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________________ to, ant vv, fore ४४,०३ अनेकान्त तथापि कुछ राजा जैन धर्म के प्रति अत्यन्त उदार या जैन धर्मावलम्बी थे। इस वंश का दूसरा राजा शिवकोटि प्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी से जैन धर्म में दीक्षित हो गया था। कदम्बवंशी राजा काकुत्स्थवर्मन् का लगभग ४०० ई० का एक ताम्रलेख हलसी (कर्नाटक) से प्राप्त हुआ है, जिसके अनुसार उसने अपनी राजधानी पलासिका (कर्नाटक) के जिनालय को एक गाँव दान में दिया था । लेख में उसने 'जिनेन्द्र की जय' की है और ऋषभदेव को नमस्कार किया है । "Prof. Kera, the great authority on Bud dhist scriptures, has to admit that nothing of a Buddhist can be discovered in the state policy of Ashoka. His ordinance concerning the sparing of life agree much more closely withe the ideas of the heretical Jains than those of the Buddhists. अर्थात् बोद्ध धर्मग्रन्थों के महान् अधिकारी विद्वान् प्रो० कर्म को यह स्वीकार करना पड़ा है कि अशोक की राज्य-नीति में बोद्ध जैसी कोई बात नही पाई जाती। जीवों की रक्षा सम्बन्धी उसके आदेश बौद्धों की अपेक्षा विधर्मी जैनों से बहुत अधिक मेल खाते हैं। अशोक के उत्तराधिकारी सभी मोर्य राजा जैन थे। अतः मौर्य राजाओ के शासनकाल में कर्नाटक मे जंग धर्म का प्रचार-प्रसार चन्द्रगुप्त-भद्रबाहु परम्परा के कारण भी का की रहा । सातवाहन वंश: मौर्य वंश का शासन समाप्त होने के बाद, कर्नाटक में पेंठन (प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर, महाराष्ट्र) के सात बाहुन राजाचों का शासन रहा इस वश ने ईसा पूर्व ठोसरी सदी से ईसा की तीसरी शताब्दी अर्थात् लगभग ६०० वर्षों तक राज्य किया। थे तो व ब्राह्मण किन्तु इस वंश के भी कुछ राजा जैन हुए हैं। उन गब में शालिन या 'हाल' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है इस राजा द्वारा रचि। प्राकृत ग्रन्थ 'गाथा सप्तशती' पर जैन विचारों का प्रभाव है। इस वंश से सम्बन्धित छ स्थानो का पता गुलबर्गा जिले में चला है। स्वयं हाल का दावा या कि वह 'कुन्तलजनपदेश्वर' है। इसके समय में प्राकृत भाषा की भी उन्नति हुई। कर्नाटक में प्राकृत के प्रसार का श्रेय मौर्य और सातवाहन वंशका है। कदम्ब-वंश: सातवाहन वंश के बाद कर्नाटक मे दो नये राजाओं का उदय हुआ। एक तो था कदम्ब वंश ( ३०० ई० स ५०० ई०) जिसकी राजधानी क्रमशः करहद (करहाटक ) वैजयन्ती (वनवासी) रही। इतिहास में वैजयन्ती के कदंब नाम से प्रसिद्ध हैं। यह वंश भी ब्राह्मण धर्मानुयायी था काय के पुत्र शान्तिवर्मा ने भी अर्हन्तदेव के अभिषेक आदि के लिए दान दिया था और एक जिनालय भी पलासिया मे बनवाकर श्रुतकीर्ति को दान कर दिया या उसके पुत्र मृगेशवर्मन् (४५०-४७८ ई०) ने भी कालवग नामक एक गांव के तीन भाग कर एक भाग महाजनेन्द्र के लिए, दूसरा श्वेताम्बर महा संघ के लिए ओर तीसरा भाग दिगम्बर भ्रमण (निर्ग्रन्थ) के उपयोग के लिए दान मे दिया था । उसने अर्हन्तदेव के अभिबेक आदि के लिए भूमि आदि दान की थी। मृगेशवर्मन् के बाद रविवर्मन् (४७८-५२० ई०) ने जैन धर्म के लिए बहुत कुछ किया अपने पूर्वजो के दान की उसने पुष्टि की अष्टाहिका मे प्रति वर्ष पूजन के लिए पुरखेटक गांव दान किया, राजधानी में नित्य पूजा की व्यवस्था की तथा जैन गुरुओं का सम्मान किया । उसने ऐसी भी व्यवस्था की कि चातुर्मास मे मुनियो के आहार में बाधा न आये तथा कार्तिकी मे नन्दीश्वर विधान हो । हरिवर्मन् कदम्ब (५२०-५४० ई.) ने भी प्रष्टाका तथा सघ को भोजन आदि के लिए कूचक संघ के वारियेणाचार्य को एक गाय दान में दिया था। उसने अरिष्ट नामक श्रमरण - सघ को मरदे नामक गांव का दान भी किया था । कदम्बों के दान आदि पर विचार कर पुरातत्वविद् श्री टी एन. रामचन्द्रन् ने लिखा है, 'कर्नाटक में वनवासि के कदम्ब के शासक 'यद्यपि हिन्दू थे तथापि उनकी बहुत सी प्रजा के जैन होने के कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्म के अनुकूल थे ।" ( अनेकान्त से )
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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