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________________ निमित्ताधीन दृष्टि ही लेता है और जिस दृष्टिकोण से लेना है वह भी उसी पर निर्भर है तब वही रागरूप परिणमन करता है । सवाल पैदा होता है कि क्या इस प्रकार से निमित ने कुछ सहायता की ? नहीं निमित ने कुछ सहायता नहीं की परन्तु उपादान ने उसकी सहायता ली तब उपचार से कहा जाता है कि निमित्त ने सहायता की जोकि मात्र उपचार है; व्यवहार है। ऐसा मात्र निमित्त की प्रधानता दिखाने को कहा जाता है। लौकिक व्यवहारीजनों की भाषा है। फिर सवाल है कि क्या निमित्त कार्य में सहायक होता है ? उत्तर है सहायक नहीं होता परन्तु सहायता ली जाती है । वह कैसे ? अगर हम सहायक न बनावे तो कार्य नही होगा इसलिए हमारे ऊपर ही सब दारमदार है। अब अच्छे निमित्त मिलाना और बुरे से बचने का क्या सवाल है और फिर निमित्त को अच्छा बुरा कहने का भी क्या प्रयोजन है? इस पर विचार करते हैं। एक व्यक्ति एक चश्मा लगाता है। चश्मा नहीं दिखाता अगर चश्मा दिखावे तो पत्थर की मूर्ति को भी दिखा देवे । चश्मा से दिखता है ऐसा भी नही है अगर चश्मा से दिखे तो कोई आँख बंद कर चश्मा लगा ले उसको भी दिखने लगता । तब क्या कहा जावे ? चश्मे का हमने अवलम्बन लिया और उस प्रकार से लिया जो देखने में सही प्रकार है और देखने के लिए लिया और चश्मा लगाकर हमने देखा । इसलिए चश्मे का अवलम्बन हमने लिया, देखने के लिए लिया और चश्मा लगाकर हमने देखा । तब यह कहा जाता है कि चश्मे ने दिखा दिया यह उपचार कथन है। चश्मा का लगाना हमारी कमी को बता रहा है कि हमारी आंख में कमजोरी है। फिर सवाल पैदा होता है कि चश्मे ने नहीं दिखाया, चश्मे से ही देा परन्तु चश्मा बिना भी तो नही देखा जा सकना । यह बात सही है अगर आंखें कमजोर है तो देखने के लिए चश्मा बिना नही देखा जा सकता । यह समझ कर वह अपनी कमी को दूर कर दे तो चश्मे की जरूरत नहीं रहेगी । इसी प्रकार एक लकड़ी है हमसे चला नही जाता हम उसका सहारा लेते है और चलने के लिए लेते है । कंधे पर नहीं रख लेते हाथ में उस प्रकार लेते हैं जिससे चलने में सहायक हो और उसका अवलम्बन २५ लेकर हम चलते हैं। उसने सहयोग नही दिया हमने सह योग लिया और हम ही बने फिर अपनी शक्ति को बडाते जाते हैं और उसका अवलम्बन छोड़ते जाते हैं जब पूर्ण विकास शक्ति का हो जाता है अवलम्बन छूट जाता है। किसी ने माचिस दी हम चाहें तो आग लगा सकते हैं, चाहे खाना पका सकते हैं यह सब हमारे पर निर्भर है लकड़ी से किसी को मार सकते हैं, आग मे जला सकते हैं; और सहारा लेकर चल भी सकते है । उसमें जो जा पर्याय योग्यता है उसमें से किसी कार्य के लिए अवलम्बन लिया जा सकता है । देवशास्त्र गुरु का अवलम्बन हम लेते हैं। वहाँ बाहर में लेते हैं अथवा अपने उपयोग में, ज्ञान में उनका अवलम्बन लेते हैं । पुण्य के लिए भी ले सकते हैं. भेद विज्ञान के लिए भी ले सकते है यह भी हमारे पर निर्भर करता है । फिर जिस अभिप्राय से लिया उस रूप कामों परिणमन करते है तब उपचार लागू पड़ता है कि भगवान की वजह से मार्ग मिल गया । कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र में सम्यक्दर्शनादि अथवा भेदविज्ञान रूपी कार्य के निमित्तपने की योग्यता नहीं है, मिथ्यात्वादि रूप या ससार शरीर भोगो के निमित्तपने की योग्यता है अतः उनका निषेध किया गया और सच्चे देवशास्त्र गुरु के सयोग का उपदेश दिया गया। हमारे मे इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उस अवलम्बन के बिना अपने स्वभाव को देख सके । जब तक उसकी योग्यता नही बनती तब तक उनका अवलम्बन लेते है जब ऐसी योग्यता बना लेने हैं कि उनके बिना भी अपने आपको देख सके तब कोई दरकार नही रहती । परन्तु फिर भी जब स्वभाव से हटे तब फिर भावों के नीचे गिरने से रोकने को फिर उनका अवलम्बन लेना पड़ता है। किसी ने गाली निकाली गाली ने क्रोध नहीं कराया मानीने यह भी नहीं कहा कि तू मुझे सुन, यह आप ही कान में आये हुए शब्द वगंगा को सुनने को गया, वह भी इसी पर निर्भर है कि उसको इष्ट माने या अनिष्ट, इसने ही अनिष्ट माना और यही कषाय रूप परिणमन किया। गाली निकालने बाले ने क्या किया उसने तो मात्र अपना परिणमन कियां । यहां पर भी निर्मित की अधीनता नहीं है। समूचा जोर
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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