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________________ __ "हमने क्या खोया क्या पाया" आज अकस्मात मुझे अपना बचपन याद आ गया जब फिर भी क्रोध, मान, मायाचारी और लोभ के वशीभूत मैं जैन पाठशाला में पढ़ता था। और स्कूल के नियमानुसार पांच इन्द्रियों के भोगो में लिप्त प्राणी धर्म से विमुख आत्मधर्म की परीक्षा से उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। छहढाला, कल्याण से रहित कार्यों में अग्रसर होकर भविष्य को रत्नकरंड प्रावकाचार व मोक्षशास्त्र तो छठी-सातवी व अधकारमय बनाता है जैसा आज प्रत्यक्ष दष्टिगोचर हो आठवीं कक्षा मे ही पढ़ लिए थे। रहा है। बाहर धार्मिकता का दिखावा है। अं-रग प्रे जैनियों की पहिचान के तीन मुख्य चिन्ह है :- आचार विहीनता, अभक्ष भक्षण आदि धर्म विमग्न कार्यों (१) नित्य देवदर्शन। से निरन्तर शासन की अप्रभावना कर पाप बधकरता है, (२) पानी छान कर पीना । और अपने भविष्य को अंधकारमय बनाना है। (३) रात्री भोजन का त्याग । (३) पुण्यानबंधी पाप = पाप के उदय मे कोई अनगर्मी में प्यास लगती, जिम स्थान गा दुकान पर लोटे कलता प्राप्त नही, जीवनयापन भी दुष्कर है। फिर भी पर छजना लगा होता, निश्चित होकर जल पी लेते सन्तोष पूर्वक अपने कर्म का उदय जान शान्ति पर्वक जीवन सन्तोष रहना शुद्धता का। आज तीनो चिन्ह प्राय: नुप्त चलाता है। धर्म मार्ग से विचलित नही होता गायन की दोहै। पानी छानकर पीना तो जैनी भल हो गये है। अप्रभावना अवहेलना भल कर भी नहीं करता मबमे प्रेम रात्री मे भोजन युवक और वद्ध मत्र लिए अनिवार्य-सा का बर्ताव करता है। आत्मकल्याण में निरन्तर लगा हो गया है विवाह आदि मे स्पष्ट देख सकते है। ज्यादा रहता है इस प्रकार प्रतिकलता मे ही आगामी भविष्य वैभवशाली व रोपवयंपूर्ण विवाहो मे तो कही-कही मदिरा उज्ज्वल बनाता है। अभक्ष भो चलने लगा है। देव दर्शन न होकर मात्र (४) पम्मनबंधी पाप आज भी पाप का उदय दग्वी भिक्षुकवती होती जा रही है। शायद भगवान हममे कर रहा है। आगामी मे भी क्रोध की आग मे जल रहा प्रमन्न होकर हो धन-दौलत, लौकिक प्रवर्य प्रदान कर है। धर्म मे विमख होकर पापकार्य मे लगा है।मे जीव दे और हमारे परिग्रह व सांसारिक मुग्प में बढ़ोतरी गे को शान्ति मव के दर्शन होने सम्भव हो नी । तर जाए पत्र पौत्र की प्राप्ति हो जाए। यद्यपि यह सब एवं अनत काल कात्रिभोmarria मंचित पुण्य के योग से ही प्राप्त होते है। पाप का उदय जरा हम भी विचारें किस किस श्रेणी में चल रहे हो तो अभाव के ही दर्शन होते है। हैं । वगा हमारा जीवन जमा हम प्रदर्शित कर ले गा पूण्य के विषय में निम्न बाते विचाराधीन है :- ही है । कण हम मे नत्त (जीतने वालों के निम्न हैं का (१) पुण्यानबंधी पुण्य - पुण्य के उदयकान मे ममरन । हम भगवान जिनेन्द्र देव की अज्ञानमार शामन की प्रभ'अनक नता धन-सम्पत्ति, वैभव, मनान सूख, ममाज में नग कर रहे हैं क्या हम अपना आगामी पापणास्त न मान्यता प्राप्त होने पर भी निरन्तर देव पूजा, गुरू उपा- कल्याणकारी बना रहे हैं। कहीोमा तो नही हमारे दैतिर भना, दीन-दुखियों की सेवा, चारो प्रकार के दान, सन. नई खान-गान रहा.महन अतिथि मलबार धातिर प्रिया समागम, शृद्ध आचरण, श्रत अभ्याम, आन्म-माधना द्वारा द्वारा हमें देखने वाले हमारे विषय मे गान घाणा बना आत्मोन्नति करना, अपने आचरण मे मगे को धर्म मार्ग कर जिनेन्द्र देव के शासन को निन्दा को जोर सपने की ओर प्रभावित करना यह सब कार्य पूण्य के उदय में तीर्थंकरों के प्रणम्त मार्ग पर दोषारोपगा के कारण बन नवीन पुण्य मंचयकर उज्ज्वल भविषा प्रदान करते है और जाये। जिन शासन की भावना को धमिल कर अपने प्रात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थ की मिद्धि करते हैं। को अयोग्य पुत्र साबित करे, जरा सोचने पि । (२) पापानबधी पुण्य -जिमके उदय में पूर्व संचित -श्री प्रेमचन्द जैन पुण्य के कारण समस्त अनुकूलताएं धन ऐश्वर्य प्राप्त है। ७/३२, दरियागज, नई दिल्ली आजीवन सदस्यता शल्क : १०१.०० ३० धार्षिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मल्य : १ रुपया ५० पैसे
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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