणी द्वारा, ममर्थ विवेचन करते है लोगो के ज्ञान जो जितना अधिक परिग्रही है वह उतना ही बडा नेता नेत्र खोलने का अपूर्व कार्य कर सकते है-ऐसे मुनियो से । माना जा रहा है और उसे स्वय भी ऐहसास नहीं होता अपरिग्रह की ओर बढ़ने में मार्गदर्शन लेना चाहिए कि वह जैन के स्वरूप को समझे और तदनुरूप आचरण निवत्ति की सीढ़ी पर अग्रसर होना चाहिए, न कि उनके करे। ठीक ही है, जब लोगों का स्वयं लक्ष्मी, वैभव आदि सहारे अर्थ-यश आदि पार ग्रह संजोने की बाट जोहना । परिग्रह मे आकर्षण हो और वे परिग्रही को नेतापद प्रदान जैसा कि कतिपय लोग करते है-उनके पीछे लग जाते करे तो परिग्रही को क्या आपत्ति ? आखिर, महिमा है-जबकि दिगम्बर का घिराव नहीं करना चाहिए। वे चाहता तो ससारी मोही जीव का स्वय का वैभाविकभाव 'एकाकी, पाणिपात्र, निर्जनवासी बने रहें ऐमा प्रयत्न है-जिसकी उसे पहिचान नही । करना चाहिए। क्योकि दिगम्बर माधु राजर्षि नही, अपितु हमारे कथन से लोग सर्वथा ऐसा न मान लें कि ऋषिराज होते है। ऋषिराज ही रहने देना चाहिए । उक्त हमारे सकेत बाह्य में अति मम्पदा-वैभवशालियो के प्रति प्रकार की सभी भावनाएँ परिग्रही मन के नहीं हो सकतीं। ही है । सो ऐसा सर्वथा ही नही है। हमारा मन्तव्य है कि ये तो उसी के हो मकेगी जो स्वयं अपरिग्रही बनने की बाह्य वैभव में राग, तृष्णा और अधिक बढ़वारी के प्रति सीढ़ी पर पग रखने का इच्छक होगा। और ऐमा व्यक्ति आकर्षण न होना भी अपरिग्रही की श्रेणी में बढ़ने का क्रमश: प्रात्म-दर्शन का अधिकारी भी हो सकेगा। लक्षण है और आचार्यों ने इस पर विशेष जोर भी दिया स्मरण रहे-जैन 'जिन' से बना है और 'जिन' है। वैसे भी यदि अन्तरग पर विजय है तो बहिरंग मे जीतने से बना जाता है इस धर्म मे जो श्रावक, मुनि अपरिग्रहीपन अवश्य होगा। ऐसे जीव का आचरण 'जल जैसे भेद है वे भी कमश: जीतने के भाव मे ही हुए है। मे भिन्न कमलवत' होगा-न उसे विशेष धन अथवा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओ में क्रमशः त्यागरूप जीत यश की चाहना होगी और न ही वह विभिन्न द्राविड़ी होती है और परम दिगम्बरत्व में भी त्याग को पराकाष्ठा। प्राणायाम ही करेगा। वह तो होते हए भी परिग्रहो से ऐसी स्थिति में यदि कोई इच्छा, तृष्णा, कर्म आदि पर पर उदास ही रहेगा और उसके उदास रहने का क्रम यदि हामीसा और उसके उदास रहते का विजय की चेष्टा न करे नो यही कहा जायगा कि 'जैसे जारी रहे तो एक समय ऐसा भी आएगा कि वह अपने में कन्ता घर रहे वैसे रहे विदेश'-- भाई, यह धर्म तो त्याग रह सके। बिना अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह के त्याग के आत्मोका धर्म है, इसका लाभ उन्ही को हो सकता है जो त्याग- पलब्धि के गीत गाना भूसे को कूट कर ल निकालने की मय जीवन बिताते हो-बिताने में प्रयत्नशील हों ओर भांति है। इसीलिए कहा है कि अपरिग्रही हो आत्म-दर्शन जिनको मन और इन्द्रियो सम्बन्धी विषयो की अभिलाषा का अधिकारी है। आज रिग्रह को आत्मसात् किए का स्वप्न में भी लालच नहीं आता ह।। अर्थ ही नही, प्रात्मा की जो रटन लगाई जा रही है वह सर्वथा निष्फल यश आदि के अर्जन के भाव में भी जो धर्म सेवा के नाम और चारित्रघातक सिद्ध हुई है-छलावा है। (क्रमश:) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए ! १. दि. महावीर के प्रति ऐसी बगावत क्यों ? कमल को पंकज कहा जाता है, वह पंक (कीचड़) __ हम वर्षों से लिखते आ रहे हैं, कि दिगम्बर जैन धर्म से उत्पन्न होता है । वह देखने में सुन्दर, स्पर्श में कोमल, अपरिग्रह प्रधान धर्म है। इसमें अन्तरग-वहिरंग सभी सूंघने में सुगन्धित होता है। उसे सभी जगह सन्मान प्रकार के परिग्रह से रहित ही मुक्ति का पात्र होता है। मिलता है। क्या कभी कमल की मां कीचड को ऐसा इस तथ्य को न समझने वाले कई अजान, समानाधिकार सौभाग्य मिला है ? पृथ्वी को रत्नगर्भा कहा जाता है। की बात उठाकर स्वयं भ्रमित होते है और दूसरो को भी उसत रत्न उससे रत्न, हीरे आदि जन्मते है। वे अत्यन्त कान्तिमान मागच्युत कराने के साधन जुटाते है। होते हैं, और उसके छोटे टुकड़े का भी बहुमूल्य आंका जाता है। क्या कभी पृथ्वी के बड़े खण्ड को भी ऐसा जैसी कि सूचना है उस दिन एक दि० शिक्षण शिविर. योग प्राप्त होता है ? भले ही मां तीर्थंकर को जन्म देती समापन समारोह मे कैलाशनगर की भरी सभा मे 'मां हो तब भी वह उनकी तुलना नही कर सकती-सब की श्री" के सबोधन युक्त दिगम्बरमतावलम्बी ब्र० श्री कौशल- अपनी पृथक-पृथक् योग्यता है जैसे पुरुष कभी बच्चे को कुमारी बोल उठी जैसे वे नही, अपितु कोई भ० अपने गर्भ से जन्म नही दे सकता, आदि । रजनीश बोल रहे हो । आश्चर्य कि उस सभा मे दि. जैन समाज के नामधारी अनेक नेता बैठे-बैठे सब सुनते रहे स्त्री की मुक्ति में उसका परिग्रह बाधक है। वह और किसी से प्रतिवाद करते न बना, अब हमे विरोध मे कभी भी पूर्ण अपरिग्रही नही हो सकती-भीतर और बाहर नग्न नही हो सकती । ब्र० कौशल जी तो स्वयं स्त्री लिखने को कह रहे हैं ? जब कुछ नेताओं से हमारी जाति हैं, क्या किसी स्त्री ने कभी खुले रूप में नग्न रूप बात हुई तो पछता रहे थे कि यह तो बुरा हुआ जो श्री में विचरण की कोशिश की, साडी जैसे बाहर परिग्रह कौशल जी ने भ० महावीर को अन्यायी कहकर लल को छोड़कर देखा? स्त्री जाति मे लज्जा और भय दोनो कारा। प्रकारान्तर से उन्होने सवस्त्र और स्त्रीमुक्ति ऐसी कमजोरियां हैं जो उसे महाव्रत धारण नहीं करने की पुष्टि कर दी, आदि। देती ? उसे मदा-सदा रक्षा की जरूरत है। यदि वह ब्र० कौशल जी का मन्तव्य था कि भ० महावीर ने निर्भय होकर विचरण की बात करे तब भी नही बनती; स्त्रीमुक्ति का निषेध कर बडा अन्याय किया है । उन्होंने वह तो स्वाभाविक बात है। वैसे भी नारी जाति स्वभास्पष्ट कहा कि मैं आगम के विरुद्ध बोल रही है। उन्होंने वतः भोहक शक्ति है। बाजारों गलियों और मुहल्लों में कहा कि क्या है न्याय है कि एक चिरकाल-दीक्षित वस्त्राच्छादित नारी भी मनचलों को लुभा लेती है तब आयिका किसी नवीन दीक्षित मुनि को नमस्कार करे; परिग्रह रहित नग्ननारी कैसे सुरक्षित रह सकती है? आदि। सुरक्षित रहना उसके बस को वात नहीं; वह परायों के उक्त बातें दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध हैं और किसी आधीन है। दुर्भाग्य से यदि कोई दुर्घटना हो जाय तो त्यागी को नही कहनी चाहिए । जो श्री कौशल जी ने भरी नारी को नव-मास और उससे आगे भी घोर-परिग्रह के सभा में कही। इससे तो दि० मान्यता के विरुद्ध ही प्रचार जंजाल में फंसना तक संभव है। क्या करें, उसके शरीर हुंआ । यदि उन्हें शक। थी तो किसी विद्वान् से चर्चा कर की बनावट और शक्ति ही ऐसा है जो उसे अपरिग्रही लेनी थी। नही होने देती और बिना पूर्ण-अपरिग्रही हुए मुक्ति नहीं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती। नारी के गुप्त अंगों में सदाकाल असंख्यात जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। भ० महावीर को अन्यायी कहना सर्वथा ब्रह्मचारिणी जी के अहम्भाव का सूचक है-म० महावीर की वाणी से तो वह वस्तुस्थिति ही प्रकट हुई— जो पूर्व तीर्थंकरों ने कही । ये ही बातें अर्जिका को मुनि से छोटा दर्जा देती हैं। आश्चर्य कि मुनि को नमस्कार करने न करने की जो बात माता श्री ज्ञानमती को स्वयं आज तक न सुझी वह कुमारी कौणल जी को सहसा कैसे सुझ गई ? कहीं यह दिगम्बरों के प्रति बगावत का चिह्न तो नहीं ? - कुमारी कौशल जी को सुना जाता रहा है कि उन्हें कट्टर श्रद्धा और परिपक्व ज्ञान है। उनके उक्त महावीर के प्रति बगावत करने के बयानों से तो ऐसा नहीं लगा । उन्होंने तो स्वयं कहा कि मैं आगम के विरुद्ध बोल रही हूं' । आखिर, यह सब क्यों ? यह उन्हें और बिचारकों की स्वयं सोचना है और यह भी सोचना है कि क्या किसी दि० त्यागी द्वारा खुले रूप में ऐसे बयान दिए जाना धर्म के प्रति बगावत नहीं ? जब कि हमे तो दि० आगम ही प्रमाण है । २. आत्मा को देखने दिखाने वाले जादूगर अर्सा हुआ जब परिग्रह को आत्मसात् करते हुए आत्मोपलब्धि की बात करने वाले किसी पन्थ का जन्म हुआ । भोले लोग बिना तप-त्याग के ही आत्मोपलब्धि जान, खुश हो गए - बातों की ओर दौड़ पड़े। नतीजा सामने है - उन्हें भात्मा तो मिली नही; उनमें कितने ही परिग्रह के पुंज अवश्य हो गए । जैनियों में आत्मोपलब्धि के लिए बारह भावनाओं पर जोर दिया गया है, सभी महापुरुषों ने इनका चितवन कर ही वैराग्य लिया है। अब तक की सभी रचनाओं में इन्हीं की रचना अधिक संख्या में हुई हैं । ५१ प्रकार की बारह भावनाएं तो हमने देखी हैं- कुन्दकुन्दादि की 'वारसाणुबेखा' आदि तो इस गणना से पृथक है। आत्मा जैसा अरूपी द्रव्य केवल ज्ञानगम्य है और केवलज्ञान दिगम्बरस्व को पूर्ण साधना द्वारा, घातिया कर्मों के क्षय पर होता है । फलतः - आत्मोपलब्धि के लिए पूर्ण दिगम्बरत्व अपरिग्रहत्व की प्राप्ति आवश्यक है। और अपरिग्रहत्व के लिए बारस भावनाओं द्वारा परस्वभाव का चिन्तन ( अनित्यादि विचार) आवश्यक है । "पर" से राग छूटते ही आत्मोपलब्धि होती है किसी जादूगर के उपदेश से आत्मोपलब्धि सर्वथा ही अशक्य है । जैसे जादूगर के जादू से जादूगर स्वयं प्रभावित नहीं होता- जादू की बनावट जानता है, धन्दा चलाने के लिए जादू को अपनाता है वैसे ही आत्मोपलब्धि की राह दिखाने की बात करने वाले कई जादूगर अपनी यशख्याति आदि के लिए इस पदे में लगे हैं—उन्हें आत्मी पलब्धि से क्या ? अन्यथा, उनमे कोई तो परिग्रह से दूर हुआ होता, क्रमशः परिग्रह के कम करने में लगा होता या सच्चा मुनि बना होता ठीक ही है--जादूगर को जादू से काम धन्दा चलाने से काम उसे आत्मोपलब्धि से क्या और अपने जादू से प्रभावित होने से क्या ? - - संपादक कागज प्राप्ति :- श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Nevsy aper at R. No. 10591/62 बीर- सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन 1 -प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत भोर प्राकृत के १७१ हित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द नव-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । रचपन प्रत्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द | rendeगोल और दक्षिण के अन्य जंन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण परमानन्द शास्त्री की इतिहास विषयक साहित्य ... ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) क्षमावली (तीन भागों में) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री सं० पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रो जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन Jaina Bibliography: Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to. each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. ६-०० प्रिन्टेड पत्रिका बुक-पैटि १५००० ३.०० 3-80 १२-०० प्रत्येक भाग ४०-०० २-०० 600-00 [सम्पादन] परामर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक - बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी० १०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली- ५३ - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनकान्त (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४४: कि०३ जुलाई-सितम्बर १९९१ इस अंक मेंक्रम विषय १. सम्बोधन २. तत्वार्थवार्तिक में प्रयुक्त ग्रन्थ -डा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ३. कर्नाटक में जैनधर्म-श्री राजमल जैन, दिल्ली ४. केन्द्रीय संग्रहालय गुजरी महल में सुरक्षित प्रतिमाएं -डा० नरेश कुमार पाठक ५. मचित भक्त कवि हितकर और बालकृष्ण डा. गंगाराम गर्ग ६. तीर्थराज सम्मेद शिखर इतिहास के बालोक में -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ७. देवगढ़ पुरातत्त्व की संभाल में औचित्य -श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली ८. आध्यात्मिक दो पद । ६. साक्षी भाव-श्री बाबूलाल जैन १०. भाचार्य जिनसेन की काव्य कला -जस्टिस एम. एल. जैन ११. आचार्य कुन्दकुन्द की पाण्डुलिपियों की खोज -डा. ऋषभचन्द जैन फौजदार १२. अपरिग्रही ही आस्म-दर्शन का अधिकारी -श्री पपचन्द्र शास्त्री 'सम्पादक' १३. देखो, कहीं श्रवा डगमगा न जाय -श्री पपचन्द्र शास्त्री, दिल्ली १४. पांजलि कवर पृ. २ प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पं० श्री फूलचन्द्र सिद्धान्ताचार्य के प्रति श्रद्धाञ्जलिः मैं तो कांटों में रहा, और परेशां न हुआ : फूलों में फूल गुलाब है जो काँटों में फूलता और स्वयं मुस्कुरा दूसरों को प्रसन्नता का उपहार देता है। ऐसे ही थे - स्व० पं० श्री फूलचन्द्र सिद्धान्ताचार्य; जो जीवन भर अपनी ज्ञानाराधना के बल पर भौतिक अभावों से जूझते जूझते ज्ञान में ही विलीन हो गए। उनके अन्तिम दिनों में भी वे धवला के विशद विवेचन करने जैसी अपनी इच्छा को रटते रहे- 'बेटा अशोक, अभी धवला के कार्य की साध हमें शेष है, स्वस्थ हों तो इस कार्य को करें ।' ठीक ही है - पंडित जो अपने जीवन में सदा से ''जिनवाणी की रटन हो, जब प्राण तन से निकलें' के मूर्तरूप थे । वे दिन कभी भुलाए न जाएँगे जब पंडित जी ने जिनवाणी की रक्षा में अपनी आजीविका की परवाह किए बिना 'धवला' में त्रुटित 'संजद' पद को सम्मिलित कराने के प्रसंग को छेड़ा और आगे बढ़ाया तथा उसे जुड़वा कर ही चैन की साँस लो । 'संजद' के प्रसंग में समाधिस्थ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्ति सागर जी महाराज का निम्न आशीर्वचन पंडित जी की विजय का स्पष्ट शंख नाद है'अरे जिनदास, धवलातील २३ वें सूत्र भाव स्त्रीचें वर्णन करणारें आहे व तेथें 'संजद' शब्द अवश्य पाहिजे असें वाटतें ।' स्मरण रहे उक्त प्रसंग में पंडित जो को सर्विस छुटने जैसा तीव्र काँटा लगा और वे मुस्कुराते रहे । खुवा बहशे बहुत सी खूबियां थीं, जाने वाले में : स्व० पंडित जी पक्के सुधारवादी थे। दस्सा पूजाधिकार दिलाने, 'वर्ण जाति और धर्म' जैसी पुस्तक लिखकर अन्तर्जातीय विवाह, समानाधिकार आदि का शंखनाद फूंकने वाले व फिजूलखर्ची जैसी गजरथादि प्रतिष्ठाओं के विरोधियों में उनका प्रमुख हाथ था। धवला, जयधवला, महाबंध आदि खण्डों का विस्तृत भाषान्तर और 'जैन तत्त्व मीमांसा' जैसी कृतियाँ उनके तत्त्वज्ञान का सदा सदा स्मरण कराती रहेंगी । फल कुछ भी रहा हो पर, खानियाँ तत्त्वचर्चा के माध्यम ने उनके तत्त्वज्ञान के लोहे को जगजाहिर कर दिया | उनको 'अकिंचित्कर एक अनुशीलन' जैसो अन्तिमकृति भी चिर-चिन्तनीय बनकर रह गई है । देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदार और स्वतंत्रता के दीवाने होने से वे अपने भौतिक शरीर में भी कैद न रह सके और धर्म-ध्यान पूर्वक गरीर से छूट गए। उनमें बहुत-सी खूबियाँ थीं । 'वीर सेवा मन्दिर' ऐसे महामना की आत्मिक सद्गति हेतु कामना करते हुए उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता है । सुभाषचन्द्र जैन महासचिव वीर सेवा मन्दिर आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) त०, इस अंक का मूल्य । १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRILITIES ITAIR KV परमागमस्य बीजं निषिखजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥ ॥ वर्ष ४४ किरण ३ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० स० २०४८ जलाई-सितम्बर १९६१ सम्बोधन कहा परदेसी को पतियारो। मन मान तब चले पंच कों, साँझि गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छोड़ि इतही, पुनि त्यागि चले तन प्यारो ॥१॥ दूर विसावर चलत आपही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो ॥२॥ धन सौ रुचि धरम सों भलत, झलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनंत गमायो, पायो नहिं भव पारो॥३॥ साँचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया', आप हो आप संमारो॥४॥ कहा वरदेसी को पतियारो॥ गरब नहि कोने रे ए नर निपट गंवार। मूंठी काया झूठो माया, छाया ज्यों लखि लो रे । कै छिन सांझ सुहागर जोबन, के दिन जग में जोजे रे॥ बेगहि चेत बिलम्ब सजो नर, बंध बढ़े पिति कीजै रे। 'भूधर' पल-पल हो है भारो, ज्यों-ज्यों कमरी भोजे रे॥ 卐) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गताक से मागे :तत्त्वार्थवातिक में प्रयुक्त ग्रंथ 7 डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर सस्वार्थवातिक के पंचम अध्याय के ४२वें सूत्र की आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने, 'पूर्वस्य लाभे भजव्याख्या में कहा गया है कि कोई (तत्त्वार्थाधिगम भाष्य. नीय मुत्तरम्', उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः, लिखा है। कार) धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अनादि परिणाम अकलङ्कदेव ने उन्हे वातिक बनाकर उनका आशय स्पष्ट और जीव तथा पुद्गल में सादि परिणाम कहते हैं। किया है। दग्धे 'बीजे यथात्यन्त' आदि पद्य भी उद्धृत उनका वचन ठीक नहीं है। क्योंकि सभी द्रव्यों को द्वया. किया है, जो भाष्य में पाया जाता है तथा ग्रन्थ के अन्त स्मक मानने से ही उनमें सत्त्व हो सकता है। अन्यथा में 'उक्त च' करके कुछ श्लोक दिए हैं, जो भाष्य में मिलते है। द्रव्यों मे नित्य अभाव का प्रसङ्ग आता है, इनको कैसे सर्वार्थसिद्धि--पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि ग्रहण करना चाहिए।' नामक वृत्ति को अन्तर्भूत करके अकलङ्क ने अपने तत्त्वार्थ___ 'शुभ विशुद्ध मव्याति' आदि सूत्र के भाष्य में वातिक यथ की वार्तिक ग्रन्थ की रचना की है। उसकी बहुत सी पक्तियो शरीरों में संज्ञा, लक्षण आदि से भेद बतलाया। अप- को वातिक बना लिया है। बहत-सी पंक्तियों में थोडालकूदेव ने उनका विस्तृत विवे वन किया है। 'सम्यग्दर्शन' बहुत परिवर्ता करके वातिक बना लिया है। जैसेसर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवातिक चेतनालक्षणो जीवः १२४ चेतनास्वभावत्वाद्विकल्पलक्षगो जीव. १।४।४ तविपर्ययलक्षणोऽजीवः १४ तद्विपरीतत्वादजीवस्तदभावलक्षणः १२४११५ शुभाशुभकर्मागमद्वार रूप आस्रवः १३४ पुण्यपापागमद्वारलक्षणः आस्रवः ॥४॥५६ आत्मकर्मणोन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मकोबन्धः ११४ प्रात्नकर्मगोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणो बन्ध: १४११७ आस्रवनिरोधलक्षणः सवरः १२४ आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः १२४।१८ एकदेशकर्मसक्षयलक्षणानिर्जरा ११४ एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा १।४।१६ वृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्ष: ११४ कृत्स्नकमवियोगलक्षणो माक्षः १।४।२० सर्वार्थसिद्धि मे जहां बात संक्षेप मे कही गई ', बहा दार्शनिक और व्याकरणिक प्रसङ्गो पर भी सर्वार्थतत्त्वार्थवानिक मे विस्तार पाया जाता है। विस्तार मे मिद्धि की अपेक्षा वार्तिककार ने विस्तृत ऊहापोह किया है। पहंचने पर अकलदेव की प्रौढ़ शैली के दर्शन होते है। आप्तमीमांसा-तत्त्वार्थवात्तिक के दूसरे अध्याय में सर्वार्थसिद्धि की एक एक पंक्ति के हार्द को खोलने में औदारिक शरीर रूप कार्य की उपलब्धि होने से कामण तत्त्वार्थवालिक का अध्ययन अत्यावश्यक है। उदाहरणार्थ शरीर का अनुमान लगाया गया है । हेतु के रूप में आप्तउपर्युक्त निजरा के लक्षण को समझाते हुए वे कहते है- मीमामा की ६८वी कारिका के अश 'कार्यलिङ्ग हि कारपूर्व सचित कर्मों का तपोविशेष का सन्निधान होने पर णम' को उद्धृत किया है। पूरी कारिका इस प्रकार हैएकदेश क्षय होना निर्जरा है। जैसे मन्त्र या औषधि आदि कार्यभ्रान्ते रणभ्रान्ति: कार्य लिङग हि कारणम् । से निःशक्ति किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं कर सकता, उभयाभोतरतस्थ गुण जातीतरच न ॥६॥ वैसे ही सर्वविपाक और अविपाक निर्जरा के कारणभूत छठे अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में तत्त्वार्थतपोविशेष के द्वारा निरस्त किए गए व नि:शक्ति हुए कर्म वार्तिक मे कर्म शब्द के अकलङ्कदेव ने अनेक अर्थ सप्रमाण ससार चक्र को नही चला सकते। बतलाए हैं । कहीं पर कर्ता को इष्ट हो वा कर्ता जिसको Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थवातिक में प्रयुक्त पन्थ करता हो, उसे कर्म कहते है। जैसे- 'घट करोति' घट षट्खण्डागम-तत्त्वार्यवातिक के प्रथम अध्याय के को करता है, यहां कर्म शब्द का अर्थ कर्मकारक है। कही ३०वे सूत्र को व्याख्या मे षट्खण्डागम को निम्नलिखित पुण्य-पाप अर्थ मे कर्म शब्द का प्रयोग होता है। जैसे-- पक्ति उद्धृत है'कुशलाकुशलं कर्म' यहा कर्म शब्द का अर्थ पुण्य एव पाप 'पञ्चेन्द्रिय असजिपञ्चेन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिनः' है। कहीं क्रिया अर्थ मे कर्म शब्द का प्रयोग होता है। अर्थात् असजी पचेन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त जैसे-उत्क्षेपण, अवक्षेण, आकुञ्चन, प्रसारण, गमन ये पचेन्द्रिय है। कर्म हैं। यहां कर्म शब्द का किया अर्थ विवक्षित है। तत्त्वार्थवार्तिक के दूसरे अध्याय के ४६वे मूत्र की उपर्युक्त कुशलाकुशल कर्म का उदाहरण पाचार्य पाख्या में शङ्काकार ने शङ्का उठायी है कि षटखण्डागम समन्तभद्र की आप्तमीमामा की वी कारिका में दिया है। जीवस्थान के योगभग प्रकरण मे सात प्रकार के काययोग पूरी कारिका इस प्रकार है-- स्वामी प्ररूपण में औदारिक काययोग और औदारिक कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । मिश्र काययोग तिर्य और मनुष्यो के होता है । वैक्रियिक एकान्त-ग्रह रक्तेषु नाय स्व-पर वैरिष ॥८॥ काययोग वक्रियिक मिश्रवाययोग देव, नारकियो के होता युक्त्यनशासन-संबेदनदिन के खन म अमलङ्क- है, ऐगा कहा है। परन्तु यहां तो नियंच और मनुष्यो के देव ने समन्तभद्र के युक्त्यनुशासग को निलिखित कारिका भी वैकियिक शरीर का विधान किया है-इससे आर्षका सहारा लिया है ग्रन्थों में परस्पर विरोध आता है।। प्रत्यक्षबुद्धि क्रमत न पत्र तल्लिद्गगम्य न गदर्थ'लङ्गम्। इग शना के समाधान में कहा गया है कि यह विरोध बचो न धा तद्विषयेण योगः वातद्गत कारमशृणण्वतां ते ।। नही है क्योकि अन्य ग्रन्थो मे इसका उपदेश पाया जाता युक्त्यनुशासन - २२ है। जैसे- व्याख्याप्रज्ञप्ति बंडक के शरीर मंग में वायुजहां प्रत्यक्षबुद्धि का प्रवेण नही है अर्थात् जो गवेदन- कापिव के प्रोदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये ४ द्वत प्रत्यक्षबुद्धि (ज्ञान) का विषय नही ।, नर जनुमान- शरीरहे है । मनुष्यो के पांच शरीर बतलाए. हैगम्य और अर्थरूप, लिङ्गरूप, यवनगम्य भी नहीं हो "दिस जाव अवराइविमाण गसियदेवाणमंतर सकता और जिसके स्वरूप को सिद्धि वचनो के डाग केचर कालदो होदि ? जहण्णेण वासपुचत्त। उक्कस्सेण नहीं है, उस सवेदनावत की क्या गति होगी? वह काष्ट बे सागरोवमाणिसादिरेयाणि ॥" से भी बवणगोचर नही है, अतः त्याज्य है। . एखण्डागम-खुद्दाबन्ध २।३।३०-३२ रत्नकरण्ड श्रावकाचार आचार्य ममन्तभद्र ने 'धिकादिगुणाना तु' सूत्र की व्याख्या में उक्त च रस्नकरण्ड श्रावकाचार के २६ नोक में कहा है . कहकर पट्खण्टागम की निम्नलिखित माया दी गई है यदनिष्ट तवतयबच्चानुपसेत्यगत:पि जह्यात् । णिम्स गिदेण दुहिएण लुक्खरस लुक्खेण दुराहिएण । - अभिसन्धिकृतानिरतिविषयाद्योगाद् व्रत भवान ॥८६॥ द्धिम्म लुमेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विममें समे वा। जो अनिष्ट है, वह छोड़ और जो उत्तम फुल कसन अर्थात् स्नेह का दो गुण अधिक वाले स्नेह से या रूम योग्य नहीं, वह भी छोड़े, क्योकि याग्य विषय से अभि- स, १ का सोधिक गुण वाले रूक्ष या स्निग्ध मे बन्ध प्रायपूर्वक की हुई विरक्तता ही व्रत है। होना है। जघन्य गुण वाले का किसी भी तरह बन्ध नही अकलदेव ने व्रत की परिभाषा उपयुक्त अभिप्राय हो सकता। दो गुण अधिक वाले सम (दो, चार, चार, से प्रभावित हैकर की है। उनक अनुसार--'व्रतमभि- छह नादि का) और विषम गुण वाले (तीन, पाच, सात सन्धिकृतो नियमः" अर्थात् अभिसन्धिकृत नियम बन कह- आदि) का बन्ध होना है। लासा है। बुद्धिपूर्वक परिणाम या बुद्धिपूर्वक पापा का 'बन्ध समाधिको पारिणामिको पाठको आर्षविरोधी स्पाम अभिसन्धि है। , दिखलात हुए तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है-पणा मे बन्ध, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४४, कि.३ अनेकान्त विधान के नो आगम बन्ध विकल्पसादि वैससिक बन्ध अर्थात् एक निगोद के शरीर में द्रव्यप्रमाण से जीवों निर्देश में कहा है कि विषम स्निग्धता और विषम रूक्षता की संख्या सिद्धों की संख्या से और प्रतीतकाल के सर्व में बन्ध और समस्निग्धता और समरूक्षता मे भेद होता समयों की संख्या से अनन्तगुणी है। है। इसके अनुसार ही 'गुणसाम्ये सवृशानाम्' यह सूत्र सन्मति तर्क-आचार्य सिद्धसेन के सन्मति तर्क की कहा गया है। इस सूत्र में जब सम गुण वालों के बन्ध निम्नलिखित गाथा तत्त्वार्थवातिक के प्रथम अध्याय के का प्रतिषेध कर दिया है, तब बन्ध में सम भी पारिणा __२६वें सूत्र में प्राप्त होती है -- मिक होता है, यह कथन पार्षविरोधी होने से विद्वानों को पण्णवयिज्जा भावा अणंतभागोदु अभभिलप्पाणं । ग्राह्य नहीं है। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंत भागो सुदणिबदोश१६ भगवती आराधना-तत्त्वार्थवार्तिक के छठे अध्याय के १३वें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि यद्यपि संघ शब्दों के द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थो से वचनातीत पदार्थ समूहवाची है, फिर भी एक व्यक्ति भी अनेक गुण का अनन्तगुने हैं अर्थात् अनन्तवे भाग पदार्थ प्रज्ञापनीय है धारक होने से एक के भी सघत्व की सिद्धि होती है। और जितने प्रज्ञापनीय हैं और जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ इसकी सिद्धि मे भगवती आराधना की निम्नलिखित हैं, उगक अनन्तवं भाग पदार्थ श्रुत में निबद्ध होत गाथा उद्धृत को है जम्बूद्वीप पण्णत्ती-तत्त्वार्थवार्तिक मे 'उक्तं च' सघो सघगुणादो कम्माण विमोयदो हदि सघो। करके एक गाथा उद्धृत की गई है, जो जम्बूद्वीप पण्णत्ती बसणणाणचरित्ते संघादित्तो हवदि सघो।। भ. आ. ७१४ मे मिलती है- ____ अर्थात् गुणसधात को संघ कहते है। कर्मों का नाश णबदुत्तरसत्तसया दससीदिच्चदुतिगं च दुगचवकं । करने और दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र का संघटन करने से तारारविससिरिक्खा बुधभग्गवगुरु अंगिरा रसणी ॥ सघ कहा जाता है। ज. प. १२२६३ मूलाचार-तत्त्वार्थवातिक के सातवें अध्याय के । अर्थात् इस भूतल से सात सो नव्वे योजन पर तारा, उससे दस योजन पर सूर्य, उससे अस्सी योजन ऊपर भ्यारहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा गण है कि सत्त्वादि में चन्द्रमा, उससे तीन योजन पर नक्षत्र, उनसे तीन योजन मंत्री आदि भावना यथाक्रम आनी चाहिए । जैसेसमयामि सर्वजीवान् क्षाम्यामि सर्वजीवेभ्यः । ऊपर बुध, उससे तीन योजन ऊपर शुक्र, उससे तीन योजन प्रीति सर्वस स्वः वैरं मे न केनचित् ॥ ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मगल और उससे उपर्युक्त पद्य मूलाचार की निम्नलिखित गाथा का . चार योजन ऊपर शनैश्चर भ्रमण करता है। यह गाथा सर्वार्थसिद्धि में भी उधृत की गई है। संस्कृत रूपान्तर हैखम्मामि सम्वजीवाणं सब्वे जीवा खमतु मे। सोन्दरनन्द-तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्न किया गया है मित्ती मे सव्वदेसु वैरं मनंण केण वि ।। मूला. गा.४३ कि जैसे तेल, बत्ती और अग्नि मादि सामग्री से निरन्तर अर्थात् मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूं, सब जलने वाला दीपक सामग्री के प्रभाव मे किसी दिशाभ जीव मुझे अमा करें। मेरी सब जीवों से प्रीति है, किसी विदिशा में न जाकर वहाँ अत्यन्त विनाश को प्राप्त हो के साथ वैरभाव नहीं है। जाता है। उसी प्रकार कारणवश स्कन्धसन्तति रूप से तत्त्वार्थवार्तिक के 8वें अध्याय के सातवें सूत्र की प्रवर्तमान स्कन्धसमूह जीव व्यपदेशभागी होता है अर्थात् व्याख्या में मूलाचार की निम्नलिखिन गाथा उधत की जिसे जीव कहते हैं, वह राग द्वेषादि क्लेशभावों के क्षय हो गई है जाने से विशा और विदिशा मे न जाकर वही पर अत्यन्त एरिणगोवसरीरे जीवा दम्बप्पमाणदो दिट्ठा । प्रलय को प्राप्त हो जाता है। इसके उत्तर में प्रकलदेव सिडेहि भणंतगुणा सब्वेण वितीयकालेण'। मूला.गा. १२०४ ने कहा है कि प्रदीप का निरन्वय नाश भी पसिब है, क्योंकि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वावातिक में प्रयुक्त प्रम्प प्रदीप पुद्गल है । वह पुद्गल जाति को न छोड़कर परि- योनिप्राभत (जोणिपाहुड) तत्त्वार्थवार्तिक में किसी णामवश (परिणमन के कारण) मषि (राख) भाव को ने प्रश्न किया है कि क्या साधु पात्र में लाए हुए भोजन प्राप्त होता है । अत: दीपक की पुद्गल जाति बनी रहती की परीक्षा कर खा सकते है। इसके उत्तर में कहा गया है, अत्यन्त विनाश नही होता है। उसी प्रकार मुक्तात्मा है कि पात्र मे लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी का भी विनाश नहीं होता। योनिप्रामतज्ञ साधु को संयोग-विभाग आदि से होने वाले उपर्युक्त प्रश्न बीस महाकवि अश्वघोष के सौन्दरानन्द गुण-दोष विचार की उसी समय उत्पत्ति होती है। लाने के निम्नलिखित पद्य के अभिप्रायस्वरूप ग्रहण किया है- में भी दोष देखे जाते है, फिर विसर्जन मे अनेक दोष होते हैं। दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो स्नेहक्षयात् केवलमति यहां योनिप्राभूत से तात्पर्य निमित्तशास्त्र सम्बन्धी शान्तिम् । दिश न काचिट्ठिदिशं न काविद् वैवानति उस पथ से है, जिसके कर्ता आचार्य धरसेन (ईसवी सन् गच्छति नान्तरिक्षम् । एवं कृती निर्वतिमभ्युपेतः स्नेह- को प्रथम और द्वितीय शताब्दी का मध्य) है। वे प्रज्ञाभयात् केवलमेतिशान्तिम् ॥ सौन्दरनगद १६।२८।२६ श्रमण कहलाते थे। वि० सं० १५५६ मे लिखी हुई बहट्टि प्रवचनसार--तत्त्वार्थवातिक म आचार्य कुन्दकुन्द के परिणका नाम की ग्रथसूची के अनुसार वीर निर्वाण के प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथा " उद्धृत की गई है- ६० वर्ष पश्चात् धरसेन ने इस ग्रथ की रचना की थी। मरद व जियदु व जीवो अपदाचा रस्स पिच्छिदा हिंस।। अथ को कमाण्डिनी देवो से प्राप्त कर धरसन ने पुष्पदन्त पयदस्स पत्थि बधो हिंसामत्तण सभिदस्स ॥ प्रव. ३११७ और भतबलि नामक अपने शिष्यो के लिए लिखा था। जीव मरें या न मरे, परन्तु सावधानी को क्रिया नहीं श्वेताम्बा सम्प्रदाय में भी इस प्रथ का उतना हो आदर करने वाले प्रमादो के हिंसा अवश्य होती है और जो अपनी था, जितना दिगम्बर सम्प्रदाय में। धवला टीका के अनुकिया सावधानीपूर्वक करता है, जीवों की रक्षा करने में सार इमम यन्त्र मन्त्र की शक्ति का वर्णन है और इसके प्रयत्नशील है, प्रमाद नही करता है। उसके द्वारा हिंसा द्वारा पुद्गलानुभाग जाना जा सकता है"। निशीथचूशि हो जाने पर भी उसे बन्ध नही होता, पाप नहीं लगता। के कथनानुसार आचार्य सिद्धसन न जोणिपाहुड के आधार सिरसेन द्वात्रिशिका-राजवातिक मे एक पक्ति स अश्व बनाए थे। अग्रायणीय पूर्व का कुछ अश लेकर उधत" को यई है। यह पक्ति सिद्धसेन द्वात्रिंशिका में घरसेन ने इस प्रथ का उद्धार किया है। इतम पहले २८ प्राप्त होती है हजार गाथाएँ थी, उन्ही का सक्षिप्त कर के योनिप्राभूत वियोजयति चासुभिर्न च वधेन सयुज्यते ॥ सिद्ध. द्वा. ३।१६ मे कही है"। सन्दर्भ सूची १. तत्रानादिरूपिषु धर्माधर्माकाशजीवेश्वति रूपादिष्वा- ६. पटवण्डागम ---वर्गणाखण्ड ५।६।२६ दिमान् (५-४३) रूपिषु तु द्रव्येषु आदिमान् परिणा- ७. वेमादाणिद्धदा वेभादा ल्हुक्खदा बंधो ॥३२॥ समणिमोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिः । योगोपयोगी जीवेषु द्वदा समेंलुक्खदा भेदा ॥३३॥ (५-४५) जीवेष्वरूपिष्वपि सत्सु योगोपयोगी परिणामी षट्खडागम वर्गणाखड पृ०३० आदिमन्तौ भवतः। -तत्त्वार्थाधिगम भा. ८. गोम्मटसार जोवकांड गा. १९४, पचसग्रह ११८४ २. न्यायकुमुदचन्द्र प्र. भाग--प्रस्तावना पृ० ७१ । ६. तत्त्वार्थवार्तिक ४।१२।१० ४. वही ७१३ १०. सर्वार्थसिद्धि ४॥१२, ३. तत्त्वार्थवातिक ११४१६, ११. तत्त्वार्थ० १०।४।१७ १२. वही ७।१३।१२, १३. वही ७।१३३१२ ५. औदारिक काययोग। औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्य १४. डा. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास मनुष्याणाम् वैक्रियिक काययोगो वैक्रियिकमिश्रकाय पृ० ६७३। योगश्च देवषरकाणां ॥ षट्खण्डागम १५. वहा पृ० ६७४ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैन धर्म ॥ श्री राजमल जैन, जनकपुरी कर्नाटक तथा दक्षिण भारत मे जैनधर्म के प्रसार "Jainism emboies deep investigations into और प्रभाव पर पुगतत्त्वविदो, इतिहापजो और जिज्ञासु the nature of reality. It has given us the मनीषियों ने भी गम्भीर अध्यगन और विचार किया message of non-violence. It was born in the तथा उसके प्रभाव को धर्म, कला और पस्कृति की दृष्टि heart-land of India but its influence pervaded से व्यापक और महत्त्वपूर्ण माना है। कर्नाटक में जैनधर्म all parts of the country. Some of the earliest के इनिगम पर विचार करने में पहन । छ महत्त्वाणं literature of the Tamil region is of Jain origin. मनोषियो के विचारो को जान लेना होगा : The great Jain Temples and sculptured monuश्री 'म. एस. रामास्वामी अय्यगर ने लिया ments of Karnataka, Maharashtra, Gujarat "No topic of ancient Soth Indian History and Rajasthan are world-renowned." is more interesting than the origin and deve- "Some lustorians tend to classify the cul. lopinent of Jains, who in times past, profou tual anb political development of India into ndly mfluenced the political, religious and water-tiglit religious groupings. But a little literary institutions of South India"? analysis will show that the evolution of Indian र्थात दक्षिण भाग के प्राचीन इनिगम का कोई culture was by the union of many streams भी विषय इतना अधिक मचिकर नही हे जितन! ! जैना which make up the mighty river which it has की उत्पत्ति और विकाम मे गम्बन्धित विषय। कोf become"' प्राचीन काल में जैनों ने दक्षिण भारत की राजनीतिक, अति "जैनधर्म म सत् की प्रकृति का गम्भीर अन्वेषण धार्मिक और साहित्यिक संस्थानों को बहुत अधिक प्रभा- निहित है। उसने हमे अहिसा का सन्देश दिया है । उसका वित किया था।" उदय भारत के हृदय प्रदेश मे हा था किन्तु उसका प्रभाव इसी प्रकार सुपसिद्ध पुरातत्वविद् श्री सी शिवराम देश के समस्त भागों में फैल गया। तमिल प्रदेश के बहुत मूर्ति ने लिखा है - प्राचीन साहित्य क बहुत कुछ अश का मूल जैन है। "South India has been a great seat of the कीटक, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के सुन्दर Digambara Jain futh' अर्थात् दक्षिण भारत दिगव. जैन मन्दिर और निया सम्बन्धी स्मारक तो विश्वप्रसिद्ध जैनधर्म का एक बडा केन्द्र रहा है। श्री शिवराममूर्ति का पुस्तक की भूमिका में स्व० "कुछ इतिहासकारारत कगारकृतिक तथा राजप्रधानमन्त्री श्रीमती इनिरा गांधी ने लिखा था . नीतिक विकास का सकोणं धामिक समूहो में वर्गीकृत 1. M.S. RamaswamiAyyangar : Studies in South Indian Jainisni, Part 1. p.3, Second Edition, 1982 (First Edition 1922, Delhi, Srı Satguru Publications). 