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________________ पृष्ठ ४१७ ४२० ४२२ ४२२ YEY ४३७ ४४५ ૪૪૧ ४४५ ३४० ४४५ ४४५ ४४५ ४४५ xxx ४५६ ४६१ ४६१ ४६.३ ૪૬૪ ૪૬૪ ४६४ ४६८ ४६८ ४७५ ४७७ ४७७ ४८८ ४८५ ४८५ ३३६ पंक्ति १५ १६ १८ २२ २६ १३ ६ ७ 5-& २८ १० २०-२१ २२ २४ २६ ६ १३ २४ २३ २४ 2५ २६ १३ १८ ܘܪ १८ २६-३० ३ ५ २८ १६ अशुद्ध शेष रहने पर अपने योग के मुहूर्त के उदय में आये प्रदेश पर और णिरयगदीएण मणुस नदीएण तिखिगईएण एक जीव के सासादन गुणस्थान के देवगदी एण नरक गति मे उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना उत्पन्न कराना यहणमंतो मच्छिय प्रस्तार के उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूतों से ०४ कात्रि पतित वर्धमान शका तंज और गुणस्थानो का सादिया नहीं है। अर्थात् फिर तो भव्यत्व को बनादि अनन्त भी होना पड़ेगा, उक्कस्सेण वे समया; इहि सामान्योक्तः । सूत्र और आचायों के शुद्ध ॥ समाप्त ॥ पूर्ण होने पर अपने गुणस्थान के मुहूर्त के उपार्जित किये स्थान (सीमा वा तल) पर या रिगरयगदीए ण मसनदीए ण तिरिक्ईए न उद्वर्तनाघात कम अड़ाई सगरोपम काल से अधिककाल अधिक अढ़ाई सागरोपमकास अढ़ाई सागरोपम काल के सासादन गुणस्थान के एक देवगदीए ण नरकगति में उत्पन्न नही कराना उत्पन्न नहीं कराना उत्पन्न नहीं कराना उत्पन्न नहीं कराना सभ्य जहणमंतो मुडुतमच्छिय प्रस्तार में उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूतों मे से अपवर्तनाचात विवक्षित पर्याय के पतित होनीकृत) शका वर्धमान तेज और २३ गुणस्थानो में शुक्ललेश्या का सादि नहीं है। अनादि-अनन्त भव्यत्व भी होना चाहिए, उक्करण आवलियाए असंखेज्जदिभागे . एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयो, उक्कस्सेण बे समया; इच्चे एहि सामान्योक्तः कालः । सूत्राचायों के [कारण देखो - षट्डागमपरिशीलन पू. ६९६ ]
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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