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________________ २४,बर्ष ४ कि.१ अनेकान्त करना पड़ेगा क्योंकि हमारे अच्छे-बुरे का का दूसरा ही मान लिया तो संसार का कभी अभाव नहीं होगा। है। उसी प्रकार क्योंकि हम भी अन्य के लिए पर हैं आचायो ने परद्रव्य की पर्याय के साथ अन्य द्रव्य की इसलिए उस पर का भला-बुग भी हमारे हाथ मे है हम पर्याय का कोई भी सम्बन्ध और महयोग माना वह जैसा चाहेंगे वैसा उसका परिणमन करा देंगे । इसी का निमित्त नैपत्तिक के दायरे में ही आता है कर्ता कर्म के नाम अहंकार है। क्योंकि जब मैं पर का कर्ता हूं-हो दायरे में कोई भी सम्बन्ध किसी भी प्रकार का दूसरे के सकता है पर मेरा कर्ता हो सकता है तब पर के कर्ता- साथ नही हो सकता । निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध में उपापने का अहंकार मेरा भी नहीं मिट सकता और दूसरों का दान और निमित्त स्वतंत्र होते हैं पराधीनता का सवाल भी नहीं मिट सकता। इस प्रकार एक स्त्री सड़क पर जा नहीं होता। अब यह विचार करना है कि निमित्तका हमारे रही है उसको पता भी नही है कि उसको कौन देख रहा जीवन अथवा आत्मकल्याण में कोई सहयोग है या नहीं? है और देखने वाला रागी हो जाता है और कहता है इस निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध दो द्रष्यों की पर्याय में होता स्त्री ने राग करा दिया । क्या यह सत्य है ? यह तो वही है। दो द्रव्यों में नहीं होता क्योंकि द्रव्य नित्य होता है बात हुई कि "अन्धेर नगरी चौपट राजा" अगर किसी अगर द्रव्यो में माना जाएगा तो द्रव्यों का नाश नहीं होने की दीवाल गिर कर बकरी मर गयी तो दोष मसक बनाने से निमित्त नमैतिक सम्बन्ध का भी नाश नहीं हो सकेगा। वाले का है क्योकि मसक बड़ी बन गई। क्या इसी का निमित्त को तीन भागों में बांटा जा सकता है (१) नाम जनधर्म है, क्या यही जैनधर्म की दार्शनिक विचार धर्म, अधर्म, आकाश, काल का निमित्तपना (२) बाकी धारा है? क्या इसी के बल पर हम परमात्मा बनने की सब, जिसमें बाहरी पदार्थ, पुद्ग्लादि, स्पर्श रस, गंध वर्ण सोच रहे हैं ? फिर सवाल पैदा होता है कि अन्य द्रव्य कर्ता तो अभ्य प्रात्मा, देव, शास्त्र गुरु सभी आ जाते हैं-के साथ निमित्त-नैमित्तिक पना। (३) ससारी आत्मा का अष्ट नहीं है परन्तु कराता तो है । इसलिए उसी का दोष है। प्रकार के कर्मों के साथ निमित्त नमैत्तिकपना । इन तीनों इस विषय में भी आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि का सामान्य स्वरूप एक ही प्रकार का होते हुए हरेक वस्तु मे अपनी शक्तियां हैं। कोई द्रव्य "न्य वस्तु भी विशेष रूप से विचार करो पर कुछ अन्तर है। में कोई शक्ति उत्पन्न नही कर सकता । अगर किसी वस्तु जब जीव और पुद्गल अपनो किया वती शाक्त से एक में निज मे उसमें शक्ति नही है तो अन्य वस्तु के हजारो चेष्टा करने पर भी वह उस वस्तु मे कोई शक्ति पैदा नही जगह से दूसरी जगह जाते है तो धर्म द्रव्य स्वतः अपने आप निमित्त रूप रहता है वैसे हो ठहरते है तो कर सकती। अगर अन्य वस्तु अन्य वस्तु मे नई शक्तियाँ पंदा कर दे तो चेतना जड हो जाए और जड चेतन हो . अधर्म द्रव्य निमित्त रूप रहता है और जब आप अपनी जाए। फिर सवाल पैदा होता है कि उस वस्तु मे शक्ति परिणमन सकेन से द्रव्य परिणमन करता है तो काल, द्रव्य निर्मित रहता है और अवमाहना मे आकाश द्रव्य हो तो दूसरी वस्तु कुछ करती है अथवा दूसरे की वजह से कुछ होता है ? यह सवाल ही अब उत्पन्न होने की है ही इमम अनुकूल निमित के उपस्थित रहने वाली परिभाषा भी लागू हो जाती है। जगह नहीं रहती कोंकि वस्तु अपनी शक्ति रूप से परि दूसरे प्रकार के निमित्तपने में मात्र अनुकूल उपस्थिति गमन कर रही है। फिर सवाल पैदा होता है कि फिर क्या निमित्त का कोई कार्य में सहयोग है या नही । अगर की ही बात नहीं है परन्तु उपादान जिस वस्तु की पर्याय नही है तो उसको निमित्त भी क्यो कहा जाता है ? फिर का जिरा कार्य के लिए अवलम्वन लेता है उस रूप वह निमित्त नैमैतिक सम्बन्ध क्या है? आप ही परिणमन करता है। वह अवलम्बन चाहे बाहर ___ अगर निमित्त नैमैत्तिक सम्बन्ध न हो तो संसार में वस्तु की उपस्थिति मे हो अथवा अपने अन्तर मे वस्तु कायम नहीं होगा और निमित्त नैमैत्तिक को कत्र्ता कर्म को विकल्पों में उपस्थित करके ले, पर का अवलम्बन वह
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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