2. C. Shivaramamurtti-Panorama of Jain Ait, p. 15, Times of India, Oew Delhi, 1983. 3. Ibid, forword. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैनधर्म करने की प्रवृत्ति रखते हैं। किन्तु यदि थोड़ा-सा भी वत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि उनके विश्लेषण किया जाए तो यह बात मामने पाएगी कि धर्म का प्रचार कर्णाटक देश में अधिक हुआ था (देखिए भारतीय संस्कृति का उत्तरोत्तर विकास अब अने भाराओ भगबेलगोन' प्रकरण में 'ऋषभदेव')। के संगम से हुआ है जिसने कि एक पिणान महानद का चक्रवर्ती भरत-ऋषभदेव के पुत्र के नाम पर यह देश रूप ले लिया है।" भारत कहलाता है। जैन पुराणो के प्रतिनिधि रा इन उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि कर्नाटक मे जैनधर्म के चौदह पुराण इस तथ्य का समर्थन करते है। वैदिककी स्थिति पर विचार के लिए मबमे पनी आवश्यक। जन आज भी 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे ..' का नित्य पाठ है निष्पक्ष दृष्टि और गहरे अध्ययन-मनन की। करते हैं। भारत ने छ: खण्डों की दिग्विजय की थी। दूसरी आवश्यकता इस बात की भी है कि कर्नाटक उनके समय में भी कर्नाट देश में जैनधर्म का प्रचार था। मे जैनधर्म के अस्तित्व का निर्णय केवल शिलालेखो या ग्यारह और चक्रवती-जैन परम्परा अनुसार साहित्यिक सन्दों के आधार पर ही नही किया जाए और भरत के बाद ग्यारह चक्रवर्ती और ह॥ है। ये जैन धर्मा वलम्बी थे और उनकी समस्। भारत पर शासन था। न ही यह दृष्टि अपनाई जा कि शिलालेख आदि लिखित बल प्रमाणो के अभाव मे जनधर्म का अस्तित्व स्वीकार नही किष्किन्धा के जैन धर्मानुयायो विद्याधर- बीसवे किया जा सकता। वास व मे हमारे देश में मौखिक परंपरा तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में रामायण की घटनाएं बहुत प्राचीन काल से सुरक्षित रही आई है। जो कुछ घटी हैं। राम-चारत से सम्बन्धित जैन पुराणो में उल्लेख प्राचीन इतिहास हमें ज्ञात होता है, वह या तो मौखिक है कि हनुमान विद्याधर जाति के वानरवंशी थे। वे बानर परम्परा से या फिर पुराणों के 1 मे रहा है। ये पुगण गही थे, उनके वंश का नाम वानर गा और उनके ध्वज जैन भी हैं और वैदिक धाग के भी। इनमे कही तो महा- पर वानर का चिह्न होता था। हनुमान किष्किन्धा के थे। पुरुषों की महत्त्वपूर्ण घटनाओ के विवरण है तो ही मकेत यह क्षेत्र आजकल के कर्नाटक में हम्पी (विजयनगर) कहमात्र । ये भी सुने जाकर ही लिखे गए है । यदि इन्हे मत्य लाता है। जैन साहित्य में हनुमान के चरित पर आधानही माना जाए तो गमायण या महाभारत अगवा गम रित अंजना-पवनंजय नाटक बहुत लोकप्रिय है। या कृष्ण मबका अस्तित्व अवीकार करना होगा और तब नेमिनाथ का दक्षिण क्षेत्र पर विशेष प्रभाव-- तो किमी तीर्थकर का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। बाईसवे नीर्थकर नेमिनाथ का जन्म शौरिपुर में हवा था मत. आइये, हम भी परम्परात या पौराणिक इतिहास किन्तु अपने पिता समुद्रविजय के साथ वे द्वारका चले पर एक दृष्टि डाले। गये थे। श्रीकृष्ण के पिता वमदेव मम विजय के छोटे परम्परागत इतिहास भाई थे। श्रीकृष्ण ने प्रवृत्तिमार्ग का उपदेश दिया और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने कर्मयुग की सष्टि की थी नेमिनाथ ने निवृत्तिमार्ग का। नेमिनाथ ने गिरनार और इस देश की जनता को कृषि करना सिखाया था। (मौराष्ट्र पर तपस्या की थी और, डॉ. ज्योतिप्रसाद वे प्रथम सभ्राट भी थे। जब उन्होने राज्य की नीव डाली जैन के अनुसार, "तीर्थकर नेमिनाथ का प्रभाव विशेषकर तब उन्होंने ही इस देश को मण्डलो, पों आदि मे विग- पश्चिमी व दक्षिणी भारत पर हुआ। दक्षिण भारत के जित किया था। इस देश-विमान में कर्णाटक देश भी विभिन्न भागो से प्राप्त जैन तीर्थकर मूर्तियों में नेमिनाथ था। ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि (ब्राह्मी) प्रतिमाओं का बाहुल्य है जो अकारण नही है । इसके अतिका ज्ञान दिया था। उसी लिपि से कन्नड निवि के कुछ रिक्त कर्नाटक प्रदेश में नेमिनाथ को यक्षी कुण्ाण्डिनीदेवी बक्षर निकले है। जब वे मुनि हो गये तो उन्होंने सारे देग की आज भी व्यापक मान्यता इस तथ्य की पुष्टि करती में विहार किया और लोगों को धर्म की शिक्षा दी । भाग- है। श्रवणबेलगोल में गोमटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठा के Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४०३ मा साथ इस देवी के पत्कार की कथा बहुत प्रसिद्ध है । ऐतिहासिक युग पार्श्वनाथ और नाग-पूजा: तेईसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे । उनको ऐतिहासिकता तो सिद्ध ही है। उन्होंने अपने जीवन मे ७० वर्षो तक विहार कर धर्म का प्रचार किया था । उन पर कमठ नामक बेरी ने घोर उपमर्ग किया था । सम्भवतः यह आश्चर्यजनक ही है कि कर्नाटक मे कमठान (मठ स्थान ? ) कमठगी जैसे स्थान हैं और कमथ या कमठ उपनाम आज भी प्रचलित हैं। वैसे ये उपसर्ग उत्तर भारत में हुए बनाए जाते हैं किन्तु स्थान- भ्रम की सम्भावना से भी इनकार नही किया जा सकता । तीर्थंकर पार्श्वनाथ नागजाति की एक शाखा उरगबश के थे ( उरगस) । उनकी मूर्ति पर सर्पफणों की छाया होती है । कुछ विद्वानों का मत है कि पार्श्वनाथ के समय में नाग-जाति के राजतन्त्रों या गणतन्त्रों का उदय दक्षिण में भी हो चुका था और उनके इष्ट देवता पार्श्वनाथ थे । कर्नाटक में यदि जैन बसदियां (मन्दिरों) का वर्गी करण किया जाए तो पार्श्वनाथ मन्दिरो को ही संख्या सबसे अधिक आएगी। इसी प्रकार पार्श्व-प्रतिमा स्थापित किए जाने के शिलालेख अधिक सख्या में है। एक तथ्य यह भी है कि कर्नाटक में पार्श्वनाथ के वक्ष धरणेन्द्र यक्षी पद्मावती की मान्यता बहुत ही अधिक है । कुछ क्षेत्रो मे पद्मावती की चमत्कारपूर्ण प्रतिमाएं है । कर्नाटक के समान ही केरल मे नाग-पूजा सबसे अधिक है । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि केरल में यह पूजा बौद्धो के कारण प्रचलित हुई । अन्य विद्वान् इमका खण्डन कर कथन करते है कि यह तुलु प्रदेश (मूडबिदी के आस-पास के क्षेत्र) से केरल में आई और वहा तो जैनधर्म और पार्श्वनाथ की ही मान्यता अधिक थी। कर्नाटक के दक्षिणी भाग मे नाग-पूजा भी पार्श्वनाथ के प्रभाव को प्रमाणित करती है। महावीर और हेमांगद शासक जीवंधर : चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर, जिनका निर्वाण भाज (१९८० ई०) से २५१४ वर्ष पूर्व हुआ था, के धर्म का प्रचार अश्मक देश (गोदावरी के तट का प्रदेश), सुश्मक देश (पोदनपुर) तथा हेमांगद देश (कर्नाटक) में भी था हेमांगन देश की स्थिति कर्नाटक में बतायी जाती है। यहां के राजा जीवंधर ने भगवान महावीर के समवशरण में पहुंचकर दीक्षा ने ली थी। संक्षेप में, जीवंधर की कथा इस प्रकार है- जीवंधर के पिता सत्यंधर अपनी रानी में बहुत आसक्त हो गए। इसलिए मन्त्री काण्ठागार ने उनके राज्य पर अधिकार कर लिया । सत्यंधर बुद्ध मे मारे गये किन्तु उन्होंने अपनी गर्भवती राती को केकयन्त्र मे बाहर भेज दिया था शिशु ने बड़ा होने पर आचार्य आर्यनन्दि से शिक्षा ली और अपने राज्य को पुनः प्राप्त किया। काफी वर्ष राज्य करने के बाद उन्हें वैराग्य हुआ और हे भगवान महावीर के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गए । सन् १९०२ ई० में प्रकाशित 'Karnataka State Gazeteer Vol-1 में लिखा है — "Jainism in Karnataka is believed to go back to the days of Bhagawan Mahavir. Jivandhara, a prince from Karnataka is described as having been initiated by Mahavir himself." अर्थात् विश्वास किया जाता है कि कर्नाटक मे जैनधर्म का इतिहास भगवान महावीर के युग तक जाता है । कर्नाटक के एक राजा जीवंधर को स्वयं महावीर ने दीक्षा दी थी ऐसा वर्णन आता है । संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश मे तो लगभग एक हजार वर्षों तक जीवंधरचरित पर बाधारित रचनाएँ निखी जाती रहीं। तमिल और कन्नड़ में भी उनके जीवन से सम्बन्धित रचनाएँ है। जीव चिन्तामणि (तमिल), । कन्नड़ में जीवंध परिते (भास्कर २४२४ ई.), जीवंधरसांगत्य (बोम्मरस, १४८५ ई०) जीवंधर- षट्पदी (कोटीस्वर १४००६०) तथा जीवंचरचरिते (बोम्मरस) । --- उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष सुविचारित एव सुपरीक्षित नही लगता कि कर्नाटक में जैनधर्म का प्रचार ही उस समय प्रारम्भ हुआ जब चन्द्रगुप्त मौर्य और Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैन धर्म श्रुतकेवली भद्रबाह श्रवणबेलगोल आए । कम-से-कम भग- मन्दिर बनवाया था और (नापद) नगर बगाया था। इस वान महावीर के समय में भी जैनधर्म कर्नाटक में विद्यमान बात के प्रमाण तन देश नन्द राजाओं की सीमा या यह तथ्य हेमांगद नरेश जीवंधर के चरित्र में स्वत मे था। श्री एस. रामामामी अय्यंगर 'कंतल' देश सिस है। को roughly Karnataka (गोटे तौर पर कर्नाटक) बौडग्रन्थ 'महावंश' का साक्ष्य : मानते है। इसके अ-1 त कुछ मिन ग्रन्पो मे अन्तिम श्रीलंका के राजा पाण्डकाभय (ईसापूर्व ३७७ से ३०७) नन्द राजा ननद के पार बजाने, उसके गगा मे गड़े और उसकी राजधानी अनुराधापुर के सम्बन्ध मे चौथो हाने या बह जान का सके लालच का उल्लेख करते हैं। शताब्दी के बौद्धग्रंथ 'महावंश' में कहा गया है कि श्रीलका आशय यह कि कान तमिल देश भी नन्दों के अधीन के इस राजा निगंथ जोतिय (निगथ-निर्ग्रन्थ-जैनों के लिए था और इ.7 141 के गाव में यहां के लोगों प्रयुक्त नाम जो कि दिगम्बर का सूचक है) के निवास के लेखकों में अगर हाती रहती थी। लिए एक भवन बनवाया था। वहां और भी निर्ग्रन्थ साधु प्राचीन मानीय : नहाम के विशेषज्ञ श्री हेमचन्द्र राय निवास करते थे। पाण्डकाभय ने एक निर्ग्रन्थ कुंभण्ड के चौधरी ने इन : यॉफ नन्दाज' नामक अध्याय लिए एक मन्दिर भी बनवा दिया था। इस उल्लेख से यह मे लिगया है सिद्ध होता है कि ईसा से लगभग चार सो वर्ष पूर्व श्री "Jain winters refer to the subjugation by लंका मे जैनधर्म का प्रचार हो चुका था और वहां दिगबर Nanda's minister of the whole country down जैन साधु विद्यमान थे। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है to tne seas '' कि वहां जैनधर्म दक्षिण में पर्याप्त प्रचार के बाद ही या अर्थात् "जै लखक इम नात का उल्लेड करते हैं कि तो कर्नाटक-तमिलनाडु होते हुए या कर्नाटक केरल होते नन्द के भन्न : समुद्र पर्यन्त गारे देश को अधीन कर लिया हुए एक प्रमुख धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ होगा। था।" यदि जैन लेखकों के पथन मेकछ भी सच्चाई महावंश में उल्लिखित जैनधर्म सम्बन्धी तथ्य को होनी, नो श्री गण चौधरी उगका उल्लेख नहीं करते। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री नीलकंठ शास्त्री ने भी स्वीकार करते हुए 'दी एक ऑफ नन्दाजएण्ड मौर्याज' में लिखा है दुगरे । . f. ये है उनगे यह मिन होता है कि राजा पांडकाभय ने निग्रंथों को भी दान दिया था। कि कर्नाटक मे धर्म का 'पमार चन्द्रगुप्त मौर्य और नन्द-वंश: आचार्य भद्रवाह के श्रवणबेलगोल आने मे आने से पूर्व ही __ महावीर स्वामी के बाद पाटलिपु मे नन्दवश प्रति- हो चुका था. पाटा न.में होता तो चन्द्रगुप्त मौर्य ष्ठित हुआ। यह वंश जैन धर्मानुयायी था। यह ना बारह हजार किमी (नके मा" एक लाख जैन श्रावक सम्राट् खारवेल के लगभग २२०० वर्ष पुराने उम शिला भी रहे होगे) ' माने नाथ नार फर्नाटक नीं आते। लेख से स्पष्ट है जिसमे उसने कहा है कि कलिंगजिन की यह तथ्य इनान न की गाड- रता है fr चन्द्रगुप्त जो मूर्ति नन्द राजा उठा ले गया था, उसे वह वापस मौर्य ने दक्षिण पर भी जि की थी। लाया है। इस वश का राज्य पूरे भारत पर था। कर्नाटक चन्द्रगुप्। पु बन्दुपार और पोते सम्राट के वीदर को महाराष्ट्र से जोड़ने वाली सड़क नदेिड जाती अमान ने भी धन वे को यात्रा की थी। कर्नाटक है। विद्वानों के अनुसार नव (गो) 'नन्द देहरा' उस स्थान मे कुछ स्थानो (. 'चर जि।। पर अशोक के लेख भी का प्राचीन नाम है जो घिसकर नान्देड हो गया है। पाये जाते है । अशोक को बोद्ध बाया जाता है किन्तु यह 'देहरा' जैन मन्दिर के लिए आज भी राजस्थान-गुजरान पूरी तरह सत्य नहीं है। इ. तथ्य के समर्थन में श्री एम. में प्रयुक्त होता है। नांदेड वह स्थान था जहां नन्दो ने जैन एस. रामास्वामी अगंगर ने लिखा है-- Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to, ant vv, fore ४४,०३ अनेकान्त तथापि कुछ राजा जैन धर्म के प्रति अत्यन्त उदार या जैन धर्मावलम्बी थे। इस वंश का दूसरा राजा शिवकोटि प्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी से जैन धर्म में दीक्षित हो गया था। कदम्बवंशी राजा काकुत्स्थवर्मन् का लगभग ४०० ई० का एक ताम्रलेख हलसी (कर्नाटक) से प्राप्त हुआ है, जिसके अनुसार उसने अपनी राजधानी पलासिका (कर्नाटक) के जिनालय को एक गाँव दान में दिया था । लेख में उसने 'जिनेन्द्र की जय' की है और ऋषभदेव को नमस्कार किया है । "Prof. Kera, the great authority on Bud dhist scriptures, has to admit that nothing of a Buddhist can be discovered in the state policy of Ashoka. His ordinance concerning the sparing of life agree much more closely withe the ideas of the heretical Jains than those of the Buddhists. अर्थात् बोद्ध धर्मग्रन्थों के महान् अधिकारी विद्वान् प्रो० कर्म को यह स्वीकार करना पड़ा है कि अशोक की राज्य-नीति में बोद्ध जैसी कोई बात नही पाई जाती। जीवों की रक्षा सम्बन्धी उसके आदेश बौद्धों की अपेक्षा विधर्मी जैनों से बहुत अधिक मेल खाते हैं। अशोक के उत्तराधिकारी सभी मोर्य राजा जैन थे। अतः मौर्य राजाओ के शासनकाल में कर्नाटक मे जंग धर्म का प्रचार-प्रसार चन्द्रगुप्त-भद्रबाहु परम्परा के कारण भी का की रहा । सातवाहन वंश: मौर्य वंश का शासन समाप्त होने के बाद, कर्नाटक में पेंठन (प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर, महाराष्ट्र) के सात बाहुन राजाचों का शासन रहा इस वश ने ईसा पूर्व ठोसरी सदी से ईसा की तीसरी शताब्दी अर्थात् लगभग ६०० वर्षों तक राज्य किया। थे तो व ब्राह्मण किन्तु इस वंश के भी कुछ राजा जैन हुए हैं। उन गब में शालिन या 'हाल' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है इस राजा द्वारा रचि। प्राकृत ग्रन्थ 'गाथा सप्तशती' पर जैन विचारों का प्रभाव है। इस वंश से सम्बन्धित छ स्थानो का पता गुलबर्गा जिले में चला है। स्वयं हाल का दावा या कि वह 'कुन्तलजनपदेश्वर' है। इसके समय में प्राकृत भाषा की भी उन्नति हुई। कर्नाटक में प्राकृत के प्रसार का श्रेय मौर्य और सातवाहन वंशका है। कदम्ब-वंश: सातवाहन वंश के बाद कर्नाटक मे दो नये राजाओं का उदय हुआ। एक तो था कदम्ब वंश ( ३०० ई० स ५०० ई०) जिसकी राजधानी क्रमशः करहद (करहाटक ) वैजयन्ती (वनवासी) रही। इतिहास में वैजयन्ती के कदंब नाम से प्रसिद्ध हैं। यह वंश भी ब्राह्मण धर्मानुयायी था काय के पुत्र शान्तिवर्मा ने भी अर्हन्तदेव के अभिषेक आदि के लिए दान दिया था और एक जिनालय भी पलासिया मे बनवाकर श्रुतकीर्ति को दान कर दिया या उसके पुत्र मृगेशवर्मन् (४५०-४७८ ई०) ने भी कालवग नामक एक गांव के तीन भाग कर एक भाग महाजनेन्द्र के लिए, दूसरा श्वेताम्बर महा संघ के लिए ओर तीसरा भाग दिगम्बर भ्रमण (निर्ग्रन्थ) के उपयोग के लिए दान मे दिया था । उसने अर्हन्तदेव के अभिबेक आदि के लिए भूमि आदि दान की थी। मृगेशवर्मन् के बाद रविवर्मन् (४७८-५२० ई०) ने जैन धर्म के लिए बहुत कुछ किया अपने पूर्वजो के दान की उसने पुष्टि की अष्टाहिका मे प्रति वर्ष पूजन के लिए पुरखेटक गांव दान किया, राजधानी में नित्य पूजा की व्यवस्था की तथा जैन गुरुओं का सम्मान किया । उसने ऐसी भी व्यवस्था की कि चातुर्मास मे मुनियो के आहार में बाधा न आये तथा कार्तिकी मे नन्दीश्वर विधान हो । हरिवर्मन् कदम्ब (५२०-५४० ई.) ने भी प्रष्टाका तथा सघ को भोजन आदि के लिए कूचक संघ के वारियेणाचार्य को एक गाय दान में दिया था। उसने अरिष्ट नामक श्रमरण - सघ को मरदे नामक गांव का दान भी किया था । कदम्बों के दान आदि पर विचार कर पुरातत्वविद् श्री टी एन. रामचन्द्रन् ने लिखा है, 'कर्नाटक में वनवासि के कदम्ब के शासक 'यद्यपि हिन्दू थे तथापि उनकी बहुत सी प्रजा के जैन होने के कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्म के अनुकूल थे ।" ( अनेकान्त से ) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैन धर्म गंग-वंश: गगवश का प्रथम नरेश माधव था जो कि कोंगुणिवर्म कर्नाटक में जैनधर्म के इतिहास मे इस वश का स्थान प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है। उसने मण्डलि नामक स्थान सबसे ऊंचा है। इस वंश की स्थापना ही जैनाचार्य सह- पर काष्ठ का एक जैन मन्दिर बनवाया था और एक जन नन्दी ने की थी। एक शिलालेख मे इन आचार्य को 'नग- पीठ की भी स्थापना की थी। इसी वंश के अविनीत गंग राज्य-समुखरण' कहा गया है। शिलालेखानुसार उज्जयिनी के विषय में यह कहा जाता है कि तीर्थकर प्रतिमा सिर के राजा ने जब अहिच्छत्र के राजा पद्मनाभ पर आक्रमण पर रखकर उसने बाढ से उफनती हुई कावेरी नदी को किया तो राजा ने अपने दो पुत्रो बड्ढग और माधव को पार किया था। उसने अपने पुत्र दुविनीत गंग की शिक्षा दक्षिण की ओर भेज दिया । वे कर्नाटक के पेरूर नामक आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद के सान्निध्य मे दिलाई थी तपा स्थान में पहुंचे। उस समय वहां विद्यमान सिंहनन्दी ने लालवन नगर की जैन बसदि के लिए तथा अन्य बसदियों उनमें राजपुरुषोचित गुण देखे । बल-परीक्षा के समय आदि के लिए विविध दान दिए थे। माधव ने तलवार से एक पाषाण-स्तम्भ के टुकड़े कर दुविनीत का काल ४८१ ई. से ५२२ ई. के लगभग दिए। आचार्य ने उन्हें शिक्षा दी, मुकुट पहनाया और माना जाता है। यह पराक्रमी होने के साथ ही साप परम अपनी पिच्छी का चिह्न उन्हें दिया। उन्हे जिनधर्म से जिनभक्त और विद्यारसिक भी था। उसने कोगलि विमुख नही होने तथा कुछ दुर्गुणों से बचने पर ही कुल (कर्नाटक) मे चन्न पार्श्वनाथ नामक बसदि का निर्माण चलेगा' यह चेतावनी भी दी। बताया जाता है कि घटना कराया था। देवनन्दि पूज्यपाद उसके गुरु थे। प्रसिद्ध १८८ ई० अथवा तीसरी सदी की। इस वश ने कनाटक सस्कृत कवि भारवि भी उसके दरबार में रहे। उसने में लगभग एक हजार वर्षों तक शासन किया। उसकी पूज्यपाद द्वारा रचित पाणिनिव्याकरण को टोका का पहली राजधानी कुवलाल (आधुनिक कोलार), तलकाड कन्नड में अनुवाद भी किया था। उनके समय में तसकार (कावेरी नदी के किनारे) तथा मान्यपुर (मण्ण) रही। एक प्रमुख जैन-विद्या केन्द्र था। इतिहास में यह तलकाड (तालवनपुर) का गगवश नाम से श्री रामास्वामी अय्यंगर का मत है कि दुविनीत के ही अधिक प्रसिद्ध है। इनके द्वारा शासित प्रदेश गगवाही' उत्तराधिकारी मुकार के समय में "जैनधर्म गंगवारी का कहलाता था और उसमें मैसूर क आसपास का बहु। बडा गष्ट्रयम था।" उसने वल्लारी के समीप एक जिनालय भाम शामिल था। कर्नाटक का यही राजनश ऐसा है का भी निर्मागा कराया था। इस वश को अमली कड़ी जिसने कर्नाटक के सबसे लम्बी अवधि -ईसा को चौथो मे शिवमार पयम नामक राजा (५५० ई० में) हया है सदी से ग्यारहवी सदी तक- राज्य किया है। जो जिनेन्द्र भगवान का परम भक्त था। उसके गुरु चन्द्रगंगवश के समय में जैन धर्म की स्थिति का आकलन सेनाचार्य थे और उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण करते हुए श्री टी. एन. रामचन्द्रन ने लिखा है, जैन धर्म कराया था तथा दान दिया था। का स्वर्णयुग साधारणतया "दक्षिण भारत में और विशेष- श्रीपुरुष मृत्तरग (७२६-७७६ ई०) नामक गंगनरेश कर कर्नाटक मे गगवश के शासका के समय में था, ने अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। उसने जिन्होंने जैनधर्म की राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार या ताल्ल विप (जिन्ना) जिनालय, श्रीपुर के पावं जिनाथा। उनके इस कथन मे अतिशयाक नही जान पड़ता। और उसके पास के लोकतिलक जिनमन्दिरको दान किन्तु यह उचित इस वश के जनधर्म क प्रकार सम्बन्धी दिया था। आचार्य विद्यानन्द ने 'श्रीपुर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' प्रयत्नों का साराश ही है। कुछ प्रमुख गंगवश) राजाओ की रचना की रचना भी श्रीपुर मे इसी नरेश के सामने का सक्षिप्त परिचय यहाँ जैनधर्म के प्रसग मे दिया जा की थी एसो अनुश्रुति है। (क्रमशः) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्रीय संग्रहालय गुजरीमहल ग्वालियर में सुरक्षित सहस्र जिनबिंब प्रतिमाएँ मध्यप्रदेश के पुरातत्व संग्रहालयों में केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर का महत्वपूर्ण स्थान है, इस संग्र हालय जैन प्रतिमानों का विशाल संग्रह है। प्रस्तुत लेख मे संग्रहालय की सहस्र जिन बिम्ब प्रतिमाओ का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। यह स्तम्भ ाकृ ि1, शिल्पखंड जैन ग्रन्थो में वर्णित मान स्तम्भ सहस्रकूट व जिन चैत्यालय का प्रतीक संग्रहालय में बलुआ पत्थर पर निर्मित ग्वाही स्वी की कमी प्रतिम सुरक्षित है, जिनका विवरण निम्नानुसार है लयर दुर्ग में प्राप्त एक गो कार स्तम्भ को पूर्व में जैन स्तम्भ खडिन लिखा गया है। जबकि यह महस्र जिन बिम्ब स्तम्भ है, इस पर दम पतियो 4 जिन प्रतिमाएँ अति है। प० *० २६०) पथम पाक्त में प्रथम मूर्ति तीर्थंकर आदिनाथ की है, शेष भारत पद्मासन जिन मूर्ति दूसरी पक्ति में सात जिन मूर्ति तीसरी पंक्ति म पन्द्रह जिन मूर्ति, चौथी पंक्ति में जिन मृर्ति, ५वी पक्ति में आठ जिन मूर्ति, छठी पनि" मनमूर्ति सातवी पक्ति में तेरह जिन मूर्ति, आठ पति में नौ जिन मूर्ति नौवी मी पंक्ति म बीस जिन मूर्ति, ग्यारहवी पक्ति सोलह जिन मूर्तियां मकिन है। सभी मूर्ति पद्मासन मुद्रा में अंकित है। प्रतिमा का आकार १८५ २७५७५ सं० ० है । बालचन्द्र जैन ने इसे मान स्तम्भ माना है, जिसमें पद्मासन में तीर्थकर प्रतिमा अति है। सो पैतालीस तीर्थकर प्रतिमाएं बैठी एक भी उनतालीस जनकि इसमें एक है। प्राइस मूर्ति को सुहोनिया जिला मुरैना म० प्र० पूर्व में पट्ट जिस पर अठारह तीर्थक प्रतिमा बनी है, लिखा गया है। जबकि यह सहस्र जिन बिम्ब है। · १. शर्मा राजकुमार "मध्यप्रदेश के पुरातत्व का सन्दर्भ ग्रन्थ मोरान १२७४ १० ४७५ । · २. घाष अमलानन्द जैन कला एवं स्थापत्य" नई दिल्ली १०५ १० ६०८ २. शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृ० ४७६ मा २०६ शिल्पकृति में तीन पक्तियों में पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में जिन प्रतिमाओं का अंकन है। (सं० ० ३१०१) प्रत्येक पंक्ति मे ६६ प्रतिमाएँ अंकित की गई है। बायीं और अलंकृत घट पलयों से युक्त स्तम्भ का आलेखन है। प्रतिमा का आकार ३६५०×१२ से० मी० है । बालचन्द्र जैन ने इच्छा काल पन्द्रहवीं शताब्दी माना है । जो उचित प्रतीत नही होता है । यह प्रतिमा ११वी शती ई० की है । २-२=८ १-१४. 11 39 द्वितीय तीसरी प्रत्येक जिन (तीर्थंकर) प्रतिमा के नोचे धर्मचक्र विपरीत दिशा में मुख किये सिंह अकित हैं। नीचे की पति में आदिनाथ एव पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्पष्ट है। दो खंडित प्रतिमा नेमिनाथ एवं महावीर की रही होगी । इसके नीचे अंजनी हस्त मुद्रा में सेवक बैठे हुए है। पार्श्व में चामरधारी अंकित है । सम्पूर्ण स्तम्भ अमृत कलश विद्याधर, पुष्प एवं भवान्छों से अलंकृत है। प्रतिमा का आकार १४८६० x ६० से०मी० है । बासचन्द्र जैन ने इसे मान स्तम्भ माना है एवं देव कोष्ठों के अन्दर इस नीशंकर की लघु प्रतिमाएँ बैठे हुए दर्शाया गया है। सम्वर्थ-सूची पढावली जिला मुरैना म० प्र० से प्राप्त प्रतिमा को स्तम्भ पर उत्कीर्ण चौबीस तीर्थकर लिखा है। जबकि यह महल जिन विम्ब है। इस शिल्प खंड के चारों ओर जिन प्रतिमाएं बनाई गई है, जो सभी पद्मासन में है। (स० ० ३४३) और महस्र जिन प्रतिमाओं का संकेत करती है। प्रस्तुत स्तम्भाकृति मे तीन पक्तियाँ है। प्रत्येक पति बनी प्रतिमानों की सख्या इस प्रकार है:नीचे की पहली पंक्ति प्रत्येक ३-३१२ o C नरेश कुमार पाठक ५. ६. " ७. "} ४. घोष प्रमलानन्द पूर्वोक्त पृ० ६०३ । "1 शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृ० ४७७ क्रमांक ११८ | गर्दै एम. बी. "ए गाइड टू बी आफैँलाजीकल म्यूजियम एट व्यानर १९२८ मेट 1 घोष अमवानन्य पूर्वोक पृ० ६०१ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचचित भक्त कवि 'हितकर' और और 'बालकृष्ण' : डा० गंगाराम गर्ग विभास, ईमन, धनाश्री, सारंग, आसावरी तथा भैरु आदि कतिपय रागों में लिखित 'हितकर' के पद छोटे धौर भावपूर्ण हैं। दास्य भक्त के अनुरूप प्रभु के गुणगान की अपेक्षा 'दिनकर' ने आत्मनिवेदन को अधिक प्रमुखता दी है। अज्ञानान्धकार में भटके हुए 'हितकर' अपने उद्धार के लिए अधिक आतुर रहे है- भट्टारक सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्म यशोधर देवसेन के दो-दो पद तथा अपभ्रंश कवि बूचराज के आठ पद प्राप्त हो जाने से जैन पद परम्परा की पुरातनता तो अवश्य सिद्ध होती है किन्तु इसके वर्तन के श्रेय के अधिकारी ६० पदों के रचयिता गंगादास ही कहे जा सकते हैं। पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर भरतपुर मे प्राप्त एक गुटके में इनके विभिन्न राग भैरव, ईमन, परज, सोहनी, विलावल रेखता, चर्चरी, जैजैवन्ती, विभास, कान्हड़ो, रवमायच मे लिखित उक्त पद सग्रहीत है। गंगादास द्वारा आषाढ़ सुदि १५ सवत् १६१५ को लिखी गई रविवार व्रत कथा के आधार पर उनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने कवि की रचना 'आदिनाथ की विनती' को प्रशस्ति के आधार पर उसे नरसिंहपुरा जाति वाले तथा सूरत निवासी पर्वत का पुत्र बतलाया है । जैन भक्त गंगादास द्वारा प्रवर्तित यह पद परम्परा घोर श्रृंगारिक काल रीतिकाल मे अधिक विकसित हुई। प्रचुर पदों के रचयिता द्यानतराय, भूधरदास, बुधजन, नबलशाह, पार्श्वदास इसी काल मे आविर्भूत हुए । अभी तक अवचित भक्त कवि 'हितकर' और 'बालकृष्ण' का पद साहित्य क्रमशः अग्रवाल जैन मन्दिर दीग (भरतपुर) कोटडियान मन्दिर हूगरपुर (राज० ) मे प्राप्त हवा है। हितकर अग्रवाल जैन मन्दिर दीग (भरतपुर) में प्राप्त 'हेतराम' के नाम से लिखी 'चोबीस महाराजन की बधाई प्राप्त हुई है एक गुटके के पृ० ९८-१०३ पर अंकित इस रचना में तीर्थकरों के जन्मोत्सव के रूप मे जन्म सरकार, 'बाल-स्नान', दान, नृत्य, वाद्यवादन का वर्णन हुआ है । सम्भवतः इन्हीं हेतराम 'हितकरि' के उपनाम से पद लिखे । किंकर परत करत जिन साहब मेरो प्रोर निहारो । पतित उपारन दीन दयानिधि, सुभ्यों तो उपगारो । मेरे धोन पे मति जावो, अपनो सुजस विचारो । अज्ञानी वीसत है जग में, पक्षपात उर भारी । नाहीं मिलत महावत पारी, फंसे निरवारी हं छवि रावरी नैनन निरखी, श्रागम सुन्यौ तिहारी । जात नहीं भ्रम को तम मेरो, या बुक्खन को टारौ । 'घन' और 'चकोर' के प्रतिक्षण याद करते रहने में सम्त 'मोर' और 'बोर' के समान हो 'हितकर' का स्वभाव भी बन गया है। सोते-जागते, रात-दिन में किसी भी क्षण 'जिन प्रतिमा को वह अपनी आखो से ओमल नही कर पाते- प्यारी लागे भी जी मैंनू वाद लिहारी प्यारी । चोर चकोर मोर धन जैसे तेसे में नहि सुरति बिसारी । निसि बासर सोबत प्ररु जागत, इक छिन पलक टरत न टारी । 'सेव' ऊपर 'हितकरि' स्वामी, तुम करो कछु चाह हमारी ॥ 'म्हे थाका थे महांका' (मैं तेरा और तू मेरा) कहकर 'हितकर' वैष्णव भक्तो के समान अपने आराध्य से प्रगाढ़ सम्बन्ध प्रस्थापित किया है तथा जन्म-मरण से छुटकारा दिलवाने के लिए सैन्य भी प्रकट किया हैम्हे तो चाक सूं याही घरज करों छां हो जी जनराम जामन मरन महा दुख संकट, मेट गरीब नवाज | . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वर्ष ४४ ० ३ म्हे बांका मे महांका साहब, पांके महांकी लाज । जा विधि सौं भव उदधि पार हो, 'हितकरि' करिस्यो काज । श्रेष्ठ मां के समान 'दिनकर' भी अपने भक्ति फल के रूप में कोई लौकिक कामना नहीं रखते। वह चाहते हैं केवल प्रभु भक्ति के भाव धारण की निरन्तरता । इससे हो आत्मानुभव की प्रेरणा और मोक्ष मिल सकेगीधरज कर दो जिनराज जी । तारण तिरण सुन्यौ मोहि तार्यो, थांनं म्हांकी लाज जी । भव भव भक्ति मिलो प्रभु यांकी, याही बंध्या धान जी निज आतम ध्यांऊं शिव पांउ 'हितकरि' काज जी ॥ तीर्थंकर नेमिनाथ के जन्मोत्सव और राजुल के पद लिखकर लिकर' ने 'नारसस्य' और मधुर भाव की भी अनुभूति की है। जन्मोत्सव का एक छोटा-स पद है ह एरी श्रानन्द है घर घर द्वार । समुद विज राजा घरां री हेली पुत्र भयौ सुकुमार । जाके जनम उछाह को री एरी, प्रायो इन्द्र सहित परिवार। जाविक जन को मोद सौ से एरी हेली दोनों द्रव्य अपार । नेम कवर सबने को से एरी हेली हितकर' सुखकार ।। निमिनाथ के विरह में सतन राजुल आठो प्रहर प्रिय ध्यान में ही निमग्न रहती है। उसकी यह स्थिति निर्गुण संतो के विरभाव, मीरा आदि मधुर उपासको की मनः स्थिति का प्रतिबिम्ब ही प्रदर्शित करता हैतन को तपति अर्थ मिटि है मेरी, नेम पिया के दृष्टि भर देखूंगी ॥ टेक ॥ जब दरसन पाऊँगी मैं उनको, जनम सुफल करि लेखूंगी । जाम मे ध्यान उनको रहत है, ना जानू कब भेंगी । 'हितकरि' जो कोई पनि मिलावे, जिनके पांयन सीस टेकूंगी ॥ 'बालकृष्ण ५० पदो के रचयिता अशात कवि सेंडू ने दीग निवासी तथा नरपत्येला गोत्रिय खंडेलवाल जैन अभयराम और चेतनराम दो भाइयो की सम्पन्नता और दानशीलता की प्रशसा दो फुटकर छंदों में की है। इन दो भाईयों के पिता का नाम उन्होंने बालकृष्ण बतलाया है uttra जैन कुल जन्म खंडेलवाल निरपतेला, दीग सहर नांमी जास घर है । पिता बालकिरन जाको धर्म हो सौ राम प्रति श्रौर विकल्प जो मन मैं न धरि है । धन सो माता जिन जाये ये भ्रात, कुल के प्राभूषण वित सारू पर दुख हरि है। प्रमेशम चेतन नाम करायो श्री जी को धाम, या तं बड़ाई 'सेदू' ज्यों की त्यो करि है ॥ सेहूं ने बालकृष्ण को धर्मानुरागी बतलाया है अतः इनके द्वारा पद लिखे जाने की सम्भावना स्वाभाविक है । अभी बालकृष्ण के केवल दस पद दूगरपुर के कोटडियान जैन मन्दिर के एक गुटके में प्राप्त हुए हैं । समवशरण में विद्यमान जिनेन्द्र की छवि पर बालकृष्ण की अपार श्रद्धा है मूरति कंसी राजं मेरे प्रभु की। अद्भुत रूप अनुपम महिमा, तीन लोक में। श्री जिननाय जु ध्यान धरतु हैं, परमारथ पर कार्ज । नासा अग्र दृष्टि को धारं मुखवान धुन गाजे । अनुभो रस पुलकत है मन में, श्रासन सुद्ध बिराजं । जाकवि देख इन्द्रादिक, चन्द्र सूरज गन ला धनु अनुराग विलोकति जाको प्रशुभ करम गति भागं । 'बालकुरा' जाके सुमरन से, अनहद बाजे बाजे | जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा का स्वरूप सन्निहित होने की धारणा के कारण जैन भक्ति काव्य में तीर्थकर भक्ति के अतिरिक्त अध्यात्मउपासना को वडा बल मिला। बालकृष्ण 'चेतन' को ही साहिब मानते हुए पके लिए कृतसंकल्प हैतू है साहिब मेरा चेतन जो । प्रलय अतिसिद्ध स्वरूपी, ऐसा पद है तेरा की। विषय कवाय मगनता मानी किया है जगत में फेरा । पर के हेत करम ते कोनं अजहूँ समझ सबेरा । अपुन पर अपु नहि बिसरो, मोह महानद पंरा । दरसन शुद्ध मान तूं मन मैं भवि तं होय निवेश । प्रभो शक्ति संभार अपनी केवल ज्ञान उजेरा । 'बालकृष्ण' के नाथ निरंजन पायो शिवपुर डेरा ॥ (शेष पृ० १७ पर) · Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थराज सम्मेद शिखर-इतिहास के आलोक में डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल तीर्थराज सम्मेदशिखर जैन धर्म का प्राण है। भगवान सका । वैसे दो हजार वर्ष पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्वाण बादिनाथ, वामपूज्य, नेमिनाथ एव महावीर को छोड़कर भक्ति में सम्मेदशिखर के बारे मे .सभी शेष २० तीर्थकरों एवं अगणित साधुओ ने यहाँ मे बीस तु जिरणवरिदा अमरासुर वंदिया धुद किलेसा । निर्वाण प्राप्त किया है । इसलिए इस पहाड का कण कण सम्मेदे गिरसिहरे णिग्वाण गया गमो तेसि ॥ वंदनीय है। यहां की पूजा, अर्चना एव वदना करने का यह भी आश्चर्य की बात है कि हमारे आचार्यों में से विशेष महत्व है । एक कवि ने इसकी पवित्रता से प्रभावित अधिकाश आचार्यों ने सम्मेदशिखर की वंदना अवश्य को होकर निम्न पक्तियों मे अपने भाव प्रगट किये हैं--- "एक होगी। आचार्य समन्तभद्र जैसे वादविवाद पारगत आचार्य बार बन्दै जो कोई ताहि नरक पशु गति नहीं" कितना जब वाद के लिए देश के एक कोने से दूसरे कोने तक बडा अतिशय है सम्मेदशिखर वदना का। कितना पावन है शास्त्रार्थ के लिए विहार किया तो वे भी सम्मेद शिखर यह क्षेत्र जिसकी वदना करना मानो चिन्तामणि रत्न पाना तो अवश्य आये होंगे फिर पता नही उन्होंने सम्मेद शिखर है । जब यात्री पहाड की वंदना करने लगता है या उसके के माहात्म्य का वर्णन क्यों नही किया। इसलिए मैं तो पांव पहाड़ की प्रथम सीढी पर पड़ते हैं तो उसके मन के इस अवसर पर वर्तमान आचार्यों, मुनियों, विद्वान लेखकों भाव ही बदल जाते है । जब वह पहाड चढकर प्रथम टोक से यही निवेदन करना चाहूंगा कि वे अपनी किसी एक के दर्शन करता है तो उसका मन गदगद हो जाता है और रचना में इस तीर्थराज के महात्म्य एव यहां की स्थिति जब सभी टोंको की वदना करता अंतिम टीक पार्श्वनाथ का अवश्य वर्णन करें जिमसे यहां का इतिहास बनता रहे। पर पहुच जाता है तो उसका मन प्रसन्नता में भर जाता वर्तमान में सम्मेदशिखर के इतिहास की खोज व गोध है और उसे ऐसा लगने लगता है कि मानो उसका मानव आवश्यक है । इतिहास लेखन के जितने प्रयास आज तक जीवन सफल हो गया और उसका मन निम्न पद्य कह होने चाहिये थे वे नहीं हो सके। महामनीषी प० सुमेरचद उठता है : जी दिवाकर ने सम्मेदशिखर के इतिहास को लिपिबद्ध णमोकार समो मंत्रो, सम्मेवाचल समो गिरि। करने का अवश्य प्रशंसनीय कार्य किया लेकिन उस पुस्तक पीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ में केवल टोकहो का ही वर्णन है। यहां के पिछले इतितीर्थराज सम्मेद शिखर का इतिहास भी उतना ही हास की ओर उसमे वर्णन नही हो सका। पुराना है जितना जैन धर्म का इतिहास पुराना है। दोनों यात्रा संघों का वर्णन : एक दूसरे से जुड़े हुए है । इसलिए हमारे इतिहाग लेखको यात्रा संघों का इतिहास ही शिखर जी के इतिहास ने सम्मेदशिखर के इतिहास लिखने की कभी आवश्यकता की एक कड़ी है। यहां के इतिहास की खुली पुस्तक है । ही नहीं समझी। जहां प्रतिवर्ष हजारों वर्षों से लाखों यात्री इस संबंध में मुझे संवत् १३८४ के यात्रा संघ का उल्लेख दर्शनार्थ आते रहते है उसका यह इतिहास तो गतिशील मिला है जिसमें चाकसू (राज.) के सघपति तीको एक है। प्रवाहमान है । यहाँ सघों के सघ वर्शनार्थ एवं वदनार्थ उसके परिवार ने शिखर जी की वंदना की थी। बाते जाते रहे इससे यहां इतिहास तो बनता रहा लेकिन सम्मेद शिखर के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला उसका मौलिक स्वरूप अधिक रहा और लिपिबद्ध नहीं हो एक और महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है वह है संवत १६५६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, ४,कि.३ अनेकान्त में रचित भद्रारक वादि भूषण के शिष्य आचार्य ज्ञानकीर्ति सुभौमचक्रिचरित्र की रचना करने का आग्रह किया था। द्वारा रचित यशोधर चरित की प्रशस्ति में जिसमें लिखा उन्होने संवत १६५३ में उक्त चरित्र की रचना विवष है बंगाल देश के अकबर नगर के राआधिराज मानसिह तेजपाल की सहायता से की थी। के प्रधान साह नान गोधा ने सम्मेद शिखर की ववना की। जयपुर के दीवान रायचन्द छाबड़ा बरे प्रसिद्ध दीवान दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाये एवं बीस तीर्थकरो के चरण थे। संवत १८६१ मे उन्होने बहुत बड़ा पंचकल्याणक स्थापित किये। प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया था। दीवान रायतस्यैव राजोस्ति महानमात्यो नानू सुनाया विवितो धरिण्यां चन्द छाबड़ा ने संवत १५६३ में सम्मेदशिखर जी की समेवश्रृंगे जिनेन्द्र गेहमण्टापदे बादि मचक्रधारी ॥८॥ यात्रा के लिए एक विशाल यात्रा संघ का नेतृत्व किया था। यो कारयच्छत्र च तीर्थनायाः सिद्धि गता विशतिमान युक्तः। संवत पाठ वश सैकड़ा, प्रवर तरेसठ जान। यः कारयेन्नित्यमनेक संध्या यात्रा धनाचः परमां च तस्य । चल्यो संघ जय नगरते, महावीर भगवान I16 इसी तरह महाकवि बनारसीदास के अर्ध कथानक मे इस यात्रा संघ में प्रयाग आते पाते पांच हजार यात्री शिखर जी की यात्रा का एक और वर्णन मिलता है जब हो गये थे। इन यात्रियों को ले जाने के लिए ४०० रथ बादशाह सलीम का मुनीम हीरानंद मुनीम प्रयाग से। और भैल, ४०० घोड़े तथा २०० ऊँट थे। शिखर जी का यात्रा संघ चलाया-- अधिक च्यारस रच अर भैल, अश्व चारसौ तिनकी गैल। तिनि प्रयागपुर नगर सो, कोनो उद्धम सार । सतर बोयसो तिन परिभार, नर नारी गिनि पाँच हजार ॥४ संघ चलायों सिखिर कों, उतरो गगा पार ॥२२॥ ____ यात्रा वर्णन में मधुबन की वृक्षावलि का बहुत सुन्दर ठौर-ठौर पत्री बई, भई खबर जित तित्त । वर्णन किया है। यह भी लिखा है कि सभी यात्रियों ने घीठी माई सेन को, भावह जात निमित्त । २६॥ सीता नाला पर जाकर स्नान किया तथा वहीं पूजा की खरग से न तब उठि चले, हवे तुरंग प्रसवार । सामग्री तैयारकी और फिर गिरिराज की वदना संपन्न की। जाइ नंब जी को मिले, तजि कुटुंब घरबार ।२२७॥ माघ कृष्ण सप्तमी, सुक्रवार सुमवार । संवत सोलहस उनसठे, पाय लोग संघसौनठे। गिर सम्मेव पूजन कियो, उपज्यो पुण्य अपार ॥ केई उबरे केई मुण, केई महा जहमती हुये ॥२३॥ इस संघ के साथ आमेर के भट्टारक सुखेन्द्र कीर्ति एवं सवत १७३२ मे आमेर निवासी संघ ही नरहरदास । आचार्य महीचन्द थे। सभी यात्री मधुबन में उतरे जहां सुखानन्द साह घासीराम और उनके दोनो पुत्रों ने सम्मेद एक विशाल मन्दिर था। यहां के निवासियों के बारे में शिखर पर पचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करायी। इसी निम्न पंक्तियां लिखी हैं:समय प्रतिष्ठित हींकार यंत्र जयपुर के खिन्दूको के मन्दिर मधुबन के वासी नर नारि, सरल गरीब सुद्ध चितधारी। में विराजमान है। तम ऊपर प्रति वोछो चौर, लंबी चोटी स्याम सरीर। सम्मेदशिखर मुसलिम काल मे भट्टारकों का भी के ही मांगत ढोल बजाय,के ही कलस बंधाबत मार। आवागमन का केन्द्र रहा। संवत १५७१ मे भट्टारक प्रभा- बसतर विये बहुत हरसाय, तिनकू वान बिये बहु भाय। चन्द्र का पट्टाभिषेक शिखर जी मे ही हुआ था। इसी माघ सुकल एक सभवार, संगपति दीनी जिमनार ॥२२ तरह संवत १६२२ में भट्टारक चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक इस यात्रा संघ ने एक कार्य मेलणी का भी लिया संपन्न हुआ। और सबने मिलकर एक हजार ७० रुपया मन्दिर को भेंट हेमराज पाटनी बागर प्रदेश के सागपत्तन (सागवाडा) किया। इसके पूर्व मालाबों की बोली हुई थी और वह भी के निवासी थे। उन्होंने संघपति बनकर सम्मेदशिखर की आय मन्दिर को ही गई। उस समय सोने की मोहरों में यात्रा कर सबको साथ लिया था। इसी हेमराज ने अपनी माला होती थी। माला एक दिन पांच मोहर एवं एक यात्रा को चिरस्थायी बनाने के लिए मदारक रलवना से दिन २१ मोहरों में हुई थी। इस प्रकार मह शिखर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीराज सम्मेदशिखर- इतिहास के पालोक में शिरविना महापूजा, सम्मेदशिखर यात्रा दर्शन, सदणिसर विलास, सम्मेद विलास व्यादि विभिन्न नामोटो पापियां मिलती है। ये पाण्डुलिपि बहमपूर्ण या प्रकाशन योग्य हैं । जिन कवियो पूजा विकास को रचनाये लिखो उनमें कवि द्यान्तराग बुभन भागीरथ, जवाहरलाल, भ० सुरेन्द्रकोर्ति, गंगादास गे। राम, हजारी मल्ल, ज्ञानचन्द्र, लालचन्द्र, मोतीराम, मनसुखसागर, दीक्षित देवदत्त, सतदाम, रामनन्द, केहि देवाब्रह्म, गिरधारीलाल, भागचन्द के नाम उल्लेखनीय है। इन सभी कवियो की पूजायें, विनास गावान शिखर जी के इतिहास के लिए बहुत उत्तम सामग्री युक्त है । इनका प्रकाशन यदि दोनो ही कोठियो की ओर से अथवा तेरहपंथी कोठी की ओर से हो जावे तो परम पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज का शिखर जी की यात्रा ऐतिहासिक यात्रा बन जायेगी । आशा है तीर्थराज कमेटी का इस ओर अवश्य ध्यान जावेगा ।" विलाम इतिहास की दृष्टि से बहुत ही अच्छी रचना है। जिसमे १५० छंद है। संवत १८६६ में प्रतापगढ़ (राज) के टेकचन्द ने सम्मेद शिखर जी की यात्रा की थी तब रामपाल ने शिखर जी की लिखी थी। पूजन शिखर जी के इतिहास के स्तोत्र और भी है। भट्टारक विद्यानंद (१४१४-१५३६) ने भी शिखर जी की वंदना की थी तथा भ० सोमसेन के शिष्य जिनसेन ने भी शक संवत १६०७ में शिखर जी की वंदना करने का यशस्वी कार्य किया था । १२वीं शताब्दी में होने वाले ब्रह्मजिनदास ने भी अपने जम्बूस्वामी रास एवं रामरास में सम्मेद शिखर जी का निम्न प्रकार वर्णन किया है :--- सम्मेव गिरि दीणे वलि चंग, जिनवर बीस पूज्या मनरंग ।। पूजा विलास की रचनायें : सम्मेद शिखर हमारा पावन तीर्थ है। मन्दिरों में राजस्थान के जैन शास्त्र सम्मेदाचल पूजा, मम्मेद उसकी पूजा होती रहती है भारों में सम्मेद शिखर पूजा, ( पृ० १८ का शेषाण) नेमिनाथ- राजुल प्रसंग पर जैन कवियों ने पर्याप लिखे हैं । नेमिनाथ के शक्ति परीक्षण, दया, विरक्ति औ तप आदि गुणों पर बालकृष्ण की राजमती ने भी अपनी श्रद्धा व्यक्त की है छवि नेमि पिया की लखि कं मुसकानी । भावत सुंदर मूरत देखत, राजमती सकुचानी । नाम सेज पर नाक चढ़ावत, देख सबै मनमानी । जोरि जॉन ब्याहन को आये, कहि न सके कोई प्यानी तोरो हार बसन सब भूषन, जीव दया मनमानी । ग्रह तजि के गिरि ऊपर पहुंचे, मेरी बात न मानी। 00 १७ तप कर कर्म सबै जिन नासं, भये निरंजन ज्ञानी । प्रभु के गुन सब तीन लोक में, सुनत पाप नसांनी । 'बालकृष्ण' की वीनती सुनीये, वीजं भक्ति निशांनी ॥ उक्त विवचन के आधार पूर्ण अज्ञात कवि हितकर और बालकृष्ण जैन भक्ति परम्परा के श्रेष्ठ भक्त ज्ञात होते हैं। अधिक पद होने की सम्भावना से इंकार नही किया जा सकता । एसोसिएट प्रोफेसर राजकीय स्वायत्तशासी जया विद्यालय भरतपुर (राज० ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ पुरातत्त्व को सँभाल में औचित्य 1 कुन्दन लाल जैन रिटायर्ड प्रिन्सिपल अभी १५ जुलाई १ को देवगढ़ जैसी पावन पुण्य- स्तम्भ गोल और चौकोर दोनों ही तरह के हैं उन पर स्थखी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वहां के जैन उकेरी गई कला तथा नाना तरह के बेलबूटे एवं चित्र शिल्प को देखकर हृदय गद्गद हो उठा। देवगढ़ मध्य विचित्रता अत्यधिक दर्शनीय एवं मनोरम हैं। यहां के रेलवे के मांसी वीना सेक्सन के बीच ललितपुर नामक मन्दिरों की स्थापत्य कला खजुराहो स्थापत्य से मिलती रेलवे स्टेशन से उत्तर पश्चिम की ओर लगभग ३२ कि० जुलती है। कहा जाता है कि यहां चालीस मन्दिरों का मी. दूर है । ललितपुर से बसें जाती रहती हैं । जैन मूर्ति परिसर था जो नवमी सदी से बारहवी सदी के बीच कला का अनुपम केन्द्र यह देवगढ़ क्षेत्र एक मुरम्य, सुंदर निर्मित हुए थे। वर्तमान में कुल इकतीस मन्दिर ही हैं पर एवं मध्य पहाड़ी पर अवस्थित है जिसकी तलहटी में वेत्र- जीर्णोद्धार के फलस्वरूप इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। वती (वेतवा) की कलकम धारा अवाध गति से बहती यहा का प्रमुख मन्दिर भ. शान्तिनाथ का है जो सर्वाधिक रहती है, इसे बुन्देलखंड की गंगा भी कहते हैं। प्राचीन और प्रसिद्ध है। इसके सामने चन्देल नरेश कीर्तिबचपन में सुना था कि देवगढ़ में इतनी मूर्तियां है कि वर्मन के लेख युक्त एक विशाल स्तम्भ खड़ा हमा है जिस एक-एक चावल प्रति मूर्ति पर चढ़ाया जावे तो एक बोरी से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र का नाम कीर्तिनगर भी रखा चावल अपर्याप्त रहेगा। तब यह सब अतिशयोक्ति सा गया था। लगता था पर अब इस क्षेत्र के दर्शन से वह बात यथार्थ जहां नई धर्मशाला और म्यूजियम बना है वहां के हो गयी। इस क्षेत्र पर असंख्य जैन मूर्तियां है जिनमे बहुत पार्क में स्थित मानस्तम्भ में तीनों दिशाओ में तीन सी खणित है छ दीवारों में चिनी हुई है, कुछ परकोटे तीर्थकरो की प्रतिमाएं विराजमान है पर चौथी ओर कोई पर पडी है, कुछ जमीन के अन्दर गड़ी पड़ी है और कछ आचार्य एक चोटीधारी श्रावक या गृहस्थ को उपदेश देती यत्र-तत्र लुकी-छुी पड़ी हुई हैं। हुई मुद्रा में विराजमान है जो एक अद्भुत मानस्तम्भ सा वहां के प्रतिभाशाली श्रमजीवी शिल्पियों ने युग युगो लगता है। यहा एकाकी प्रतिमाओं के अतिरिक्त द्वितीर्थी, तक अपने छनी हथोड़े की कला से जैन मूर्तियो का सर्जन कितीर्थी, चतुर्मुखी (सर्वतोभद्र) प्रतिमाएं एवं चौबीसीपट्ट किया वे आज पुगाव, इतिहास एवं शिल्पकला की बहु- बहुलता मे प्राप्त होते हैं । वितीर्थी प्रतिमानों में दो नमूने मूल्य धरोहर बन गई हैं। इन मूर्तियों के दर्शन कर उन बड़े महत्वपूर्ण एवं इतिहास तथा पुरातात्विक दृष्टि से शिल्पियों के प्रति श्रदा एवं कृतज्ञता से मस्तक झुक जाता उपयोगी और कलापूर्ण लगे। प्रथम तो बाहुबली, ऋषभहै और उनका पुण्य स्मरण किए बिना नही रहा जाता। देव एवं भरत की त्रितीर्थी है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है देवगढ़ की मर्तियां पदमासन और खड्गासन (कायो. बाहुबली के चारों ओर माधवी लताओं एवं वमीठों का स्मर्ग मुद्रा) दोनों ही मुद्राओं की उपलब्ध हैं। यहाँ तीर्थकर चित्रण कलापूर्ण है तथा भारत के पादपीठ में भारत की प्रतिमाओं के अतिरिक्त उनके शासन देवता, यक्ष यक्षणियो मान चित्र अंकित है। यह मानचित्र अविभाज्य है जिसमें अष्टप्रातिहायो, कुबेर, सरस्वती अम्बिका, मयूरवाहिनी श्याम, वर्मा प्रादि सम्मिलित हैं पर नीचे श्री लंका का आदि की भी प्रतिमाएं उपलब्ध है। यहां कुछ जैन ऋषि कोई नामोनिशान नही है। बीच में भ. बादिनाथ की मुनियों की चरण पादुकाएँ भी प्राप्त है। पहा के मान कायोत्सर्ग प्रतिमा उत्कीर्ण है। इस त्रितीर्थी प्रतिमा से Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ पुरातत्त्व को संभाल ज्ञात होता है कि तब तक अर्थात् १०वी-११वी सदी तक सुरक्षा हेतु प्रयत्न क्यिा, फल स्वरूप इस क्षेत्रका काफी यह धारणा प्रामाणिक थी कि भारतवर्ष १० ऋषभदेव के विकास और सुधार हुआ। परमपूज्य श्रदेय प्राचार्य विद्यापुष भरत के नाम पर ही विख्यात था, न कि दुष्यन्त सागर जी महाराज ने यहां तुर्मास की स्थापना कर सोने शकुन्तला के पुत्र भरत पर। यह त्रितीर्थी प्रतिमा चौकोर मे सुहागे का कार्य किया फलत: यहां जीर्णोद्धार का कार्य है और लगभग दो मीटर लबी चौड़ी होगी। देखें मारुति- द्रुतगति से चला और आज यह क्षेत्र पूर्णतया दर्शनीय एवं नंदन तिवारी कृत "जैन प्रतिमा विज्ञान" नामक ग्रथ का पूजनीय बन गया है फिर भी और बहुत सा कार्य बाकी है, ७०वां चित्र जिसमें बाहुवली और ऋषभदेव का चित्र अभी जगह जगह मूर्तियां पड़ी है, कुछ खण्डित हैं उन सब मन्दिर में स्थानाभाव के कारण नही आ सका। को यथावत् प्रतिष्ठित करना है। फिर भी अब तक जो दूसरी त्रितीर्थ है भ० नेमिनाथ की जिसके आस पास कुछ हो गया है उसे देखकर बड़ा सन्तोष और प्रसन्नता दोनों ओर कृष्ण और बलराम की मूर्तिया अकित है देखो हुई। डा. बाहुबली जी इस दिशा में अत्यधिक प्रयत्नउपर्युक्त ग्रंथ का २७वां चित्र । यहां के मन्दिरो के तोरण- शील है। द्वार जिस तरह विभिन्न लताओं, फूलों, बेलबूटो एव पर यहा पुगतस्व और इतिहास के साथ जो खिल. घंटा घडिपानों में कहे व देखते ही बनत है । मान. वाह और छेड़छाड़ हो रही है उसे देखकर बड़ी पीड़ा हुई। स्तंभों को किन कलात्मक ढगो से सजाया सवारा है कि कुछ विद्वानो या मुनिजनों के बादेश उपदेश से यहां की देखते ही आखे अश्रुपूरित हो पुलकित हो उठती है। मन मूतियों में फेर बदल और हेरा फेरी हो रही है। जैसे कि मे ऐसी भावना उत्पन्न होती है कि काश वे शिल्पी आज कुन्दकुन्द की गाथाओ को लोग मनमाने ढंग से तोड़ मरोड़ मिल जावें तो उनके हाथ और छनी हथौड़े चम लिये जा रहे है उसी तरह यहां प्राचीन मूर्तियों में बिह्न उकेरे जा जिन्होंने देवगढ को ऐसा गरिमामय एव सौन्दर्यपूर्ण शिल्प रहे है जब कि मूल रूप से ऐसा कुछ नहीं है। इससे भावी प्रदान किया है । काल के प्रभाव से तथा हजारों वर्षों की पुगत वनिदो को अनेकों प्रान्तियों का सामना करना सर्दी, गर्मी, बरसात ने एवं आततायियों के क्रूर आक्रमणो पड़ेगा। कुछ मूर्तियों को एकत्रित कर बीबीस की संख्या के कारण देवगढ़ का कला वैभव ध्वस्त एवं नष्ट-भ्रष्ट हो मे स्थापित कर उन भूतकाल की चौबीसी का मन्दिर बना गया था जिससे पिछली कई सदियो तक देवगढ उपेक्षित दिया गया है हर वेदी पर भूतकाल के प्रत्येक तीर्थकर का पड़ा रहा किसी को स्वप्न में भी खबर न थी कि यह प्रदेण नाम भी लिख दिया है यहां तक तो ठीक है पर उन कभी कला की दृष्टि से इतना वैभव सम्पन्न रहा होगा। मतियों पर भी उन तीर्थंकरों के नाम उकेर दिये हैं जो भारतीय पुरातत्व के पितामह जनरल कनिंघम ने सर्वथा अनुचित है, ऐसा ही स्थिति भविष्यत् काल की उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में अन्य स्थानो की खोज की चौबीसी के मन्दिर की कर डाली है। जबकि इन भूत भांति जब देवगढ़ को खोज निकाला तो इसके कला वैभव भविष्यत् चोबीसियो मे एक रूपता या समानता नहीं है को देखकर उनकी बाछे खिल उठी और इसके महत्व को और ना ही इनका कोई पुरातात्विक या ऐतिहासिक उन्होंने अपनी सर्वे रिपोर्ट मे उल्लेख किया फिर भी जैन अस्तिस्त्र उपलब्ध होता है। इस तरह की पुरातात्विक समाज कुम्भकर्णी निद्रा में सोता रहा । अभी विगत तीस धोखाधड़ी और हेरा फेरी कालान्तर में जैन पुरातत्व को सालों मे स्व० साहू शान्तिप्रसाद जी का ध्यान इस ओर बहत धातक सिद्ध होगी और हमारी एतिहासिक प्रमागया और उन्होंने देवगढ़ के जैन शिल्प से प्रभावित हो णिकता पर प्रश्न चिह्न लग जावेंगे अतः इम दुष्प्रवृति को इसके जीर्णोद्धार हेतु स्वोपार्जित विपुल धनराशि दान मे तुरन्त ही रोका जाय । दी, यहाँ एक म्यूजियम स्थापित कराया तथा केन्द्रिय देवगढ़ का प्राचीनतम नाम इतिहास और पुरातात्विक शासन का इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल बनाने हेतु ध्यान लुअच्छगिरि के नाम से विख्यात था। जब११वी सदी में भाषित किया तथा भारतीय पुरातत्व विभाग से इसको चन्देल नरेश श्री कीर्तिवर्मा का शामन बाया तो देवगढ़ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ४४, कि० ३ अनेकान्त कोतिनगर नाम से विख्यात हुआ जिसका उल्लख भ० कि यहा को पुरातात्विक संपदा में किसी भी तरह की शान्तिनाथ के मन्दिर के सामने स्थित विशाल शिला छेड़छाड़ या फेर बदल न करें जो जिस स्थिति में है उसी स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसके बाद इसका नाम देवगढ़ स्थिति में रहने दें।" हा, जो खण्डित मूर्तियां हैं और उनके कब और कैस पड़ा इस विषय में इतिहास और पुरातत्व नाक कान हाथ पर आदि का जीर्णोधार करना है तो वह सर्वथा मोन है। लगता है देव प्रतिमाओ को बहुलता के किसी विख्यात पुरातत्वविद् के निर्देशन मे ही किया जाय, ही कारण इसका नाम देवगढ़ पड़ गया हो जो अब तक पागम ग्रंथों में फेर बदल को भाति इनमें मनमाने ढंग से तक चला आ रहा है। यहां स. १४८१ म विरूपात धन- अला ज्ञानवश किसी तरह का खिलवाड़ न किया जावे। श्रेष्ठी मिघई होलीचन्द्र नाम से एक प्रमित धर्मनिष्ठ श्रद्धेय आचार्य विद्यासागर जी महाराज से निवेदन करुगा श्रावक हुए थे जिन्होने अपने गुरु आ वायं पदमनदी ओर कि जिस वट वृक्ष का उन्होंने पुष्पित एव पल्लवित किया उनको गुरु परम्परा के प्रथम संस्थापक आचार्य वसन्तकीर्ति है और ऐसा सुन्दर सलोना स्वरूप प्रदान कराया है उसे की प्रतिमाएं स्थापित कराई थी जो काल प्रभाव के कारण आन्तरिक रूप से दूषित एव विषाक्त और अप्रमाणित होने आज अनुपलब्ध है, पर इन सबका द्योतक एक विशाल से बचाने में अपने प्राशाव चना का प्रयोग कर जंन पुराशिलालेख कलकत्ता म्यूजियम में विद्यमान है, इसमे तत्व की रक्षा करें। समाज के विख्यात पुगतत्वविद् भी सस्कृत क ७५ श्लोक है। सिंघई हालीचन्द्र क सलाह. इस ओर ध्यान दे और ऐसे अप्रमाणिक कार्यो को न होने कार एव परम विद्वान मित्र श्री शुभसोम, धी गुणकीति । दिसबर जनवरी में शायद वहां पचकल्याणक प्रतिष्ठा श्री वर्लमान और श्री परपति नाम के चार सहायक थे या गजरथ चल दस अवसर पर यहां हुई इस पुरातत्व जिनके सत्परामर्श पर ही सवाचित होलीचन्द्र ने पर सबधी छेडछाड की समीक्षा हो तथा उसका निराकरण पुनीत कार्य किया था। यह विस्तृत शिलालेख एक ६ फूट किया किया लाव। लम्बे ३ फुट चौड़े तथा १-१/२ फुट मोटे विशाल शिला श्रुत-कुटीर, ६८ विश्वास मार्ग, खर पर उत्कीर्ण है। विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली "अंत मे देवगढ़ की प्रबंध समिति से निवेदन करूगा श्री नन्हें दास के दो आध्यात्मिक पद (१. राग रामकली) (२. राग गौरी) चलि पिय वाहि सरोवर जाहि । मन पछी उडि जैहें । जाहि सरोवर कमल, कमल रवि विन विगसाहिं। जा दिन मन पंछी उडि जैहे, अति हो मगन मधुकर रस पिय रगाह माहि समाहिचल. ता दिन तेरे तन तरुवर को नाम न कोक लेहें मन पहुप वास सुगध सीतल लेत पाप नसाहिं ॥ चल. फुटी पार नीर के निकसत, सूख कमल मुरझं। मन एक प्रफुल्लित सद दलनि मुख नहिं म्हिलाहिं ।। चल. कित गई पूरइन कित मई सोभा जित तित धुरि उहें मन, गुंजवारी बैठि तिन एव भमर हुई विरमाइ॥ चल. जो जो प्रीतम प्रीति कर है सोऊ देख डरैहैं ।। मन हस पछी सदा उझुल तेउ मलिमलि हा ।। चल. जा मदर सो प्रेत भये ते सब उठि उठि खेहे ॥ मन० अनगिनै मुक्ताफल मोती तेऊ चुनि चुनि खाई , चब. लोग कुटम सब लकड़ो का साथी आग कोउ न जैहें।। मन अचिरज एकजु छल छल समुझि लेऊ मन माहि ।। चल० दहरी लो मेहरी को नातो हस अकलो उड़ि हें ।। मन अब बिनि उड़ उदास 'नन्हें बहुरि उडिवो नाहि ।। चल. जा संसार रन का सपना कोउ काऊ न पतियहें ॥ मन. 'नन्हें दास' वास जगल का हस पयानो लैहें । मन पंछी. -बी कुम्बन लालन के सौजन्य से Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षी भाव 0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली मन से मुक्त होने का मात्र एक ही उपाय है वह है विकार रहा न आगे की, भविष्य की आकुलता रही, साक्षी भाव । साक्षीभाव का अर्थ होता है प्रतिरोध न करे। बीते की याद रही, मात्र साक्षीपन बना हुआ है। क्योंकि जैसे ही प्रतिरोध किया, कर्ताभाव आ जाता है। अगर हम नदी या नालाब मे उतरेंगे तो पानी मैना हमारे मन में हर समय विचागेका कल्पनाओ का हो जायेगा परन्तु यदि किनारे बैठकर देखते रहें तो कुछ तांता लगा हुआ है, रात सपने देखते हैं, दिन विचार ममा बाद मैला नीचे बैठ जावेगा । किनारे बैठकर देखते चलते हैं हम इन विचारों और विकल्पों के साथ एक हो रहना है। अगर हमने यह क्यो हुआ, ऐसा नहीं होना जाते हैं। किसी विचार को बुरा मान लेते हैं। जिसको चाहिए था नब माक्षीभाव नही बनेगा। परन्तु यह माम बुरा मानते हैं उसको भगाना चाहते हैं। जितना भगाने कर चलें कि जो विचार उठ रहे हैं वही उठने के है उममे का उपाय करते हैं उतना ही वह गाढ़ा होता जाता है। कुछ अच्छा बुरा नहीं है । यह तो कर्म का मला है उसके जैसे गेंद को दीवाल पर जितने जोर से मारो वह उतने अनमार हो रहा है और मैं जान रहा हूँ मैं जानने वाला ही जोर से वापिस आती है । अगर दीवाल पर न मारे तो हूं इनको बदली करने वाला अथवा रोकने वाला नही हूं वापिस ही नही आती। जितने हम विचारो और कलानाओ तब यह साक्षीभाव बनेगा । जहाँ गाक्षीभाव बना, विकल्प का विरोध करते हैं उतना ही उनका घिराव बढ़ता है। का कार्य खतम होने लगेगा। जब मन का काम नही रहा दिन की जगह रात को सपनं मे घिराव हो जाता है। नब संसार ही नही रहा । अब उसको किमी नाम से कहें अत: उनका विरोध मत करो, उनसे लड़ें नहीं, उनको कुछ देर के लिए शांत होकर बैठ जावो। शरीर को निढाल दबाये नहीं। नहीं तो दबाने दबाने मे जिंदगी नष्ट हो छोड दो फिर मन की धारा को देखते रहो, और कुछ भी जायेगी । तब यह सवाल पैदा होता है अगर विचारो को न करो, न मंत्र, न भगवान का नाम । यह तो मन के खेल नहीं दबावे तो अनाचार फैल जावेगा, आचरण बिगड़ हैं। तुम अपने जीवन के ही दृष्टा बनो। खुद का जीवन जावेगा । दबावे नही तब क्या करे ? इसका उत्तर है कि भी ऐसे देखो जैसे वह भी एक अभिनय है। यह पत्नी, विचारों का साक्षी बने अगर दबाते हैं तो कर्ता बन बच्चे, परिवार, धन-दौलन मब अभिनय के अंग हैं। हमे जाते हैं जब कर्ता न बने तो ज्ञाता रह जाते है। यह अभिनय करना पड़ रहा है । यह पृथ्वी की बड़ी मच दर्पण के समान मात्र ज्ञाता रह जावे। न उन विचारो की है। जिसने अपने को कर्ता समझा वही चक गया, जिसने प्रशंसा करनी है, न पश्चाताप करना है मात्र साक्षीभाव अपने को अभिनेता जाना उसने पा लिया। जिसको पाना देखते रहना। जब हम उसको देखते हैं तो वह दृश्य बन है वह दूर नही है । मिला ही हुआ है सिर्फ उसकी रफ जाता है और देखने वाला दृश्य से अलग हो जाता है तब हम पीठ किये हुए हैं। मुंह उधर कर लेना है। यह साक्षीहमारी शक्ति उसमे नही लगती, देखने मे लगने लगती है। भाव ही साधन है और यही साह है। वास चले और जैसे जैसे देखने पर जोर आता जाता है वैसे वैसे दृश्य दूर साक्षी रहे। श्वास भीतर आई हमने देखी, श्वास बाहर होता जाता है। फिर एक समय आता है तब दृश्य नहीं गयो हमने देखी, बस मात्र श्वास के दृष्टा रहना है । उसने रहता मात्र दृष्टा रह जाता है। यही समाधि है। जो हो अपने जीवन मे व्यर्थ को छोड़ दिया और सार्थक को पकड़ रहा है, उठ रहा है उसको दबाने की चेष्टा न रे, उसमें लिया। जब श्वांस का दृष्टा बनना है तब न भविष्य का भला बुरा न माने, मात्र जो हो रहा है उसको जानने को विकल्प बनता है न भूतकाल की याद । मात्र श्वांस को पेष्टा करे और पूर्ण ताकत लगाकर मात्र उसको जाने। आते जाते देखता है। जोर श्वास लेने पर नहीं रहकर श्वास अगर ऐसा हुआ तो हम पायेंगे किन विचार रहा, न (शेष पृ० २२ पर) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनसेन की काव्य कला _) एम. एल. जैन, नई दिल्ली जिन महानुभावों ने जिनसेन का स्वाध्याय किया है माता मरुदेवी के गर्भाधान के पश्चात का प्रसंग है। वे जानते हैं कि महाकवि एक ओर दर्शन शास्त्र के अधि- माता का मनोरंजन करने के लिए देठिया आई हैं और कारी थे तो दूसरी ओर अप्रतिम प्रतिभा वे साहित्यकार नाच गान के साथ-माथ काप गोष्ठी भी करती हैं जिसमें भी। जहां अपने गुरु वीरसेन की अधूरी धवला टीका को व्यानस्तुनि आदि अलकारो के साथ-साथ पहेलियां, एकापूर्ण कर जिनवाणी का अक्षय-कोष भरा वहां महापुराण लपक, क्रिया गुप्त, गूडक्रिया, स्पष्टान्धक, समानोपमा, का लेखन भी किया। इसके प्रथम भाग आदि पुराण को गल चतुर्थक, निरीग, बिन्दुपान, बिन्दुच्युत, मात्राच्युतवह पूरा नहीं कर पाये किन्तु जितना कुछ लिखा उरासे प्रश्नोतर, व्यजनच्युत, अक्षरच्युतप्रश्नोत्तर, यक्षरच्युत, उमको व्याकरण, कोष, छन्द अलंकार व साहित्य के विविध एकाक्षरच्युत, निन्हुवै कालापक, बहिापिका, अन्तलापिका, आयामों की व दिशाओ की जानकारी पद पद पर अकित आदि विषम मनरालापक, प्रश्नोत्तर, गोमूत्रिका, अर्धघ्रम है। देखा जाए तो प्रादिपुराण की शैलो सस्कृत-काव्य जैसे छन्दो का मनोहारी सरस प्रयोग है। कुछ नमने पेश हैंसाहित्य की निगली शैली है। विशाल विद्वत्ता के कारण पहेली नाभभिमतो गास्त्वयि रक्तो न कामुकः, यह शैली एक और व्यास, कालिदाम, माघ आदि कवियो न कुमो प्यधर कान्त्या यः सहोजोधर स कः । से मुबला करती है तो दूसरी ओर बाण, हर्ष आदि इस पहेलो का जवाब पहेली पही रखा है। देवी पूछती हैसाहित्यकारोकी बराबरी करती है। नवी शताब्दी तक प्राप्त आप में रक्त (आसक्त) होते हुए भी जो नाभिराजा को संस्कृत काध्य कला की सारी तकनीक इस अकेले महाकाव्य अभिमत (प्रिय) है, कामुक भी नहीं है, अधर (नीचे) भी मे सर्दाशत है। आइए इसका थोडा-सा आनद बांटा जाए। नही है, कान्नि के कारण वह मदा ओजधर (भोजस्वी) - रहता है, वह कोन है ? (१०२१ का शेषांश) देखने पर, देखने वाले पर रहना चाहिए । जब यह अभ्यास __ माता मरुदेवी का उत्तर है-अधर क्योकि अधर न गहरा होगा तब अन्य कार्य करते हुए भी ज्ञाता पर जोर __ स्वय कामुक है, शरीर के नीचे भाग में स्थित नहीं है, सदा आ जायेगा और तत्काल ऐसा लगेगा वह काम तो हो रहा कान्तिमान है और पति नाभिराय को प्रिय है ही। है परन्तु में जान रहा हूं, इसी रास्ते से आगे बढ़ने का कियागुप्त : नयनानन्दिनी रूपसंपद ग्लानिमम्बिके, उपाय होता है। उस समय भूत, भविष्यत् की बुद्धिपूर्वक आहाररतिमुत्सृज्य नानाशानामृतं सति । वाली चिन्ताओं के रुकने से जो शांति का आभास होगा वह इस पच मे 'नय' और 'अशान' क्रियाएं गप्त हैं। परमशांत अवस्था का नमूना है। पं. प्रार टोडर मल जी हे सति, हे माता आप आनददायिनी रूप संपत्ति को साक्षीभाव के लिए यह लिखाहै-"साक्षी मत तो वाका ग्लानि में न लाएं (नय न) आहार से प्रेम छोड़कर'नाना नाम है जो स्वयमेव जैसे होय तसे देख्या जान्या करै । जो प्रकार के अमृत का भोजन कीजिए (भशाम)। इष्ट अनिष्ट मानि राग-द्वेष उपजाव ताको सानीभूत कैसे स्पष्टान्धक: कहिए जातै साक्षीभूत रहना बर कर्ता हत्ता होना ये दोऊ वटवृक्ष. पुरोऽय ते घनच्छाय: स्थितो महान, परस्पर विरोधी हैं। एक के दोउ सम्भव नाहीं।" म इत्युक्तोऽपि न त धर्मश्रित कोऽपि वदावभूतम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य बिरसेन की काव्य कला २७ देवी का सवाल है-यह गहरी छाया वाला बड़ा बड़ इस पद्य में तोयं व जल गन्द पानी के लिए दो बार का पेड़ पापके सामने खड़ा है ऐसा कहने पर भी धूप में प्रयोग होने से जलं का बिन्दु लोप करके जल मकरदारुणम् बड़ा कोई व्यक्ति वहां नही गया-बताइए यह कैसा पाठ किया जाता है। इसी प्रकार प्रारंभ के मकरदारुणम् माश्चर्य है? बिन्दु लोप करके मकरदारुणम् तथा अंत के मकरदारुणम् जवाब में माता कहती है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं में बिन्दु जोड़कर मकरंदारुणम् पाठ प्रामानी मे करके भी क्योंकि दर असल इसका अर्थ इस प्रकार है वही अर्थ सारे पद्य का निकाला जा सकता है। वटवृक्ष (वट+वृक्ष अर्थात् हे वट्, यह रीछ) तेरे आदिव्यञ्जन पृथक सामने घनश्छायः (बादल के समान काला) बड़ा भारी बराशनेषु को कच्य: को गम्भीरो जलाशयः, खड़ा है ऐसा कहने पर भला कौन वहां जाता चाहे धूप का कान्तस्तव तन्वागी वदादिव्यजनैः पृथक् । में ही क्यों न खड़ा हो। हे तम्वांगि उत्तम भोजनों में रुचि बढ़ाने वाला क्या निरोष्ठय: है ? गहरा जलाशय क्या है और श्रापका पति कौन है? जगजयी जितानङ्गः सता गतिरनम्तदक, तीनों प्रश्नों के जवाब मे आदि ग्यजन पृथक् हो ? श्लोक तीर्थकृत्कृत कृत्यश्च जयतात्तनयः स ते । में जवाब नहीं है किन्तु कवि ने लिखा है कि माता मा. इस पद्य का अर्थ सरल है किन्तु इसमे उकार पवर्ग देवी का जवाब था-'सूप', 'कूप' और 'भप' । और उपध्मानीय अक्षर नही है। गोमूविक: एकाक्षर च्युतः गो मूत्र के समान ऊँचे नीचे वाले छन्द का नाम का-कः श्रयते नित्यं का-की सुरतप्रियाम्, गोमत्रिका होता है-देवी कहती है-- का-नने देदानी च-रक्षरविच्युतम् । त्वमम्ब रेचितं पक्ष्य नाटके सुरसान्वितम्, देवी पूछती है-हे माता, किसी वन में एक कौआ स्वमम्बरे चितं वैश्यपेटकं सुरसारितम् । सम्भोगप्रिय कांगली का निरन्तर सेवन करता है परन्तु हे माता नाटक में होने वाले रसीले नत्य को देखिए, इसमें चार अक्षर कम है। तथा देवों द्वारा लाया हुआ और आकाश मे एक जगह मरुदेवी ने पूर्ति की इकट्ठा हुआ यह अप्सराओं का समूह भी देखिए। कामुकः श्रयते नित्य कामुको सुरतप्रियाम् , इस गोमूत्रिका को समझने के लिए निम्न चित्र कान्तानने वदेदानी चतुरक्षर विच्युतम् । देखिएहे सुन्दरमुखी, कामी पुरुष सम्भोग प्रिय कामिनी का त्व व चि प ना के रवि सदा सेवन करता है। इस प्रकार चारो एकाक्षर की पूर्ति म रे त श्य ट सु सा तं कर दी। बिन्दु ध्युतः बींध की पंक्ति के अक्षर दोनों श्लोकाधों में है इन्हीं मकरन्दारुणं तोय धत्ते तत्पुरखातिका, की वजह स गोमूत्र सम पंक्ति निर्मित हो सकी है। बीच साम्बुजं क्वचिदुबिन्दु चलत् मकरदारुणम् । की पंक्ति के अक्षरों को दोनों ही प्रथम व तृतीय पक्ति देवी वर्णन करती है - उसके नगर की परिखा ऐसा पड़ने में साथ में पढ़ना होगा। जल धारण कर रही है जो लाल कमलों के पराग स लाल इस विशिष्ट कवि गोष्ठी के अतिरिक्त सर्ग १९ ऐसी हो रहा है, कहीं कमलों से सहित है, कहीं उड़ती हुई जल विशेषताओं से भरा पड़ा है। देखिएकी छोटी-छोटी बूंदो से शोभायमान है और कही जल में सानूनस्य दुतमुपयान्ती धनसारात् चले रहे मगरमच्छ बादि से भयंकर है। सारासारा जलदघटेय समसारान Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, बर्ष ४, कि. ३ अनेकान्त तारातारा परणिधरस्य स्वरसारा इधर देवों से शोभित (सुरकान्ते) धन के बीच में साराद् व्यक्ति मुहरुपयातिस्तनितेन ॥१७॥ (वान्ते) तालाब में यह आने जाने वाली (सारासारा) सारासारा सारसमाला सरसीयं सारं सारस पंक्ति (सारसमाला) जोर से (सारं) कूजन कर कूजत्यत्र बनान्ते सुरकान्ते । रही हैं ॥१७६॥ सारासारा नीरदमाला नभसीयं तारं आकाश मे जोर से बरसती (सारासारा) और शब्द मद्र निश्वनतीतः स्वनसारा। करती हुई यह मेघमाला उच्च और गम्भीर स्वर से गरज धित्वास्गाद्रेः सारमणीद्ध तटभाग सारं तारं चारुतरागं रमणीयम् । ___संभोग बाद इस अद्रि के श्रेष्ठ मरिणयों से देदीप्यमान सम्भोगान्ते गाति कान्त रमयन्ती (सारमणीड) अतिशय सुन्दर तट भाग पर आश्रय लेकर सा रन्तारं चारुतरागं रमणीयम् ॥१७६-१७७।। उस पति को जो रमण करने के योग्य है (रंतारं) श्रेष्ठ व विजया पर्वत का वर्णन किया जा रहा है- निर्मल व सुन्दर शरीर वाला है प्रसन्न करने के लिए यह उत्कृष्ट वेग से बरसने वाली (मारासारा) तारा (रमयन्ती) कोई स्त्री उच्च स्वर से मनोहारी गायन कर के समान अतिशय निर्मल (तारा तारा) यह जलद घटा रही है । इस धरणीधर की एकसी ऊँचाई (समसारान्) वाले शिखरो इस काव्यानद के लिए पं. पन्नालाल जी द्वारा (सानन) के पास पार बार (मुह.) जल्दी मे (हुतं) जोर सपादित अनूदित आदिपुराण प्रथम भाग का महारा लिया से (घनसारात) आती है किन्तु जब गरजती है (स्तनितेन) गया है । रसास्वादन के अरिरिक्त प्रस्तुत लेखक का कोई तब ही व्यक्त होती है (वर्ना पता ही नही चलता) ॥१७५॥ योगदान नही है। 10 सही क्या है ? एक प्रश्न जिनसेन प्रथम के हरिवंशपुराण (७५३ ई.) के सर्ग ८, श्लोक १७६-१७७ मे भगवान आदिनाथ के कान कुण्डलों की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है कर्णावक्षतकायस्य कथंचिद् वज्रपाणिना, विद्धौ वज्रघनौ तस्य वज्रसूचीमुखेन तो। कृताभ्यां कणयोरीशः कुण्डलाभ्यामभात्ततः, जम्बूद्वीपः सुभानुभ्यां सेवकाभ्यामिवान्वितः ।। ऐसे अक्षतकाय जिन बालक के वज्र के समान मजबूत कानों को इन्द्र वज्ञमयी सूची की नोक से किसी तरह वेध सका था। तदनंतर कानों मे पहनाए हुए दो कुण्डलों से भगवान् इम तरह शोभित हो रहे थे जिस तरह कि सदा सेवा करने वाले दो सूर्यों से जम्बूद्वीप सुशोभित होता है। जिनसेन द्वितीय ने आदिपुराण (८४८ ई.) के चतुर्दश पर्व नोक १० में बताया है ___ कर्णावविद्ध सच्छिद्रो कुण्डलाभ्यां विरेजतुः । कान्तिदीप्ती मुखे द्रष्टुमिन्द्राभ्यिामिवाभितो॥ भगगन के दोनो कान बिना भेदन किए ही छिद्र महित थे। इन्द्राणी ने उनमे मणिमय कुण्डल पहनाए थे, जिममे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों भगवान् के मुख की कान्ति और दीप्ति को रखने के लिए सूर्य और चन्द्रमा ही उनके पास पहुचे हों। शंका यह है कि क्या तीर्थंकरों के कान बिना भेदन के जन्मजात सछिद्र होते थे अथवा इन्द्र वज सूची से उनका कर्णभेदन संस्कार करता था? क्या तीर्थ करों की मूर्तियों में कान सनि दिखाये जाते हैं ? पाठक शंका समाधान सम्पादक अनेकान्त को लिखकर करने की कृपा करें। -मांगीलाल बैन, नई दिल्ली Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द की प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज । डॉ. ऋषभचन्द्र जैन फौजदार प्राचीन प्राकृत आगम परम्परा में कुन्दकुन्द का पाण्डुलिपियो की खोज का कार्य प्रारम्भ किया। इस सातिशय महत्व है। इसीलिए भगवान महावीर के प्रमुख मन्दर्भ में वेश-विश के शोध संस्थानों, पाण्डुलिपि संग्रहाशिष्य गौतम गणधर के साथ उनका स्मरण किया जाता लयों, मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों, निजी संग्रहों के स्वामियों है। उनके ग्रन्थों में श्रमण परम्परा का सांस्कृतिक इति- विद्वानों गे पत्राचार द्वारा नियमसार की पाण्डुलिपियों की हास सुरक्षित है। भाषा की दृष्टि से भी उनके ग्रन्थ जानकारी हेतु निवेदन किया है। राजस्थान, दिल्ली एवं विशेष महत्वपूर्ण हैं। कुन्दकुन्द के प्रथों में ऐसे विषय मध्यप्रदेश के कतिपय प्राचीन शास्त्र भंडारों में स्वयं सुरक्षित हैं, जो अन्य आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। अभी जाकर सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण से प्राप्त कतिपय महत्वभी भारत तथा विदेशों में कुन्दकुन्द के ग्रंथों की शताधिक पूर्ण सूचनाओ का उल्लेख मैंने अपने विगत लेखों मे पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं । आज तक उनका पूरा सर्वेक्षण किया है। नहीं हुमा। सर्वेक्षण के अभाव में उनके ज्ञात सभी ग्रन्थ नियमसार के प्रकाशित संस्करणों की प्रस्तावनाओं उपलब्ध नहीं हो पाये। सभी शास्त्र भंडारों का सर्वेक्षण मे चार पालिपियों की सूचना प्राप्त हुई। किन्तु उनमें होने पर उनके अन्य ग्रन्थ भी मिलना सम्भा है, जो आज से एक पांडुलिपि उपलब्ध नहीं हुई। प्रथम संस्करण तक मात्र सूचनाओ में है। उनके उपलब्ध ग्रन्थों की पाड. उपयोग की गई पांडुलिपि भी शास्त्रभंडार में उपलब्ध लिपियों की सूची भी प्रकाशित नहीं हुई, इससे यह नहीं है । अन्य तीन से पूरे सम्पर्कसूत्र प्राप्त नही हो पाये। निश्चित रूप से कह पाना सम्भव नहीं है कि किस ग्रन्थ नियमनार की पापलिपियों की खोज के दाम में मैंने की कितनी पाण्डुलिपियां कहां सुरक्षित है। देश-वदेश के गभग पचास पांडुलिपि संग्रहालयों की कुन्दकुन्द के प्रत्येक ग्रन्थ के अनेक संस्करण निकले। ग्रन्थसूचियों (कैट लाग्म) का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण हैं। उनमें प्राय एक-दो प्राचीन पाण्डुलिपियों का उपयोग से लगभग तीस पांडुलिपियों की सूचना मिली है। उन हआ है । सम्पादन और पाठालोचन के अभाव में अध्ययन सबकी फोटो या जीराक्स प्राप्त करने हेतु सम्पर्क किया अनुसन्धान भी गलत दिशा में जा रहा है । अतः मम्पादन जा रहा है। नियमसार की एक पांडुलिपि स्ट्रासवर्ग लायपाठालोचन के मान्य सिद्धान्तों के आधार पर कुन्दकुन्द ब्रेरी जर्मनी में भी सुरक्षित है। उसे प्राप्त करने हेतु प्रयत्न हो रहे है। के प्रन्थों के प्रामाणिक संस्करण अत्यन्त आवश्यक हैं। गजस्थान की मर्वेक्षण यात्रा में चार नयी पांडुलिपियों कुन्दकुन्द के दो हजारवें वर्ष में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व की जानकारी मिली। उनमे दो महापूत चैत्यालय, अजमेर विद्यालय के प्राकृत एवं जैनागम विभाग में उक्त कार्य तथा दो मिद्धकूट चैत्यालय अजमेर की है। इनमें से दो प्राकृत एवं जैनविद्या के मान्य विद्वान् प्रोफेसर गोकुलचन्द्र पांडुपिया मू। गाथाओं की हैं। एक हिन्दी टीका तथा बैन के निर्देशन में आरम्भ हुआ है। मैं उक्त विभाग मे एक सम्कत टीका गहित है। मध्यप्रदेश के सर्वेक्षण में य० जी० सी० प्रोजेक्ट के अन्तर्गत नियमसार का पाठा गौराबाई दि० जैन मन्दिर, कटरा बाजार, सागर के मंदिर लोचन पूर्वक सम्पादन कर रहा हूं। अन्य ग्रन्थों पर दूसरे में एक पांडुलिनि की सूचना मिली, किन्तु पांडुलिपि वहां विद्वान् कार्य कर रहे है। उपलब्ध नही है। इन दो सर्वेक्षण यात्रामो में पांच नई सम्पादन योजना के अन्तर्गत मैंने नियमसार की पांडुलिपियों की सूचनायें प्राप्त हुई हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ,कि.. अनेकान्त नियमसार की अब तक प्राप्त पांडुलिपियों का संक्षिप्त ६. वि. जैन मन्दिर पार्श्वनाथ चौगान, दो विवरण निम्नलिखित हैं: इसमें मूल प्राकृत गाथाएं तथा हिन्दी भाषा टीका है। १. आमेर शास्त्रमंडगर, जयपुर (संख्या ५८६) इसकी पत्र संख्या १५३, पंक्तियां प्रति पृष्ठ १२ तथा प्रति इसमें मलप्राकृत गाथायें, संस्कृत छाया तात्पर्यवत्ति पंक्ति अक्षर संख्या ३८.४० है । संवत् १९७६ में प्रति संस्कृत टीका है। इसकी पसंख्या १२६ है। प्रत्येक पृष्ठ तैयार की गई है । हिन्दी टीका प्र० शीतलप्रसाद कत है। पर पंक्तिया है। प्रत्येक पंक्ति में अक्षरों की संख्या ३:. ऐसा नियमसार के प्रथम संस्करण की भूमिका से स्पष्ट १६ तक है। इसकी मूल पांडुलिपि साह राजाराम के है, जो स्वयं ब्र. शीतलप्रसाद द्वारा सम्पादित एवं हिन्दी पढ़ने के लिए महात्मा गोबर्द्धन ने पाटसनगर में संवत ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित है। डा. १७६९ में लिखी थी। उसी से संवत १८२४ में यह प्रति- कस्तूरचन्द्र कासलीवाल ने राजस्थान के शास्त्र भंडारों की लिपि की गई है। सूची भाग ५, पृ० ७० पर भाषा टीकाकार जयचन्द २. आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर (५८८) छाबड़ा को लिखा है। प्रति के लेखनकाल में भी १२ वर्ष यह मूलप्राकृत, संस्कृत छाया एवं तात्पर्यवृत्ति संस्कृत का अन्तर है। इसकी एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन आरा टोका सहित है। इसकी पत्रसंख्या ८४ है। पंक्तियां प्रति के संग्रह में है। पत्र संख्या १२० है। लिपिकार संवत् पृष्ठ ११ हैं। यह संवत् १९३७ की पांडुलिपि से सं० १९१५ १९७७ है। में प्रतिलिपि की गई है। इसकी एक अन्य प्रति महापूत चंत्यालय, सरावगी मुहल्ला, अजमेर में भी है । यह संवत् १९८६ में लिखी ३. सरस्वती भवन, मंदिरजी ठोलियान, जयपुर (संख्या ३१७) ७. सेनगण दि. जैन मन्दिर, कारंजा यह प्रति मूलप्राकृत, संस्कृतछाया, तात्पर्य वृत्ति संस्कृत प्रति में मलप्राकृत, संस्कृत छाया, तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका सहित है। पत्र संख्या १२७ तथा प्रतिपृष्ठ पक्ति टीका है। पत्र संख्या १५६ है। प्रत्येक पृष्ठ पर पंक्तियाँ संख्या है। इसमें दो प्रकार की लिपि है। अन्तिम हैं तथा प्रति पंक्ति अक्षर संख्या २६-३० है। प्रति में प्रशस्ति मे लिपिकाल सूचक श्लोक इस प्रकार है-- लिपिकाल का उल्लेख नहीं है।। "सयत रुपानायगाषिचन्द्रे मासे सिते तिनि मार्गशीर्षे। नायगजाषचन्द्र मास सित वातान मागशाषा . ८ सिद्धकट चैत्यालय, अजमेर षष्ठयां तिथो संलिखितो मयष ग्रंथो विगार्यो विदुषादरेण ॥" इसमे मूल पाकृत गाथाएं हैं। पत्र संख्या ११ तथा प्रति ४.वि. जैन सरस्वती भंडार लणकरण पांड्या जयपुर पृष्ठ पंक्ति संख्या है। लिपिकाल का उल्लेख नहीं है। इसमें मूल प्राकृत, संस्कृत छाया, तात्पर्यवृत्ति संस्कृत ६. ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, व्यावर टीका सकलित है । पत्रसंख्या ५३ तथा पक्ति संख्या प्रति- मात्र मूल प्राकृत गाथाएं हैं। पत्र संख्या १० तथा पृष्ठ १२ है । इसका लेखनकाल संवत् १७६४ है। पवित संख्या प्रति पृष्ठ १४ है। लिपिकाल का उल्लेख ५. वि० जैन सरस्वती भंडार, नया मन्दिर, धर्मपुरा, नहीं है। दिल्ली (संख्या ई-१३(क)) १०. महापूत चैत्यालय, अजमेर मूल प्राकृत गाथाएँ मात्र हैं। पत्र संख्या १३ है। प्रति मूल प्राकृत, संस्कृत छाया एवं तात्पर्यवत्ति " प्रत्येक पृष्ठ पर ८ पंक्तियाँ हैं। लेखनकाल का उल्लेख संस्कृत टीका सहित है। पत्र संख्या ७७ तथा प्रतिपृष्ठ नहीं है। पंक्तियाँ १२ है। प्रति पंक्ति अक्षर ४२-४६ हैं। संवत् क्रम संख्या ८, ६, १.की तीनों मूल गापागों की १८६१ में महात्मा गुमानीराम के पुत्र ने इसे लिपिबद्ध पांडलिपियाँ संस्कृत टीका की प्रति से तैयार हुई है। किया। (स. २. पर) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांश से आगे अपरिग्रही हो आत्मदर्शन का अधिकारी 0 पद्मचन्द्र शास्त्री संपादक बनेकान्त' जैन का मूल अपरिग्रह है और अहिंसा आदि सभी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सभ्यचारित्र तोनों की इसी की सन्तान हैं । इसी हेतु हमारे पूर्व महापुरुषों व एकरूपताहोना मोक्ष का मार्ग है। निर्मोही-मूर्छा रहित आचार्यों ने अपना लक्ष्य अपरिग्रह को बनाया। और वे अपरिग्रही गृहस्थ मोक्षमार्ग-स्थित है और मोही ग्रहत्यागी. पूर्ण अपरिग्रही होने से पूर्व मोक्ष न पा सके । गत अंकों में मुनि नाम धारक व्यक्ति से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । 'जीव हम इसी विषय को प्राधार बनाकर जन के महत्व को वस्तु चेतना लक्षण तो सहज ही है परन्तु मिथ्यात्व परि. दर्शाते रहे हैं। हमारा उद्देश्य है कि आज का जैन, जो णाम के कारण भ्रमित हुआ अपने स्वरूप को नहीं जानता इस मूलमार्ग से भटक गया है और कही-कहीं परिग्रह इसे अज्ञानी ही कहना । अतएव ऐसा कहा कि मिथ्या समेटे ही आत्मा को देखने-दिखाने की बातें करने लगा है परिणाम के जाने से यही जीव अपने स्वरूप का अनुभव. प्रकारान्तर से तीर्थंकरों के प्राचारयुक्त व वैराग्यभाव के शीलो होतो। क्या करके ? 'इमां नवतत्व सन्तति मुक्त्वा' मार्ग से मुंह मोड़ने लगा है, वह सु-मार्ग पर आए। नव तत्त्वों की अनादि सन्तति को छोड़कर । भावार्थ इस आश्चर्य नही कि कुछ परिग्रह-प्रेमी लोग अपरिग्रह जैसे प्रकार है- संसार अवस्था मे जीवद्रव्य नी तस्वरूप परिमल जैन सिद्धान्त से मुकर रहे हों। अभी हमने लिखा णमा है, वह तो विभाव परिणति है, इसलिए नौ तस्वरूप था-'अपरिग्रही ही आत्म-दर्शन का अधिकारी।' इस पर वस्तु का अनुभव मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्वरूपी परिग्रह हमे एक विचार मिला कि को छोड़कर शुद्धनय से अपने एकत्व में आना सम्यक्त्व है।' चौथे गुण स्थान में नाम मात्र को चारित्र-परिग्रह- इसी प्रकार आत्मदर्शन के लिए भी सर्व प्रकारके उस परिग्रह त्याग व संयम नहीं होता, पर वहां पर सम्यग्दर्शन के (जो विभाव रूप है) को छोड़ना जरूरी है और इसी परिग्रह कारण आत्मानुभव हो जाता है। सो क्या यह परिग्रह के छोड़ने पर हम जोर दे रहे है और यही परिग्रह-त्याग अवस्था में आस्मानुभव की बात ठीक नही? इस गुण- जैन का मूल है। स्थान में तो जीव परिग्रही ही होता है-आदि। इसमे मतभेद नही कि सम्यग्दर्शन की अपूर्व महिमा हमारी समझ से प्रागम के विभिन्न उद्धरणो से तो है और गुणस्थानो की चर्चा भी उपयोगी है। पर हमारे अपरिग्रह में ही आत्मानुभव की पुष्टि होती है। अधिक अनुभव में ऐसा आने लगा है कि आज कुछ लोगों को क्या, सम्यग्दर्शन भी अपरिग्रही भाव में उत्पन्न होता है। पहिचान से बाह्य होने जैसे सम्यग्दर्शन और गुणस्थानों की यही सिद्ध होता है। यथा चर्चा परिग्रह-सचय का बहाना जैसी बन बैठी है और ऐसे १. सम्यग्दर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्गः। लोग चतुर्थ गुणस्थान से आगे-पीछे नहीं हटना चाहते२. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निमोंहो नैव मोहवान । आगे बढ़े तो त्याग, व्रतादि में प्रवेश का सकट और पीछे अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिने मुनेः ॥ चले तो मम्यग्दर्शन मे मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीरूप ३. एकान्ते नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः। भूत की बाधा । ऐसे जिस व्यक्ति से बात करो वह आत्म पूर्णशानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् । दर्शन को सम्यग्दर्शन से जोड़ने लगता है। कहता हैसम्यग्दर्शनमेतदेवनियमादात्मा च तावानयम्,। जिसको सम्यग्दर्णन होगा उसे ही आत्मदर्शन होगा या सम्मुक्त्वा नवतत्वसंततिमिमा आत्मायमेकोऽस्तुनः । आत्मदर्शन वाले को नियम से सम्यग्दर्शन होगा, मादि । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ४४; कि०३ अनेकान्त सो हम भी इसका निषेध नहीं करते । हां, हम कुछ और फलत:-यदि मच्छ (पर में अपनत्वबुद्धि) के त्यागरूप गहराई में जाकर सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी मूल अपरिग्रह के साथ सम्यग्दर्शन और आत्मदर्शन की व्याप्ति कारण मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी परिग्रहो के अभाव पर की जाय तो इसमे गहराई ही है । पाखिर, हमने ऐसा तो भी लक्ष्य दिलाते है। क्योकि इनके आरिहार में मम्यग- कहा नहीं कि 'पूर्ण अपरिग्रही ही सम्यग्दर्शन का अधिकारी दर्शन दुर्लभ है। और इस परिग्रह के त्याग बिना आगे के है। हमने तो परिग्रह के एकांश और मिथ्यात्वरूपी जड गुणस्थान और अन्तत: मोक्ष भी दुर्लभ है। इसलिए हम को भी पकड़ा है जिसे आचार्यों ने परिग्रह माना है। अपरिग्रह से आत्मदर्शन की व्याप्ति बिठाते है मात्र बाह्य जीव को सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वो का प्रधान वेष से नहीं। होना बतलाया है वे तत्त्व भी विभाव भावरूप-कर्मरूप चौथे गुणस्थानवी जीव के लिए छहढासा मे स्पष्ट परिग्रह के ज्ञान कराने और त्याग भाव में ही है और तत्त्वों का क्रम भी कर्म-परिग्रह को दर्शाने के भाव में ही कहा गया है'गेही पगह मे न रुचे ज्यो जल मे HिI Fमल है। है और मोक्ष मार्गरूप रत्नत्रय भी अपरिग्रह से ही फलित नगर नारि का प्यार यथा, कादेम हेम अमल है॥ होता है । फिर भी हम 'सम्यग्दृष्टि को आत्मदर्शन होता है' इसका निषेध नहीं करते, हम तो और गहराई मे उक्त भाव अपरिग्रहरूप ही है। आचार्यों न मा जाकर उन परिग्रहों (मिथ्यात्व आदि व बाह्यपरिग्रह) के ममत्वभाव को अन्तरंग परिग्रह मे लिया है और इसक अभाव पर ही जोर देते हैं जो कि मम्यग्दर्शन के होने में बिना ही बहिरंग का त्याग सम्भव है। याद बाह्य म त्याग और आगे बढ़ने में भी बाधक है। है और अन्तरग मे मूर्छा है तो वह अपरिग्रह भी मात्र __कहा जाता है कि सम्यग्दष्टि जीव भी, जब तक कोरा दिखावा-छलावा है। हम मात्र बाह्यवेश का ही चार चारित्रमोहनीय का प्रबल उदय है, चारित्र धारण नहीं अपरिग्रह मे नही मानते। 'सम्यग्दर्शन ज्ञानरमाणि कर सकता। सो हमे यह स्वीकार करने में भी कोई मोक्षमार्गः', 'निर्मोही नैव मोहवान्' और 'नवतत्त्व सांत आपत्ति नही–यदि यह निश्चय हो जाय कि अमुक जीव के विकल्प को छोड़ना' व 'द्रव्यान्तरेभ्य: पृथक' भी ता सम्यग्दृष्टि है या अमुक के अमुक गुणस्थान है। वरना अपरिग्रह की श्रेणी मे हो है। प्राय: जो हो रहा है, वही और वैसा ही होता रहेगा। हम तो स्पष्ट कहेगे कि समस्त जैन, अरिग्रह से सम्यग्दर्शन और आत्मोपलब्धि कराने के बहाने परिग्रहसराबोर है और जैन की जड़ मे भी आरिग्रह समाया संचय चलता रहेगा। आज इसी आत्मदर्शन प्राप्ति की हुआ है। ऐसे में कैसे सम्भव है कि मुर्छा-बार ग्रह सजोते रट मे चारित्र भी स्वाहा हो रहा है। यदि किसी पर हुए आत्मदर्शन हो जाय या सम्यग्दान भी हो जाय? कोई पैमाना सम्यग्दर्शन और गुणस्थानों की पहिचान का चतुर्थ गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है। हो तो देखें। खेद यह है कि आज इस पहिचान का कोई इस गुणस्थान के विषय मे कहा गया है कि पैमाना नही तब लोग सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए ढोल 'णो इदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । पोटे जा रहे है ओर पहिचान का जो पैमाना (अन्तरंगजो सद्दादजिणुत्त, सम्माइट्ठो अविरदा सो॥' बहिरंग) परिग्रह मूच्र्छा के त्याग जैसा है उसकी उपेक्षा जो इन्द्रिय-विषयो से विरत नहीं है, बस-स्थावर रक्षा कर रहे हैं-वाह्य परिग्रह में भी लिपट रहे हैं जब कि मे सन्नद नहीं है, पर जिन-वचनों, सप्त तत्त्वो में श्रद्धा तीर्थक रो ने उसे भी सर्वथा निषिद्ध कहा है। मात्र रखता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव होता है। नागम मे पच्चीस दोषों का वर्णन आता है और सभी पर इस गुणस्थान के लिए मिथ्यास्व (जो घोर परिग्रह है) दोष कर्म (परिग्रह) जन्य होते हैं तथा जब तक इन दोषों और अनतानुवधी चौकड़ी रूप परिग्रह का न होना अनि- का परिहार नही होता तब तक सम्यग्दर्शन निर्दोष नही वार्य है। मोर उनके अभाव म ही सम्यग्दर्शन होता है। कहलाता। इसके सिवाय आगम में सम्यग्दर्शन का मुख्य Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिपही ही मारमवर्शन का अधिकारी (अन्तरंग) हेतु दर्शन मोहनीय रूप परिग्रह (जो मिथ्यात्व ही असम्भव-सी है। ही है) के क्षय आदि को ही कहा है एक बात और। जैन, निवृत्तिप्रधान धर्म है और 'अंतर हेऊ भरिणदा दंसण मोहस्स खयपहुवी।' इस तस्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में भी निवृत्ति की ही बात कही भांति सम्यग्दर्शन का मूल अपरिग्रह ही ठहरता है। फिर गई है-मोक्षमार्ग को प्रधान रखा गया है। सम्यग्दर्शजाश्चर्य है कि अपरिग्रह के सायात्मोपलब्धि को व्याप्ति नादि उसी के साधन हैं और इन साधनों का साधन भी पर लोगों को आपत्ति हो और वे मात्र पहिचान से बाह्य परिग्रह से निवृत्ति-अपरिग्रह-एकाकीपन ही है। फिर सम्यग्दर्शन के गुणगान में लगे हों और आत्मदर्शन को ऐसे मे कसे सम्भव है कि हम एकाकी होने की बात करें उत्पत्ति में वाधक मच्छ और बाह्य परिग्रह से भी नाता और पर-परिग्रह से जुड़े रहें ? फलतः-न तो सम्यग्दष्टि जोई-आत्मा को दिखा रहे हों ? विचारना यह भी होगा अन्तर परिग्रहों मे रत होता है और ना ही कोई मारमजिस सम्यग्दर्शन को पाचार्यों ने सराग और वीतराग के दृष्टा ऐसा कर सकता है। तथा ना ही परिग्रही-भाव भेदों में विभक्त किया है उनमें चौथे गणस्थान में सराग क्षण में आत्मदर्शन होता है। अधिक क्या खलासा करें? सम्यग्दर्शन होता है या वीतराग? यदि सराग होता है तो हमारा अभिप्राय निश्चय आत्मदर्शी से है-बनावटो या राग में आत्मदर्शन कैसे? यदि वीतराग सम्यग्दर्शन होता बाजारू प्रात्मदशियों से नही। है तो श्रेणी मारने पर कौनसा सम्यग्दर्शन होता है ? आदि। हम कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि हम जो भी लिखते पाठक इस पर विचार करें। हम इस पर आगे कुछ हैं--'स्वान्तः सुखाय' लिखते हैं और आगम के आलोक में लिखेंगे । यह तो हम पहिले ही लिख पाए हैं कि अरूपी लिखते हैं। किसी को रास न आए तो इसे छोड़ दें। आत्मा का शुद्ध-स्वरूप मोही छदमस्थ की पकड़ से बाह्य सचमुच आज के समार में विरले हैं जो जैन के मलहै और परिग्रह-सचय करते क्षण तो उसकी पकड़ सर्वथा अपार ग्रह पर दृष्टि द । (क्रमश:) (पृ० २६ का शेषांश) संस्कृत टीका के अनुसार इनमे मूल का विभाजन १२ सर्वेक्षण कार्यक्रम बनाया जा रहा है समय एक साधनो की अधिकारों में किया गया है। सीमा होने पर भी मैंने कुछ सर्वेक्षण कार्य जुन ९१ में उक्त सभी पाण्डुलिपियां कागज पर देवनागरी लिपि किया है। अब पत्राचार एवं अन्य माध्यमो से सम्पर्क में लिखी हुई है। परिचय से यह भी स्पष्ट है कि प्रायः किया जा रहा है। सभी प्रतियां उत्तर भारत की है। मात्र एक प्रति महा- नियमसार की प्राचीन पाण्डुलिपियो की खोज का राष्ट्र के कारंजा भंडार की है। कार्य निरन्तर चल रहा है । इस सन्दर्भ में देश के विभिन्न कन्नर लिपि में ताडपत्र पर लिखी प्रतियों में अभी राज्यो के शोध सस्थानों, पाइलिपि संग्रहालयो, मन्दिरों तक जिनकी सूचना मिली हैं, उनमें जैन मठ श्रवणबेलगोला के शास्त्र भंडारों, निजी संग्रहों के मालिकों से सम्पर्क जैन मठ मूरबिद्री, ऐलक पन्नालाल सरस्वती, भवन उज्जैन किया जा रहा है । खोज के क्रम में मध्यप्रदेश तथा दक्षिण को प्रतियां हैं । कुन्दकुन्द भारती दिल्ली में भी कुछ प्रतियाँ भारत की यात्रा का कार्यक्रम भी बनाया जा रहा है। सुरक्षित हैं। इनकी फोटो या जीराक्स हेतु सस्थाओं के सम्बद्ध व्यक्तियों, विद्वानों एवं कुन्दकुन्द प्रेमी जनों से मेरा सम्बर अधिकारियों से निवेदन किया है। विनम्र निवेदन है कि उनकी जानकारी मे कहीं भी नियमउत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर में विभिन्न सार की प्राचीन पांडुलिपि हो तो उसकी सूचना मुझे जे कालों में धार्मिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान होते रहे हैं। की कपा करें तथा उसकी जीराक्स या फोटो या माइकोइसमें मध्यप्रदेश की अहं भूमिका होना स्वाभाविक है। फिल्म उपलब्ध कराने में सहयोग करें। बता कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिपियां मध्य आवास-२६, विजयानगरम् कालोनी, प्रदेश में भी सुरक्षित होनी चाहिए। इसके लिए विस्तृत भेलूपुर, वाराणसी-१२१.१. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखो, कहीं श्रद्धा डगमगा न जाए पपचन शास्त्री संपादक 'अनेकान्त' जैसे हिन्दुओं के मूल ग्रन्थ वेद हैं और उन्हें ईश्वरकृत सुदृष्टि और द्रव्यलिंगी-मिथ्यादष्टि होने तक के दोन मानने जैसा विश्वास है। यह विश्वास कोरा ओर व्यय भांति के कथन हैं, और उसके उपदेशों से अनेकों जीवों के नहीं है-इनमें बड़ा का बल हिन्दू के हिन्दुत्व को कायम उद्धार होने की बात भी है। तब क्या गारण्टी है कि रखने में कारगर है। वैसे ही जैन आगम सर्वज्ञ-वाणी हैं हमारे काहि मानttru nare और ऐसी अदा ही जैनियो के जंनत्व को कायम रखे हुए आदि।' तो ऐसे वचनों से समाज की श्रद्धा डगमगा है। उक्त प्रकार की श्रद्धा जिस दिन क्षीण हो जायगी- जायगी और जैन की हानि ही होगी। तथा प्रश्न यह भी जनत्व भी लुप्त हो जायगा। जिनवाणी की परम्परित बड़ा होगा कि जो पूर्वाचार्यों को सम्यग् या मिथ्यावृष्टि पूर्वाचार्य ही कायम रखे रहे-वे लगाव रहित-अपरि होने जैसी सन्देहास्पद लाइन में खड़ा करने की बात कर ग्रही होने के कारण ही जिनवाणी के रहस्यो का उद्घाटन रहा हो, उसके वचनों को भी प्रामाणिकता कहाँ रहेगी। करने में समर्थ हुए । उन पूर्वाचार्यों में हमारी उत्कट श्रद्धा क्योकि वह भी तो उन्ही आचार्यों के वचनों को आधार है। यह कार्य रागी-द्वषो जनो के वश का नहीं था। बना अपनी सचाई घोषित कर रहा है, जिन्हें उसने स्वयं जब मूल वेदो की विविध व्याख्याएँ स्व-मन्तव्यानुसार सादेहास्पद स्थिति मे ला खड़ा किया हो। सो हमें परमहुई तो हिन्दू लोग कहीं सायणाचार्य, कहीं महीधराचार्य परित आचार्यों को सन्देहास्पद न मानकर उन्हें सावर, और कहीं महर्षि दयानन्द के मत को मानने वाले जैसे सर्वथा सम्यग्दृष्टि ही मानना चाहिए-ऐसा हमारा विविध भागों में बंट गए । वैसे ही जैनियो में भी मूल की निवदन है। विविध व्याख्याओ को लेकर अनेको मान्यताएं चल पड़ी यतः शुद्ध आत्मा सम्यग्ज्ञान स्वभावी है और सम्यग् - और विवाद पनपने लगे। जैसे कही सोनगढ़ी, कही जयपुरी ज्ञान में मुख्य कारण सम्यक्त्व है। लोक में भी जिसे हम और कहीं स्थितिपालक की मान्यताएं आदि । फिर भी सरल आत्मा की आवाज के नाम से कह दिया करते हैं आश्चर्य यह कि सभी अपने को मूलाम्नायी कहते रहे। उससे भी अन्तरंग-भाव का बोध होता है और सम्यग्ज्ञानी हिन्दुओ में विवाद होने पर भी किसी ने वेदकर्ता और के अन्तरग भावों से प्रसूत वाक्य को प्रमाणता होती है। ऋचावाहकको लांछित नही किया-सबको श्रद्धा उन पर ओर ऐसी प्रमाणता सम्यग्दष्टि में ही होती है। द्रव्यलिगी टिकी रही। ऐसे ही जैनियो मे भी आगमवाहक आचाया तो मिथ्याइष्टि होता है और उसका ज्ञान भी सम्बस्व और मल में श्रद्धा जमी रही और जमी भी रहनी चाहिए। बिना मिथ्या होता है पोर वचन भी उससे प्रभावित होते कदाचित् यदि कोई तर्कवादी व्यक्ति (परिग्रही को है। कदाचित् उसके उपदेश से कइयो को लाम भी मिल आत्मदर्शन होना मानने जसी परिग्रह-प्रेमियो को मान्यता- जाय; पर उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नही कहना सकता और नुरूप-भ्रान्त परिपाटी की भाति) अपने तर्कों के बल पर न उसमे (सम्यक्त्व के बिना) वैसे कथन की शक्ति होती आचार्यों को सम्देहास्पद स्थिति मे ला खड़ा करने की है जो 'आप्तोपशमनुलंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम्, तत्वोपदेशकोशिश करे और कहे कि जब 'सम्यग्दृष्टि को पहिवान कत' को समता को धारण कर सके। हमारे परम्परित दुर्लभ है.और मागम में ग्यारह अंग नो पूर्व के शाता को नाचार्य कुन्दकुन्दादि जैसा वस्तुतस्य का विवेचन कर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखो, कहीं पता उगमगान गाए होगा। सके वह उनके सम्यक्त्व का ही प्रभाव पा-जिसके कारण जिनवाणी की रक्षा के लिए प्राचीन आचार्य और उनका मान निर्मल हुआ और वे जिनवाणी के रहस्य को उन द्वारा संकलित मागम के मूल का संरक्षण आवश्यक वहन कर सके। द्रव्यलिंगी मिथ्यावृष्टि की श्रवा तो 'जिन' है और वह मूल-पाठी तैयार करने से ही होगा। जब तक से भी डगमगाई रहती है; तब वह जिन की वाणी का नई वाणी लिखी जाती रहेगी तब तक मूल पीछे छुटता यथार्थ कथन कैसे कर सकता है ? प्रतः निश्चय ही हमारे चला जायगा और एक दिन ऐसा आयगा कि जिनवाणी परम्परित आचार्य सम्यग्दष्टि ही थे जो 'अहमिकको खलु- नाम शेष भी लुप्त हो जायगा तथा उसका स्थान अल्पा सुखो' जैसे वाक्य और वस्तु के गुण-पर्याय आदि का कथन वाणी ले लेगी। फिर इसकी भी क्या गारण्टी है कि आज करने में समर्थ हए। ऐसी स्थिति में परम्परित किन्हीं भी जो लिखा जा रहा है वह मूल का सही मन्तव्य ही हो, आचार्य में अपने मिथ्या तर्क के बल पर 'वे सम्यग्दृष्टि थे क्योंकि-"मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना"-वर्तमान पन्यवाद भी या मिथ्यादृष्टि' जैसा भ्रम फैलाना आगम का घात करना इसी का जीता जागता उदाहरण है। आगम के विषय मे 'अनात्मार्थ विनाराग।' और प्रश्न यह भी उठेगा कि आज जो नवीन-नवीन व्या- 'याप्तोपशमनलंयम 'आप्तोपशमनुल्लंघ्यमवृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेश कत्' व्यायें की जा रही है और छोटे-मोटे अनेक लेखक अनेक आदि कथन आए है। सो आज के कितने नए लेखक स्व ग्रन्थ लिखकर अपने नामों से प्रकाशित कराने की धुन वीतरागी है, कितने परमार्थ चाहने वाले हैं, तथा उनमे मे है जिन्हें नाम या अर्थ संग्रह का भूत सवार है । क्या, कितने निष्पक्ष हैं, कितनों के ग्रन्थ सर्वथा अनुल्लंघ्य है, उन पर सम्यग्दृष्टि होने की कोई मुहर लगी है ? या कही कितनों के कथन में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों से दूषण नहीं वे भी विभिन्न वेषों में द्रव्यलिंगीवत् बाह्याचार-क्रिया तो है, और कितने सर्व हितकारी हैं? इस पर विचार किया नहीं कर रहे ? या वे निश्चय सम्यग्दष्टि जिन भगवान की जाय। पर यह निर्णय करना भी सरल नहीं- इसमें भी जिनवाणी को न कह अपनी वाणी कह रहे है तो उनके पक्षपात रहने की सम्भावना है। फलतः-मूल आगम कथनानुसार कदाचित् मिथ्यावृष्टियों (?) द्वारा वहन की और परम्परित आचार्य-नामों को स्थायी रखने के लिए गई जिनवाणी और वे स्वयं भी प्रामाणिक कैसे है? आवश्यक है कि मलपाठी तैयार किए जाय-अन्धाधुन्ध क्योंकि जैनियों में द्रव्यलिंगी को प्रामाणिकता नहीं दी नए लेखनो पर रोक हो। क्योंकि जिनवाणी ही हमारा गई-उसे मिध्यावृष्टि कहा गया है और मिथ्यावृष्टि का संबल है। उसकी व्याख्याएँ मौखिक वाचनो तक ही वचन मद्यपायी के वचनों सदश बावला जैसा वचन होता सीमित हों-ताकि गलत रिकार्ड से बचा जा सके। है। अतः उसकी बात सही कसे मानी जाय ? दि० जैनों में स्तुति बोली जाती रही है-'जिनवारणी एक प्रसंग में हम पहिले भी लिख चुके हैं कि आधु- माता दर्शन की बलिहारिपा' और सुना भी गया है कि निक लेखकों की पुस्तकों से अल्पज्ञ भले ही धर्म-प्रचार किसी जमाने में लोग दक्षिण में जाकर महान् शास्त्रों के होना मान लें पर, दूरगामी परिणाम तो जिनवाणी का दर्शन मात्र से अपना जन्म सफल मान लिया करते थे। लोपही है। आश्चर्य नहीं कि ऐसे लेखन, व्यवहार से वर्तमान वातावरण के परिप्रेक्ष्य में कहीं भविष्य में उक्त मूल आगमों के पठन-पाठन और परम्परित आचार्यों के तथ्य भी न सुंठला जाय और लोग परम्परित आचार्यों नामों के स्मरण भी लुप्त हो जाये और वर्तमान लेखन व द्वारा संकलित परम्परित जिनवाणी के दर्शनो तक को भी लेखकों का नाम उभर कर सामने रह जायें। यदि वर्तमान न तरस जाएँ और उन्हें स्थान-स्थान पर जिनवाणी के सिलसिला चलता रहा तो निश्चय ही जिनवाणी का लोप स्थान पर नवीन लेखकों की वाणी जिनवाणी के रूप में समलिए। दर्शन देने लगे। हम नहीं समझ पा रहे कि वर्तमान के Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. ४४,कि.३ कितने लेखक परम्परित आचार्यों से महान् और सम्यग- सम्यग्दृष्टिवत् आगम की रक्षा में सन्नद्ध होता, तो हममें जानी हैं, जो उनकी मूल रचनाओं से लोगों को वचित आगम के प्रति प्रान्त-विविध मतभेद न होते और हमें कर स्वयं को आगे लाने में तत्पर होने जैसा कर रहे है आगम के सुरक्षित रहने का स्पष्ट संकेत मिलता। और लोगो को जिनवाणी का सही तत्त्व दे पा रहे है ? अन्त में निवेदन है कि यश अथवा अर्थ संग्रह से कभी-कभी हम सोचते हैं कि क्या हम उन जैसे श्रद्धानी तत्पर कई लेखक गण हमारे कथन को उनके प्रति बगावत भी नही जिन्होंने कुरान के भावो को तोड़-मरोड कर न समझें और ना हों एकाकी या संगठिन हो, हमारे प्रति लिखने जैसे दुःसाहस को बर्दाश्त नहीं किया था। काश, विद्रोह की सन्नद्ध हो-क्योंकि हम तो 'कहीं हमारी भरा हममे एक भी ऐसा कट्टर श्रद्धालु निकला होना जो न उगमगा जाए' इसी भाव में कुछ लिख सकते हैं। (पृ० ३ कवर का शेषांश) कि मैं घट बनाऊँ, उसके अनन्तर उसके आत्मप्रदेश चञ्चल होते हैं जिनसे हस्तादि व्यापार होता है। हस्त के व्यापार द्वारा मत्तिका को आर्द्र करता है पश्चात् दोनों हाथो मे उसे खूब गीली करता है, पश्चात मिट्टी को चाक के ऊपर रखता है, पश्चात् दण्डादि द्वारा चक्र को घुमाता है। इसी भ्रमण मे हस्त के द्वारा मिट्टी को घटाकार बनाता है। पश्चात् जब घट बन जाता है तब उसे सूत के द्वारा पृथक कर पश्चात् अग्नि में पका लेता है। यहां पर जितने व्यापार हैं सब जुदे जुदे है फिर भी एक दूसरे मे सहकारी कारण है किन्तु जब घट निष्पन्न हो जाता है तब केवल मिट्टी ही उपादान कारण रह जाती है। अनन्तर जब घट फूट जाता है तब भी मिट्टी ही रहती है। इसी आशय को लेकर अष्टावक्र गीता मे लिखा है "मत्तो विनिर्गतं विश्वं, मय्येव च प्रशाम्यति। मुवि कुम्मो जले बोचिः, कटकं कटके यथा ॥" जो पदार्थ जहाँ उदय होता है वही उसका लय होता है। यही कारण है कि वेदान्ती जगत का मूल कारण ब्रह्म मानते हैं । परमार्थ से देखा जाये तो आत्मा की विभावपरिणति ही का नाम संसार है किन्तु केवल आत्मा मे ही यह संसार नहीं हो सकता है। अतएव उन्होंने माया को स्वीकार किया है । इसका यह भाव है कि केवल ब्रह्म जगत का रचयिता नहीं। जब उसे माया का संसर्ग मिले तभी यह संसार बन सकता है । अब कल्पना करो कि यदि ब्रह्म सर्वथा शुद्ध था तब माया का ससर्ग कैसे हुआ? शुद्ध विकार होता नही अतएव मानना पड़ेगा कि यह माया का सम्बन्ध अनादि से है । यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि अनादि से सम्बन्ध है तो छुटे कैसे? उसका उत्तर सरल है कि बीज से अकुर होता है। यदि बीज दग्ध हो जावे तो अंकुरोत्पत्ति नही हो सकती। यही माया भव का बीज है। जब वास्तव तत्त्वज्ञान हो जाता है तब वह ससार का कारण जो भ्रमज्ञान है वह आप से आप पर्यायन्तर हो जाता है । (९, १०।१६।५१) ७. बहुत से मनुष्यों की यह धारणा हो गई है कि निमित्त कारण इतना प्रबल नही जितना उपादान होता है। यह महती भ्रान्ति है। कार्य की उत्पत्ति न तो केवल उपादान से होती है और न केवल निमित्त से किन्तु उपादान और सहकारी कारण के योग से कार्य उत्पन्न होता है। यद्यपि कार्य उपादान में ही होता है परन्तु निमित्त की सहकारिता बिना कदापि कार्य नही होता। जैसे कुम्भ मिट्टी से ही होता है परन्तु कुलालरूप निमित्त बिना कार्य नही होता । (२८॥१२॥५१) (वर्णीवाणी से साभार) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त और उपादान १. लोगों की भावना तो उत्तम है किन्तु परिणमन पदापों के कारण कूट के मिलने पर होता है। उपादान कारण में ही कार्य की उत्पत्ति होती है। किन्तु सहकारी कारण के बिना उपादान का विकास असम्भव है। (३३८।४७) २. निमित्त के बिना उपादान का विकास नहीं होता। यद्यपि उपादान का विकास निमित्तरूप नहीं परिणमता परन्तु निमित्त की सहकारिता के बिना केवल उपादान कार्य का उत्पादक नहीं। (१९।११।४७) ३. जो काम होते हैं वह होते ही हैं, सामग्री से ही होते हैं। अहम्बुद्धि से आप अपने को सर्वथा कर्ता मानते हैं यही महती अज्ञानता है। यह कौन कहता है कि निमित्त रूप कार्य हुआ परन्तु अपने को सर्वथा कर्ता मानना न्याय सिद्धान्त के प्रतिकूल जाता है। घट उत्पत्ति कुम्भकार आदि के निमित्त से होती है परन्तु पट बना कहाँ ? इसको मत छोड़ दो। तब तुम्हारा निमित्त भी चरितार्थ है। अन्यथा अभाव में संसार भर के कुम्भकार प्रयत्न करें क्या घट बन जावेगा ? मृत्तिका के उपादान वाले यही पाठ घोषणा करते हैं कि मिट्टी ही घट की जनक है, कुम्भकार तो कुम्भकार ही है। तब जगत भर की मृत्तिका का सग्रह कर लो क्या कुम्भकार के बिना घट बन जावेगा? अतः यही मानना पड़ेगा कि घट के उत्पादन में सामग्री कारण है। केवल उपादान और केवल निमित्त दोनों ही अपने अस्तित्व को रक्खे रहो कुछ नहीं होगा। यही पद्धति सर्वत्र जानना। यदि इस प्रक्रिया को स्वीकार न करोगे तब कदापि कार्य की सत्ता न बनेगी। इस विषय मे वाद-विवाद कर मस्तिष्क को उन्मत्त बनाने की पद्धति है। इसी प्रकार जो भी कार्य हो उसके उपादान और निमित्त को देखो, व्यर्थ के विवाद में न पडो। (२३॥६॥