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________________ १२वीं शताब्दी में न जातियों का भविष्य मेडतवाल है तरह और भी गई या अन्य नामोल्लेख किया है लेकिन आज जितने की प्रायः सभी वैष्णव धर्मानुयायी है। इसी बहुत सी जातियाँ हैं जो या तो लुप्त हो धर्मावलम्बी बन गई दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, कासार, बोगार जैसी जातियों का नामोल्लेख तो हुआ है लेकिन वहाँ और भी कितनी ही कट्टर दिगम्बर धर्मानुयायी जातियाँ हैं जिनका डाइरेक्टरी में अथवा अन्य जाति जयमाल में उल्लेख नही हुआ। ऐसी जातियों में उपाध्याय जाति का नाम लिया जा सकता है जिसका किसी भी कवि ने उल्लेख नहीं किया इसी तरह खरोआ, मिठोआ, बरैय्या जैसी वर्तमान में उपलब्ध होने वाली जातियों का भी उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो प्राचीन काल में और न वर्तमान युग मे अर्थात् २०वीं शताब्दी के अन्तिम चरण तक हम यह पता नहीं लगा सके कि दि० जैन समाज में जातियों की संख्या कितनी है और उनको सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति क्या है । हमारी समाज में तीन अखिल भारतीय संस्थायें हैं लेकिन किसी भी सभा के कार्यालय मे दिगम्बर जैन समाज की सम्पूर्ण जातियों के नाम नहीं मिलेंगे। इसलिए हिन्दी कवियों ने भी उनको जितनी जातियों के नाम मिले उनका अपनी कृति मे नामोल्लेख कर दिया। वर्तमान मे उत्तरी भारत में खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार, जैसवाल, गोला पूर्व, गोलालारे, गोलसिंगारे, बघेरवाल, इंबड, नरसिंहपुरा, नागदा, पस्सीवाल, पद्मावती पुरवाल तथा दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंथम एवं खेतवाल जैसी जातियां प्रमुख जातियां हैं। ये सभी जातियां सुरक्षित रहें तथा जाति-बंधन शिथिल नहीं जाने पाये। इसलिए २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सभी जातियों द्वारा अपनी अपनी जातीय महासभायें स्थापित की गई जिससे उनके माध्यम से अपनी जाति पर नियंत्रण रखा जा सके। इसी दृष्टि से खण्डेलवाल जैन महासभा, दिगम्बर जैन अग्रवाल महासभा, परवार महासभा, जैसवाल महासभा, बचेरवाल महासभा, पस्तीवाल महासभा जैसी जाति गत महा सभायें स्थापित की गई। इन जातीय सभाओं का उद्देश्य 1 जातीय सुधारों को लागू कराना, बाल विवाह, वृद्ध विवाह अनमेल विवाह निषेध के प्रस्ताव पास करना, विवाहों मे वेश्या नृत्य बन्द करना, फिजूलखर्ची कम करना शिक्षा के विद्यालय खुलवाना बोडिंग हाउस खुलवाने जैसे प्रस्ताव पास किये जाने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे ये सभाये भी लड़ाई-झगड़े का प्लेट फार्म बन गई जिससे लोगो में जातीय महासभाओं के प्रति उदासीनता छा गई खलवाल जैन महासभा सन् १९१२ मे स्थापित हुई थी और केवल २० वर्ष चलने के पश्चात् बन्द हो गई । यही स्थिति दिगम्बर जैन अग्रवाल महासभा की हुई लेकिन छोटीछोटी जातियो की सभायें आज भी चल रही है । बघेरवात महासभा, पल्लीवाल महासभा, जैसवाल महासभा जैसे नाम आज भी सुने जाते है । मनुष्य सामाजिक प्राणी होने से वह अपनी समाज में घूमना अधिक पसन्द करता है । अपनी-अपनी जातियो मे उसको मान-सम्मान अधिक मिलता है। विवाह शादी के लिए उसे अधिक नहीं घूमना पड़ता। छोटी अर्थात् कम सख्या वाली भातियों की सभाओ का जीवित रहने का भी एक प्रमुख कारण है। जातीय सभाओं की स्थापना दि० जैन महासभा के सन् १९३० में स्वीकृति प्रस्ताव के आधार पर की गई । उस समय महासभा ही एक मात्र अखिल भारतीय स्तर की संस्था थी। लेकिन वर्तमान में अखिल भारतीय स्तर की तीन सामाजिक संस्थायें हैं जातियों की सुरक्षा एवं संवर्धन के सम्बन्ध में जिनके विचारों में साम्यता अथवा समानता नहीं है। महासभा जातियों का वही प्राचीन स्वरूप रखने के पक्ष में है वह अन्तर्जातीय विवाहो का कट्टर विरोध करती है। हमारे अधिकांश आचार्य एवं मुनिगण भी इसी विचार का समर्थन करते हैं दूसरी ओर परिषद् एव महासमिति अन्तर्जातीय विवाहो को प्रोत्साहन देती है। विचारों की इस टकराहट का जातियों की सुरक्षा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जिसको स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । अब प्रश्न यह है कि २१वी शताब्दी में इन जातियों का क्या भविष्य होगा ? क्या उनका स्वरूप ऐसा ही बना रहेगा या फिर उसमें परिवर्तन आवेगा। यदि परिवर्तन
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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