________________
गोल्लाराष्ट्र व पोलापुर के भावक
के आरम्भ तक इनमें कुछ जैन थे"। ये बुन्देलखंड के गोलापूर्वो में बहुत से गोत्र जिन ग्रामों के नाम पर बने हैं वासी हैं। आहार के कुछ चन्देलकालीन लेखों में अवध- वे सब धसान नदी के पास ही हैं । वर्तमान रूप में गोलापुरान्वय या अवध्यापुगन्वय का उल्लेख है। अवध्यापुर पूर्व जाति का विकाम यही से हुआ है। कुछ लेखकों के या अयोध्यापूर्व एक ही होना चाहिए।
मत से प्राचीन दशाणं जनपद यही है। ३. डोभकुंड के १०८८ ई. के लेख में जैसवाल जाति बुन्देलखंड (जेजाभुक्ति) में रहने वाली जैन जातियों के प्रतिष्ठापक को "जायसव्यिनिर्गत" वश का कहा में गहपति व गोलापूर्व प्राचीनतम हैं। इनके पूर्व इस क्षेत्र गया है। जैसवाल जायस नगर से निकले माने गये है"। में जैन विरल ही रहे होंगे। अतः गोलापूर्व यहां आने के
अतः गोल्लापूर्व का अर्थ गोल्लापुर या बालपुर नगर पहले ही जैन धर्म के पालक रहे होना चाहिए । ग्वालियर के निवासी होना चाहिए। यह नगर कहाँ है ?
के आसपास कही भी जैन लेखों में गोलापूर्व जाति का "ग्वालियर" शब्द में "ग्वाल" गोप या गोल्ला का उल्लेख नहीं है। सम्भवतः मूर्ति लेखों में जाति नाम के ही रूपांतर है। परन्तु इस शब्द के उत्तरार्ध की उत्पत्ति उल्लेख की परम्परा प्रचलित होने से पहले ही ये ग्वालियर स्पष्ट नहीं है। पुस्तकों व शिलालेखों में इसे गोपाद्रि, क्षेत्र छोड चुके थे। गोपाचल आदि कहा गया है। सन् १४९५ में कवि मानिक
लगभग सभी जैन जातियों की उत्पत्ति खास-खास ने इसे ग्वालियर ही लिखा था। कश्मीर में जैनुलब्दीन के नगरों व उनके आसपास के क्षेत्र से हुई है"। एक ही दरबार में जीवाज (१५वी सदी) ने इसे गोपालपर लिखा स्थान में रहने वाले सभी जैन प्राने समुदाय को एक ही पा" । प्राकृत में अक्सर 'प' का 'व' होता है, अपभ्रंश में
जाति मानें, इसमें कम से कम ३-४ सौ वर्ष अवश्य लगे 'व' का भी रूपांतर हो जाता है। मुसलमान लेखकों ने होगे। रामजीत जैन एडवोकेट की पुस्तक "गोपाचलइसे गालेयूर लिखा है। यह ग्वालपुर का रूपांतर लगता
सिद्धक्षेत्र" के अनुसार ग्वालियर में पायी गई जैन मूर्तियों है। ग्वालियर शब्द ग्वालखेट का भी रूपांतर हो सकता म स कइ सातवा, आठवा व नावा सदा का भा ह । अतः है जो ग्वालपुर का समानार्थी है।
यदि ग्वालियर से किसी जैन जाति का उद्भव हुआ हो तो एक-दो अपवादो को छोड़कर उत्तर भारत की जैन इसमें आश्चर्य नहीं है। जातियो के लेख ग्यारहवी सदी के उत्तराधं या बारहवी वर्तमान मे ग्वालियर में जैन जातियो में से सर्वाधिक सदी के पूर्वार्ध से ही मिलना शुरू होते हैं । दक्षिण जैसवाल व उनके बाद वरहिया जाति के हैं" । डोमकुंड भारत मे भी जैन श्रेष्ठियो के लेख ग्यारहवीं सदी से ही के सन् १०८८ के लेख के अनुसार जैन मन्दिर के प्रति. मिलना शुरू होते है" । दसवीं शताब्दी में भारत का अरब ष्ठापक के पूर्वज जायस नगर से आकर बसे थे । सम्भव चीनी व्यापारियो के माध्यम से समुद्री व्यापार बढ़ गया। है यहाँ जैसनाल जाति का बसना दसवी सदी से शुरू राजपूतों के स्थायी राज्य हो जाने से आवागमन सुरक्षित हुआ हो । वरहिया जाति नरवर के निकट उरना नाम के हुआ । बडी संख्या में व्यापारी, जैन साधु व ब्राह्मण भारत स्थान से निकलो प्रतीत होती है। सम्भव है कि ग्वालियर मे दूर दूर की यात्रा करने लगे। बड़ी संख्या में जैन के प्राचीन जैन निवासी जो ग्वालियर मे ही रहे वे गोलाप्रतिष्ठायें होने लगी एवं साक्षरता फैलने से अधिक मूर्ति- लारे जाति का भाग बने या अन्य जातियो में मिल गये। लेख लिखे जाने लगे।
ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में कैवल शिवपुरी जिले के ऐसा प्रतीत होता है कि नवमी-दसवी शताब्दी मे झिरी व पोहरी ग्रामों मे गोलापूवो का प्राचीन काल से चन्देलों का राज्य सुदढ हो जाने से बहा गृहपति व गोला- निवास रहा है। पूर्व जातियां जाकर बस गई। गालापूर्व धसान नदी के गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे इन तं नों जातियों किनारे जाकर बसे । गोलापूरों के प्राचीनतम लेखों में मे ईक्ष्वाकु जाति से उत्पन्न होने की श्रुति रही है। कुछ को छोड़कर बाकी सब इसी क्षेत्र मे पाये गये हैं। गोलापूर्व व गोलालारे जातियों में कुछ गोत्रों के नाम