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________________ x ४० वर्ष पूर्व-वर्णी जी को कलम से जो घर छोड़ देते हैं वे भी गृहस्थों के सदृश व्यग्न रहते हैं। कोई तो केवल परोपकार के चक्र में पड़कर स्वकीय ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं। कोई हम त्यागी हैं, हमारे द्वारा संसार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान में चूर रह कर काल पूर्ण करते हैं । x शान्ति का मार्ग सर्व लोकेषणा से परे है। लोक-प्रतिष्ठा के अर्थ, त्याग-व्रत-संयमादि का अर्जन करना, धूल के अर्थ रत्न को चूर्ण करने के समान है। पंचेन्द्रिय के विषयों को सुख के अर्थ सेवन करना जीवन के लिए विष भक्षण करना है। जो विद्वान् हैं वह भी जो कार्य करते हैं आत्म-प्रतिष्ठा के लिए ही करते हैं। यदि वे व्याख्यान देते हैं तब यही भाव उनके हृदयों में रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशंसा हो-लोग कहें कि आप धन्य हैं, हमने तो ऐसा व्याख्यान नहीं सुना जैसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगों का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरुषों द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ। इत्यादि वाक्यों को सुनकर व्याख्याता महोदय प्रसन्न हो जाते हैं। x x मेरा यह दृढ़लम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पंडित वर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है । यदि उनके कोई बात अपनी प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्रविहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते हैं। आजकल बड़े-बड़े विद्वान यह उपदेश देते हैं कि स्वाध्याय करो। यही आत्म-कल्याण का मार्ग है। उनसे यह प्रश्न करना चाहिए-महानुभाव, आपने आजन्म विद्याभ्यास किया, सहस्रों को उपदेश दिया, स्वाध्याय तो आपका जीवन ही है। परन्तु देखते हैं आप स्वयं स्वाध्याय करने का कुछ लाभ नहीं लेते। प्रायः जितनी बातों का उपदेश आप करते हैं हम भी कर देते हैं। प्रत्युत, एक बात हम लोगों में विशेष है कि हम आपके उपदेश से दान करते हैं, परन्तु आप में वह बात नहीं देखी जाती। आपके पास चाहे पचास हजार रुपया हो जावे परन्तु आप उसमें से दान न करेंगे। आप जिन विद्यालयों द्वारा विद्वान हए, उनके अर्थ शायद किसी ने ही कुछ रुपए भेजे होंगे। तथा जगत को उपदेश धर्म जानने का देवेंगे परन्तु अपने बालकों को एम०ए० ही बनाया होगा। अन्य को मद्य-मांस-मधु के त्याम का उपदेश देते हैं। आपसे, कोई पूछे कि आपके अष्टमल गुण हैं? तो हँस देवेंगे। व्याख्यान देते देते पानी का गिलास कई बार आ जावे तो कोई बड़ी बात नहीं। हमारे श्रोतागण भी इसी में प्रसन्न हैं कि पण्डित जी ने सभी को प्रसन्न कर लिया। -वर्णों वाणी - - कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरी देवो मैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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