५१) ४. बहुत मनुष्यों की धारणा हो गई है कि जब कार्य होता है तब निमित्त स्वयं उपस्थित हो जाता है। यहां पर विचार करना चाहिए कि यदि निमित्त कुछ करता ही नही तब उसकी उपस्थिति की क्या आवश्यकता है? यदि कुछ भावश्यकता उसकी कार्य में है तब उपादान ही केवल कार्य का उत्पादक है ऐसे दुराग्रह से क्या प्रयोजन ? अष्टसहस्री में श्री विद्यानन्द स्वामी ने लिखा है कि "सामग्री हि कार्यजनिका नेक कारणं" काकी उत्पादक होती है, एक कारण नहीं। (१७७५१) ५. पदार्थों के परिणमन उपादान और निमित्त की सहकारिता में होते हैं परन्तु जो सहकारी कारण होते है उसी समय किसी को सुख मे निमित्त होते है तथा किसी को बुःख मे निमित्त होते हैं। अतः उपादान कारण पर लोग विशेष बल देते हैं। यह ठीक है घट की उत्पत्ति मिट्टी से ही होगी, चाहे कुम्भकार ही बनावे, चाहे जुलाहा बनावे, चाहे वैश्य वनावे, किन्तु निमित्त कारण अवश्य वांछनीय है। (१५१०५) ६. यद्यपि सभी पदार्थ अपने में ही परिणमन करते हैं परन्तु कार्य जब होता है तब उस विकास परिणाम के लिए उपादान कारण और निमित्त की अपेक्षा करता है। जैसे जब कुम्भकार घट बनाता है उस काल में मिट्टी, चक्र, चीवर, जल, दण्ड सूत्र को लेकर ही घट के निर्माण का उद्यम करता है। प्रथम तो उसके यह विकल्प होता है (शेष पृ. ३२ पर) कागण प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरी देबी जैन (धमपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन सम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग- संस्कृत पौर प्राकृत के १७१ अप्रकाशित प्रग्यों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमामय शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्या परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नराम्च-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपन'शके १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचपन पन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिस्व । १५... मवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्यन ती: श्री राजकृष्ण न ... जैन साहित्य और इतिहास पर विचार प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित) । संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२०० न लममावली (तीन भागों में) । सं०५. बालचन्द सिदान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०. Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to •ach library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 सम्पावन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्वित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५॥ प्रिटेन पत्रिका एक-पैकिट Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वष ४४: कि०४ अक्तूबर-दिसम्बर १९६१ इस अंक मेंकम विषय १. जिनवाणी-महिमा २. कनाटक मे जैनधर्म-श्री राजमल जैन, दिल्ली ३. अतिशय क्षेत्र अहार के यंत्र -डा० कस्तूरचन्द 'सुमन' ४. मुनि श्री मदनकीति द्वय ----श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली १५ ५. देवीदास भाय जी के दो पद ६. जैन यक्ष-यक्षी प्रतिमाएँ -श्री रमेश कुमार पाठक ७. कामा के कवि सेढमल का काव्य -डा० गगाराम गर्ग ८. परिग्रह पाप ६. सम्यग्दर्शन के तीन रूप -श्री मुन्नालाल जैन 'प्रभाकर' १०. पद्मावती पूजन, समाधान का प्रयत्न -जस्टिस श्री मांगीलाल जैन ११. काशी के आराध्य सुपार्श्वनाथ -डा. हेमन्त कुमार जैन १२. वर्तमान के सन्दर्भ मे विचारणीय -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली १३. आगमिक ज्ञान-कण कवर पृ. २ १४. हमने क्या खोया क्या पाया-श्री प्रेमचंद जैन , ३ प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमिक ज्ञान-कण -ज्ञानी की ऐसी बुद्धि है कि जिसका संयोग जुआ उसका रियोग अवश्य होगा इसगिए विनाशीक में प्रीति नहीं करनी। X -जानने में और करने में परस्पर विरोध है । ज्ञाता रहेगा तो बन्ध न होगा यदि कर्ता होगा तो अवश्य बन्ध होगा। - ज्ञान से बांध नहीं होता अज्ञान मे बन्ध होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि का पर का स्वामीपना छट गया है चारित्रमोहनीयरूपी विकार होता है मोई बन्ध भी होता है मगर वह अनन्त ससार का कारण नही है कोंकि स्वामीपना छूटने से अनन्त ससार छट गया। X -आचार्य कहते हैं कि शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि तो मैं शुद्ध चतन्य मात्र मति है। परन्तु मी परिणति मोहकम के उदय का निमित्त पाकर मैली है—राग-द्वेष रूप हो रही है। -द्रव्य कर्म भावकम और नोकर्म आदि पुद्गल द्रव्यो मे अपनी कल्पना करन को मकल्प और ज्ञको के भेद से ज्ञान में भेदों को प्रतीनि कोविकल्प कहते है। X -पर-द्रव्य मे आत्मा का विकला करता है वह तो अज्ञानी है। और अपने आत्मा कोही ना मानता है वह ज्ञानी है। x -सर्वज्ञ ने ऐसा देखा है कि जड और चेन द्रव्य ये दोनो सर्वथा पृथक है कदाचित् किसी प्रकार से भी एक रूप नहीं होते। X x -जब तक पर-वस्तु को भूलकर अपनी जानता है तब तक ही ममत्व रहता है और जब यथार्थ ज्ञान हो जाने से पर को पराई जाने, तब दूसरे की वस्तु से ममत्व नहीं रहता। X X कषाय के उदय से होने वाली मिथ्या प्रवृत्ति को असयम कहते है। X -सम्यक्त्व तथा चारित्र के घातक का उदय सर्वथा थम जाने पर जो स्वभाव प्रकट होते है, उन्हें ओपमिक कहते है। X - इच्छा है वह परिग्रह है जिसमें इच्छा नही है उसके परिग्रह नही है। (श्री शान्तिलाल जैन कागजी के सौजन्य से) विद्वान लेखक अपने विचारो के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । कागज प्राप्ति .---श्रीमतो अंगरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली- के साजन्य से Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ malurunwITATION PIRE V VA - परमागमस्य बीजं निषिबजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥ वर्ष ४४ वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०४८ अक्टूबर-दिसम्बर . १९९१ जिनवाणी-महिमा मित पोजो धो-धारी। जिनवानि सुधालय जानके नित पीजो घो-धारी॥ वोर-मुखारविन्द ते प्रगटी, जन्म जरा गव-टारी । गौतमाविगुरु उर घट व्यापी, परम सुरुचि करतारी॥ ससिल समान कलित, मलगंजन, बुध-मन-रंजनहारी। भंजन विभ्रमधलि प्रमंजन, मिथ्या जलद निवारी॥ कल्यानकतर उपवन धरनो, तरनी भवजल-तारी। बन्धविवारन पैनो छैनी, मुक्ति नसैनी सारी॥ स्वपरस्वरूप प्रकाशन को यह, मान-कला अविकारो। मुनिमन-कुमुदिनि-मोबन-शशिमा, शम सुख सुमन सुवारी॥ जाको सेवत, बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी। तीन लोकपति पूजत जाको, जान विजग हितकारी॥ कोटि जोभि सौ महिमा जाको, कहि न सके पविधारो। 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी॥ 卐 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतांक से आगे: कर्नाटक में जैन धर्म 0 श्री राजमल जैन, जनकपुरी शिवकुमार द्वितीय संगोत (७७६-८१५ ई.) को अपने के रूप में सुरक्षित है। मारसिंह ने अपना अन्तिम समय जीवन में युद्ध और बन्दीगृह वा दु.ख भोगना पड़ा। फिर जानकर अपने गुरु अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिन भी उसने जैनधर्म की उन्नति के लिए कार्य किया। उसने का सल्लेखना व्रत धारण कर बंकापुर मे अपना शरीर भवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर 'शिवमार बसदि' त्यागा था : उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया का निर्माण कराया था, ऐसा वहां से प्राप्त एक लेख से __था। वह जितना धार्मिक था उतना ही शूर-बीर भी था। बात होता है । आचार्य विद्यानन्द उसके भी गुरु थे। उसने गुर्जर देश, मालवा, विध्यप्रदेश, वनकासि प्रादि राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (८१५.८५३ ई.) ने अपनी प्रदेशो को जीता था तथा 'गगसिंह', 'गगवज' जैसी उपाराजनीतिक स्थिति ठीक की। किन्तु उसने धर्म के लिए धियो के साथ-ही-साथ 'धर्म महाराजाधिराज' की उपाधि भी कार्य किया था। उसने चित्तर तालुक मे वल्लमल ग्रहण की थी। वह स्वय विद्वान था और विद्वानों एव पर्वत पर एक गुहा मन्दिर भी बनवाया था। सम्भवतः आचार्यों का आदर करता था। उसी के आचार्य गुरु आर्यनन्दि ने प्रसिद्ध 'ज्वालामालिनी राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ (९७४-६८४ ई.)-इस कल्प' की रचना की थी। शासक ने अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही पेग्गूर ग्राम की सत्यवाक्य के उत्तराधिकारी एरेयगंग नीतिमार्ग बसदि के लिए इसी नाम का गांव दान में दिया और (८५३-८७० ई.) को कुडलूर के दानपत्र मे 'परमपूज्य पहले के दानों की पुष्टि की थी। अहंद्भट्टारक के चरण-कमलों का भ्रमर कहा गया है। राचमल्ल का नाम श्रवणबेलगोल की गोम्मटेश्वर इस राजा ने समाधिमरण किया था। महामूर्ति के कारण भी इतिहास प्रसिद्ध हो गया है । इसी राचमल्ल सत्यवाक्य द्वितीय (८७०-६०७ ई.) पेन्ने राजा के मन्त्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर करंग नामक स्थान पर सत्यवाक्य जिनालय का निर्माण की मूर्ति का निर्माण कराया था। राजा ने उनके पराक्रम कराया था और विलियूर (वेलूर) क्षेत्र के बारह गांव और धार्मिक वृत्ति आदि गुणों से प्रसन्न होकर उन्हें 'राय' पान में दिये थे। (राजा) की उपाधि से सम्मानित किया था। नीतिमार्ग द्वितीय (९०७-६१७ ई.) ने मुडहल्लि और उपर्युक्त नरेश के बाद, यह गंग साम्राज्य छिन्न-भिन्न तोरम के जैन मन्दिरों को दान दिया था । विमलचन्द्रा- होने लगा। किन्तु जो भी उत्तराधिकारी हुए वे जैनधर्मके चार्य उसके गुरु थे। अनुयायी बने रहे। रक्कसगंग ने अपनी राजधानी तलकाड गंगनरेश नीतिमार्ग के बाद, चुतुग द्वितीय तथा मरुल- में एक जैन मन्दिर बनवाया था और विविध दान दिए थे। देव नामक दो राजाहए। ये दोनों भी परम जिनभक्त सन् १००४ ई. में चोलों ने गंग-राजधानी तलकाद थे। शिलालेखों में उनके दान आदि का उल्लेख है। पर आक्रमण किया और उस पर तथा गंगवाड़ी के बहुत से मारसिंह (९६१-६७४ ई.)नामक गंगनरेश जैनधर्मका भाग पर अधिकार कर लिया। परवर्ती काल में भी, कुछ महान् अनुयायी या। इस नरेश की स्मृति एक स्मारक विद्वानों के अनुसार, गंगवंश १६वीं शती तक चलता रहा स्तम्भ के रूप मे श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पर के मंदिर- किन्तु होयसल, चालुक्य, चोल, विजयनगर प्रादि राज्यों पाके परकोटे में प्रवेश करते ही उस स्तम्भ पर आलेख के सामन्तों के रूप में। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में बन धर्म जैनधर्म-प्रतिपालक गंगवंश कर्नाटक के इतिहास में जाता है (देखिए 'कल्याणी' प्रसंग)। तैलप द्वितीय का सबसे दीर्घजीवी राजवश था। उसकी कीति उस समय नाम इतिहास मे ही नहीं, साहित्य मे भी प्रसिद्ध है । तलप और भी अमर हो गई जब गोम्मटेश्वर महामूर्ति की द्वारा बन्दी बनाये गये धारानगरी के राजा मुंज और तैलप प्रतिष्ठापना हुई। की बहिन मणालवती की कथा अब लोककथा-सी बन गई चालुक्य राजवंश: है। तैलप प्रसिद्ध कन्नड़ जैन कवि रत्न का भी आश्रयदाता कर्नाटक में इस वश का राज्य दो विभिन्न अवधियों था । इस नरेश ने ६२७ ई. में राष्ट्रकूट शासकों की राजमे रहा। लगभग छठी सदी से आठवीं सदी तक इस वंश धानी मान्यखेट पर भीषण आक्रमण, लूटपाट करके उसे ने ऐहोल और वादामि (वातापि) नामक दो स्थानो को अधीन कर लिया था। कोगुलि शिलालेख (६६२ ई.) से क्रमशः राजधानी बनाया। दूसरी अवधि १०वीं से ११वीं प्रतीत होता है कि वह जैनधर्म का प्रतिपालक था। एक सदी की है जबकि चालुक्य वंश की राजधानी कल्याणी अन्य शिलालेख में, उमने राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले (आधुनिक बमव कल्याण) थी। जो भी हो, इतिहास मे यह को वसदि, काशी एव अन्य देवालयों को क्षति पहुंचाने वश पश्चिमी चालुक्य कहलाता है ।। वाला घातकी घोषित किया है। वसदि या जैन मन्दिरका पहली अवधि अर्थात् छठी से आठवीं सदी के बीच उन्लेख भी उसे जैन सिद्ध करन में सहायक है। चालक्य राजाओ का परिचय ऐहोल और वादामी के प्रसग तैलप के पुत्र सत्याश्रय इरिववेडेग (९६७-१००६ ई.) में इसी पुस्तक मे इमी पुस्तक मे दिया गया है। फिर भी के गुरु द्रविड़ सघ कुन्दकुन्दान्वय के विमलचन्द्र पण्डितदेव यह बात पून: उल्लेखनीय है कि चालुक्य नरेश पुलकेशी थे। इस राजा के बाद जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल द्वितीय के समय उसके आश्रित जैन कवि रविकोति द्वारा (१०१४-१०४२ ई.) इस वंश का राजा हुआ। यह जैन ६३४ ई. में ऐहोल में बनवाया गया जैन मन्दिर (जो कि गुरुओं का आदर करता था। उसके समय मे आचार्य अब मेगुटी मन्दिर कहलाता है) चालुक्य-नरेश की स्मृति वादिराज सूरि ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी और अपने प्रसिद्ध शिलालेख में सुरक्षित रखे हुए है। यह शिला- इस नरेश ने उन्हें जयपत्र प्रदान कर 'जगदेकमल्लवादी' लेख पुरातत्त्वविदो और संस्कृत साहित्य के ममज्ञो के बाच उपाधि से विभूषित किया था। इन्हीं सूरि ने 'पार्वचरित' चचित है । इसी लेख से ज्ञात होता है कि पुलकेशी द्वितीय और 'यशोधरचरित' की रचना की थी। ने कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन को प्रयत्न करने पर भी जयसिंह के बाद सोमेश्वर प्रयम (१०४२-६८ ई.) ने दक्षिण भारत में घसने नही दिया था। उसके उत्तराधि- शासन किया। कोगलि से प्राप्त एक शिलालेख में उसे कारी मंगेश ने वाताप में राजधानी स्थानान्तरित कर ली स्याद्वाद मत का अनुयायी बताया गया है। उसने इस थी। उस स्थान पहाड़ी के ऊपरी भाग में बना जैन स्थान के जिनालय के लिए भूमि का दान भी किया था। गुफा-मन्दिर और उसमें प्रतिष्ठित बाहुबली की सुन्दर मूर्ति उसकी महारानी केयलदेवी ने भी पोन्नवाड के त्रिभुवनकला का एक उत्तम उदाहरण है। आश्चर्य होता है कि तिलक जिनालय के लिए महासेन मुनि को पर्याप्त दान चट्टानों को काटकर सैकड़ो छोटी-बड़ी मूर्तिया इस गुफा- दिया था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर ने मन्दिर में बनाने में कितना कोश । अपेक्षित रहा होगा तुंगभद्रा नदी मे जलममाधि ले ली थी। और कितनी राशि व्यय हुई होगी। ___सोमेश्वर द्वितीय (१०६८-१०७६ ई.) भी जिनभक्त अनेक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि चालुक्य- था। जब वह बंकापुर मे था तब उसने अपने पादपनवोपनरेश प्रारम्भ से ही जैनधर्म को, जैन मन्दिरो को सरक्षण जीवी चालुक्य उदयादित्य की प्रेरणा से वन्दलिके की देते रहे हैं । अन्तिम नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगुरे शान्तिनाथ वसदि का जीर्णोद्धार कराके एक नयी प्रतिमा (लक्ष्मेश्वर) के 'धवल जिनालय' का जीर्णोद्धार कराया था। स्थापित की थी। अपने अन्तिम वर्ष मे उसने गुडिगेरे के कल्याणी को जैन राजधानी के रूप में स्मरण किया श्रीमद भवन कमल्ल शान्तिनाथ देव नामक जैन मन्दिर को Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ४,कि. ४ बनेकान्त 'सर्वनमस्य' दान के रूम में भूमि दानया था। ७६३ ई.) तक राज्य किया। उसकी पट्टरानी वेगि के विक्रमादित्य षष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग (१०७६. चालुक्य नरेश की पुत्री थी और जिनभक्ता थी। डॉ. ११२८ ई.) इस वंश का अन्तिम नरेश था ! कुछ विद्वानो ज्योतिप्रसाद जैन के अनुसार, अपभ्रश भाषा के जैन महाके अनुसार, उसने जैनाचार्य वासवचन्द्र को 'बालसरस्वती' कवि स्वयम्भ ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमार. की उपाधि से सम्मानित किया था। गद्दी पर बैठने से चरित, स्वयम्भू छन्द आदि महान ग्रन्थो की रचना इसी पहले ही उसने बल्लियगांव मे 'चालुक्य गंगपेनिडि नरेश के आश्रय में, उसी की राजधानी मे रहकर की थी। जिनालय, नामक एक मन्दिर बनवाया था और देव पूजा कवि ने अपने काव्यों में धुवराय धवल इय नाम से इस मनियों के आहार आदि के लिए एक गांव दान मे दिया आश्रयदाता का उल्लेख किया है।"पुन्नाटसंघी आचार्य था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने हुनसि जिनसेन ने ७५३ ई. में समाप्त अपने 'हरिवशपुराण' के हदल्गे में पद्मावती-पाश्र्वनाथ बसदि का निर्माण कराया अन्त में हम मरेश का उल्लेख "कृष्ण नप का पुत्र श्री था। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर मन्दिर बनवाए वल्लभ जो दक्षिणापथ का स्वामी था" इस रूप में किया है। तथा चोलों द्वारा नष्ट किए गए मन्दिरों का जीर्णोद्धार राजा ध्रव के बाद गोबिन्द तनीय (७६३.८१४ ई.) भी कराया था। उसके गुरु आचार्य अर्हनन्दि थे। उसकी राजा हुआ था। उनके समय में राज्य का खूब विस्तार रानी जक्कलदेवी भी परम जिनभक्ता थी। भी हुआ और उसकी गणना साम्राज्य के रूप में होने लगी उपर्युक्त चालुक्य नरेश के उत्तराधिकारी कमजोर थी। उसने कर्नाटक में मान्यखेट (आधुनिक मलगेट) में सिद्ध हुए। अन्तिम नरेश सम्भवत: नर्मडि पैलप (११५१. नई राजधानी और प्राचीर का निर्माण कराया था । कुछ ५६ ई.) था जिसे परास्त कर कल्याणी पर कलचुरि वंश विद्वानों के अनुसार, वह जैनधर्म का अनुयायी तो नहीं था का शासन स्थापित हो गया। इस वंश का परिचय प्रागे किन्तु वह उसके प्रति उदार था। उसने मान्यखेट के जैन दिया जाएगा। मन्दिर के लिए ८०२ ई. मे दान दिया था। ८१२ ई. में राष्ट्रकूट-वंश: उसने पूनः शिलाग्राम के जैन मन्दिर के लिए अर्ककीति इस वश का प्रारम्भिक शासन-क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र नामक मुनि को जाल गंगल नामक ग्राम भेंट मे दिया था। प्रदेश था किन्तु उसके एक राजा दतिवर्मन् ने चालुक्यो इसके समय में महाकवि स्वयम्भू ने भी सम्भवतः मुनिको कमजोर जान आठवी शती के मध्य में (७५२ ई.) दीक्षा धारण कर ली थी जो बाद में श्रीपाल मुनि के नाम कर्नाटक प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया था। कुछ से प्रसिद्ध हुए थे। विद्वानो का मत है कि उसने प्रसिद्ध जैनाचार्य अकलक का सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७७ ई.)-यह शासक जैनधर्म का अनुयायी महान् सम्राट् और कवि था। अपने दरबार में सम्मान किया था। इसका आधार वह बाल्यावस्था मे मान्यखेट राजधानी का अभिषिक्त श्रवणबेलगोल का एक शिलालेख है जिसमे कहा गया है राजा हुमा। उसके जैन सेनापति ककथरस और अभिकि अकलक ने साह तुग को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित भावक कर्कसज ने न केवल उसके साम्राज्य को सुरक्षित किया था। सहसतुग दन्तिवमन् की ही एक उपाधि थी। रखा अपितु विद्रोह आदि का दमन करके साम्राज्य मे दन्तिवर्मन् के बाद कृष्ण प्रथम अकानवर्ष शुभतुंग शान्ति बनाए रखी तया वंमव में भी वृद्धि की। अनेक (७५७-७७३ ई.) राजा हुआ। उसी के समय मे एलोरा अरब सौदागरों ने उसके भासन की प्रशसा को है। सुलेके सुप्रसिद्ध मन्दिरो का निकाण हुआ जिनमे वहा के प्रसिद्ध मान नामक सौदागर ने तो यहाँ तक लिखा है कि उसके जन गुहा मन्दिर भी है। उसने चालुक्यो के सारे प्रदेशों राज्य मे चोरी और ठगी काई भी नही जानता या, को अपने अधीन कर लिया। उसने आचार्य परवादिमल्ल सबका धर्म और धार्मिकसम्पत्ति सुरक्षित थी । अन्य-सषा को भी सम्मानित किया था। इस परेश को परम्परा मे लोग अपने-अपने राज्य में स्वतन्त्र रहता भी उसकी ध्रुव-धारावर्ष-निरुपम नामक शासक हुआ जिसने (७७६- प्रभुता स्वीकार करते थे। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटकमधर्म सम्राट अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में 'कविराजमार्ग' ज्योति प्रसाद जैन ने लिखा है कि "प्रो. रामकृष्ण भण्डानामक एक ग्रन्य अलकार और छन्द के सम्बन्ध में लिखा रकर के मतानुसार, राष्ट्रकूट नरेशों मे अमोघवर्ष जैनधर्म है जिसका आज भी कराड़ में आदर के साथ अध्ययन का महान् संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि किया जाता है। उसके समय मे सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था।" और कन्नड़ में विपुल साहित्य का सृजन हुआ। उसके सम्राट अमोघवर्ष के महासेनापति परम जिनमस्त बचपन के साथी आचार्य जिनसेन ने जैन-जगत् मे सुप्रसिद्ध बंकेयरस ने कर्नाटक में बंकापुर नामक एक नगर बसा 'आदिपुराण' जैसे विशालकाय पुराण की रचना की। थे। जो कर्नाटक के एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र के रूप मे प्रसिद्ध आचार्य ऋषभदेव और भरत का जीवन-चरित्र लिखने क हुमा और आज भी विद्यमान है। बाद ही स्वर्गस्थ हो गए। उनके शिष्प आचार्य गुणभद्र ने कृष्णराज द्वितीय (८७८-६१४ ई.) सम्राट् अमोघवर्ष उत्तरपुराण में शेष तीर्थकरो का जीवन-चरित लिखा। का उत्तराधिकारी हुआ। 'उत्तरपुराण' के रचयिता अन्य के अन्त में उन्होन लिखा है कि सम्राट अमोघवर्ष आचार्य गुणभद्र उसके विद्यागुरु थे। उसी शासनकाल मे जिनसेनाचार्य का चरणो की चन्द । कर अपने पापको आचार्य लोकसेन ने 'महापुराण' (आचार्य जिनसेन के धन्य मानता था। आयुर्वेद, व्याकरण ग्रादि से सम्बन्धित आदिपुर ण और आचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण) का अनेक ग्रन्थ उसी के आश्रय में रचे गए। उसने 'प्रश्नोत्तर पूजोत्सव बंकापुर में किया था। आज इस नगरी में एक रत्नमालिका' नामक पुस्तक स्वय लिखी है जिसके मगसा भी जैन परिवार नही है, ऐसी सूचना है। पूजोत्सव के चरण मे उसने महावीर स्वामी की वदना की है। उसके समय इस नरेश का प्रतिनिधि शासक लोकादिस्य वहां कुन्नर लेख तथा सजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि वह राज्य करता था। इस राष्ट्रकुट शासक ने भी मूलगुण्ड, एक श्रावक का जीवन व्यतीत करता था तथा जैन गुरुमो वदनिके आदि के अनेक जैन मन्दिरों के लिए दान दिए और जैन मन्दिरों को दान दिया करता था। रलमालिका' । थे। स्वयं राजा और उसकी पट्टरानी जैनधर्म के प्रति से यह भी सूचना मिलती है कि वह अपने अन्त समय में श्रद्धालु थे। उसके सामन्तों, व्यापारियों ने भी जिनालय राजपाट को त्याग कर मुनि हो गया था। सम्बन्धित बनवाए थे। श्लोक है __ इन्द्र तृतीय (९१४.९२२ ई.) भी अपने पूर्वजों की विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। भांति जिनभक्त था। उसने चन्दनपुरिपत्तन की बसदि रचितामोघवरण सुधियां सवलकृतिः ॥ और बड़नगरपत्तन के जैा मन्दिरो के लिए दान दिए थे अर्थात विवेक का उदय होने पर राज्य का परित्याग और भगवान शान्तिनाथ का पाषाण-निमित सुन्दर पादकरके राजा अमोघवर्ष ने सुधीजनो को विभूषित करने पीठ भी बनवाया था। अपने राज्याभिषेक के समय उसने वाली इस रत्नमालिका नामक कृति की रचना की। पहले से चले आए दानो को पुष्टि की थी तथा अनेक प्राचीन भारतीय इतिहासज्ञ डॉ. अनन्त सदाशिव धर्मगुरुओ, देवालयों के लिए चार सौ गांव दान किए थे। अल्ते कर ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकूट एण्ड देअर टाइम्स' कृष्ण तृतीय (९३९-९६७ ई.) इस वश का सबसे में लिखा है कि सम्राट् अमोघवर्ष के शासनकाल में जैन अन्तिम महान् नरेश था। वह भी जैनधर्म का पोषक था धर्म एक राष्ट्रधर्म या राज्यधर्म (State Religion) हो और उसने जैनाचार्य वादिषंगल भट्ट का बड़ा सम्मान गया था और उसकी दो-तिहाई प्रजा जैनधर्म का पालन किया था। ये बाचार्य गंगनरेश मारसिंह के भी गुरु थे। करती थी। उनके बड़े-बड़े पदाधिकारी भी जैन थे। इस शासक ने कन्नड़ महाकवि पोग्न को 'उभयभाषाचक्रउन्होंने यह भी लिखा है कि जैनियों की अहिंसा के कारण क्ती' की उपाधि से सम्मानित किया था। ये वही कवि भारत विदेशियों से हारा यह कहना गलत है। (सम्राट् पोन्न हैं जिन्होंने कन्नड़ में 'शान्तिपुराण' और 'जिनाक्षरचन्द्रगुप्त मौर्य का भी उदाहरण हमारे सामने है ।) . माले' की रचना की है। उसके मन्त्री भरत और उसके Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ष ४४,कि. ४ अनेकान्त पत्र नन्न ने अपभ्रंश भाषा मे रचित 'महापुराण' के महा- है कि अनुश्रुतियों के अनुसार इस वंश का प्रादिपुरुष कवि पुष्पदन्त को आश्रय दिया था। कवि ने लिखा है कि कीर्तिवीर्य था, जिसने जैन मुनि के रूप म तपस्या करके नन्न जिनेन्द्र की पूजा और मुनियो को दान देने में आनंद कर्मों को नष्ट किया था। 'कल' शब्द का अर्थ कर्म भी है का अनुभव करते थे। कवि पुष्पदन्त ब्राह्मण थे किन्तु मुनि और देह भी। अतएव देहद नन द्वारा कर्मो को चूर करने के उपदेश से जन हा गए थे। उन्होंने सल्लेखनाविधि से वाले व्यक्ति के वशज कलचुरि कहताये। इस वश मे शरीर त्यागा था। जैनधर्म की प्रवृत्ति भी अल्पाधि बनी रही। प्रो. रामा खोट्रिग नित्यवर्ष (६६७-६७२ ई. ने शान्तिनाथ के स्वामी आय्यगर आदि अनेक दक्षिण भारतीय इतिहासनित्य अभिषेक के लिए पाषाण की सुन्दर चोको समर्पित कारो का मत है कि पांचवी छठी शती ई. में जिन शक्तिकी थी ऐसा दानवलपाडु के एक शिलालेख से ज्ञात होता शाली कलभ्रजाति के लोगो ने तमिल देश पर आक्रमण और उसी के समय मे ६७१ ई. मे राजरानी आयिका करके चोड, चेत पारेको को पराजित करके पम्वन्वे ने केशलोंच कर पायिका दीक्षा ली थी और तीस । उक्त समस्त प्रदेश पर अपना शासन स्थापित कर लिया वर्ष तपस्या कर समाधिमरण किया था। था वे प्रतापी कलभ्र नरेश जैनधर्म के पक्के अनुयायी थे। गोम्मटेश्वर महामूर्ति के प्रतिष्ठापक वीरमार्तण्ड यह सम्भावना है कि उत्तर भारत के काचुरियो की ही ण्डराय एव गगनरेश मारसिंह जब अन्य स्थानों पर एक शाखा सुदूर दक्षिण मे कलभ्र नाम से प्रसिद्ध हुई युद्धों मे उलझे हुए थे तब मालका के परमार सिपक ने और कालान्तर में उन्ही कल भ्रो की सन्तति मे कर्नाटक के मान्यखेट पर आक्रमण किया जिसमे खोट्टिग मारा गया। कलचुरि हुए। उसके पुत्र को भी मारकर चालुक्य तैलप ने मान्यखेट पर ___आयंगार के ही अनुसार, कलचुरि शासक विज्जल अधिकार कर लिया। भी "अपने कुल को प्रवृत्ति के अनुसार जैनधर्म का अनुकृष्ण तृतीय के पौत्र और गगनरेश मारसिंह के भान्जे यायी था। उसका प्रधान सेनापति जैनवीर रेचिमय था। राष्ट्रकूट वंशी इन्द्र चतुर्थ की मारसिंह ने सहायता की, उसका एक अन्य जैन मन्त्री ब्रह्म बलदेव था जिनका उसका राज्याभिषेक भी कराया। श्रवणबेलगोल के शिला जामाता बामवनी जैन था।" इसी बामव ने जैनधर्म लेखानुसार, मारसिंह ने ६७४ ई. मे बकापुर में समाधि. और :न्य कुछ धर्मों के सिद्धान्तो को सममेलित कर 'वीरमरण किया। इन्द्रराज भी ससार से विरक्त हो गया था शैव' या लिंगायत' मत चलाया (इस आशय का एक पट्ट या लिगायत' 1 am और उसने भी ९८२ ई. में समाधिमरण किया। इस भी कल्याणी' के मोड पर लगा है। देखिए जैन राजधानी प्रकार राष्ट्रकूट वंश का अन्त हो गया। इस वंश के समय ___ 'कल्याणी' प्रकरण)। जो भी हो, विज्जल और उसके में लगभग २५० वर्षो तक जैनधर्म कर्नाटक का सबसे वशजो ने इस मत का विरोध किया। किन्तु वह फैलता प्रमुख एवं लोकप्रिय धर्म धा। गया और जैनधर्म को कर्नाटक में उसके कारण काफी कलचुरि वंश : क्षति पहुंची। कहा जाता है कि विज्जल ने अपने अन्त चालक्य वश के शासन को इस वश के विज्वल कल- समय मे पुत्र को राज्य सौप दिया और अपना शेष जीवन चरि नामक चालुक्यों के ही महामण्डलेश्वर और सेनापति धर्म-ध्यान मे बिताया। सन् ११८३ ई. में चालुक्य सोमेने ११५६ ई. में कल्याणा से समाप्त कर दिया। लगभग श्वर चतुर्थ ने कल्याणी पर पूनः अधिकार कर लिया और तीस वर्षों तक अनेक कलचुरि राजाओं ने कल्याणी से हो इस प्रकार कलचुरि शासन का अन्त हो गया। कर्नाटक पर शासन किया। ___अन्लूर नामक एक स्थान के लगभग १२०० ई. के कलचुरियो का शासन मुख्य रूप से वर्तमान महा- शिलालेख से ज्ञात होता है कि वीरशैव आचार्य एकान्तद भारत, महा कोसल एवं उत्तरप्रदेश में तीसरी सदी से ही रामय्य ने जैनो के साथ विवाद कि- और उनसे ताड़पत्र था। इनके सम्बन्ध मे डा. ज्योति प्रसाद जी का कथन पर यह शर्त लिखवा ली कि यदि वे हार गये तो वे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में नर्म जिनप्रतिमा स्थापित करेंगे। कहा जाता है कि रामय्य ने होयसल वंश की राजधानी सबसे पहले सोसेयूरु या अपना सिर काटकर पूनः जोड लिया। जैनों ने जब शर्त शशकपूर (आजकल का नाम अंगडि) फिर बेलूर और का पालन करने से इनकार किया तो उसने सैनिकों, घड़- उसके बाद द्वारावती या द्वारसमुद्र या दोरसमुद्र में रही। सवारो के होते हुए भी हलिगेरे (आधुनिक लक्ष्मेश्वर) मे अन्तिम स्थान आजकल हलेविड (अर्थात् पुरानी राजजैन मूर्ति आदि को फेंककर जिनमन्दिर के स्थान पर घानी) कहलाता है और नित्य ही बहा संकड़ों पर्यटक वीरसोमनाथ शिवालय बना दिया। जैनो ने राजा विज्जल मन्दिर देखने के लिए पाते है। से इसकी शिकायत की तो राजा ने जैनो को फिर वही इस वश की स्थापना जैनाचार्य सुदत्त वर्धमान ने की शर्त लिख देन और रामय्य को वही करिश्मा दिखाने के थी। होयसलनरेश जैनधर्म के प्रतिपालक थे, उसके प्रबल लिए कहा। जनो ने राजा से क्षतिपूर्ति की मांग की, न पोषक थे। रानी शान्तला तो अपनी जिन भक्ति के लिए कि झगड़ा बढ़ाने की । इस पर राजा ने रामय्य को जय- अत्यन्त प्रसिद्ध है। उसके द्वारा श्रवणवेलगोल में बनवायी दिया। इस चमत्कार की कथनी म विद्वाना का सन्दह हे गयी 'सतिगन्धवारा बसदि' और वहां का शिलालेख और इसका यही अर्थ लगाया जाता है कि वीरशैव या उसकी अमर गाथा आज भी कहते है । इस वश का इतिलिंगायत मत अनुयायियों न जैनो पर उन दिनो अत्या- हास बड़ा रोचक और कुछ विवादास्पद (सही दृष्टि हो चार किय थे । एक मत यह भी है कि विज्जल भी वासय तो विवादास्पद नही) है। विशेषकर विष्णुवर्धन को लेकर की बहिन भौर अपनी सुन्दर रानी पद्मावती के प्रभाव स तरह-तरह की अनुश्रुतियां प्रचलित है। जो भी हो, होयवीरशव मत की आर झुक गया था किन्तु उसे विषाक्त । सलवश का इतिहास और उससे सम्बन्धित तथ्यों की पास खिलाकर मार दिया गया। सक्षिप्त परीक्षा इसी पुस्तक मे हलविड' के परिचय के साथ की गई है। वह पढ़ने पर बहुत सी बातें स्पष्ट हो होयसल राजवंश : जाएंगी। यह वंश कर्नाटक के इतिहास मे सबसे प्रसिद्ध राज होयसल का अन्त १३१० ई. मे अलाउद्दीन खिलजी वंश है। इस वश से सम्बन्धित सबसे अधिक शिलालेख के और : ३२६ ई. मे मुहम्मद तुगलक के आक्रमणो के श्रवणबेलगोल तथा अन्य अनेक स्थानों पर पाये गये हैं। कारण हो गया। इस वश के राजा विष्णुवर्धन और उसकी परम जिनभक्त, विजयनगर साम्राज्य (१३३६-१५६५ ई.): सुन्दरी, नृत्यगानविशारदा पट्टरानी शाम्तला तो न केवल यह हम देख चुके है कि होयसल साम्राज्य का अन्त कर्नाटक के राजनीतिक और धार्मिक इतिहास तथा जन अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक के आक्रमणो के श्रुतियो मे अमर हो गये है अपितु उपन्यास आदि साहित्यिक कारण हुआ। मन्तिम होयसलनरेश बल्लाल की मृत्यु के विधाओ के भी विरजीवी पात्र हो गये है। मूडबिद्री के बाद उसके एक सरदार सगमेश्वर या सगम के दो बेटोंप्राचीन जैन ग्रथो मे भी उसके चित्र सुरक्षित हैं। हरिहर और बुक्का ने मुसलमानों का शासन समाप्त करने उपर्युक्त वश अपनी अदभत मन्दिर और मूति-निर्माण की दृष्टि से सगम नामक एक नये राजवंश की १३३६ ई. कला के लिए भी जगविख्यात है। बेलूर, हलेबिड और मे नीव डाली। उन्होंने अपनी राजधानी विजयनगर या सोमनाथपुर (सभी कर्नाटक मे) के तारों (star) की (विद्यानगर) मे बनाई जो कि आजकल हम्पी कहलाती है। आकृति के बने, लगभग एक-एक इंच पर सुन्दर, आकर्षक यह वाल्मीकि रामायण में वर्णित किष्किन्धा क्षेत्रमे स्थित नक्काशी के काम वाले मन्दिरों ने उनके शासन को है और प्राचीन साहित्य मे पम्पापुरी कहलाती थी। अजैन स्मरणीय बना दिया है। उसके समय की निर्माणशैली तीर्थयात्री इसे पम्पाक्षेत्र कहते हैं और आज भी बालीअब इस वश के नाम पर होयसल शैली मानी जाती है। सुग्रीव की गुफा आदि की यात्रा करने आते हैं । उसकी पृथक पहिचान है और पृथक् विशेषता । (क्रमशः) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र अहार के जैन यंत्र 0 डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' जैनधिद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी (राज.) मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जैनपुरातत्त्व की दृष्टि बायीं ओर लिखा गया है । शब्द रचना में वर्णों का प्रयोग से अतिशय क्षेत्र अहार का मौलिक महत्त्व है। यहाँ चन्देल दायीं ओर न किया जाकर बायी ओर किया गया है। कालीन स्थापत्य एवं शिला कला का अपार वैभव संग्रहीत शब्द के आदि का वर्ण अन्त में प्रयुक्त हपा है। जैसे है। निश्चित ही यह स्थली अतीत मे जैनों की उपासना टीकमगढ़ निम्न वर्ण क्रम में लिखा गया है--'ढ ग म क का केन्द्रस्थल रही है। टी' । अभि ख निम्न प्रकार उत्कीर्ण हैमध्यकाल में श्रावको ने भिन्न-भिन्न प्रकार के व्रता संवत् २०२६ श्री सिद्धक्षेत्र अहारमध्ये गजरथ पंचकी साधनाएं की तथा उन व्रतो से सम्बन्धित यन्त्र भो कल्याणक प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठाप्य इह श्री सिद्धचक्र यत्र प्रतिष्ठापित किये । अहार केत्र में जिन व्रतों को साधनाएं नित्यं प्रणमति टीकमगढ म. प्र. हुई तथा उनसे सम्बन्धित जो यन्त्र प्राप्त हुए हैं, उनकी (४) सरस्वती यन्त्रम संख्या तीस है। इन यन्त्रों मे पीतल और तांबा घात यह यंत्र ताम्र धातु के एक चौकोर फलक पर उत्कीर्ण व्यवहृत हुई है। पीतल घातु से निमित फलक तेरह और है। इस फलक की ऊचाई सत्रह इच और चौड़ाई दस तांबा धातु के फलक अठारह है। इनके आकार दो प्रकार इंच है। इसके शिरोभाग पर चार पंक्ति का संस्कृत भाषा के गोल और चौकोर । पीतल धातु के गोल आकार और नागरी लिपि में निम्न लेख उत्कीर्ण हैमें बारह और एक चौकोर यत्र है। इसी प्रकार ताम्र १. विक्रम संवत् २००४ फाल्गुन शुक्ला पंचम्यां धातु के गोल यंत्र दस तथा आठ चौकोर यत्र हैं। इन २. रविवासरे अहार क्षेत्र श्री इन्द्रध्वज पंचयंत्रों का विवरण निम्न प्रकार है ३. कल्याणक गजरथ प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापि. (१) ऋषिमण्डल यन्त्र ४. तम् । यह यन्त्र पीतम धातु के तेरह इच वाले फलक पर (५) मातका यन्त्र निभित है। इसमे निर्माण काल पादि से सम्गन्धित कोई यह यन्त्र ताम्रधातु के एक चौकोर फलक पर उत्कीर्ण लेख नहीं है। है। इस फलक की लम्बाई-चौड़ाई दस इंच है। इसके (२) चिन्तामणि पार्श्वनाष यन्त्र शिरोभाग पर संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में निम्न यह यन्त्र पीतल धातु से निर्मित चौदह इंच वर्तुला चार पंक्ति का लेख हैकार फलक पर उत्कीर्ण है। इस यन्त्र पर भी निर्माण काल आदि से सम्बन्धित कोई लेख उत्कोणं नही है। यत्र १.