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________________ स्व० पं० श्री फूलचन्द्र सिद्धान्ताचार्य के प्रति श्रद्धाञ्जलिः मैं तो कांटों में रहा, और परेशां न हुआ : फूलों में फूल गुलाब है जो काँटों में फूलता और स्वयं मुस्कुरा दूसरों को प्रसन्नता का उपहार देता है। ऐसे ही थे - स्व० पं० श्री फूलचन्द्र सिद्धान्ताचार्य; जो जीवन भर अपनी ज्ञानाराधना के बल पर भौतिक अभावों से जूझते जूझते ज्ञान में ही विलीन हो गए। उनके अन्तिम दिनों में भी वे धवला के विशद विवेचन करने जैसी अपनी इच्छा को रटते रहे- 'बेटा अशोक, अभी धवला के कार्य की साध हमें शेष है, स्वस्थ हों तो इस कार्य को करें ।' ठीक ही है - पंडित जो अपने जीवन में सदा से ''जिनवाणी की रटन हो, जब प्राण तन से निकलें' के मूर्तरूप थे । वे दिन कभी भुलाए न जाएँगे जब पंडित जी ने जिनवाणी की रक्षा में अपनी आजीविका की परवाह किए बिना 'धवला' में त्रुटित 'संजद' पद को सम्मिलित कराने के प्रसंग को छेड़ा और आगे बढ़ाया तथा उसे जुड़वा कर ही चैन की साँस लो । 'संजद' के प्रसंग में समाधिस्थ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्ति सागर जी महाराज का निम्न आशीर्वचन पंडित जी की विजय का स्पष्ट शंख नाद है'अरे जिनदास, धवलातील २३ वें सूत्र भाव स्त्रीचें वर्णन करणारें आहे व तेथें 'संजद' शब्द अवश्य पाहिजे असें वाटतें ।' स्मरण रहे उक्त प्रसंग में पंडित जो को सर्विस छुटने जैसा तीव्र काँटा लगा और वे मुस्कुराते रहे । खुवा बहशे बहुत सी खूबियां थीं, जाने वाले में : स्व० पंडित जी पक्के सुधारवादी थे। दस्सा पूजाधिकार दिलाने, 'वर्ण जाति और धर्म' जैसी पुस्तक लिखकर अन्तर्जातीय विवाह, समानाधिकार आदि का शंखनाद फूंकने वाले व फिजूलखर्ची जैसी गजरथादि प्रतिष्ठाओं के विरोधियों में उनका प्रमुख हाथ था। धवला, जयधवला, महाबंध आदि खण्डों का विस्तृत भाषान्तर और 'जैन तत्त्व मीमांसा' जैसी कृतियाँ उनके तत्त्वज्ञान का सदा सदा स्मरण कराती रहेंगी । फल कुछ भी रहा हो पर, खानियाँ तत्त्वचर्चा के माध्यम ने उनके तत्त्वज्ञान के लोहे को जगजाहिर कर दिया | उनको 'अकिंचित्कर एक अनुशीलन' जैसो अन्तिमकृति भी चिर-चिन्तनीय बनकर रह गई है । देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदार और स्वतंत्रता के दीवाने होने से वे अपने भौतिक शरीर में भी कैद न रह सके और धर्म-ध्यान पूर्वक गरीर से छूट गए। उनमें बहुत-सी खूबियाँ थीं । 'वीर सेवा मन्दिर' ऐसे महामना की आत्मिक सद्गति हेतु कामना करते हुए उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता है । सुभाषचन्द्र जैन महासचिव वीर सेवा मन्दिर आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ६० वार्षिक मूल्य : ६) त०, इस अंक का मूल्य । १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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