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________________ प्राचार्य बिरसेन की काव्य कला २७ देवी का सवाल है-यह गहरी छाया वाला बड़ा बड़ इस पद्य में तोयं व जल गन्द पानी के लिए दो बार का पेड़ पापके सामने खड़ा है ऐसा कहने पर भी धूप में प्रयोग होने से जलं का बिन्दु लोप करके जल मकरदारुणम् बड़ा कोई व्यक्ति वहां नही गया-बताइए यह कैसा पाठ किया जाता है। इसी प्रकार प्रारंभ के मकरदारुणम् माश्चर्य है? बिन्दु लोप करके मकरदारुणम् तथा अंत के मकरदारुणम् जवाब में माता कहती है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं में बिन्दु जोड़कर मकरंदारुणम् पाठ प्रामानी मे करके भी क्योंकि दर असल इसका अर्थ इस प्रकार है वही अर्थ सारे पद्य का निकाला जा सकता है। वटवृक्ष (वट+वृक्ष अर्थात् हे वट्, यह रीछ) तेरे आदिव्यञ्जन पृथक सामने घनश्छायः (बादल के समान काला) बड़ा भारी बराशनेषु को कच्य: को गम्भीरो जलाशयः, खड़ा है ऐसा कहने पर भला कौन वहां जाता चाहे धूप का कान्तस्तव तन्वागी वदादिव्यजनैः पृथक् । में ही क्यों न खड़ा हो। हे तम्वांगि उत्तम भोजनों में रुचि बढ़ाने वाला क्या निरोष्ठय: है ? गहरा जलाशय क्या है और श्रापका पति कौन है? जगजयी जितानङ्गः सता गतिरनम्तदक, तीनों प्रश्नों के जवाब मे आदि ग्यजन पृथक् हो ? श्लोक तीर्थकृत्कृत कृत्यश्च जयतात्तनयः स ते । में जवाब नहीं है किन्तु कवि ने लिखा है कि माता मा. इस पद्य का अर्थ सरल है किन्तु इसमे उकार पवर्ग देवी का जवाब था-'सूप', 'कूप' और 'भप' । और उपध्मानीय अक्षर नही है। गोमूविक: एकाक्षर च्युतः गो मूत्र के समान ऊँचे नीचे वाले छन्द का नाम का-कः श्रयते नित्यं का-की सुरतप्रियाम्, गोमत्रिका होता है-देवी कहती है-- का-नने देदानी च-रक्षरविच्युतम् । त्वमम्ब रेचितं पक्ष्य नाटके सुरसान्वितम्, देवी पूछती है-हे माता, किसी वन में एक कौआ स्वमम्बरे चितं वैश्यपेटकं सुरसारितम् । सम्भोगप्रिय कांगली का निरन्तर सेवन करता है परन्तु हे माता नाटक में होने वाले रसीले नत्य को देखिए, इसमें चार अक्षर कम है। तथा देवों द्वारा लाया हुआ और आकाश मे एक जगह मरुदेवी ने पूर्ति की इकट्ठा हुआ यह अप्सराओं का समूह भी देखिए। कामुकः श्रयते नित्य कामुको सुरतप्रियाम् , इस गोमूत्रिका को समझने के लिए निम्न चित्र कान्तानने वदेदानी चतुरक्षर विच्युतम् । देखिएहे सुन्दरमुखी, कामी पुरुष सम्भोग प्रिय कामिनी का त्व व चि प ना के रवि सदा सेवन करता है। इस प्रकार चारो एकाक्षर की पूर्ति म रे त श्य ट सु सा तं कर दी। बिन्दु ध्युतः बींध की पंक्ति के अक्षर दोनों श्लोकाधों में है इन्हीं मकरन्दारुणं तोय धत्ते तत्पुरखातिका, की वजह स गोमूत्र सम पंक्ति निर्मित हो सकी है। बीच साम्बुजं क्वचिदुबिन्दु चलत् मकरदारुणम् । की पंक्ति के अक्षरों को दोनों ही प्रथम व तृतीय पक्ति देवी वर्णन करती है - उसके नगर की परिखा ऐसा पड़ने में साथ में पढ़ना होगा। जल धारण कर रही है जो लाल कमलों के पराग स लाल इस विशिष्ट कवि गोष्ठी के अतिरिक्त सर्ग १९ ऐसी हो रहा है, कहीं कमलों से सहित है, कहीं उड़ती हुई जल विशेषताओं से भरा पड़ा है। देखिएकी छोटी-छोटी बूंदो से शोभायमान है और कही जल में सानूनस्य दुतमुपयान्ती धनसारात् चले रहे मगरमच्छ बादि से भयंकर है। सारासारा जलदघटेय समसारान
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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