विक्रम संवत् २०१४ फाल्गुन शुक्ला पंचाभ्यां रवि. प्राचीन प्रतीत होता है। २ वासरे अहारक्षेत्र श्री इन्द्रध्वज पञ्चकल्या ३ पक यजरथ-प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापि(३) श्रीवृहद् सिद्धचक्र यन्त्र ४ तम् । यह यन्त्र १३ इंच के वर्तुलाकार ताम्रधातु के एक (६) अचल यन्त्र फलक पर उत्कीर्ण है। गुलाई में एक पक्ति का लेख भी यह यन्त्र पीतल धातु के फलक पर उत्कीर्ण है। यह उत्कीर्ण है। इस लेख की लेखन शैली आधुनिक लेखन- १० इंच ऊंचा और ६.३ इंच चौड़ा है। यन्त्र के नीचे दो शैली से भिन्न है। उर्दू भाषा के समान इसमें दायीं से पंक्ति का संस्कृत भाषा और नागरीलिपि में निम्न लेख Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षत्र महार के जैन यन्त्र उत्कीर्ण है (१०) मोक्षमार्ग-चक्र यन्त्र १. सवत् १९६६ फागुण वदी ११ ताम्र धातु से निर्मित वर्तलाकार ८ इच के एक २. प्रतिष्टत नग्र सरकनपुर फलक पर उत्कीर्ण इस यन्त्र के नीचे भी लेख है, जिसमें विशेष यन्त्र की अहार क्षेत्र मे संवत् २०१४ मे प्रतिष्ठा कराये इम यत्र लेख से ज्ञात होता है कि ग्राम सरकनपुर मे जाने का उल्लेख है । लेख निम्न प्रकार हैसम्वत् १९६६ मे कोई विधान आयोजित हआ था जिसमे विक्रम सवत् २०१४ फाल्गुण शुक्ला पञ्चम्यां रविजिसमे इस यत्र की प्रतिष्ठा कराई गयी थी। यह यन्त्र वासरे अहारक्षेत्र श्री इन्द्रध्वज पचकल्याणक गजरथ सम्भवत' सुरक्षा की दृष्टि से अहार क्षेत्र को सौपा गया प्रतिष्ठ यां प्रतिष्ठापितम् । प्रतीत होता है । यह भी सम्भव है कि सरकनपुर के जनों (१२) वर्द्धमान-यन्त्रम् ने अहारक्षेत्र मे अकर विधान आयोजित करके इस यन्त्र ताम्रातु से निर्मित ६.६ वर्तुला कार फलक पर को प्रतिष्ठा कराई हो। निर्मित इस यन्त्र पर सस्कृत भाषा और नागरी लिपि में (७) ऋषिमण्डल-यन्त्र निम्न लेख उत्कीर्ण हैपीतल धानु मे वर्तुला कार में निर्मित इस यन्त्र का विक्रम संवत् २०१४ फाल्गुण शुक्ला पंचम्यां रविपलक ६.६ इच आयताकार है। नीचे सस्कृत भाषा और वासर अहाक्षत्र था इन्द्रध्वन पचल्याणक गजरथ नागरी लिपि में निम्न लेख उत्कीर्ण है प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापिताम् । मबत् १७६१ वर्षे फागुन सुदि ६ बुधवासरे श्री मूल (१३) नयनोन्मीलन यन्त सघे वलात्कारगण सरस्वतीगच्छे कुदकुदाचार्यान्वये भट्टारक यह यन्त्र फलक आठ इच वर्तुलाकार ताम्र धातु से श्री विश्वभूषणदेवास्तत्पट्टे भ० (भट्टारक) श्री देवेन्द्रभूषण निर्मित है। नीचे संस्कृत भाषा और नागरी लिपि मे तीन देवास्तत्प? श्री सुरेन्द्रभूषणदेवास्तदाम्नाये लंवकंचुकान्वये को पक्ति का निम्न लेख हैसा० (साधु) परता पु०. प्रासापति पा० सुभा (शुभा) १. विक्रम संवत् २०१४ फाल्गुण शुक्ला पंचम्यां एसे नित्य प्रणमति श्री....... ... २. रविवासरे अहारक्षेत्रे श्री इन्द्रध्वज पंचकल्याणक (८) सिद्धचक्र यन्त्र ३. गजरथ प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापितम् । यह यन्त्र पीतल धातु के १०.३ इच वर्तुलाकार एक (१४) पूजा यन्त्रम् फलक पर उत्कीर्ण है । यत्र के नीचे यत्र-प्रतिष्ठाता श्रावक यह यन्त्र ताम्र धातु से निर्मित ८ इच के वर्तुलाकार श्रावक का हिन्दी भाषा और नागरी लिपि में नामोल्लेख ____एक फलक पर अकित है। दुलाई मे निम्न लेख सस्कृत भी किया गया है। यह यत्र सम्बत् विहीन है। भाषा भाषा और नागरी लिपि मे उत्कीणं हैप्रयोग से यह अर्वाचीन प्रतीत होता है। लेख इस प्रकार स० (सवत्) २०१४ फाल्गुण शुक्ला ५ रविवासरे अहारक्षेत्रे गजरथ पचकल्याणक प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापितम् । थो सिंघई वृन्दावन शिखर चन्द जो लार । (१५) विनायक यन्त्र (६) कल्याण वलोक्यसार यन्त्रम् इस यन्त्र का फलक ताम्र धातु में निर्मित है। यह __यह यात्र ६ इच के वर्तुलाकार एक ताम्र धातु से फलक ८ इच वर्तुलाकार है। नीचे लेख उत्कीर्ण है जिसमे निमित फलक पर उत्कीर्ण है। मन्त्री गुलाई मे सस्कृत लाला राजकुमार सुशीलकुमार बहरामघाट जिला बाराभाषा और नागरी लिपि मे निम्म लग भी अंकित है- बंकी द्वारा सवत् २०२५ में कार्तिक शु० (शुक्ला)८ विक्रम संवत् २०१४ फाल्गुण शुक्ला पचम्यां रवि- अष्टमी मंगलवार के दिन इम यन्त्र की प्रतिष्ठा कराये वासरे अहारक्षेत्र श्री इन्द्रध्वज-नकल्याणक गजरथ जाने का उल्ले। है। ज्ञात होता है यह यन्त्र प्रतिष्ठाकर्ता प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापितम् । ने इस क्षेत्र को भेंट में दिया था। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m; कि.. अनेकान्त (१९) पंचपरमेष्ठी यन्त्र जीत देवराज्योदयात् जात (जाति) गोला पूरब बैंक ष(खु) यह यन्त्र पीतल धातु के वर्तुलाकार | इंच के एक रदेले मनीराम तत भार्या मोनदे तयोः पुत्र..... फरक पर उत्कीर्ण है। नीचे संस्कृत भाषा और नागरी ३. जेष्ट (ज्येष्ठ) पुत्र लले भार्या भगुती तयोः पुत्र-३ मिपि मे चार पंक्ति का निम्न लेख अंकित है दीपसा................."दुतिय पुत्र उमेद भार्या स्याभेतयो: १. संवत् १९५६ श्री........"(शुभ नाम समये वर्ष) पत्र-४ सवसष (ख) दुलारे तडावत लाडिले नित्य प्रन(ण) फागुन मासे सुक्ल (शुक्ल) पक्षे तिथि १०मी गुर (गुरु) मति (मंति)। वासरे पुष (पूष्य) नक्षत्र श्री मूलसंघे बनात्कारगने (ण) इस लेख मे ख वर्ण के लिए 'ब' वर्ण का प्रयोग हुआ २. सरस्वतीगछे (गच्छे) कुंदकुद आचार्यान्वये श्रीमत् है। श के स्थान स का प्रयोग भी द्रष्टव्य है । सा (शा) स्त्रोपदेशात् जिनविंव जत्रोपतिष्ठतं परगनी (१९) दशलक्षण धर्म यंत्र मोड्छौ नम वांध (बंधा) श्री महाराजाधिराज श्रीमहाराजा यह यंत्र पीतल धातु के ६.५ इंच वर्तुला कार एक ३. श्री महेंद्र महाराजा (1) विक्रमाजीत राज्योदयात्। ज्यादयात् फलक पर उत्कीर्ण है। यत्र पर निम्न लेख भी कित हैज्यात (जात) गोलापूरब बैक षु(ख)रदेले मनीराय तत् सवत् १८५६ श्री सुव (शुभ) नाम समए (ये) वषे प्राता मौनदेतवो पुत्र २ जेष्ट पुत्र खले भार्या भगतो तयो (वर्षे) नाम फाल्गुन (ण) मासे टू (शुक्ल पक्षे तिथौ १० । पुत्र-२ दीपसा लारसा झुतारे गुरुवासरे श्री मूलसघे वलात्कारगने (णे) सरस्वतीगर्छ ४. दुतीय पुत्र उमेद भार्या स्याणे (सयानी) तयोः पुत्र 1) तयाः पुष (च्छे) श्री कुदकुदाचाज(य)न्वये श्रीमत सा(शा स्त्रोपदेशात् ४ एवसुष (ख) दुलारे गुडारात लाडेले नित्य प्र-(ण)मति । श्री जिनविव जत्रो पतिष्ठत (प्रतिष्ठित) नन...." इस यन्त्रलेख में 'ख' वर्ण के लिए 'ष' वर्ण का प्रयोग ......... - नित्यं प्रन(ण)मति । हुआ है प्रस्तुत लेख में आये मनीराम का नामोल्लेख (२०) दशलक्षणधर्म यंत्र सोनागिरि मे संवत १८५३ के एक हिन्दी शिलालेख को यह यन्त्र पोतल धातु से निर्मित ८.५ इच के वर्तला सातवीं पंक्ति मे भी हुआ है। दोनों नाम अभिन्न ज्ञात कार एक फलक पर उत्कीर्ण है। नीचे निम्न लेख हैहोते हैं। सवत् १९६६ फाल्गुन सु(शुक्ल ११ प्रतिष्ठत नग्र (१७) सोलहकारण यंत्र सरकनपुर मध्ये माधो सेठ मूलचद पलए। यह यन्त्र पीतल के १.६ इची गोल फलक पर उत्कीर्ण (२१) सिद्धचक्र यंत्र है। यन्त्र के नीचे निम्न लेख है पीतल धातु से निर्मित ७.३ इच के वर्तुलाकार एक संवत् १६६६ फाल्गुन मासे कृष्ण पक्षे प्रतिष्ठतं नग एक फलक पर उत्कीर्ण इस यन्त्र के नीचे दो पक्ति का (नन) सरकनपुर मध्ये माथे सेठ मूलचं-(द) पलए। लेख है(१८) सोलहकारण यंत्र १. संवत् १९८१ जेष्ठ (ज्येष्ठ) कृष्ण १० को सेठ पीतल धातु के गोल ६ इंच के एक फलक पर उत्कीर्ण पल्टूलाल श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये................" इस यन्त्र पर तीन पंक्ति का एक लेख अकित है ... ... ... ... ... .""सरकनपुर "" १. सवत् १८५६ श्री सुव (शुभ) नाम समये वषे (२२) अष्टांग सम्यग्दर्शन यंत्र (वर्षे) फाल्गुन मासे सुक्ल (शुक्ल) पक्षे तिथ (थि) १० यह यन्त्र ५.३ इंच के वर्तुलाकार पीतल धातु के एक दसमी गुर (रु) बासरे श्री मूलसंघे वलात्कारगने(णे) सर- फलक पर निर्मित है। अहार क्षेत्र में प्राप्त यन्त्रो मे एक स्वतीगच्छे श्री कुंदकुद आचार्य(य)-वये श्रीमत् मात्र यही यन्त्र है जिसमें ४क सम्वत् का प्रयोग हुआ है। २. सा (शा) स्त्रोपदेशात् श्री जिनविब जंत्रो पतिष्टतं श्री गोविन्ददास कोठिया ने इस यन्त्र का सम्वत् विक्रम (प्रतिष्ठतं) परगनो जोडछो नन बाध (बधा) श्री महा- सम्बत् बताया है। उन्होंने सम्वत् सूचक अंकों मे शून्य को राजाधिराजा श्री महाराजा श्री महेंद्र महाराजा । विक्रमा- सात अंक मानकर इस यन्त्र का सम्वत् १६६७ माना है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र प्रहार के जैन यन्त्र इसी प्रकार एकम तिथि का उल्लेख किया है । इस यन्त्र का व्यवहार हुआ है। देशी बोली में प्रयुक्त फानुन शब्द लेख का उल्लेख 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तक मे लेख नम्बर का व्यवहार भी उल्लेखनीय है । १२८ से हुआ है। शक सम्वत होने से यह लेख विक्रम भावार्थ-सम्बत् १६८३ के फाल्गुन सुदी तृतीया के सम्वत् १७४२ का ज्ञात होता है। लेख निम्न प्रकार है- दिन श्री धर्मकीत्ति के उपदेश से श्रष्ठ भट्टारक किशुन के मूलपाठ पुत्र मोदन, श्याम, रामदास, नन्दराम, सुखानन्द और भग१. शके (शक सम्बते) १६०७ मार्गसिर (मार्गशीर्ष) वानदास तथा उसके पुत्र आशाजात, श्रीराम, दामोदर, शुक्ल १० बुधे श्री मलसघे सरस्वतीगछे (गच्छे) वला- हिरदेराम, किशुनदास और वैशाखनन्दन के परिवार ने स्कारगणे कंदकुंदाच्चर्यो (चार्यो) भट्रारक श्रीविशालकी- प्रतिष्ठा कराई। वे सब इस यन्त्र को नमस्कार करते हैं। त्तिस्तत्पी भट्टारक श्री पद्मकीत्तिस्तयोः उपदेशान् ज्ञानी- प्राचीन शिलालेख पुस्तक मे इसका लेख नम्बर १२७ है। (सी) छी (छि) (२४) सोलहकारण यन्त्र १. तवान् नीवन कारे सेमवा भार्या निवाउभागाइर यह यन्त्र ७.३ इच गोल ताम्र फलक पर उत्कीर्ण है। नयो. पुत्र यादोजी भार्या देवाउ प्रणमंती-(ति) । यन्त्र का भाग कुछ ऊपर उठा हुआ है। दो पक्ति का पाठ टिप्पणी निम्न लेख हैदुमरी पंक्ति मे मीवनकार विशेषण शब्द है जिसका १. संवत् १७२० वर्षे फागुन (फाल्गुन) सुदि १० शुक्र अर्थ सम्भवतः मिलाई करने वाला है। श्री व० (वलात्कारगणे) म० (मूलसघे) स० (सरस्वतीभावार्थ---शक मम्बत् १६०७ के अगहन मास के गन्छे) कुंदाकुंदाचार्यान्वये भ० भट्टारक) श्री सकलकोत्तिशुक्ल पक्ष की १०वों बुधवार के दिन मूलसंघ सरस्वती उपदेशात् गोलापूर्वान्वये गोत्र पेथवार प० (पण्डित) वसेगच्छ बलात्कारगण और आचार्य कुन्दकुन्द की आम्नाय दास भा० (भार्या) परवति (पार्वती) तत्पत्र ५ जेष्ट के भट्रारक विशाद कीति तथा उनके पट्ट पर बैठने वाले डोगरूदल, विस(शु)न चन-उग्रसेनि नित्यं प्रनमम ति इन दाना उपदेश इपानिया में सुशाभित २. ति सि. (सिधई) ष(ख) रगसेनिक यन्त्र प्रतिष्ठासिलाई करके जीविका करने वाले सेमवा और उसकी मैइयत्र प्रतिष्ठित ।। सुष(ख)चन ॥ पत्नी निवाउ भागा इन दोनों का पुत्र यादोजी और पुत्रवधू पाठ टिप्पणी देवाउ प्रणाम करते है। (२३) तेरहविधचारित्र यंत्र इस यन्त्र मे व, म, स, भ, भा, सि. शब्दो के प्रथम यह यन्त्र ताम्र धातु से ६ इंच की गूलाई में निर्मित वर्ण देकर शब्दों के सक्षिप्त रूप दर्शाये गये हैं। पूर्ण शब्द है। यन्त्र के बाह्य भाग में दो पंक्ति का संस्कृत भाषा लेख मे सक्षिप्त वर्गों के आगे कोष्टक मे लिखे गये है। और नागरी लिपि में निम्न लेख अकित है श के स्थान में 'स' तथा ख स्थान मे 'ष' वर्ण व्यवहत १. संवत् १६८३ फागुन (फाल्गुन) सु० (सुदि) ३ हुए है। श्री धर्मकोत्ति उपदेशात् समुकुट भ० (भट्टारक) किसुन भावार्थ-मूलसघ वलात्कारगण सरस्वतीगच्छ (किशुन) पुत्र मोदन स्याम (श्याम)-रामदाम-नंदराम-सुषा कुन्दकुन्दाचार्याम्नाय के भट्टारक सकलकीर्ति के उपदेश से (खा)नंद-भगवानदास पुत्र आमा(शा) गोलापूर्व पेयवार गोत्र के पण्डित वसेदास और उनकी २. जात सि......(साराम) द (दा)मोदर-हिरदेशम पत्नी पार्वती के पांच पुत्रों मे ज्येष्ठ डोंगर, ऊदल, विशुनकिसु(शु)नदास-वैसा(शा)ष(ख) नंदन परवार/एते नमंति। चैन, उयसेन और सुखचन ने सम्वत् १७२० मे फाल्गुन पाठ टिप्पणी सुदी १०वीं को सिंघई खरगसेन की यत्र प्रतिष्ठा में इस इस यन्त्र लेख में सुदि शब्द के लिए सु०, भट्टारक के यन्त्र की प्रतिष्ठा कराई। वे यन्त्र को नित्य नमस्कार लिए भ०, खवर्ण के लिए 'ष' तथा 'श' के लिए स वर्ण करते हैं । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४४, कि०४ अनेकान्त Q (२५) सिद्धचक्र यन्त्र एतेषा.. .. ताम्र पातु से निर्मित ६ इंच के चौकोर फलक पर ६. .............."सम्यकचारित्र । इस यन्त्र में तीन पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है पाठ टिप्पणी १. पं० (पण्डित) मौजीलाल जैन देवराहा मन्दिर यह यन्त्र लेख 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तक मे लेख बी को मेंट नम्बर १२५ से प्रकाशित हुआ है जिमम अन्तिम तीन १. फाल्गुन सुदी १२ रविवार संवत् २०२१ पपौराजी पंक्तियां नहीं हैं । इस लेख मे अनुनासिक अनुस्वार के रूप ३. गजरथ महोत्सव । में, संख्या बंकों में और शुक्ल शब्द के लिए 'सि' शब्द भावार्थ-पपोग क्षेत्र में सवत् २०२१ के फाल्गुन का व्यवहार हुआ है। शुक्ल द्वादशी रविवार के दिन हुए गजरथ महोत्सव में भावार्थ-सम्वत् १६४२ के फाल्गुन सुदि १० शुक्रदेवराहा निवासी पडित मौजीलाल जी जैन को भेंट मे वार मगसिर नक्षत्र में अकबर जनालुद्दीन महाराज के दिया। राज्य में उत्तरप्रदेश के फिरोजाबाद नगर में श्रीमूल सघ, (२६) विनायक यन्त्र बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, कुन्दकुन्दाचार्य को आम्नाय यह यन्त्र ५ इंच के चौकोर ताम्र फलक पर उत्कीर्ण के भट्टारक श्रीधर्मकीतिदेव के पट्ट के उत्तराधिकारी भट्टहै। इस पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है। रक शीलसूत्रनदेव और इनके पश्चात् पट्ट प' बैठने वाले (२७) तेरहविधचारित यन्त्र भचरक ज्ञानसूत्रदेव की आम्नाय के शाह हरजू के गुप यह यन्त्र ताम्र धातु के ६.२ इंच चौकोर फलक पर दोदि और नगरु इनमे दोदि के पाच पुत्र-लोहग, धरणीनिर्मित है। यन्त्र का भाग फलक के मध्य मे ४३ इंच धर, भायारु, दोसीलो और श्री कमल । इनमें कमलापति वर्तलाकार है। वाह्य भाग मे गुलाई मे संस्कृत भाषा के तीन पुत्र-मित्रमेनि, चन्द्रगनि, उदयसेनि तथा मित्रऔर नागरी लिपि मे उत्कीर्ण किया गया छह पंक्ति का सेनि के पुत्र-ससुरामल्ल और चन्द्र सेन के पुत्र ने इस लेख है जो यन्त्र के टूटे हुए कोण से आरम्भ होता है। यन्त्र की प्रतिष्ठा कराई। यह यन्त्र भेंट स्वरूप इस क्षेत्र लेख निम्न प्रकार है। को प्राप्त हुआ ज्ञात होता है। मूल पाठ (२८) सोलहकारण यंत्र १. संवत् (सम्वत्) १६४२ फाल्गुन सित (शुक्ल) यह यन्त्र ताम्र धातु के ६ इच चौकोर एक फलक के १० गुरी मगे श्री अवरजलालस्य राज्ये पेरोजावादे श्री मध्य मे ऊपर उठे हुए भाग पर सोलह भागो में उत्कीर्ण मलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकंदाचार्यान्वये है। यन्त्र के ऊपरी भाग मे दो पक्ति का सस्कृत भाषा भट्टारक श्री और नागरी लिपि में एक लेख भी अंकित है जिसमे सवत् २. र्मकीत्तिदेवास्तत्प? श्री भट्टारक शीलसूत्रनदेवा- सूचक अंक अपठनीय है। लेख निम्न प्रकार हैस्तत्पट्ट भट्टारक श्री ज्ञानसूत्रदेवास्तदाम्नाये लवकंचुक मलपाठ जातो साधु १. इं (ऐ)द्रं पदं प्राप्य पर प्रमोद धन्यात्मतामात्मनि३. श्रीहरुजू पुत्री-२ दोदि-नगरू तत्र दोदि भार्या प्रभा मान्यमाना (न:) ....." (दक) शुद्धितत्पुत्राः ५ लोहग धरणीध २. मुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या महाम्यह षोडश-कारणानि ४. र भायारु-दोसी लो-श्री कमले तत्र लोह-(गु) ॥१॥ अथ संवत् (अंक नहीं है) पाठ टिप्पणी ५. ........."कमलापति भार्या माता तत्पपुत्रा: ३ इस यंत्र-लेख में उल्लिखित श्लोक के चारो चरणों मित्रसेनि-चद्रसेनि-उदयसेनि । तत्र मित्रसेन (न) भार्य(फ) में ११-११ वर्ण हैं। प्रथम तीन चरणो मे वर्ण तगण-लगणपराणमती तत्पत्रो ससुरामल्ल-चंदसेन भार्या कल्हण जगरण दो गुरु के क्रम मे है किन्तु अन्तिम चरण में जगण, भार्या Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र महार के जम यन्त्र तगण, जगण एक गुरु और एक लघु वर्ण के क्रम में वर्ण ६.त्तिदेवाः (यंत्र) अनोत्काव्यवहृत हुए हैं। प्रथम तीन चरणों की दृष्टि से इन्द्रवजा १०.न्वये स० (साह) नरदेवा (यत्र) स्तस्य भार्या स० और अन्तिम चरण की द्रष्टि से उपेन्द्रवज्रा छन्द का (सारणी) व्यवहार हुआ ज्ञात होता है। अन्तिम चरण का अन्तिम ११. जैणी ययेः (यो.) पुत्र स० (साहु) विहराज तस्य वर्ण दीर्घ होना चाहिए था। यंत्र लेखो में यही एक लेख भार्या साध्वी हरसो स० (साहु) वरदेवहै जिसमें पद्य का व्यवहार हुआ है। १२. भ्राता स० (साहु) रूपचंद तस्य पुत्र स० (गाई) भावार्थ-परम प्रमोद रूप इन्द्र के पद को धारण नालिगु द्वितीय समलू । स० (साहु) नालिगु पुकर अपने अन्दर अपने आपको धन मानता हुआ तीर्थकर १३. व आढू प्रतिष्ठ (तम्) । लक्ष्मी की मैं पूजा दरता हूं। यह पद्य सम्कृत षोडश पाठ टिप्पणी कारण पूजा का स्थाप-पद्य है। इस यज्ञ लेख में स० साहु के और मा० माहणी के (२६) अष्टांग सम्यग्दर्शन यन्त्र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स के स्थान में स का चार भी द्रष्टव्य है। यह यन्त्र ताम्र धान के ५३ इच चौकोर एक फलक भावार्थ-संवत् १५०२ कार्तिक मुदिमी भोमपर उत्कीर्ण है। इसकी तीन कनियाँ हैं। मध्य के दो वार के दिन काष्ठासंघ के भट्ट र क श्री गण मात्तिदेव के भाग ऊपर की होर उठे हुए हैं। दूसरी कटनी की अपेक्षा प्रशिष्य और श्री यशकोत्तिदेव के शिष्य भट्ट रक गनयप्रथम कटनी (मध्य भाग) अधिक ऊंचा है। ऊपरी भाग कोत्तिदेव को आम्नाय के अग्रवाल शाह वरदेव के पुत्र में सस्कृत भाषा और नागरी लिपि में तेरह पंक्ति का लेख शाह विहराज और पुत्रवधु हरसो न तथा वरदेव के भाई अंकित है जो ह्रीं वीजाक्षर की ओर से आरम्भ हुआ है। शाह रूपचन्द यो के नालियुग और समलू दो पुगो तथा यह सर्वाधिक प्राचीन यत्र है । 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तक नालिग के पुत्र आढ़ ने इस यत्र की प्रतिष्ठा कराई। मे इसका उल्लेख लेख संख्या १२६ से हुआ है। लेख (३०) धर्मचक्र यन्त्र निम्न प्रकार है यह यन्त्र पीतल धातु के ७ इच व लाकार एक फलक मूलपाठ पर ४६ आरे बनाकर बनाया गया है। इस पर कोई लेख १. कल्पनातिगता बुद्धिः परभावा विभाविका। ज्ञानं नही है। इस यन्त्र के आरे ७.७ दिन तक सात प्रकार के निश्चयतो जे. मेघों के बरसने के पश्चात् नयी सृष्टि के धर्म और काल २. य तदन्य व्यवहारत. ।। सवत् १५०२ वर्षे का. परिवर्तन के चक्र को ओर ध्यान आकृष्ट करते है। ३. निग (क) सुदि ५ भौ (यत्र) मदिने श्री का (३१) श्री पार्श्वनाथ चितामणि यंत्र ४. ष्ठासंघे भ (यंत्र) ट्टारक श्री गु यह वन्त्र चौकोर दो इंच के एक ताम्र फनक पर ५. णकीत्ति (यंत्र) देव तत्प। उत्कीर्ण है। कोई लेख नहीं है। यन्त्र सोलह भागो मे ६. श्री च (यंत्र) स (श) की विभाजित है। प्रत्येक भाग में ऐसी संख्या है जिसका बायें ७. त्तिदेव से दायें या ऊपर से नीचे चार वण्डों का योग १५२ १. तत्पट्ट श्री (यंत्र) मलको आता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंत्र निम्न प्रकार है णमो लोए सव साहूण णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण णमो उवज्झायाण विशेष यन्त्रो को क्रम संख्या वही रखी गयी है जो संख्या यन्त्रों के पृष्ठ भाग में पेंट से अंकित है। यन्त्रों का विवरण निम्न प्रकार है :-- क्रमाक नाम यत्र संख्या क्रमांक नाम यत्र संख्या ऋषिमण्डल नयनोन्मीलन चितामणि पार्श्वनाथ सिद्धचक्र विनायक मरस्वती पंचपरमेष्ठी मातृका सोलह कारण अचल दशलक्षण कल्याण त्रैलोक्य सार अष्टांग सन्यग्दर्शन मोक्षमार्गचक्र तेरहविधचारित्र निर्वाण संपत्कर वर्तमान धर्मचक्र कुल यन्त्र संख्या ३१ नोट। सभी यंत्र मन्दिर संख्या-२ भोयरा मन्दिर में सुरक्षित है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री मदनीति द्वय 0 ले० श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली जैन वाङ्गमय के इतिहास में हमें मदनकोति नाम के इत्युदय सेनमुनिना कवि सुहृदायोऽभिनन्दितः प्रीत्यः । दो मुनियो के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। पहले प्रज्ञापुजोऽसीति च योऽभिहितो मनदकीति यतिपतिना ॥ मदनकीति तो वे हैं जिन्होंने स. १२६२ के लगभग स० १४०५ मे श्वे० विद्वान् राजशेखर सूरि ने 'शासन चतुस्त्रिंशतिका' (शासन चौतीसी) नामक सुपुष्ट 'प्रबन्धकोष' (चतुर्विशति प्रबध) नामक ग्रन्थ लिखा था रचना की थी जिसमें विभिन्न ऐतिहासिक सिद्ध क्षेत्रों जिसमें चौबीस विशिष्ट व्यक्तियों के परिचयात्मक प्रबंध एवं अतिशय क्षेत्रों का वर्णन है। इन्हें पाठक मदनकीति लिखे हैं उनमें से एक 'मदनकीर्ति प्रबन्ध' नामक प्रबंध भी प्रथम के नाम से पहिचान करें। है इसमें मुनि मदनकीर्ति प्रथम की विद्वत्ता एवं प्रतिभा का दूसरे मुनि मदनकीति वे है जिनके शिष्य ब्र० नर- विशिष्ट वर्णन करते हुए उन्हें 'महाप्रमाणिक चूडामणि' सिंहक ने झुंझुणपुर में सं० १५१७ में "तिलोयपण्णत्तो" लिखा है । साथ ही लिखा है कि वे इतने प्रतिभाशाली थे को प्रतिलिपि की थी तथा सं० १५२१ में इन्ही के शिस्य कि एक दिन मे पाच सौ श्लोक रच लेते थे पर लिख नेत्रनंदी के लिए 'पउमचरिउ' की प्रतिलिपि की गई थी, नहीं पाते थे। वे वाद-विवाद में बड़े निष्णात थे। अपने इन्हें हम मुनि मदनकोति द्वितीय के नाम से सबोधित प्रतिपक्षियों को अकाट्य युक्तियों द्वारा सदैव परास्त कर करेंगे। दिया करते थे इसलिए वे 'महाप्रामाणिक चूडामणि' के मनि मवनकीति प्रथम-मुनि मदनकोति प्रथम विरुद से विख्यात हुए थे। तेरहवी सदी के विख्यात मनीषी विद्वान् थे नो 'यतिपति' एक बार वे अपने गुरु विशालकीर्ति जी की आज्ञा और 'महाप्रामाणिक चूडामणि' शीर्षक विरुदो (उपाधियों- विना ही महाराष्ट्र आदि प्रदेशो में वाद विवाद के लिए विशेषणों) से सुशोभित थे। इनके गुरु का नाम श्रीविशाल चल दिये; भ्रमण करते हुए कर्णाटक प्रान्त के विजयपुर कीर्ति था। "शब्दार्णव चन्द्रिकाकार" मुनि सोमदेव ने राज्य के राजा कुन्तिभोज की राज्यसभा में पहुंचकर विशालकीति का अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है वे लिखते उन्होंने अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा का परिचय दिया, हैं कि-कोल्हापुर प्रान्त के अर्जुरका ग्राम मे वादीभ- जिससे राजा प्रभावित हुआ और उसने अपने पूर्वजों के वजांकुश विशालकीर्ति की वैयावृत्य से वि० सं० १२६२ वर्णन का अनुरोध किया तो मुनि जी ने लेखक की मांग में यह ग्रन्थ समाप्त किया।" वादीन्द्र मुनि विशालकीर्ति की, इस पर महाराज कुन्तिभोज ने अपनी विदुषी पुत्री को, पं० आशाधर जी ने, जो धारा नगरी के निवासी थे, मदन मंजरी से आग्रह किया और उसने पर्दे के पीछे छिपन्यायशास्त्र का अभ्यास कराया था पतः विशालकीर्ति कर लिखना स्वीकार कर लिया। कालान्तर मे दोनो में और मुनि मदनकीति प्रथम धारा नगरी में ही निवास प्रेम प्रसंग बढ़ गया, जब गुरु विशालकीति को इसका पता करते होंगे। प० आशाधर जी ने अपने 'जिनयज्ञकल्प' तो उन्होंने प्रताड़ना भरे पत्र लिखकर अपने शिष्यों को (प्रतिष्ठासारोद्धार) नामक ग्रन्थ जो वि० सं० १२८५ में उनके पास उन्हें वापिस लिया जाने को भेजा, पर मुनि समाप्त हुआ था, की प्रशस्ति मे मुनि मदनकोर्ति प्रथम जी पर इसका कोई असर न हुआ किन्तु कुछ दिनों बाद को यतिपति कहा है तथा उनके द्वारा 'प्रज्ञापुंज' की उपाधि उन्हें स्वयं बोध हुआ और प्रात्मग्लानि से पीड़ित हुए तब प्राप्ति का उल्लेख किया है उन्होंने इस दुष्कर्म से निवृत्ति लेकर पुनः दीक्षा धारण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहा १६, वर्ष ४४, कि०४ अनेकान्त की और "शासनचतुस्त्रिंशतिका" की रचना की जिसमे यं-यं दुष्टो न हि पश्यति'.... आठवें छव में पूर्व दिशा अपनी दुर्बलता को स्वीकार करते हुए आद्य छंद लिखा है- के पार्श्वनाथ का उल्लेख है। शासनचतुस्त्रिंशतिका य-यः पूर्व भवनक मण्डनमणि..... नवे छद मे वेत्रवती यत्पापवासाद्वालो यं ययो सोपाश्रय स्मय । (वेतवा) के तट पर स्थित शान्तिजिन का उल्लेख है शु(शो)क्ष्यत्यसो यतिजैनभूच श्रीपूज्यसिद्धयः ॥१॥ सम्भवतः बजरगगढ़ या अहार क्षेत्रके शांतिनाथ हो। इस अनुष्टुप् छन्द के एक-एक अक्षर से प्रारम्भ करते यो-योगा: यं परमेश्वर हि कपिल..'दशवे छद मे योगों "शासन चस्त्रिशतिका" के शेष तेतीस छन्दों की रचना की (कापालिको) का उल्लेख है। है अंत में मालिनी छंद मे प्रशस्ति स्वरूप आत्म परिचय सो-सोपानेषु सकपट मष्ट ..११वे छंद मे सम्मेदशिखर दिया है से निर्वाण प्राप्त बीस तीर्थंकरों का उल्लेख है। इति हि मदनक तिश्चिन्तयन्नाऽमचित्ते, पा-पाताले परमादरेण परया १२वे छद में पुष्पपुर विगलति सति रास्तु र्यभागाभागे । (पटना) के पुष्पदन्त का उल्लेख है । कपट शतविलासान् दुष्टवागान्धकारानू, स(था)-स्रष्टेति द्विजनायकहरिरिति १३वें छद मे जयात विहरमाणः साधुराजीव बन्धुः ।।३।। नागदह के पावं का उल्लेख है। प्रथम श्लोक के प्रत्येक अक्षर से प्रारम्भ होने वाले य-यस्याः पाथसिनामविंशति भिदा १४वें छंद मे सम्मेशेष तेतीस छदों के विषय मे श्री सोमदेव ने 'यशस्तिलक- दगिरि की अमृतवापी का उल्लेख है। चम्पू मे लिखा है - स्म-स्मार्ता पाणिपुटोदनादन मिति १५वे छद मे वेदात अग्रेतन वृत्तानाम द्याक्षरः निर्मितः श्लोकोऽयम् । वादियो का उल्लेख है। यः पापनाशाय यतते सयतिर्भवेत् ॥७१४४ य:-यस्य स्नानपयोऽनुलिप्तमखिल १६वे छद मे पश्चिम यहां हम इसी के स्पष्टीकरण हेतु लिखते हैं-किस सागर के चन्द्रप्रभु का उल्लेख है । अक्षर से कौन-सा छद प्रारम्भ होता है तथा उसमें किस शु(शो)-शुढे सिशिला तले सुविमले...१७वें छद मे क्षेत्र का वर्णन है ? ये सभी छद संस्कृत के शार्दूलविक्री- छाया पार्श्वप्रभु का उल्लेख है । डित छंद है क्ष-क्षाराम्भोधिपयः मुधाद्रवइव १८वें छन्द में पांच मो यत्--यद्दीपस्यशिखेव..... प्रथम छद इसमें कैलासभत्र धनुष प्रमाण आदिनाथ का उल्लेख है। ___का उल्लेख है। ति-तिर्यञ्चोऽपिनमन्तियं निजशिरा...१९वें छन्द मे पा-पादाङ्गुष्ठ नन प्रभासु..." द्वि० छंद में पोदनपुर पावापुर के महावीर का उल्लेख है। के वाहुवली का उल्लेख है। सौ-सौराष्ट्र यदुवंशभूषण मणे:.."२०वें छन्द में गिरनार प.-पत्र यत्र विहायसि..."त. छंद में श्रीपर (शिरपूर) के नेमिनाथ का उल्लेख है। के अतरीक्ष पवनाथ का उल्लेख है। य-यस्याऽद्याऽपि सुदुन्दुभिश्वरमलं'. २१वें छन्द में चंपावास-बास सार्थपतेः पुरा...."चतुर्थ छंद में हुलगिरि के पुर के वासुपूज्य का उल्लेख है । शखजिन तीर्थ का उल्लेख है। ति-तिर्यग्वेषमुपास्य पश्यततपो...२२वें छन्द मे वैशेषिकों सा--सानन्दं निधयो नवाऽपि ..... पंचम छंद में धारा के का उल्लेख है। पाश्वनाथ का उल्लेख है। जै-जैनाभासमतं विधाय कुधिया. २३वें छन्द मे श्वे. ताम्बरों का उल्लेख है। द्वा-द्वापंचाशदननपाणि परमो-छठे छंद में वहत्पुर के न-नाभतं किलकर्म जालमसकृत "२४वं छन्द मे शैवो ५७ हाथ ऊँचे वृहदेव का उल्लेख है। का उल्लेख है। लो-लोकः पचशतीमितरविरतं.... सातवें छंद में जैन- म्-मूर्तिः कर्मशुभाशुभं हि'२५वें छन्द में सांख्यों का पुर (जैनवद्री) के गोम्मटदेव का उल्लेख है। उल्लेख है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री मदनकोतिय च--चार्वाकश्चरितोज्झितरभिमतो.. २६वें छन्द मे चार्वा- टीका का आद्य गोश । इस तरह और भी कई ऐतिकों का उल्लेख है । हासिक घटनाएं इन ३५ छन्दो से जुड़ी हुई हैं। नवम श्री-श्रीदेवी प्रमुखाभिरचितपदाम्भोज:--२७वे छन्द मे छन्द में बेतवा के शान्ति जिन । लगता छन्द में वेतवा के शान्ति जिन । लगता है पाडा साहु द्वारा नर्मदान्डे शान्तिजिन का वर्णन है। निर्मित शान्तिनाथ की प्रतिमा आहार क्षेत्र या बजरंगगड़ पू-पूर्व याऽऽश्रमजगाम सरिता २८वें छन्द में अवरोध स्थित प्रतिमा हो। उपर्युक्त कृति से यह तो स्पष्ट ज्ञात नगर के मुनि सुव्रतनाथ का वर्णन है। होता है कि मुनि श्री पर्यटक थे और विभिन्न तीर्थस्थलों ज्य-जायानाम परिग्रहोऽपि भविना.. २६वें छन्द मे। की उन्होंने यात्रा की थी। स्व० पं० परमानन्द जी का अपरिग्रह का वर्णन है। मत है कि मुनिश्री पुनः दीक्षित न होकर अर्हद्दास नाम से सि-सिक्ते सत्सरितोऽम्बुभिः शिखरिण:३०वें छन्द मे गहस्थ हो गये थे और मुनि सुव्रत काव्य जैसी कृतियों की विपुलाचल का वर्णन है। रचना की पर इसमे कितनी प्रमाणिकता है यह शोध का ध-धर्माधर्मशरीर जन्यजनक""३१वें छन्द मे बोद्धों का विषय है पर 'शासनचस्त्रिंशतिका' का पहला अनुष्टुप वर्णन है। छन्द निश्चय ही उनके पुनः दीक्षित होने का द्योतक है। य:-यस्मिन् भूरि विधातुरेकमनसो ३२वें छन्द में विध्य- तीसरे छन्द मे वर्णित श्रीपुर महाराष्ट्र के अकोला गिरि का वर्णन है। जिला स्थित वाशिम ताल्लुके का ग्राम शिरपुर है जहां आ-आस्ते सम्प्रति मेदपाठविषये...३३वें छन्द में मेवाड अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ की सातिशय प्रतिमा विद्यमान है और के मल्लिनाथ का वर्णन है।। दिगम्बरी प्रतिमा है। कहते हैं इसके नीचे से घुड़सवार श्री–श्रीमन्मालव देश मगलपुरे. ३४वे छन्द में मालवा या सिर पर घड़ा रखे पनिहारिन निकल जाती थी पर के मंगलपुर में स्थित अभिनंदन स्वामी का वर्णन है। अब काल दोष से उतना प्रभाव तो नहीं रहा फिर भी इस तरह मुनि मदनकीर्ति प्रथम ने केवल ३५ छन्दो इसके नीचे से अभी भी रुमाल या पतला कपड़ा निकल की रचना कर इतिहास में अपना स्थान बना लिया है सकता है। सम्पूर्ण क्षेत्र दिगम्बरी है पर इस सातिशय जैसे कि हिन्दी मे पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने केवल एक प्रतिमा पर श्वेताम्बरों ने अपना अधिकार कर लिया है कहानी-'उसने कहा था' लिखकर इतिहास में अपना और एक विवादास्पद स्थिति पैदा कर दी है, आशा है स्थान बना लिया है। मुनि जी की इस रचना के अति- लोग मिल बैठकर समूचित समाधान ढूंढ निकालेंगे। गतिक रिक्त भण्डारों में खोज करने पर सम्भवतः राजा कुन्ति- मनि मदनकोति द्वितीय-मुनिश्री मदनकीर्ति दि. भोज के पूर्वजों की गाथा मिल जावे तो वह इतिहास की बलात्कार गण की दिल्ली जयपुर शाखा की आचार्य बहुमूल्य धरोहर सिद्ध होगी। 'शासन चतुस्त्रिंशतिका' परम्परा में भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य थे। इस शाखा की के प्रत्येक छन्द के अन्त में 'दिग्वाससां शासनम्' का प्रयोग स्थापना भ० शुभचन्द्र ने सं० १४५० में की थी, वे ५६ कर मुनिश्री ने दिगम्बरत्व की प्रधानता को विशेष रूप से वर्ष तक इस पट्ट पर आसीन रहे। वे ब्राह्मण जाति के घोषित किया है। इन छन्दों में अनेको ऐतिहासिक घट- थे। इसी परम्परा मे मुनि मदनकीर्ति द्वि० के शिष्य नरनाओं का समावेश है जैसे ३४वें छन्द मे म्लेच्छ शहाबुद्दीन सिंहक ने झन्झणपुर में "तिलोयपणती" की मार्गशीर्ष गौरी का मालवा के आक्रमण का उल्लेख है। २८वें छद शक्ला ण भौमवार सं० १५१७ को प्रतिलिपि की थी तथा में आश्रमपत्तन (केशोराय पाटन) में मुनि सुव्रत नाथ का ज्येष्ठ सुदी १० बुधवार सं० १५२१ को ग्वालियर में चंत्यालय ऐतिहासिक है। यहां नेमचन्द्र सिद्धान्तदेव और "पउमचरिउ" की प्रतिलिपि इन्ही मुनिश्री के शिष्य ने ब्रह्मदेव रहते थे। यहां सोमराज श्रेष्ठी के लिए नेमिचन्द्र नेत्रनंदी के लिए लिखी थी। इस आचार्य परम्परा में सिद्धान्तदेव ने 'द्रव्यसग्रह' की रचना की थी तथा ब्रह्मदेव प्रभाचन्द्र पद्मनंदी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, पद्मनंदी, मदनने उसकी टीका की थी। देखो ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह की कीर्ति, नेत्रनंदी आदि अनेक भट्टारक हुए हैं। पउमचरिउ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिकान्त को प्रशस्ति मूलरूप से उद्धत कर रहे हैं-"संवत् १५२१ उसमें महाराज कुन्तिभोज के पूर्वजों की यशोगाथा यदि वर्षे ज्येष्ठ मासे सुदि १० बुधवारे श्री गोपाचल दुर्गे श्री मिल जाती है तो इतिहास की बहुमूल्य धरोहर हाथ लग मूलसंधे बलात्कारगणे . "भ० श्री प्रभाचन्द्र देवाः तत्र सकती है । मुनिश्री मदनकीति प्रथम इतिहासवेत्ता भी थे श्री पपनंदि शिष्य श्री मदनकोति देवाः तच्छिष्य श्री नेत्र. अपनी छोटी-सी कृति में उन्होने इतिहास की अनेकों घटनंदी देवा: तन्निमित्रे खंडेलवाल लुहाडिये गोत्रे संगही नाओं का उल्लेख किया है जिन्हें लोग प्रायः विस्मति के पामा भार्या धनश्री......" गर्भ में हवा चुके हैं। जहां वे इतिहास के वेत्ता थे वहां तिलोयपण्णत्ती की मूल प्रशस्ति निम्न प्रकार है- उन्हें जैनेतर दर्शनों सांख्य, वैशेषिक, चार्वाक, शैव, "स्वस्ति श्री संवत् १५१७ वर्षे मार्ग सूदि ५ भौमवारे मीमांसक नैय्यामिक, कापालिक आदि का भी गम्भीर मलसंघे बलात्कारगणे..... भ. पपनंदी देवाः तत्प भ० अध्ययन था इसी के बल पर वे बाद-विवाद में कभी पराश्री शुभचन्द देवाः मुनिश्री मदनकीति तच्छिष्य ब्रह्म नर. जित नहीं होते थे और दिगम्बर शासन की धर्मध्वजा को सिंहकस्य... श्री झुझुणपुरे लिखितमेतत्पुस्तकम् ।" फहराते हुए निर्भयता पूर्वक विभिन्न प्रदेशों में विचरण इस तरह मुनिश्री मदनकीर्ति द्वि० का संक्षिप्त-सा किया करते थे और अपनी यश पताका फहराते रहते थे। उल्लेख मिलता है, इनकी किसी कृति का कोई पता नही उन्हान गिरकर उन्होंने गिरकर संभलना सीखा था, ऐसे दृढ़ अध्यवसायी चलता है। पर मुनिश्री मदनकीर्ति प्रथम की विद्वत्ता एवं परमपुनात मुनिश्रा . परमपुनीत मुनिश्री के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित प्रतिभा से जैन साहित्य का इतिहास जगमगा रहा है । करता हूं। यद्यपि उनकी छोटी-सी एक ही रचना 'शासनचतुस्त्रिंश श्रुत कुटीर, ६८ विश्वास मार्ग, ठिका' उपलब्ध है पर यदि भण्डारों को खोजा जाय और विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-३२ विगौरा (टीकमगढ़) निवासी देवी दास भायजी के दो पद : राग केदारो, राग सोरठ तिम्हि निज पर गुन चीन्ही रे। जाननहार हतो सोई जान्यो लखन हार लखि लीन्हो रे । ग्राहक जोग वस्तु ग्राहज करि, त्याग जोग तजि दीनो रे। धरने की सु सुधार ना धरि, पुनि करने काज सु कीनो रे। सत रागादि विभाव परिनमन सो समय प्रति खीनो रे। देवियदास भयो सिव सनमुख सो निरग्रंथ उछीन्हो रे ॥ चेतन अंक जीव निज लन्छन जड सु अचेतन रीन्हों रे। परसम शाम चरन जिनके घट प्रकट भये गुन तीनो रे। निजी राग नटनियति लटी हो नियति लटी, श्रवन सबद सुन मगन रहत पुनि निद्रा जुत अस्नेह हटी।