SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ४४ किरण २ अनेकान परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०४८ मन को सीख कुटेव यह, करन विषै को धावं है । अनादि तें, निज स्वरूप न लखावे है ॥ { "रे मन, तेरी को इनही के वश तू पराधीन छिन छीन समाकुल, दुरगति विपति चखावे है | रे मन० ॥ फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुख पावे है। अप्रैल-न १६६१ रसना इन्द्रीवश झष जल में, कंटक कण्ठ छिदावे है ।। रे मन० ॥ गन्ध-लोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावे है। नयन - विषयवश दीपशिखा में, अङ्ग पतङ्ग जरावं है | रे मन० ॥ करन - विषयवश हिरन अरन में, खल कर प्रान लुभाव है। 'दौलत' तज इनको जिनको मज, यह गुरु सीख सुनावे है | रे मन० ॥ - कविवर दौलतराम भावार्थ - हे मन, तेरी यह बुरी आदत है कि तू इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ता है। तू इन इन्द्रियों के वश के कारण अनादि से निज स्वरूप को नहीं पहिचान पा रहा है और पराधीन होकर क्षणक्षण क्षीण होकर व्याकुल हो रहा है और विपत्ति सह रहा है । स्पर्शन इन्द्रिय के कारण हाथी गढ़े में गिरकर, रसना के कारण मछली काँटे में अपना गला छिदा कर, घ्राण के विषय गंध का लोभी भरा कमल में प्राण गँवा कर, चक्षु वश पतंगा दीप- शिखा में जल कर और कर्ण के विषयवश हिरण वन में शिकारी द्वारा अपने प्राण गँवाता है । अतः तू इन विषयों को छोड़ कर जिन भगवान का भजन कर, तुझे ऐसी गुरु को सोख है ।
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy