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________________ आचार्य जिनसेन की काव्य कला _) एम. एल. जैन, नई दिल्ली जिन महानुभावों ने जिनसेन का स्वाध्याय किया है माता मरुदेवी के गर्भाधान के पश्चात का प्रसंग है। वे जानते हैं कि महाकवि एक ओर दर्शन शास्त्र के अधि- माता का मनोरंजन करने के लिए देठिया आई हैं और कारी थे तो दूसरी ओर अप्रतिम प्रतिभा वे साहित्यकार नाच गान के साथ-माथ काप गोष्ठी भी करती हैं जिसमें भी। जहां अपने गुरु वीरसेन की अधूरी धवला टीका को व्यानस्तुनि आदि अलकारो के साथ-साथ पहेलियां, एकापूर्ण कर जिनवाणी का अक्षय-कोष भरा वहां महापुराण लपक, क्रिया गुप्त, गूडक्रिया, स्पष्टान्धक, समानोपमा, का लेखन भी किया। इसके प्रथम भाग आदि पुराण को गल चतुर्थक, निरीग, बिन्दुपान, बिन्दुच्युत, मात्राच्युतवह पूरा नहीं कर पाये किन्तु जितना कुछ लिखा उरासे प्रश्नोतर, व्यजनच्युत, अक्षरच्युतप्रश्नोत्तर, यक्षरच्युत, उमको व्याकरण, कोष, छन्द अलंकार व साहित्य के विविध एकाक्षरच्युत, निन्हुवै कालापक, बहिापिका, अन्तलापिका, आयामों की व दिशाओ की जानकारी पद पद पर अकित आदि विषम मनरालापक, प्रश्नोत्तर, गोमूत्रिका, अर्धघ्रम है। देखा जाए तो प्रादिपुराण की शैलो सस्कृत-काव्य जैसे छन्दो का मनोहारी सरस प्रयोग है। कुछ नमने पेश हैंसाहित्य की निगली शैली है। विशाल विद्वत्ता के कारण पहेली नाभभिमतो गास्त्वयि रक्तो न कामुकः, यह शैली एक और व्यास, कालिदाम, माघ आदि कवियो न कुमो प्यधर कान्त्या यः सहोजोधर स कः । से मुबला करती है तो दूसरी ओर बाण, हर्ष आदि इस पहेलो का जवाब पहेली पही रखा है। देवी पूछती हैसाहित्यकारोकी बराबरी करती है। नवी शताब्दी तक प्राप्त आप में रक्त (आसक्त) होते हुए भी जो नाभिराजा को संस्कृत काध्य कला की सारी तकनीक इस अकेले महाकाव्य अभिमत (प्रिय) है, कामुक भी नहीं है, अधर (नीचे) भी मे सर्दाशत है। आइए इसका थोडा-सा आनद बांटा जाए। नही है, कान्नि के कारण वह मदा ओजधर (भोजस्वी) - रहता है, वह कोन है ? (१०२१ का शेषांश) देखने पर, देखने वाले पर रहना चाहिए । जब यह अभ्यास __ माता मरुदेवी का उत्तर है-अधर क्योकि अधर न गहरा होगा तब अन्य कार्य करते हुए भी ज्ञाता पर जोर __ स्वय कामुक है, शरीर के नीचे भाग में स्थित नहीं है, सदा आ जायेगा और तत्काल ऐसा लगेगा वह काम तो हो रहा कान्तिमान है और पति नाभिराय को प्रिय है ही। है परन्तु में जान रहा हूं, इसी रास्ते से आगे बढ़ने का कियागुप्त : नयनानन्दिनी रूपसंपद ग्लानिमम्बिके, उपाय होता है। उस समय भूत, भविष्यत् की बुद्धिपूर्वक आहाररतिमुत्सृज्य नानाशानामृतं सति । वाली चिन्ताओं के रुकने से जो शांति का आभास होगा वह इस पच मे 'नय' और 'अशान' क्रियाएं गप्त हैं। परमशांत अवस्था का नमूना है। पं. प्रार टोडर मल जी हे सति, हे माता आप आनददायिनी रूप संपत्ति को साक्षीभाव के लिए यह लिखाहै-"साक्षी मत तो वाका ग्लानि में न लाएं (नय न) आहार से प्रेम छोड़कर'नाना नाम है जो स्वयमेव जैसे होय तसे देख्या जान्या करै । जो प्रकार के अमृत का भोजन कीजिए (भशाम)। इष्ट अनिष्ट मानि राग-द्वेष उपजाव ताको सानीभूत कैसे स्पष्टान्धक: कहिए जातै साक्षीभूत रहना बर कर्ता हत्ता होना ये दोऊ वटवृक्ष. पुरोऽय ते घनच्छाय: स्थितो महान, परस्पर विरोधी हैं। एक के दोउ सम्भव नाहीं।" म इत्युक्तोऽपि न त धर्मश्रित कोऽपि वदावभूतम् ।
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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