३ हम देखी जग जीवनि की नियति लटी। बसत प्रमाद पुरां जुग जुग के छाडि सबै निज बल सुभटी। सुमति सखि सरवंग विसरि करि डोके दुर्गति नकटी॥१॥ टुक सुख काज इलाज करत बहु परबस परि मरजाद घटी। राजकथा तसकर त्रिय भोजन विसवा सर मुख सुठटी। गुरु उपदेश विष सुन बावत तिनत भव परणति उचटी। कोध कलित प्रति सुमान मय लोभ लगन अंतर कपटी॥२ देवीदास कहत जिय सींचत फलहत बेलि नहीं उखटी॥ण॥ सपरस लीन गंध रसना रुल वरन रूप सुर नर प्रगठी। -श्री कुन्दनलाल बैन के सोजन्य से Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यक्ष-यक्षी प्रतिमाएँ श्री रामनरेश पाठक शासन देवता समूह में २४ यक्षों और उतनी ही त्रिमंग मुद्रा में परिचारिका, चांवरधारिणी सुशोभित है। यक्षियों की गणना है। ये यक्ष और यक्षी तीथंकरों के रक्षक बांया हाथ कट्यावलम्बित है। दोनों पार्श्व में अंजली हस्त कहे गये हैं। तीर्थकर प्रतिमाओं के दायें ओर यक्ष और मुद्रा मे भू-देव और श्रीदेवी का आलेखन है । १०वीं शतो बायें ओर एक यक्षी की प्रतिमाएं बनाये जाने का विधान की यह प्रतिमा काफी भग्न अवस्था में है। कलात्मक है। पश्चातकाल में स्वतंत्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों को अभिव्यक्ति की दृष्टि से मूर्ति उत्तर प्रतिहार कालीन प्रतिमाएं बनाई जाने लगी थी। यद्यपि तांत्रिक युग के शिल्प कला के अनुरूप है। प्रभाव से विवश होकर जैनों को इन देवों की कल्पना गोमेघ अम्बिका-बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के करनी पड़ी थी किन्तु इन्हें जैन परम्परा में सेवक या रक्षक शासन यक्ष-यक्षी गोमेघ अम्बिका की प्रतिमा म्वालियर दर्ग का ही दर्जा मिला है न कि उपास्य देव का यक्ष-यक्षियों से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. २६४) गोमेघ अम्बिका सव्य प्रतिमाएँ सर्वांग सून्दर सभी प्रकार के अलंकारों से युक्त ललितासन में बैठे हुए है। गोमेध की दायीं भुजा एवं मख बनाने का विधान है। करण्ड मुकुट और पत्र कुण्डल भग्न है। बायी भुजा से बायी जघा पर बैठे हए बालक धारण किये प्रायः ललितासन में बनायी जाती है । केन्द्रीय जेष्ठ पुत्र शुभंकर को सहारा दिये है। बालक का सिर संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में प्रथम तीर्थंकर आदि- भग्न है। वे मुक्तावली एवं केयर धारण किये है। अंबिका नाथ एवं बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष-यक्षियों की की दायी भुजा में स्थित आम्बलुम्बी भग्न है। बायीं मजा चार प्रतिमाएं संरक्षित हैं। जिसका विवरण निम्नलिखित से बालक कनिष्ट पुत्र प्रियंकर को सहारा दिये हुए है। देशी आकर्षक केश, चक एवं पम कुण्डल, मुक्तावली, गोमख यक्ष-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के शासन उस्बन्ध, बलय व नूपुर धारण किए है। देवी का दायाँ देवता की गंधावल जिला देवास मध्य प्रदेश से प्राप्त गो- और पप पर रखे हुए है । बायें पार्श्व मे बाम्बलुम्बी आंशिक मुख यक्ष का मुख पशु आकार (गोववत्रक) और शरीर रूप से सुरक्षित है। उसके नीचे एक पुरुष अंकित है, मानव का है । (सं.क्र. २३०) अप सव्य ललितासन में जिसकी दायीं भुजा भग्न है। बायीं भुजा कट्यावलम्बित बैठे हुए शासन देव की दायीं नीचे की भूजा भग्न है । दायीं है। पादपीठ पर दोनों ओर दो कुन्तलित केश युक्त ललि. ऊपरी भुजा में गदा, बायीं ऊपरी भुजा में परशु व नीचे तासन मे दो प्रतिमा अंकित है जिसको दायीं भुजा अभय की भुजा में बीजपूरक लिए है। यक्ष आकर्षक करण्ड मुकुट मुद्रा में बायीं, बायें पैर की जघा पर है। मध्य में दो मुक्तावली, उरुबन्ध, केयूर, बलय, मेखला से सुसज्जित है। योडा युद्ध लड़ रहे है। राजकुमार शर्मा की सूची में इस कलात्मक अभिव्यक्ति ११वीं शती ई. परमार युगीन शिल्प मूर्ति को स्त्री-पुरुष दो बालक लिखा हुआ है। ११वीं कला के अनुरूप है। शती ई० की यह मूर्ति कच्छाधात युगीन शिल्प कला के चक्रेश्वरी-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ को शासन अनुरूप है।। यक्षी चक्रेश्वरी की ग्वालियर दुर्गसे प्राप्य मानवरूपी गरुड़ अम्बिका -बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के शासन पर सवार है, सिर एवं ऊपर के दो हाथ खंडित हैं। (सं. यक्षी अम्बिका की तुमेन जिला गुना मध्यप्रदेश से प्राप्त क्र.३०५) नीचे के दो हाथ आंशिकरूप से सुरक्षित हैं। हई है। (स. क्र. ४९) सव्य ललितासन में सिंह पर बैठी दोनों ओर दो चक्र बने हुए हैं, यक्षी एकावली, हार, उरु- हुई है। बायीं जंघा पर लघु पुत्र प्रियंकर खड़ा हुआ है। बंध, केयूर, बलय, मेखला पहने हुए हैं एवं पैरों में अधो- दायें ओर ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर खड़ा हुआ है। देवी दायीं वस्त्र धारण किये हुए हैं । गरुड़ के सिर पर आकर्षक केश, भुना में आम्रलुम्बी लिए है एवं बायीं भुजा से अपने लष चक्र कुण्डल, हार मेखला पहने हुए है। दोनों पार्य में (शेष पृ० २० पर) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८, वर्ष ४,कि०४ अनकान्त की प्रशस्ति मूलरूप से उद्धृत कर रहे हैं-"संवत् १५२१ उसमें महाराज कुन्तिभोज के पूर्वजों को यशोगाथा यदि वर्षे ज्येष्ठ मासे सुदि १० बुधवारे श्री गोपाचल दुर्गे श्री मिल जाती है तो इतिहास की बहुमूल्य धरोहर हाथ लग मूलसंधे बलात्कारगणे..."भ० श्री प्रभाचन्द्र देवाः तत्र सकती है । मुनिश्री मदनकीति प्रथम इतिहासवेत्ता भी थे श्री पपनंदि शिष्य श्री मदनकोति देवाः तच्छिष्य श्री नेत्र. अपनी छोटी-सी कृति में उन्होने इतिहास की अनेकों घटनंदी देवा: तन्निमित्रे खंडेलवाल लुहाडिये गोत्रे संगही नाओं का उल्लेख किया है जिन्हें लोग प्रायः विस्मृति के घामा भार्या धनश्री......" गर्भ में हुवा चुके हैं। जहां वे इतिहास के वेत्ता थे वहां तिलोयपण्णत्ती की मूल प्रशस्ति निम्न प्रकार है- उन्हें जनेतर दर्शनों सांख्य, वैशेषिक, चार्वाक, शैव, "स्वस्ति श्री संवत् १५१७ वर्षे मार्ग सुदि ५ भौमवारे मीमांसक नैय्यामिक, कापालिक आदि का भी गम्भीर मूलसंघे बलात्कारगणे..."भ. पपनदी देवाः तत्प भ० अध्ययन था इसी के बल पर वे बाद-विवाद में कभी पराश्री शुभचन्द देवाः मुनिश्री मदनकीति तच्छिष्य ब्रह्म नर. जित नही होते थे और दिगम्बर शासन की धर्मध्वजा को सिंहकस्य".""श्री झुझुणपुरे लिखितमेतत्पुस्तकम् ।" फहराते हुए निर्भयता पूर्वक विभिन्न प्रदेशों में विचरण इस तरह मुनिश्री मदन कौति द्वि० का संक्षिप्त-सा किया करते थे और अपनी यश पताका फहराते रहते थे। उल्लेख मिलता है, इनकी किसी कृति का कोई पता नही उन्होंने गिरकर संभलना सीखा था, ऐसे दृढ़ अध्यवसायी चलता है। पर मुनिश्री मदनकीति प्रथम की विद्वत्ता एवं ... परमपुनीत मुनिश्री के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित परमपुनात मुनिश्रा क' प्रतिभा से जैन साहित्य का इतिहास जगमगा रहा है। करता हूँ। यद्यपि उनकी छोटी-सी एक ही रचना 'शासनचतुस्त्रिश श्रुत कुटीर, ६८ विश्वास मार्ग, तिका' उपलब्ध है पर यदि भण्डारों को खोजा जाय और विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-३२ विगोग (टीकमगढ़) निवासी देवी दास भायजी के दो पद : राग केदारो, राग सोरठ तिम्हि निज पर गुन चोन्ही रे। जाननहार हतो सोई जान्यो लखन हार लखि लीन्हो रे। ग्राहक बोग वस्तु ग्राहज करि, त्याग जोग तजि दीनो रे। धरने की सु सुषार ना धरि, पुनि करने काज सु कीनो रे। सत रागादि विभाव परिनमन सो समय प्रति खोनो रे। देवियदास भयो सिव सनमूख सो निरग्रंथ उछीन्हो रे ॥ चेतन अंक जीव निज लन्छन जड सु अचेतन रीन्हों रे। दरसम ज्ञान परन जिनके घट प्रकट भये गम तीनो रे। राग नटनियति लटी ही नियति लटी, श्रवन सबद सुन मगन रहत पुनि निद्रा जुत अस्नेह हटी।३ हम देखी जग जीवनि की नियति लटी। बसत प्रमाद पुरां जुग जुग के छाडि सबै निज बल सुभटी । सुमति सखि सरवंग विसरि करि डोके दुर्गति नकटी॥१॥ दुक सुख काज इलाज करत बहु परबस परि मरजाद घटी। राजकथा तसकर त्रिय भोजन विसवा सर मुख सुठटी। गुरु उपदेश विर्ष सुन बावत तिनत भव परणति उचटी। क्रोध कलित प्रति सुमान मय लोभ लगन अंतर कपठी ॥२ देवीदास कहत जिय सींचत फलहन बेलि नहीं उखटी॥ण। सपरस लीन गंध रसना रुख वरन रूप सुर नर प्रगटी। -बी कुम्वन लाल जैन के सौजन्य से Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यक्ष-यक्षी प्रतिमाएँ 0 श्री रामनरेश पाठक शासन देवता समूह में २४ यक्षों और उतनी ही त्रिमंग मुद्रा में परिचारिका, चांवरधारिणी सुशोभित है। यक्षियों की गणना है। ये यक्ष और यक्षी तीथंकरों के रक्षक बांया हाथ कट्यावलम्बित है। दोनों पार्श्व में अंजली हस्त कहे गये हैं। तीर्थकर प्रतिमाओं के दायें ओर यक्ष और मुद्रा में भू-देव और श्रीदेवी का आलेखन है । १०वीं शती बायें ओर एक यक्षी की प्रतिमाएं बनाये जाने का विधान की यह प्रतिमा काफी भग्न अवस्था में है। कलात्मक है। पश्चातकाल में स्वतंत्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से मूर्ति उत्तर प्रतिहार कालीन प्रतिमाएं बनाई जाने लगी थी। यद्यपि तांत्रिक युग के शिल्प कला के अनुरूप है। प्रभाव से विवश होकर जैनों को इन देवों की कल्पना गोमेघ अम्बिकाबाईसवे तीर्थंकर नेमिनाथ के करनी पड़ी थी किन्तु इन्हें जैन परम्परा में सेवक या रक्षक शासन यक्ष-यक्षी गोमेघ अम्बिका की प्रतिमा ग्वालियर दुर्ग का ही दर्जा मिला है न कि उपास्य देव का यक्ष-यक्षियों से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. २६४) गोमेघ अम्बिका सव्य प्रतिमाएं सर्वांग सुन्दर सभी प्रकार के अलंकारों से युक्त ललितासन मे बैठे हुए है। गोमेध की दायी भुजा एवं मुख बनाने का विधान है। करण्ड मुकूट और पत्र कृण्डल भग्न है। बायी भुजा से बायीं जघा पर बैठे हए बालक धारण किये प्रायः ललितासन में बनायी जाती है। केन्द्रीय जेष्ठ पुत्र शुभंकर को सहारा दिये है। बालक का सिर संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में प्रथम तीर्थकर आदि- भग्न है । वे मुक्तावली एवं केयुर धारण किये है। अंबिका नाथ एवं बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के यक्ष-यक्षियों की की दायीं भुजा मे स्थित आम्बलुम्बी भग्न है। बायीं भजा चार प्रतिमाएं संरक्षित हैं । जिसका विवरण निम्नलिखित से बालक कनिष्ट पुत्र प्रियंकर को सहारा दिये हए है। देशी आकर्षक केश, चक एवं पम कुण्डल, मुक्तावली, गोमुख यक्ष-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के शासन उस्बन्ध, बलय व नूपुर धारण किए है। देवी का दायाँ देवता की गंधावल जिला देवास मध्य प्रदेश से प्राप्त गो-पैर पप पर रखे हुए है । बायें पार्व में बाम्बलुम्बी नाशिक मुख यक्ष का मुख पशु आकार (गोववत्रक) और शरीर रूप से सुरक्षित है। उसके नीचे एक पुरुष अंकित है, मानव का है। (सं. क्र. २३०) अप सव्य ललितासन में जिसकी दायी भुजा भग्न है। बायी भुजा कट्यावलम्बित बैठे हुए शासन देव की दायीं नीचे की भूजा भग्न है । दायी है। पादपीठ पर दोनो ओर दो कुन्तलित केश युक्त ललिऊपरी भुजा में गदा, बायी ऊपरी भुजा में परशु व नीचे तासन में दो प्रतिमा अंकित है जिसकी दायी भुजा अभय की भूजा में बीजपूरक लिए है । यक्ष आकर्षक करण्ड मुकुट मुद्रा में बायीं, बायें पैर की जघा पर है। मध्य में दो मुक्तावली, उरुबन्ध, केयूर, बलय, मेखला से सुसज्जित है। योदा युद्ध लड़ रहे है। राजकुमार शर्मा की सूची में इस कलात्मक अभिव्यक्ति ११वीं शती ई. परमार युगीन शिल्प मति को स्त्री-पुरुष दो बालक लिखा हुआ है। ११वी कला के अनुरूप है। शती ई० की यह मूर्ति कच्छपधात युगीन शिल्प कला के चक्रेश्वरी-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ को शासन अनुरूप है। यक्षी चक्रेश्वरी की ग्वालियर दुर्गसे प्राप्य मानवरूपी गरुड़ अम्विका -बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के शासन पर सवार है, सिर एवं ऊपर के दो हाथ खंडित हैं। (सं. यक्षी अम्बिका की तुमेन जिला गुना मध्यप्रदेश से प्राप्त क्र. ३०५) नीचे के दो हाथ आंशिकरूप से सुरक्षित हैं। हुई है। (स. क्र. ४६) सव्य ललितासन मे सिंह पर बैठी दोनों ओर दो चक्र बने हुए हैं, यक्षी एकावली, हार, उरु- हुई है। बायीं जंषा पर लघु पुत्र प्रियंकर खड़ा हुआ है। बंध, केयूर, बलय, मेखला पहने हुए हैं एवं पैरों में अधो- दायें और ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर खड़ा हुआ है। देवी दायीं वस्त्र धारण किये हुए हैं । गरुड़ के सिर पर आकर्षक केश, भुना आम्रलम्बी लिए है एवं बायीं भुजा से अपने लष चक्र कुण्डल, हार मेखला पहने हुए है। दोनों पारवं में (शेष पृ० २० पर) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कामां" के कवि सेढमल का काव्य D डा. गंगाराम गर्ग, भरतपुर चौरासी खम्भा और पुष्टिमार्गीय कृष्ण भक्ति सम्प्र. सांगानेर के जैन समाज को प्राप्त कामा के जैन समाज दाय के प्राचीन पीठ के रूप में भरतपुर जिले के कामवन की चिट्ठी से ही मिली थी। क्षत्रियवंशोत्पन्न कवियित्री कस्बे का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह पानकुंवरि को जिनेन्द्रभक्ति और हेमराजकृत मुक्तक काव्य कस्बा जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह के पुत्र कीति- 'दोहा शतक' ने जैन साहित्य के इतिहास में भी कामा सिंह की जागीरदारी में भी रहा था। दिगम्बर आम्नाय नगर को गरिमापूर्ण स्थान दिलवाया है। मध्य युग मे के सुधारवादी पंथ 'तेरहपंथ' के विकास में इस उपनगर उत्तर भारत मे जैन समाज के उत्सव बड़े उत्साह पूर्वक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। सांगानेर कस्बे मे उत्पन्न व्यापार स्तर पर मनाये जाते थे। इन उत्सवों में 'कामा' जोधराज गोदीका (लेखन काल संवत् १७२३ के आस का रथोत्सव बड़ा प्रसिद्ध था। शताधिक पदों का रचयिता पास) को रूढ़ाचार के प्रति तीव्र विरोध करने को प्रेरणा अचचित जगराम गोदीका (अभी तक अचचित) कामा आकर श्रद्धापूर्वक रथोत्सव में सम्मिलित हुआ था। उसी (पृ. १६ का शेषांश) के शब्दों मेंपुत्र प्रियंकर को सहारा दिये हुए है देवी आकर्षक केश सुफल फली मन कामना जब कामा प्राये। कुण्डल, मुक्तावली, केयूर, बलय, मेखला नपुर पहने हुए रथारूढ़ प्रभु देखि के प्रति आनंद पाये। है। ऊपर आम्र वृक्ष की छाया है। एस. आर. ठाकुर ने इस मूर्ति को पार्वती लिखा है। जबकि डा. ब्रजेन्द्रनाथ वन विहार को जब सुन्यो, वाजिन बजाये । शर्मा ने इस मूर्ति को अम्बिका ही लिखा है। डा. राज तब संघ उछाह सौं जिन मंगल गाये । कुमार शर्मा की सूची में इस प्रतिमा को पार्वती लिखा मूरति सुन्दर सोहनी, लखि नैन सिराये। गया है। उक्त प्रतिमाएं केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल निरखि निरखि चित्त चोप सौ, फिरि फिरि ललचाये। में संरक्षित है। पुरातत्ववेत्ता, पुरातत्व एवं सग्रहलय फुनि पूजा विधि जब लसी, अंग अंग सरसाये । नलधर सुभाष स्टेडियम के पीछ, तब 'जगराम' जिनंद 4 अष्टांग नवाये ॥ 'कांमा' में प्रति वर्ष आयोजित होने वाली इस 'रथरायपुर (म.प्र.) सन्दर्भ-सूची यात्रा' में विभिन्न स्थानों के श्रावकों के भाग लेने की १. वसुनन्दि /१२ २. वसुनन्दि ४/२१ चर्चा कवि सेटूमल ने भी की है३. शर्मा राजकुमार मध्यप्रदेश के पुरातत्व का सदर्भ कामा सैहर सुहावै हो, देखत चित्त न अघावं । ग्रन्थ भोपाल १६७४ पृ० ४७४ क्रमाक २२९. तेरहपंथी दिढ़ सरधानी, और चलन नहिं भाव हो। ४. शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृ० ४७६ ० ३०१. जामैं जिनमंविर शुभ सोंहै, देखत चित्त न अघावं । ५. शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृ०४७६ क्र. २६४. बरस बरस में होइ जाया, भविजन पुन्य कमावै हो। ६. ठाकुर एस.आर. कैटलोग आफ स्कप्चर्स आकिलोजि- देश वेश के श्रावग प्राव, पूजा देखि लुभाव । कल म्यूजियम एम. बी. पृ० ७. 'सेहूं' जे परभावना करि है, सो मनवांछित पावै । ७. शर्मा बुजेन्द्रनाथ 'जैन प्रतिमाएँ, दिल्ली १९७६ पृ.७६ कामा नगर के प्रति अधिक झुकाव और आकर्षण ८. शर्मा राजकुमार पूर्वोक्त पृ० ४६८ क्र. ४८. रखने वाले कवि सेर्मल दीग के प्रसिद्ध सेठ अभैराम और Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कामा के कवि सेमल का काव्य को है चेतन के बड़े श्रद्धापात्र थे। कवि ने स्वयं भी उनके द्वारा से ये भव भव सुखाइ, सेवी श्री जिनराय॥ सहस्रों व्यक्तियों को दिये जाने वाले आहार दान का नवधा भक्ति के विभिन्न अंगों मे पाद सेवन' और उल्लेख करते हुए उनके धर्मानुराग की चर्चा इस प्रकार कीर्तन' में कवि की विशेष आस्था है करो हो ध्यान, प्रब करो हो ध्यान, जैन कुल जन्म खंडेलवाल निरपतेला वोग सहर नामी प्रभु चरन कमल को करो हो ध्यान । जास घर है। जातं होय परम कल्यान । पिता बालकिस्न जाको, धर्म ही सों राग प्रति, प्रान देव सेवो सुख जान, ति त हौ प्रति दुख महान । और विकल्प जो मन मैं न घर है। जाकी करत इन्द्रादिक सेव प्रान । धन सो माता जिन जाये ये म्रात, सोहै अघ तम नासन मान ।। कुल के प्राभूषण वित्त सारू दुख हर है। 'सेट' जिन गुन नित करो हो गान, अभयराम चेतन नाम करायो श्री जू को धाम, यही है अब तेरौ सयान ॥ या बड़ाई सेढ़ ज्यों की त्यौं करि है॥ अपने आराध्य की उपासना के लिए प्रचलित पद्ध. दीवान जी मन्दिर, वासन गेट, भरतपुर में प्राप्त तियो मे से भक्त सेढ़मल ने नाम स्मरण को अधिक चाहा एक गटके में संढ के ५०-६० पद सारग, सोरठ, गोरी, है। उनकी दृष्टि मे सस.र के दु.ख-सागर से उबारने और परभाती, धनाश्री, काफी, ईमन, बसत, धमाल रागों में पशु पक्षी तक का उद्धार करने में 'जिन' का नाम ही उपलब्ध है। इन पदो के अतिरिक्त इन्होंने दोहे भी सार्थक हैलिखे। अभी तक केवल १२ दोहे उपलब्ध हैं। जिनेन्द्र श्री जिन नाम प्रचार मेरे, श्री जिन नाम अधार । देव के प्रति अपनी एक निष्ठता सेढ़मल ने इन शब्दो में प्रागम विकट दुख सागर मैं से, ये ही लेह उबार । अभिव्यक्त की है या पटतर और नहि दूजो, यह हम निहर्च धार । जिनराज देव मोहि भाव हो, या चित धरते पसु पंषो भी उतरे भवधि पार । ___ कोई कछु न कही क्यों न माई। नर भव जन्म सफल नहीं ता विन, और सब करनी छार । और न चित्त सुहावै हो॥१ सोढं मन और वचन काय करि, सुमिरत क्यों न गंवार । जाको नाव लेत इक छिन मैं कोट कलेस नसाव हो। ___कवि सेढमल द्वारा लिखित दोहो मे कुछ ही दोहे पूजत चरन कंबल नित ताके, मनवांछित रिध पावै हो। प्राप्त है। सत महिमा और नाम महिमा स सम्बन्धित इंद्राविक सुर काकू सेवत, देखत त्रिपत न पावै हो। कवि के दो मुक्तक इस प्रकार हैतीन लोक मन बच तन पूजे, 'सेद' तिन जप्त गाव हो। दुरजन कभी न सुख कर, लाख करो जो होय । अन्य आराध्यों की लघुता में कवि सेढ़मल ने उनके दूध पिलायो सर्प कू, हालाहल विष होय ॥१ अवतारी जीवन में भोगे गए दुःख और सुख को महत्वपूर्ण श्री जिनवर के नाम की, महिमा अगम अपार । कारण माना है। राग और रोष से रहित जिनेन्द्र की आराधना के लिए सेमल किसी भी संकल्प-विकल्प को भाव भगति कर जपत जे, ते पावति भव पार ।।१२ गुञ्जायश नहीं समझते सेढ़मल कवि होने के अतिरिक्त श्रेष्ठ लिपिकर्ता थे। कौन हमारी सहाइ प्रभू विन, कोन हमारौ सहाइ । इन्होंने गमचन्द्र कृत चतुर्विशनि पूजा को माघ बदि १३ और कुदेव सकल हम देखें, हाहा करत विहाइ । सवत् १८८८ वि. में लिपिबद्ध किया। इनकी अन्य लिपिनिज दुख टालन को गम नाहीं, सो क्यों पर नसाय । कृत रचना नवल साहि कृत 'वर्धनान पुराण' सवत् १८७७ राग रोष कर पोड़न प्रत हो, सेवग क्यों दुखदाय । का है। दोनों लिपिकृत ग्रन्थो की सुवाच्यता और सुन्दरता यात संकलप विकलप छांडो, मन परतीत जु लाइ । को देखकर सेमल और उन जैसे सैकड़ों लिपिकर्ताओं के Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, ४,कि.४ प्रति मन में यकायक श्रद्धाभाव उमड़ पड़ता है जिन्होंने करवा कर विभिन्न जिनालयों में भेजा करते थे इसलिए पिछले चार-पांच सौ वर्षों में अपने कठिन श्रम से भारतीय ये कवि गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार वाङ्मय को सुरक्षित और चिरजीवी बनाया है। वेल- सभी क्षेत्रों में बड़े लोकप्रिय हो गए। बेडियर प्रेस प्रयाग ने संत साहित्य और पुष्टिमार्गीय इनके प्रन्य-रत्नों की चमक ने ब्रजभाषा अथवा संस्था कांकरोली ने कृष्ण भक्ति साहित्य के प्रकाशन में पश्चिमी हिन्दी को बडा लोकप्रिय बनाया तथा विषम बड़ी तत्परता दिखलाई है । विभिन्न जिनालयो मे परम्परा परिस्थितियों में भी देश की भावात्मक एकता मे योगदान से उपलब्ध लक्षाधिक हस्तलिखित कृतियो की उपेक्षा किया। आज वेज्ञानिक और सुविधा सम्पन्न युग करके उन्हें चहो और दीमकों की दया पर छोड़ना उचित प्राचीन परम्परा से मिलता-जुलता रूप सुगमता से व्यवन होगा। द्यानतराय, विनोदीलाल, नथमल विलाला, हार्य हो सकता है । श्रेष्ठ कवियों की खोज, प्रकाशन और देवीदास जगराम गोदीका जैसे श्रेष्ठ कवियो के काव्य- हिन्दी साहित्य मे उन्हें स्थान दिलवाने के लिए श्रेष्ठिजनों, रत्नों को कब तक हम वेष्ठनों मे कैद रखेंगे? मध्ययुग मे शोधक और प्रतिष्ठित विद्वानो का समन्वित प्रयास अपेसेढ़मल जैसे त्यागी तथा अन्य वृत्तिभोगी ब्राह्मणो से जैन. क्षित हो गया। घेष्ठि परम्परागत जैन ग्रन्थो की सहस्रो प्रतिलिपियां परिग्रह-पाप परिग्रह ग्रहप्रस्तः सर्व गिलितुमिच्छति । धनं न तस्य संतोषः, सरित्पूरमिवार्णवः ॥ परिग्रहरूपी ग्रह से ग्रसित प्राणो समस्त धन को निगलना चाहता है उसे सन्तोष उसी प्रकार नही होता जिस प्रकार नदियो की बाढ़ से समुद्र को सन्तोष नही होता। परिप्रहममुक्त्वा यो मुक्तिमिच्छति मूढधोः। खपुष्पैः कुरुते सारं स बन्ध्यासुतशेखरम् ॥ --जो मखं 'परिग्रह' को छोड़े बिना मुक्ति (आत्मशुद्धस्वरूप) प्राप्त करना चाहता है, वह बन्ध्या के सुत और आकाश पुष्पों से मुकुट बनाना चाहना है। द्रव्यं दुःखेनचायाति स्थितं दुःखेन रक्ष्यते। दुःख शोककरं पापं धिक द्रव्यं दुःख माजनम्॥ -धन दुःख से आता जाता है, दुख से ठहरता है और दुख से रक्षा किया है। दुख-शोक को कराने वाले पापरूप द्रव्य को धिक्कार है-द्रव्य दुख का भाजन है। शय्याहेतुं तुणादानं मुनीनां निन्दितं बुधैः। यः स द्रव्यादिकं गृहन् किं न निन्छो जिनागमे ।। -विद्वानों से शय्या-हेतु तृण को ग्रहण करने वाले मुनि की निन्दा की गई है-जो मुनि द्रव्यादि को ग्रहण करता है वह जिन-प्रागम मे निन्ध है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन के तीन रूप श्री मुन्नालाल जैन 'प्रभाकर' सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का मूल कारण तत्त्वविचार है। विशेष वर्णन लब्धिसार ३ में देखें तथा मोक्षमार्ग प्रकाश तत्व विचार के अभ्यास के बल तें मिथ्यात्व कर्म के निषेकों पृ. ३१६ में तत्वविचार के विषय में कहा है देखो तत्वकी स्थिति अनुभाग शक्तिहीन होय है और हीन होते-२ विचार की महिमा। तत्वविचार विना देवादिक की प्रतीति कुछ निषेक आगामी काल में उदय आने योग्य सम्यग्- करें, बहुत शास्त्र अभ्यास, बहुत वत पाले, तपश्चरणावि मिथ्यात्व व सम्यग्प्रकृति रूप हो जाते हैं और कुछ निषेक भी करे तब भी सम्यक्त्व की प्राप्ति का अधिकारी नहीं है। बाद में उदय आने योग्य हो जाते हैं। उसी प्रकार सम्यग्- तथा तत्वविचार वाला इन सब क्रियाओं के बिना सम्यगमिथ्यात्व के कुछ निषेक भी सम्यकप्रकृति रूप हो जाते हैं दर्शन का अधिकारी हो हैं। इससे सिद्ध होता है कि कुछ सम्यग्मिथ्यात्वरूप में ही रहते हैं । ये सम्यमिथ्यात्व के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए तत्वविचार करना ही मुख्य निषेक तथा मिथ्यात्व के वो निषेक जिनको बाद में उदय कारण हो है, हो बहुत से जीव पहिले देवादिक की प्रतीति आने योग्य किये थे सत्ता में रहते हैं इनको सदवस्था रूप करें, शास्त्र अभ्यासें, व्रत पालें तथा तपश्चरण भी करें उपशम कहते हैं और जिन मिथ्यात्व तथा मिश्रमिध्यात्व और बाद में तत्वविचार करने लग जाएँ तो सम्यग्दर्शन के निषेकों को सम्यकप्रकृति रूप किये थे उनका स्वमुख से की प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं क्योंकि तत्वविचार में उदय का अभाव होता है तथा परमुख सम्यकप्रकृति के उपयोग को लगाने से अंतरकरण के द्वारा विवक्षित को रूप में उदय आता है और निर्जरा हो जाती है जिससे की अधस्तन और उपरितन स्थितियो को छोड़ मध्यवर्ती मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व के निषेक विना फल दिये अंतरमुहूर्त मात्र स्थितियों का परिणाम विशेष के द्वारा खिर जाते है । उसके बाद जब इन मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्या- अभाव हो जाता है (मो. मा. पृ. ३२१)। स्व के निषेकों का उदय काल आता है तो इनका अभाव यह क्षयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान में होता है होता है और सभ्य गप्रकृति का उदय रहता है । उस समय इस क्षयोपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ हजार जो सम्यग्दर्शन होता है वह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कहा सागर है और यदि बीच में मिथ्यास्व प्रकृति का उदय मा भाता है। क्योंकि इसमे मिथ्यास्व के कुछ सर्वपाती निषेको आता है तो मिथ्यात्व में आ जाता है। क्योंकि मिथ्यात्व के का उपयाभावी क्षय हो गया, कुछ का सदवस्था रूप उप- निषेकों की सत्ता है और यदि सम्यमिथ्यात्व प्रकृति का शम है तथा इसी प्रकार सभ्यमिथ्यात्व के कुछ निषेक उदय आ जाता है तो तीसरे मिश्रगुणस्थान को प्राप्त हो सम्यकप्रकृति रूप होकर खिर गये उनका प्रभाव है और जाता है क्योंकि इसकी भी सत्ता है। इस अंतरमुहूर्त बाद कुछ निषेको का उपशम है तथा सम्बप्रकृति का उदय है चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है । ऐसी क्रिया होती इसलिए इस सम्यग्दर्शन को अयोपशम सम्यग्दर्शन कहते रहती है जब तक सम्यमिथ्यात्व वा मिथ्यात्व के निषेकों हैं। यह सब क्रिया अंतरकरण विधान ते (सत्वविचार में का क्षय नही होता। इस जीव का पुरुषार्थ तो सम्पग्दर्शन उपयोग लगाने से) अनिवृत्तिकरण के समय अपने आप को प्राप्ति के लिए तस्वविचार करना मात्र है। बाकी होती है। इस सम्यग्दर्शन मे सम्यकप्रकृति का उदय बना कार्य स्वयं होता रहता है जैसे अग्नि के संयोग से मक्खन रहता है परन्तु इसके उदय रहने से सम्यक्त्व की विराधना पिघल जाता है तथा सूर्य के प्रकाश के कारण से अंधकार नहीं होती चल, मल, अगाढ़ दोष लगते रहते हैं इसका नष्ट हो जाता है। अब सम्यक्त्व होने के पश्चात इस Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वर्ष ,कि. अनेकान्त जीव का कर्तव्य मात्मचिंतन करना है जिसके निमित्त से निर्जरा करें इस प्रकार मिश्र मोहनी का नाश करें। चरित्रमोह के निषेक भी क्रम से हीन होते-२ क्षय को प्राप्त तत्पश्चात सम्यक्त्वप्रकृति के परमाणु उदय माकर खिर हो जाते हैं तथा बाद में ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी और अंत- जाते हैं। अगर इन परमाणुओं की स्थिति बहुत बाकी राय कर्म का भी क्षय हो जाता है जो अनादिकाल से होय तो स्थिति काडादिक के द्वारा घटावें और जब स्थिति मिथ्यात्व के कारण मलिन हो रहा था। इस मलिनता के अंतर मुहूर्त मात्र रह जाती है तब उसको कृत-कृत वेदक नाश हो जाने से अपने निज स्वभाव पारिणामिक भाव सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व के सर्व निषेकों को प्राप्त हो जाता है जैसा उमा स्वामी महाराज ने का नाश होने के पश्चात क्षायक सम्यग्दर्शन होता है। तत्वार्थ सूत्र के १०वें अध्याय मे कहा है-'औपशमकादि यह सम्यग्दर्शन प्रतिपक्षी मिथ्यात्व कर्म के अभाव होने से भव्यत्वानां च, फिर केवलज्ञान तथा केवलज्ञान के पश्चात् प्रत्यन्त निर्मल है तथा वीत राग है। जहां से यह सम्यग्सिद्ध पर्याय प्रगट हो जाती है। जहा सम्मत्त, णाण, दंसण, दर्शन उत्पन्न होता है सिद्ध अवस्था तक रहता है इसका वीर्यस्व, सूक्ष्मत्व, अगुरु लघुत्व, अव्यावाधत्व तथा अवगा- कभी नाश नही होता। हनत्व आदि आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। ये गुण सदा जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन की बड़ी महिमा बतायी है। स्थिर रहते हैं। अब उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं। अंतरकरण विधान । इसके बिना मुनि के व्रत पालन करने पर भी केवलज्ञान तें प्रनिवत्ति करण के द्वारा मिथ्यात्व (दर्शन मोड के नहीं होता चाहे कितना कठोर तपश्चरण भी क्यों न करें। परमाणु जिस काल में उदय पाने योग्य थे तिनको उदीर्णा व्रतों के पालन करने में रंच मात्र भी दूषण न लगने दें। रूप होकर उदय न आ सके। ऐसे किये; इसको उपशम । कहा भी है-इसलिए कोटि उपाय बनाय भव्य ताकों उर लाओ। लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ। कहते हैं। इसके बाद होने वाले सम्पक्त्व को ही प्रथमोपशम । तोरि सकल जंग द्वंद फंद निज आतम ध्याओ। सम्यक्त्व कहते है। ये अनादि मिथ्यादृष्टि के होता है। यह सम्यग्दर्शन चतुर्थादि गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त देव योग से (विशेष पुण्योदय से) कालादि लब्धियों पाइये है। बहुरि सप्तम गुणस्थान मे उपशम श्रणों के के प्राप्त होने पर तथा संसार समुद्र निकट रह जाने पर सम्मुख होने पर जो क्षयोपशम सम्यक्त्व से सातव गुण- और भव्य भाव का विपाक होने से इस सम्यग्दर्शन की स्थान मे जो सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति होती है। यह सम्पग्दर्शन आत्मा का अत्यन्त सूक्ष्म कहते हैं। इस सम्यग्दर्शन मे दर्शनमोहनी की तीनों गण है जो केवल ज्ञानगम्य होने पर भी मतिज्ञानी, श्रुतप्रकृतियाँ उपशम रहती है। ज्ञानी के स्वानुभवगम्य है। पंचाध्यायी गा. ४६२ तथा ___ अब क्षायिक सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहिये हैं यहां सम्यग्दर्शन के विषय में पचाध्यायी की उ., गाथा ३७२ में दर्शनमोहनी की तीनों प्रकृतियों के सर्व निषकों का पूर्ण प्रश्न किया है कि ऐसा कोई लक्षण है जिससे जाना जा नाश होने पर जो निर्मल तत्व श्रद्धान होता है उसे क्षायक सम्यग्दर्शन कहते है। यह सम्यग्दर्शन चतुर्थादि गुणस्थाननि कहा है प्रशमसंवेग, अनुकम्मा तथा आस्तिक्य आदि और भी विषे कही क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के होता है । अनेक गुण हैं। जिनसे सम्यग्दृष्टि पहिचाना जा सकता है क्षायक सम्यग्दर्शन कैसे होता है सो कहते है । प्रथम वे गण सम्यग्दर्शन के अविनाभावी है जो सम्पग्दर्शन के साथ तीन करण अधःकरण, अपूर्वकरण तथा अवृत्तिकरण के अवश्य होते हैं उन गुणो के बिना सम्यग्दर्शन कदापि नहीं द्वारा मिथ्यात्व के परमाणुओ को मिथ मोहनीय रूप वा होता तथा मिथ्यादष्टि के कदापि होते नहीं जैसे जितना सम्यक्त्व प्रकृतिरूप परिणमावे वा निर्जरा करें। इस भो इन्द्रिय जन्य सुख तथा ज्ञान है वह सम्यग्दृष्टि के लिए प्रकार मिथ्यात्व को सत्ता नाश करे, फिर मिश्र मोहनीर हेय है, त्याज्य है क्योंकि प्रशम गुण के होने से पंचेन्द्रिय के परमाणुओं को सम्यक्त्व प्रकृति के परमाणु रूप करेंवा संबन्धी विषयों में तथा असंख्यात लोक प्रमाण कषायों की Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादर्शन के तीन रूप स्वभाव से ही शिथिलता हो जाती है तथा अनंतानुबधी ही पता चलता है । इससे पहिले हर एक व्यक्ति अपने को कषाय के अभाव होने से अपराधी जीवो पर भी क्षमा- सम्यग्दृष्टि मानता है परन्तु अन्तर सम्यग्दर्शन होने के भाव आ जाता है। तथा संवेग गुण के होने से आत्मा के पश्चात ही पता चलता है। इन चिन्हों के द्वारा अपने धर्म और धर्म के फल तथा सामियों में अति उत्साह आप में देखकर पता लगा सकता है कि मैं कहाँ है? शोर अनुराग हो जाता है। और सभी प्रकार की संसारिक देखें-कि मेरी रुचि, चाहना पर-द्रव्यों के संग्रह की कुछ भोगों की अभिलाषायें शान्त हो जाती हैं क्योकि ससारिक कम हुई है या नहीं। यदि शरीर कुटुंबीजनों तथा धन सुखो की अभिलाषायें मिथ्यात्व के उदय मे ही होती हैं। आदि में लालसा कम नही हुई तो निश्चित ऐसा जीव सम्यग्दष्टि के संसार में न कोई शत्रु है न कोई मित्र इस सम्पदृष्टि नहीं है। ये बात अपने सम्यक्त्व के पहिचान कारण अपने कुट बीजनों से तथा अन्य सबन्धियों से राग की है । अमुक व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है या नहीं ? इसकी क्या न होने के कारण ससार के सभी जीवों के प्रति करुणा का पहिचान है ? इसके उत्तर के लिए मोक्ष मार्ग प्रकाशक भाव होता है, सबके हित की भावना होती है। इस गुण पृ० ३:४ पर कहा है 'वचन प्रमाण ते पुरुष प्रमाण हो है' को अनुकंपा गुण कहते हैं। तथा पुरुष के वचनों का भाव सच्ची प्रतीति हो है जिससे जिसकी जीव संज्ञा है वही आत्मा है । आत्मा स्वयं पुरुष की प्रमाणता हो जाती है फिर उसके वचनों में सिद्ध है अमूर्त है, चेतन है। इसके अतिरिक्त जितना भी किसी भी प्रकार का संदेह सम्यग्दृष्टि को नहीं होता और अजीव है वह सब अचेतन है ऐसी बुद्धि होती है। जिस यदि है तो वह निपिचत रूप से सम्यग्दृष्टि नहीं है। व्यक्ति में ये बाह्य चिन्ह देखे जाते हैं वह अनुमान से जाना सम्यग्दृष्टि द्वारा रचित शास्त्रो मे कही भी आगम के जाता है कि अमुक व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यावृष्टि ? विरुद्ध कोई भी वचन नहीं पाया जाता, जिससे उनके इतना विशेष है कि अनुमान ज्ञान सत्य भी होता है और सम्यक्त्व मे किसी भी प्रकार की शंका की जाय । क्योंकि असत्य भी हो सकता है। यदि हमने उसकी परीक्षा ठोक सम्यग्दर्शन के बिना ऐसी व्याख्या नहीं हो सकती। नहीं की हो तथा इसके लिए छह ढाला में भी कहा है - सारांश यह है कि इस मनुष्य भव को सार्थक बनाने के 'पर द्रव्यन ते भिन्न आपमे, रुचि सम्यक्त्व भला है।' लिए हमें अपने उपयोग को तत्व विचार में लगा कर भेद अर्थात सम्यग्दष्टि की परद्रव्यो में अरुचि तथा स्व-आत्मा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। भेद ज्ञान होने के पश्चात में रुचि हो जाती है। उसकी पर द्रव्यों की चाह नहीं अपने उपयोग को आत्म चिंतन में लगा कर अपनी आत्मा रहती ये सम्यग्दष्टि के अविनाभावी चिन्ह हैं, जिनसे से कर्मों को पृथक करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जाना जाता है और अपने प्रापका तो निश्चित आत्मा से कर्मों को पृथक करने के लिए सर्व प्रथम पता चल जाता है कि मैं कौन हूं सम्यग्दृष्टि या मिथ्या- कुछ समय के लिए एकान्त में बैठ कर जहां किसी प्रकार दष्टि ? जैसे किसी व्यक्ति के शरीर के किसी अंग में पीड़ा का संसार संबन्धी वाधा न हो सभी प्रकार प्रारंभ परिहोती है तो क्या उसको मालूम नही पड़ता कि मेरे को ग्रह का त्याग करके बैठना चाहिए, और विचार करना फलाने अंग में पीड़ा हो रही है। जिसको पीड़ा होती है चाहिए यह देह अचेतन है, यह देह में नहीं हूं इस देह में उसको अवश्य ही पता लगता है। इसी प्रकार जब रहने वाला इस देह से किंचित न्यून ज्ञायक स्वरूपी सम्यग्दर्शन हो जाता है तब उसको अवश्य ही पता लग चैतन्य का जो पिंड है वह मैं हूँ। मैं एक हूं अकेला हूं मेरा जाता है। ऐसा नहीं हो सकता कि सम्यग्दर्शन होने के कोई साथी सगा नहीं है, मैं अकेला जन्म लेता हूँ अकेला पश्चात स्वयं को पता न चले और यदि अपने सम्यग्दर्शन ही मरण को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त जितने भी होने में उसको संदेह है तो निश्चित मिथ्यादृष्टि है जैसे पदार्थ हैं चाहे चेतन हों अथवा अचेतन । सब पर हैं मैं कोई मिश्री खाये और उसको उसका स्वाद न आए ऐसा उन सबसे भिन्न हूं ऐसा वचन तथा मन से चिन्तवन करते नहीं हो सकता, परन्तु ठीक पता सम्यग्दर्शन होने के बाद (शेष पृ० २६ पर) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारणीय: पद्मावती पूजन, समाधान का प्रयत्न 0 जस्टिस एम० एल० जैन अनेकान्त वर्ष ४३ कि. ३ जुलाई-सितंबर १९६० उपसर्ग किए, छोटे मोटे पहाड़ तक लाकर उनके समीप पृ०१६-१७ पर "भगवान पार्श्वनाथ के उपसर्ग का सही गिराए, तब घरणेन्द्र भगवान् को फणाओं के समूह से रूप" इस शीर्षक का एक लेख छपा है । लेखक हैं क्षुल्लक आवृत कर खड़ा हो गया और उसकी पत्नी मुनिराज चित्तसागर जी महाराज। पद्मावती पूजन पर उनकी दो पाश्र्वनाथ के ऊपर बहुत ऊचा वज्रमय छत्र तानकर स्थित आपत्तियां हैं - हो गई, लेकिनपहली तो यह कि मूर्तियो मे से नागकुमार देव धर- स पातु पार्श्वनाथोऽ-मान् यन्महिम्नव भूधरः, णेन्द्र का लोप हो गया है और मात्र पद्मावती ही दिखाई न्यषधि केवल भक्तिभोगिनी छत्र धारणम् । देती हैं: दूसरी यह कि "मुनिराज आर्यिका से भी ५-७ हाथ अर्थात् उपसर्ग का निवारण घरणेन्द्र पद्मावती ने किया था परन्तु इसी उपसर्ग के बीच उन्हें केवल ज्ञान हो दूर रहे ऐसा विधान होते हुए भी पद्मावती स्त्री पायी ने। गया और नागदपति का कार्य अपने आप समाप्त हो गया। महाव्रती मुनिराज पार्श्वनाथ को उठाकर अपने सिर पर गुणभद्र ने आगे बताया कि पर्वत का फटना, धरणेन्द्र कसे बिठाया और उसमे क्या कोई प्रकार का औचित्य का फणामण्डल का मण्डप तानना, पद्मावती के द्वारा है? समझ में नहीं आता ऐसा भहा और विचित्र विकल्प छत्र लगाया जाना, घातिया कर्मों का क्षय होना, केवलमूर्तिकार को कैसे आया ? उनका प्रेरक कोन रहा होगा? जान की प्राप्ति होना, धातुरहित परमौदारिक शरीर की उसमें क्या कोई बुद्धिमानी है या स्टट रूप फरेब कार्य प्राप्ति होना, जन्म-मरण रूप संसार का विधात होना, है ? यह सब विचारणीय है।" शम्बर देव का भयभीत होना, तीर्थकर नामकर्म का उदय पपावती प्रकरण में गुणभद्र ने अपने उत्तर पुराण में होना, सब विघ्नो का नष्ट होना, ये सब कार्य एक साथ लिखा है कि शम्बर नामक असुर ने तपोलीन पार्श्वनाथ प्रगट हुए। को देखा तो इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि पार्श्वनाथ को [लोकमानो विभङ्गन स्पष्ट प्राग्वैरबन्धनः सात दिन तक महा उपसर्ग जिसमें महावष्टि भी शामिल रोषात्कृत महाघोषो महावृष्टिमपातयत् । पी, अपने ध्यान से न डिगा सका। डिगाता भी तो कैसे? व्यधात्तदैव सप्ताहान्यन्यांश्च विविधान्विधिः जन्माभिषेक के समय जिन बालक भगवान के श्वास महोपसर्गान् शैलोपनिपातान्तानिनिवान्तकः] ॥