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________________ कर्नाटक में जैनधर्म करने की प्रवृत्ति रखते हैं। किन्तु यदि थोड़ा-सा भी वत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि उनके विश्लेषण किया जाए तो यह बात मामने पाएगी कि धर्म का प्रचार कर्णाटक देश में अधिक हुआ था (देखिए भारतीय संस्कृति का उत्तरोत्तर विकास अब अने भाराओ भगबेलगोन' प्रकरण में 'ऋषभदेव')। के संगम से हुआ है जिसने कि एक पिणान महानद का चक्रवर्ती भरत-ऋषभदेव के पुत्र के नाम पर यह देश रूप ले लिया है।" भारत कहलाता है। जैन पुराणो के प्रतिनिधि रा इन उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि कर्नाटक मे जैनधर्म के चौदह पुराण इस तथ्य का समर्थन करते है। वैदिककी स्थिति पर विचार के लिए मबमे पनी आवश्यक। जन आज भी 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे ..' का नित्य पाठ है निष्पक्ष दृष्टि और गहरे अध्ययन-मनन की। करते हैं। भारत ने छ: खण्डों की दिग्विजय की थी। दूसरी आवश्यकता इस बात की भी है कि कर्नाटक उनके समय में भी कर्नाट देश में जैनधर्म का प्रचार था। मे जैनधर्म के अस्तित्व का निर्णय केवल शिलालेखो या ग्यारह और चक्रवती-जैन परम्परा अनुसार साहित्यिक सन्दों के आधार पर ही नही किया जाए और भरत के बाद ग्यारह चक्रवर्ती और ह॥ है। ये जैन धर्मा वलम्बी थे और उनकी समस्। भारत पर शासन था। न ही यह दृष्टि अपनाई जा कि शिलालेख आदि लिखित बल प्रमाणो के अभाव मे जनधर्म का अस्तित्व स्वीकार नही किष्किन्धा के जैन धर्मानुयायो विद्याधर- बीसवे किया जा सकता। वास व मे हमारे देश में मौखिक परंपरा तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में रामायण की घटनाएं बहुत प्राचीन काल से सुरक्षित रही आई है। जो कुछ घटी हैं। राम-चारत से सम्बन्धित जैन पुराणो में उल्लेख प्राचीन इतिहास हमें ज्ञात होता है, वह या तो मौखिक है कि हनुमान विद्याधर जाति के वानरवंशी थे। वे बानर परम्परा से या फिर पुराणों के 1 मे रहा है। ये पुगण गही थे, उनके वंश का नाम वानर गा और उनके ध्वज जैन भी हैं और वैदिक धाग के भी। इनमे कही तो महा- पर वानर का चिह्न होता था। हनुमान किष्किन्धा के थे। पुरुषों की महत्त्वपूर्ण घटनाओ के विवरण है तो ही मकेत यह क्षेत्र आजकल के कर्नाटक में हम्पी (विजयनगर) कहमात्र । ये भी सुने जाकर ही लिखे गए है । यदि इन्हे मत्य लाता है। जैन साहित्य में हनुमान के चरित पर आधानही माना जाए तो गमायण या महाभारत अगवा गम रित अंजना-पवनंजय नाटक बहुत लोकप्रिय है। या कृष्ण मबका अस्तित्व अवीकार करना होगा और तब नेमिनाथ का दक्षिण क्षेत्र पर विशेष प्रभाव-- तो किमी तीर्थकर का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। बाईसवे नीर्थकर नेमिनाथ का जन्म शौरिपुर में हवा था मत. आइये, हम भी परम्परात या पौराणिक इतिहास किन्तु अपने पिता समुद्रविजय के साथ वे द्वारका चले पर एक दृष्टि डाले। गये थे। श्रीकृष्ण के पिता वमदेव मम विजय के छोटे परम्परागत इतिहास भाई थे। श्रीकृष्ण ने प्रवृत्तिमार्ग का उपदेश दिया और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने कर्मयुग की सष्टि की थी नेमिनाथ ने निवृत्तिमार्ग का। नेमिनाथ ने गिरनार और इस देश की जनता को कृषि करना सिखाया था। (मौराष्ट्र पर तपस्या की थी और, डॉ. ज्योतिप्रसाद वे प्रथम सभ्राट भी थे। जब उन्होने राज्य की नीव डाली जैन के अनुसार, "तीर्थकर नेमिनाथ का प्रभाव विशेषकर तब उन्होंने ही इस देश को मण्डलो, पों आदि मे विग- पश्चिमी व दक्षिणी भारत पर हुआ। दक्षिण भारत के जित किया था। इस देश-विमान में कर्णाटक देश भी विभिन्न भागो से प्राप्त जैन तीर्थकर मूर्तियों में नेमिनाथ था। ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि (ब्राह्मी) प्रतिमाओं का बाहुल्य है जो अकारण नही है । इसके अतिका ज्ञान दिया था। उसी लिपि से कन्नड निवि के कुछ रिक्त कर्नाटक प्रदेश में नेमिनाथ को यक्षी कुण्ाण्डिनीदेवी बक्षर निकले है। जब वे मुनि हो गये तो उन्होंने सारे देग की आज भी व्यापक मान्यता इस तथ्य की पुष्टि करती में विहार किया और लोगों को धर्म की शिक्षा दी । भाग- है। श्रवणबेलगोल में गोमटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठा के
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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