३२॥ निश्वास से इन्द्र मूले के मानिंद झूलते रहते थे और अर्थात् उस असुर ने विभंगावधिज्ञान से पूर्वभव का जिनका शरीर वज वृषभनाराच संहनन का बना था ऐसे वैर बन्धन स्पष्ट देखा तो महाघोष किया और महावृष्टि बली प्रभु को शम्बर का उपसर्ग क्या कंपायमान कर की, सात दिन तक लगातार भिन्न-भिन्न प्रकार के महा सकता था? फिर नागदंपति तो आया भी सात दिन की (पृ० २५ का शेषांश) देरी से और वह भी उस समय जब केवलज्ञान होने में करते अपने उपयोग को पर पदार्थों से हटावे और निरंतर कुछ क्षण ही शेष थे। इसलिए नागदंपति का कोई योगहटाने का प्रयास करे। यही अपने में रहना है तथा यही दान उपसर्ग निवारण में नही था और थोड़ा था भी तो केवल ज्ञान व मुक्ति प्राप्ति का उपाय है। उत्तम संहनन केवलज्ञान होते ही उनका प्रयत्न (केवलं निषेधि) विफल के बिना मुक्ति भी नहीं होती। पर से हटने का उद्यम हो गया। इसके अतिरिक्त धरणेन्द्र किस कृतज्ञता को करें तो हमारे कर्मों की शक्ति क्षीण हो सकती है और प्रगट करने आया था? जिस समय पार्श्वनाथ का मामा आगामी भवो मे उत्तम संहनन की प्राप्ति और मुक्ति भी महिपाल पत्नी वियोग के कारण पञ्चाग्नि तप कर रहा हो सकती है। इसलिए पर-पदार्थों से विरक्ति कर सम्यग्- था उस समय पार्श्वनाथ के मना करने पर भी उसने दर्शन प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए। 卐 लकड़ी को काटा तो लकड़ी के भीतर स्थित सर्पदंपति के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावतीपूजन, समाधान का प्रयास २७ दो-दो टुकड़े हो गए। वही नागयुगल धरणेन्द्र पावती स्त्री-स्पर्श से व्यतीचार हो सकता है तो उसके थोड़ी दूर हुए। इसमें पार्श्वनाथ का सर्पदंपति पर क्या अनुग्रह हुआ पाम मे खड़े रहने से, देखने से, गाय से, भजन गान ही जिससे वे पाताल लोक से चलकर प्रभु सेवा में उपस्थित सही, विकार उत्पन्न होना मानना पड़ जाएगा। ध्यानस्थ हए। मरणासन्न नागदपति को णमोकार सुनाने की बात प्रभु को तो स्त्री-स्पर्श के उपसर्ग परीषह का पता भी न गुणभद्र नही लिखी है। चला होगा। दर असल जैन धर्मावलंबियो ने प्रचलित नागपूजन । खैर, जिस समय की यह पौराणिक घटना है वह को भी जिन पूजा का साधन बनाया है क्योकिनागपूजा का युग था। इस कारण महेन्द्र दम्पति बुद्ध को चारित्रं यदभागि केवलदृशादेव त्वया मुक्तये रक्षा करते है, विष्णु शेषनाग पर सोए हैं, शिव का शरीर पुंसां तत्खलु मादृशेन बिषये काले कलो दुर्धरम् तो सपों से घिरा हुप्रा है ही, कृष्ण काले नाग के फण पर भक्तिर्या समभूदिहं त्वये दृढा पुण्यः पुरोपाजितः त्रिभगी मुद्रा में खड़े बंशी बजा रहे हैं। इन सब स्पो को पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यत्र तत्र सम्मिलित कर लिया संसारार्णव तारणे जिन तत. सेवास्तु पोतो मम ! जिनेन्द्र भक्ति संसार सागर से पार उतारने वाली है। गया है। धरणेन्द्र शेषनाग का ही दूसरा नाम है क्योंकि जिन विब किसी आसन पर हो सिंहासन हो चाहे सासन शेषनाग के सर पर धरणि स्थित है ऐसी हिन्दू मान्यता है या पद्मासन, पूज्य है । पद्मावती के शीर्ष पर जिनविब की और पद्मावती विष्णु की सहशायिनी लक्ष्मी का अपर नाम ही पूजा होती है। स्वयं पद्मावती भी भक्त साधर्मी होने है। स शिव की भाति पार्श्वनाथ के शरीर को वेष्टित के कारण आदरणीय है प्रतिष्ठा पाठ व मंत्र-तत्र की साधना करता है और मर पर फरण ताने हुए है। कृष्ण की भाति भात में भी उसके आह्वान और प्राराधन किए जाते हैं क्योंकि सपिणी के सर पर प्रभु विराजमान किए गए हैं। मूर्ति यह सब विधान जिनवाणी के दृष्टिवाद अग के विद्यानुकार की कल्पना व जैनेतर अन्य मूर्तियो की तरह सर्प के । वाद पूर्व में सम्मिलित हैं। एक से लेकर १४ फण तक उनकी मूर्तियों में पाए जाते हैं। पद्मावती के सर पर विराजमान पार्श्वनाथ की मूर्ति इस प्रकार नागपूजा के आधार पर पाश्र्वनाथ की मूर्तियों यही घोषित करती है कि वह देवाधिदेव जिनेश्वर की मे विष्णु, शिव, कृष्ण व बुद्ध चारों को नागसंबंधी पूजा । भक्तिमयी सेविका है। बुद्ध महायान पंथ मे तारादेवी के का कालनिक योग से ही पद्मावती की मूर्ति कला का केशमुकुट मे बुद्ध की मूर्ति रखी हुई दिखाई जाने वाली रूप बना है ऐसा जान पड़ता है। जैनेतर विद्वान तो यहां प्रतिमायें आठवीं शताब्दी की श्री लंका मे अनेकों पाई तक कहते है कि नागपूजा ईरान (पारस) की सपंपूजा के जाती हैं। यदि यह जैनाचरण विधान के विपरीत है तो आधार पर खड़ी को गई है। संस्कृतियों का परस्पर पदमावती को इसी प्रकार की मूर्तियों की कल्पना ताराविनिमय कोई नई बात नही है। देवी की उक्त मूर्तियो के प्रवनन के पश्चात ही की गई क्षुल्लक महाराज को सकलकीर्ति की इस कल्पना पर होगी, किन्तु इप में न कोई भद्दापन है, न विचित्रता न कि नाग ने पार्श्वनाथ को फणों पर उठा लिया एतराज फरेब । सर पर प्रभु की मूति रखना भक्ति रूप का उच्चनहीं है। स्त्री पर्यायी पद्मावती पूजन में भी उन्हें एतराज तम सकेत है। अपने चितन-ध्यान में सिर में निहित प्रभु नहीं है उन्हें एतराज है स्त्रो पर्यायो पद्मावती के सर पर की मूर्ति का ही यह बाह्य कलात्मक रूप है। प्रभु के रखे जाने से, किन्तु जब पार्श्वनाथ के शरीर का धरणेन्द्र का लोप हो जाना यह ही दर्शाता है कि स्पर्श करती हुई सपिणी उन पर फणाछत्र तान रही है तो तंत्र मंत्र के प्रभाव के कारण पद्मावती पति से आगे बढ़ इससे यही सिद्ध होता है कि महाव्रती पर स्त्री-स्पर्श का गई किन्तु इस कारण से पौराणिक नागदम्पति पोर जैन कोई प्रभाव नही पड़ता चाहे वह एक या अनेक फणों श्रावकों की जिनेन्द्र भक्ति में कोई कमी नहीं आती। वाली विषधरा नाग महिला पद्मावती कितनी ही सुन्दर २१५, मंदाकिनी एन्क्लेव, रही हो। यदि महाव्रती परम तपस्वी तीपंकर को भी नई दिल्ली-१९००१६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी के आराध्य सुपार्श्वनाथ 0 डॉ० हेमन्तकुमार जैन, वाराणसी वाराणसी ने अनेक विभूतियों को जन्म दिया है, कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी जो वाराणसी मन्दिरों का शहर कहा जाता है, यहां पर एशिया के विश्वविद्यालयों में तीसरे स्थान पर विश्ववरुणा से अस्सी के बीच हर दूसरे तीसरे मकान के बाद विख्यात है। श्री स्याद्वाद विद्यालय के प्रथम छात्र श्री एक छोटा मन्दिर मिल जायगा। भदैनी में स्थित गंगा के वर्णी जी ही बने। इस महाविद्यालय ने ८५ वर्ष में हजारों सुरम्य तट जैन घाट पर श्री सुपार्श्वनाथ का जिनालय है, विद्वानों को उच्च शिखर तक पहुंचाया है। यहां प्रसिद्ध मन्दिरो मे श्री छेदीलाल का दि.जैन मन्दिर, तीर्थंकरों में भगवान सुपार्श्वनाथ सर्वाग्रणी हैं । आज भदैनी का श्वेताम्बर जैन मन्दिर, भेलूपुर के दिगम्बर, भारत में अन्य धर्म संभवतः कुछ विस्मृत अथवा लोगों की श्वेताम्बर जैन यन्दिर और धर्मशाला, मंदागिन दिगम्बर दृष्टि से ओझल हो गये हों परन्तु जैन धर्म तो प्रत्येक जैन मन्दिर और धर्मशाला ग्लालदास साहू लेन पंचायती भारतीय के मानव-मानस मे ओतप्रोत होता जा रहा है। दिगम्बर जैन मन्दिर भाट को गली जैन मन्दिर, खोजवा अहिंसा के मार्ग से चलने वाले हर प्राणी की दीर्घायु होती जैन मन्दिर, नरिया जैन मन्दिर और अन्य धर्मावलम्बियो है। तीर्थकरो का जन्म भारत की धर्म-दाम वेला में में विश्वनाथ मन्दिर, गोपाल मन्दिर, भैरोनाथ मन्दिर, हआ था, उस काल में धर्म, अर्थ एवं काम के क्षेत्र में तुलसी मानस मन्दिर, संकटमोचन मन्दिर, बौद्ध मन्दिर, सामाजिक अस्त-व्यस्तता को सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने दुर्गा मन्दिर, कबीर मन्दिर, कीनाराम समाधि, अन्नपूर्णा, का समस्त श्रेय तीर्थंकरों को ही है। शीतला, काली मन्दिर आदि समूके नगर को गौरवान्वित सातवें तीर्थङ्कर सुपार्शनाथ का जन्म वाराणसी में करते हैं । इन्ही कारणों से कहा जाता है कि यहां कदम- हुआ था। इनके पिता का नाम सुप्रतिष्ठ तथा माता का कदम पर मन्दिर हैं। नाम पृथिवी था । हरिवंश पुराण में इनके माता-पिता का तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की जन्म भूमि भदैनी वाराणसी वर्णन इस प्रकार पाया जाता हैमें है, यहां पर एक दिगम्बर जैन मन्दिर का निर्माण श्री पृथिवी सुप्रतिष्ठोऽस्य, काशी वा नगरी गिरिः। मान् स्व. बाबू देवकुमार जी रईस आरा वालों ने कराया स विशाखा शिरीषश्च सुपापर्वश्च जिनेश्वरः ।। था। एक बार क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी वाराणसी यात्रा अर्थात् पृथिवी माता, सुप्रतिष्ठ पिता काशी नगरी, पर आये, उन्होन समाज के सामने एक संस्कृत विद्यालय सम्मेदशिखर निर्माण क्षेत्र, विशाखा नक्षत्र, शिरीष वृक्ष खोलने की योजना का प्रस्ताव रखा। जिसमे पहले सह- और सुपार्श्व जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप हों। योग देने वाल श्री झम्मनलाल जी कामावाले थे इन्होंने श्री कविवर वृन्दावन जी कृत श्री वर्तमान जिन चतुवर्णी जी को एक रुपया दान दिया। वर्णी जी ने एक रुपये विशति जिन पूजन में कहा गया हैके ६४ पोस्टकार्ड खरीद कर ६४ स्थानो पर डाल दिया नप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ट शिष्ट पृथी प्रिया । सभी जगह से सहायता राशि माने लगी। ज्येष्ठ शुक्ला सुपाश्र्वनाथ का पूर्व भव में जन्म जम्बूद्वीप के विदेह पंचमी दिनांक १२ जून १९०५ ई० को श्री स्यावाद विद्या- क्षेत्र में हुआ था। घातकीखण्ड दीप की नगरी क्षेमपुरी लय का उद्घाटन हुआ। वर्णी जी की तरह महामना थी। इसका नाम नन्दिषेण था। तथा महामण्डलेश्वर और मदनमोहन मालवीय ने एक रुपये के ६४ पोस्टकार्ड खरीद ग्यारह अंग के वेत्ता थे। इन्होंने सिंह निष्कोडित तप कर सा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी के प्राराम्य सुपारवनाथ एक माह के उपवास के साथ प्रायोपगमन सन्यास धारण भगवान् सुपार्श्वनाय को पूर्वाह्न काल में एक माह पूर्व किया था साधना के अनुसार स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे। अनुराधा नक्षत्र मे ५०० मुनियों के साथ योगविवृत्ति इनके गुरू का नाम अरिन्दम था आप मध्यगवेयक स्वर्ग सम्मेद शिखर पर विराजमान हो गये। फाल्गुन कृष्ण से चयकर भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। षष्ठी को मोक्षगामी हुए। इनकी मुख्य आर्यिका का नाम सुपार्श्वनाथ का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल की द्वादशी को मीना था। इनके तीन लाख श्रावक, पाँच लाख धाविहुआ था। आपका जन्म विशाखा नक्षत्र में होने का योग काएँ, पनचावनवेह गणधर, तीन लाख ऋषि, दो हजार है। इनके चेत्यवक्षो की ऊंचाई इनके शरीर से बारहगनी तीस पूर्वधर, दो लाख चवालिस हजार नो सौ बीस शिक्षक, ऊंची मानी गयी है। आप सामान्य राजा थे। आपके नौ हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार तीन सौ केवली, शरीर का वर्ण प्रियग वृक्ष की मजरी के समूह के समान पन्द्रह हजार एक सौ पचास विक्रिया ऋषिधारी, नौ हजार हरित था। आपने राजा बनने के बाद दीक्षा धारण की छ: सौ विपुलमतिमन. पर्यय ज्ञानी, पाठ हजार वादी, थी। इनका कुमार काल पाच लाख पूर्व माना गया है। तीन लाख तीस हजार आपिकाएं थी। मुरूप गणधर का शरीर की ऊंचाई २०० धनुष या चार हाथ प्रमाण की थी। नाम बलदत्त था। मुख्य यक्ष का नाम विजय, यक्षिणी राज्य १४ लाख २० पूर्वाग किया है। पुरुषदत्ता थी। इनके अशोक वृक्ष का नाम शिरीष था। समवशरण भूमि नो योजन की थी। ___आपका दीक्षा कल्याणक जन्मभूमि मे मनाया गया था । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को वसन्तवन लक्ष्मीबास का इक्ष्वाकु प्रथमः प्रधान मुरगादादि प्रशस्तत्स्मरण हो जाने के कारण विशाखा नक्षत्र मे, अपराह्न स्तस्मादेव च सोमवश । यस्त्वन्य कुरुग्रादयः । काल मे, नगर के सेहेतुक वनमें जाकर एक हजार राजाओं अर्थात् सर्वप्रथम इक्ष्वाकु वश उत्पन्न हुआ फिर उसी के साथ दीक्षा धारण कर ली। आपका ६ वर्ष तक छमस्थ इक्ष्वाकुवश से सूर्यवश और चन्द्रवश उत्पन्न हुए। उसी काल चलता रहा। इनकी पालकी का नाम सुमनोरमा था समय कुरुवश तथा उग्रवश आदि अन्य अनेक वश प्रचलित इनने दीक्षा धारण करने के बाद दो दिन का उपवास किया, फिर नभक्त ने पारणा देकर गाय के दूध से बनी खीर का आहार दिया था। प्रथम पारणा के स्थान (१) पूर्वाह्न काल मे, अष्ट कमों को नष्ट करने वाले Tu मे दान देने ससार भ्रमण का अन्त करने वाले कायोत्सर्ग आसन का वाले का नाम महादत्त था। इनकी आदि पारणा में धारण जिनेन्द्र सुपार्श्वनाथ सिद्धि को प्राप्त हुए। इन नियम से रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और एक माह पूर्व विहार करना बन्द कर दिया था। जघन्य रूप से साढ़े बारह लाख प्रमाण की होती थी। सभी गणधर सात ऋषियों से युक्त तथा समस्त आपके दानी पुरुष तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाले शास्त्रों के पारगामी थे। वर्ण के थे। आपके दानी पुरुष तपश्चरण कर मोक्षगामी तीर्थङ्कर का संघ-(१) पूर्वधर (२) शिक्षक (३) हो गए थे। अवधिज्ञान (४) केवल ज्ञानी (५) वादी (६) विक्रय ऋषि फाल्गुन कृष्ण सप्तमी की वेला के बाद अपराह्न काल के धारक और (७) विपुलमत्ति मन: पर्यय के भेद से सात में सहेतुक वन मे विशाखा नक्षत्र में केवल ज्ञान हो गया प्रकार का होता है। था। इनका केवलि कान एक लाख पूर्व अट्ठाइस पूर्वाग नौ वर्ष माना गया है। 00 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान के संदर्भ में विचारणीय 0 पनचन्द्र शास्त्री संपादक 'अनेकान्त' यह तो गर्व विदित है कि हम ऐमे स्थान पर बैठे हैं और दिगम्बर मुनियों, त्यगियों की चर्या का शास्त्रों में जहां से जैन शोध का मार्ग प्रशस्त हुआ, समीचीन धर्म- अवलोकन भी किया है । वे क्रमशः परिग्रह से रहित और शास्त्र-रत्नकरन्ड श्रावकाचार जै। आचार ग्रन्थ का । परिग्रह परिमाण में रहते हैं-आदर्श होते हैं । इसी प्रकार सपादन और मेरी-भावना जैसी कृति का निर्माण तथा धर्म प्रभावना मे अग्रसर विद्वान् भी परिग्रह तृष्णा के स्थान पागम ग्रन्यों के उद्धार का कार्य सपन्न होता रहा। हम पर परिग्रह-परिमाण और सतोष के सहारे धर्म की गाड़ी इन्ही माध्यमों के सहारे समाज को विविध संवोधन देते रहे को खीचते रहे। जैसे-श्री टोडरमल जी, मदासुख जी हैं । निःसन्देह, उन्हें किन्ही ने तध्यरूप में स्वीकार किया और बीते युग के निकटवर्ती गुरु गोपाल दास बरैया होगा और कुछ हममे रष्ट हुए होंगे-उनको तुष्टि का आदि। बरैया जी के विषय में तो श्री नाथूराम प्रेमी ने हमारे पास उपाय नही। हम 'हित मनोहारि च दुर्लभं लिखा है- "धर्म कार्यों के द्वारा आपने अपने जीवन मे वच.' का अनुसरण कर चलते रहे हैं-'कह दिया सौ बार कभी एक पैसा भी नही लिय।। यहां तक कि इसके कारण उनसे जो हमारे दिल में है।'हाँ, हम यह भी कहते आप अपने प्रेमियों को दुखी तक कर दिया करते थे। रहे है कि हमारा कोई आग्रह नही, ग्रहण करें या छोड़ पर, भेंट या विदाई तो क्या, एक दुपट्टा या कपड़े का दें। प्रस्तु, टुकड़ा भी ग्रहण नहीं करते थे।"-जब कि आज के आज प्राय: सभी धर्म प्रेमी अनुभव कर रहे है कि अधिकांश पण्डित प्रायः इमके अपवाद हैं-बड़े वेतन पाने जैन की स्थिति दिनोदिन चिन्तनीय होती जा रही है। वाले तक पर्युषणादि में अच्छा पैसा लेते है-प्रतिष्ठा, जनता मे न वैसा दृढ श्रद्धान है, न बैसा ज्ञान और ना ही विवाह आदि सस्कारों की बात तो अलग। वसा चारित्र है जैसा लगभग ६० वर्ष पूर्व था। समाज यह समाज का दुर्भाग्य रहा कि उक्त दोनो धाराएं मे तब धर्म की धुरी को थामने और वहन करने वाले दो क्षीण होती गयी । ऐसा क्यों और किन कारणो से हुआ? लोण होती गयी प्रमुख अग थे- त्यागी और विद्वान पण्डित । इन्हे श्रावकों यह ऊहापोह और तत्तत्कालीन परिस्थितियो पर विचार का सहयोग रहता था और ये आगमानुसार प्रभावना मे करने से स्पष्ट हो सकेगा-उसमे मतभेद भी रहेंगे । अतः तत्पर थे-धर्म-धुरा को खीचते रहे। दुर्भाग्य से आज हम उस प्रसग में नहीं जाते हैं। इतना ही पर्याप्त है कि त्यागी तो हैं, पर त्यागी कम। पण्डित तो हैं विद्वान् कम। उक्त दोनों धाराओं का हास धर्माचार तथा धर्मज्ञान के ये हम इसलिए कह रहे हैं कि आज त्याग, राग से लिपटा पंग होने का कारण हुआ। यह विडम्बना ही है कि जा रहा है और पण्डिताई पैसे कमाने या गुजारे का पेशा जिन्होंने धर्म की प्रभावना की उनके हमसफर ही ह्रास में मात्र बनकर रह गई है-दो-चार अपवाद हुए तो क्या? कारण हए-बाड़ ने ही खेत पर धावा बोल दिया। ऐसे जब कि राग और पंसा दोनों ही धर्म नही, परिग्रह हैं में 'पल्लवग्राहि पाण्डित्यम्' ने धर्म के ज्ञानदान का वोडा और परिग्रह की बढ़वारी मे धर्म का विकास रुद्ध हो जाता उठाया और उसमें कई वर्ग सम्मिलित हर-कुछ नामहै-तीर्थकरादि महापुरुषों ने परिग्रह का सर्वथा त्याग धारी पण्डित, कुछ स्वाध्यायी तथा कुछ धनिक वर्ग भी। किया। इस प्रकार धर्म की गाड़ी चलती-सी दिखती रही। लोगों हमने पूर्ववर्ती दिगम्बराचार्यों के जीवन भी पढ़े हैं ने संतोष किया-'एरण्डोऽपि दुमायते ।' पर, आचार Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान के संदर्भ में विचारणीय ३१ फिर भी गिरता गया और आज स्थिति यह है कि ऊंची. अधुरा नहीं होता और संसार में ही पूरा आत्मदर्शन होने ऊँची तस्वचर्चा, खोज और प्रचार की बातें करने वाले पर मुक्ति की आवश्यकता ही न होती। इस तरह सात कई व्यक्तियों को रात्रिभोजन और अपवित्र होटलों तक तत्त्वों में से मोक्ष तत्त्व ही न मानना पड़ेगा और परिवही से परहेज नही रह गया है। यहां तक कि प्रथम तीर्थ र संसार मे ही मुक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी-जैन का के नाम से स्थापित एक प्रतिष्ठान ने तो निर्वाण उत्सव घात ही होगा। की रूपरेखा बनाने के लिए बुलाई मीटिंग हेतु छपाए कुछ लोग अपनी सयम सम्बन्धी कमजोरी को दूर निमन्त्रण पत्र में साफ शब्दो में यह तक छपाने में गौरव करने के मार्ग की शोध को छोड़ जड़-मात्र की खोज मे सममा कि-बैठक के पश्चात आप सभी रात्री मोजम लग बैठे। कहने को आज जैनियो में सैकड़ों पी-एचडी. करने को कृपा करें।-खेद ! डिग्रीधारी होंगे। खोजना पड़ेगा कि कितनो की थीसिसे आज हर व्यक्ति की दृष्टि आचार र उतनी केन्द्रित मात्र सयम-चारित्र की शोध मे हैं ? कितनो ने श्रावकानहीं है जितनी प्रचार पर। वह स्वयं प्राचारादर्शन चार और श्रमणाचार पर स्वतत्र शोध-ग्रन्थ लिखे हैं ? होकर दूसरो के संस्कार और आचार सुधार की बातें आचार मार को बने और कितनों ने अपने चारित्र को शोषों के अनुसार ढाला करने लगा है। यहां तक कि अपने को देखो, अपना है ? केवल लिखने से इतिश्री मानने से कुछ होना-जाना लोटा छानो, कोई किसी दूसरे का कर्ता नहीं है" आदि, जैसे नहीं है-असली प्रचार तो आवार से होता है जैसा कि गीत गाने वाले कई लोग भी दूसरों में प्रचार करके उन्हें तीर्थंकरों और त्यागियों ने आदर्श सामने रख कर कियासुधारने की धुन मे हैं। कई यश-ख्याति या अर्थ-अर्जन 'अवाग्वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम् ।'-ध्यान रहेहेतु अपने तत्प ज्ञान-सबधी बीसियो पुस्तके तक छपवाकर आचार की बढ़वारी ही प्रचार का पैमाना है। यदि बेचने और वितरित कराने की धुन मे है-पैसा समाज आचार गिर रहा है तो प्रचार कैसा ? का हो और नाम उनका । पर सर्वज्ञ ही जाने-उन यदि पुस्तकें बनाने, वितरण कराने से प्रचार माना पुस्तकों में कितनी आगमानुसारी हैं और कितनी लेखकों जाय, तब तो साठ वर्ष पहिले न तो इतनी पुस्तके थो के गहीत स्व-मनोभावों से कल्पित या कितनो कालान्तर और ना ही प्रचार में आयी, जितनी भरमार आज है। में जैन तत्त्व-सिद्धान्तों को विचार-श्रेणी मे ला खड़ा करा इसके अनुसार तो तब से आज आचार की स्थिति सैकड़ों देने वाली? गुना श्रेष्ठ होनी चाहिए, जब मात्र बालबोध, छहढाला कुछ लोग निश्चय से आत्मा के अदृश्य, अरूपी और आदि जैसी चन्द पुस्तकें ही उपलब्ध थी। फनतः हम तो अकर्ता होने को एकांगी बाते भले ही । रते हों, पर हमने विद्वानों, त्यागियो और आगमों की रक्षा में प्रचार देखते तो ऐसी अनेकों आत्माओं को व्यावहारिक प्रतिष्ठाओं, हैं। क्या, हम ऐसा मान लें कि "तीन रतन जग मांहि" रात्रि के विवाह समारोहों, सगाई आदि मे प्रत्यक्ष रूम में में अब वीतराग देव है नहीं, और सजीव गुरुओ के सुधार देखा है -कईयों को परिग्रह सग्रही और कषायों के पुंज पर हमारा वश नहीं-हम भयभीत या कायर है। तब भी देखा है-भगवान हो जाने ये निमित्त को भी किस अजीव आगमरूपी रत्न को हम मनमर्जी से छिन्न-भिन्न रूप में मानते और क्यों जुटाते हैं ? अब तो कई लोग कर डालें-उनकी मनमानी व्याख्याएँ करें। हमारी दृष्टि परिग्रह समेटे आत्मोपलब्धि-प्रात्मदर्शन की धुन मे हैं। से तो मूल आगम को अक्षुण्ण रख, उनके शब्दार्थ किये ऐसे लोगों को विदित होना चाहिए कि -- परिग्रह मे आत्म- जाएँ और गलत रिकार्ड से बचाव के लिए उनकी मौखिक दर्शन दिगम्बरों का सिद्धान्त नहीं है-इस चर्चा में तो व्याख्याएं ही की जायें। हमारी समझ में व्याख्याओं में सवस्त्र मुक्ति और स्त्री मुक्ति जैसे विष की गन्ध है । यदि भ्रान्ति हो सकती है। ये कोई तुक नहीं कि आगमपरिग्रह में आत्म-दर्शन होता तो दिगम्बर मत ही न भाषा को लोग नहीं समझते। यदि नहीं समझते, तो होता-क्योकि आत्मदर्शन, आत्मा के अखण्ड होने से समाज को उस भाषाके ज्ञाता तैयार करने चाहिए-भला Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ४,कि. ४ अनेकान्त जो समाज बनावट-दिखावटमें पंसोंको पानीकी तरह बहाता प्रकार परिचित होकर अपनी भूल को सुधार सकें।" हो-क्या वह कुछ आचारवान विद्वानों के तैयार करने पत्रिका-संचालन के समय प्रकाशित हा अनेकान्त में उसे नहीं लगा सकता? क्या वह नई-नई सस्ती किताबों की स्थापना का उद्देश्य :-"जैन समाज में एक अच्छे से, को छपाकर प्रचार करने मे आगम और धर्म की रक्षा साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्र की जरूरत बराबर मानता है ? यदि ऐसा होता रहा तो धर्म प्रभाव का महसूस हो रही है और सिद्धान्त विषयक पत्र की जरूरत सर्वथा लोप ही समझिए। यह धर्म किन्ही इधर-उधर तो उससे भी पहिले से चली आती है। इन दोनों जरूरतों झांकने वालों का नही, यह तो त्यागियो-व्रतियों और ___ को ध्यान में रखते हुए समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) पागम ज्ञाताओ क्रियावानों का धर्म है, जो उन्ही के सहारे ने अपनी उद्देश्य सिद्धि और लोकहित साधना के लिए कायम रहा है और कायम रह सकता है। यह समाज को सबसे पहिले 'अनेकान्त' नामक पत्र को निकालने का समझना है कि इसे कैसे कायम रखा जाय? महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया है।" अपनी बात और क्षमायाचन : चंकि पत्रिका अपने ४४ वर्ष पूर्ण कर रही है और ___'अनेकान्त'की ४४वें वर्ष की अन्तिम किरण पाठको को । संपादक का कर्तव्य है कि वह सम्पादन मे जान-अजान देते हुए हमे सन्तोष हो रहा है कि उनके और लेखको के या अज्ञानतावश हुई भूलो पर पाठको से क्षमा याचना सहयोग से हम 'अनेकान्त' देते रहने में समर्थ रहे । सस्था करे-हालां कि हमारी अल्पबुद्धि से हम उचित ही के अधिकारियों का पूग योग रहा। हम सभी के लिखते रहे हैं और प्रबुद्धजनों ने उसे सराहा भी है। आभारी हैं। वैसे तो हमारे केश, जैन आगम-पठन और समाज मे पाठकों को विदित हो कि हम 'अनेकान्त' पत्रिका में ही श्वेत हुए हैं ऐसे में यदि कोई श्याम केश, चिंतनक्षेत्र मे विभिन्न-शीर्षकों द्वारा जितना हम जानते हैं-संस्था की हमारी अवमानना भी करे तो वह हमें हमारी परमरा रीति-नीति, जन मान्य-आचार-विचार और सिद्धान्त तक पहुंचाने मे हमारा सहकारी ही होगा। क्योंकि अपसंबधी वास्तविक शोधो को देने का भरसक प्रयत्न करते मानित होना तो निरीह विद्वानो की परम्परा रही हैरहे हैं। हमारा लक्ष्य अन्य शोधो के साथ समाज में हम बुरा न मानेंगे। हां, ऐसे मे भी हमें अनुभव मे आई जनाचार-पालन और सिद्धान्त-ज्ञान के प्रति व्याप्त यह बात फिर भी कचोटतो रहेगी कि समाज मे सयम के उपेक्षाभाव का निरसन भी रहा है। हमारा दह निश्चय है शिथिलाचार का मर्ज हद पार कर, बेहद हो चुका है। कि जैनधर्म व्यावहारिक और निश्चय दोनो रूपों में स्व फलतः बिहारी का दोहा चरितार्थ होने जा रहा हैपर शोध का धर्म है और इसमे मुख्यता स्व-शोध की ही है-मात्र जड-शोधो की नही। जब कि आज जैनियों में "रे गन्धी मति अन्ध तू अतर दिखावत काहि ।" भी मात्र जड़-शोधे व्य प्त हो गई हैं और जिसका फल फिर भी दया-पात्रों से भी दया याचना के साथ स्पष्ट समक्ष है-पाचार-विचार और धर्म-ज्ञान में गिरा. हमारी बुढ़ापे की नम-आखे नेताओं, थोथे नारेबाजों वट। हम स्मरण करा दें कि संस्था की स्थापना मे एक ओर धर्म-धुरन्धर बनने वालों की ओर निहार उद्देश्य यह भी रहा है रही हैं कि वे समझें-सही रास्ते में आएं-जैनाचार __ "ऐसी सेवा बजाना जिसमे जैनधर्म का समीचीनरूप, और मूल-आगमों की रक्षा और विद्वानों की बढ़वारी उसके आचार-विचारों की महत्ता, तत्त्वों का रहस्य और करें। वरना, हम तो मिट जाएंगे और धर्महास का सिद्धान्तों की उपयोगिता सर्व साधारण को मालुम पड़े- पाप उनके ही माथों पर होगा। उसके हृदय पर अंकित हो जाय-और वे जैनधर्म की अगर अब भी न संभले तो, मिट जाओगे जमाने से । मूल बातों, उसकी विशेषताओ तथा उदार नीति से भले तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में ।' Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ "हमने क्या खोया क्या पाया" आज अकस्मात मुझे अपना बचपन याद आ गया जब फिर भी क्रोध, मान, मायाचारी और लोभ के वशीभूत मैं जैन पाठशाला में पढ़ता था। और स्कूल के नियमानुसार पांच इन्द्रियों के भोगो में लिप्त प्राणी धर्म से विमुख आत्मधर्म की परीक्षा से उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। छहढाला, कल्याण से रहित कार्यों में अग्रसर होकर भविष्य को रत्नकरंड प्रावकाचार व मोक्षशास्त्र तो छठी-सातवी व अधकारमय बनाता है जैसा आज प्रत्यक्ष दष्टिगोचर हो आठवीं कक्षा मे ही पढ़ लिए थे। रहा है। बाहर धार्मिकता का दिखावा है। अं-रग प्रे जैनियों की पहिचान के तीन मुख्य चिन्ह है :- आचार विहीनता, अभक्ष भक्षण आदि धर्म विमग्न कार्यों (१) नित्य देवदर्शन। से निरन्तर शासन की अप्रभावना कर पाप बधकरता है, (२) पानी छान कर पीना । और अपने भविष्य को अंधकारमय बनाना है। (३) रात्री भोजन का त्याग । (३) पुण्यानबंधी पाप = पाप के उदय मे कोई अनगर्मी में प्यास लगती, जिम स्थान गा दुकान पर लोटे कलता प्राप्त नही, जीवनयापन भी दुष्कर है। फिर भी पर छजना लगा होता, निश्चित होकर जल पी लेते सन्तोष पूर्वक अपने कर्म का उदय जान शान्ति पर्वक जीवन सन्तोष रहना शुद्धता का। आज तीनो चिन्ह प्राय: नुप्त चलाता है। धर्म मार्ग से विचलित नही होता गायन की दोहै। पानी छानकर पीना तो जैनी भल हो गये है। अप्रभावना अवहेलना भल कर भी नहीं करता मबमे प्रेम रात्री मे भोजन युवक और वद्ध मत्र लिए अनिवार्य-सा का बर्ताव करता है। आत्मकल्याण में निरन्तर लगा हो गया है विवाह आदि मे स्पष्ट देख सकते है। ज्यादा रहता है इस प्रकार प्रतिकलता मे ही आगामी भविष्य वैभवशाली व रोपवयंपूर्ण विवाहो मे तो कही-कही मदिरा उज्ज्वल बनाता है। अभक्ष भो चलने लगा है। देव दर्शन न होकर मात्र (४) पम्मनबंधी पाप आज भी पाप का उदय दग्वी भिक्षुकवती होती जा रही है। शायद भगवान हममे कर रहा है। आगामी मे भी क्रोध की आग मे जल रहा प्रमन्न होकर हो धन-दौलत, लौकिक प्रवर्य प्रदान कर है। धर्म मे विमख होकर पापकार्य मे लगा है।मे जीव दे और हमारे परिग्रह व सांसारिक मुग्प में बढ़ोतरी गे को शान्ति मव के दर्शन होने सम्भव हो नी । तर जाए पत्र पौत्र की प्राप्ति हो जाए। यद्यपि यह सब एवं अनत काल कात्रिभोmarria मंचित पुण्य के योग से ही प्राप्त होते है। पाप का उदय जरा हम भी विचारें किस किस श्रेणी में चल रहे हो तो अभाव के ही दर्शन होते है। हैं । वगा हमारा जीवन जमा हम प्रदर्शित कर ले गा पूण्य के विषय में निम्न बाते विचाराधीन है :- ही है । कण हम मे नत्त (जीतने वालों के निम्न हैं का (१) पुण्यानबंधी पुण्य - पुण्य के उदयकान मे ममरन । हम भगवान जिनेन्द्र देव की अज्ञानमार शामन की प्रभ'अनक नता धन-सम्पत्ति, वैभव, मनान सूख, ममाज में नग कर रहे हैं क्या हम अपना आगामी पापणास्त न मान्यता प्राप्त होने पर भी निरन्तर देव पूजा, गुरू उपा- कल्याणकारी बना रहे हैं। कहीोमा तो नही हमारे दैतिर भना, दीन-दुखियों की सेवा, चारो प्रकार के दान, सन. नई खान-गान रहा.महन अतिथि मलबार धातिर प्रिया समागम, शृद्ध आचरण, श्रत अभ्याम, आन्म-माधना द्वारा द्वारा हमें देखने वाले हमारे विषय मे गान घाणा बना आत्मोन्नति करना, अपने आचरण मे मगे को धर्म मार्ग कर जिनेन्द्र देव के शासन को निन्दा को जोर सपने की ओर प्रभावित करना यह सब कार्य पूण्य के उदय में तीर्थंकरों के प्रणम्त मार्ग पर दोषारोपगा के कारण बन नवीन पुण्य मंचयकर उज्ज्वल भविषा प्रदान करते है और जाये। जिन शासन की भावना को धमिल कर अपने प्रात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थ की मिद्धि करते हैं। को अयोग्य पुत्र साबित करे, जरा सोचने पि । (२) पापानबधी पुण्य -जिमके उदय में पूर्व संचित -श्री प्रेमचन्द जैन पुण्य के कारण समस्त अनुकूलताएं धन ऐश्वर्य प्राप्त है। ७/३२, दरियागज, नई दिल्ली आजीवन सदस्यता शल्क : १०१.०० ३० धार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मल्य : १ रुपया ५० पैसे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन बनाप-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1: संस्कृत और प्राकृत के 171 प्रप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तिथो का मगलाचरण सहित प्रपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों पोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द / ... जमग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2: अपभ्रश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पवन पकारों के ऐतिहामिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / सं.पं. परमानन्द शास्त्री। मजिन्द। 15.00 अवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ सख्या 74, सजिल्द / 7.00 ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12.0 न लक्षणावली (तीन भागों में) : स.पं. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रा प्रत्येक भाग 4.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन 2-00 Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume ll contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ प्रिन्टेड पत्रिका बुक-पकिट