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________________ १६, ४,कि.३ अनेकान्त में रचित भद्रारक वादि भूषण के शिष्य आचार्य ज्ञानकीर्ति सुभौमचक्रिचरित्र की रचना करने का आग्रह किया था। द्वारा रचित यशोधर चरित की प्रशस्ति में जिसमें लिखा उन्होने संवत १६५३ में उक्त चरित्र की रचना विवष है बंगाल देश के अकबर नगर के राआधिराज मानसिह तेजपाल की सहायता से की थी। के प्रधान साह नान गोधा ने सम्मेद शिखर की ववना की। जयपुर के दीवान रायचन्द छाबड़ा बरे प्रसिद्ध दीवान दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाये एवं बीस तीर्थकरो के चरण थे। संवत १८६१ मे उन्होने बहुत बड़ा पंचकल्याणक स्थापित किये। प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया था। दीवान रायतस्यैव राजोस्ति महानमात्यो नानू सुनाया विवितो धरिण्यां चन्द छाबड़ा ने संवत १५६३ में सम्मेदशिखर जी की समेवश्रृंगे जिनेन्द्र गेहमण्टापदे बादि मचक्रधारी ॥८॥ यात्रा के लिए एक विशाल यात्रा संघ का नेतृत्व किया था। यो कारयच्छत्र च तीर्थनायाः सिद्धि गता विशतिमान युक्तः। संवत पाठ वश सैकड़ा, प्रवर तरेसठ जान। यः कारयेन्नित्यमनेक संध्या यात्रा धनाचः परमां च तस्य । चल्यो संघ जय नगरते, महावीर भगवान I16 इसी तरह महाकवि बनारसीदास के अर्ध कथानक मे इस यात्रा संघ में प्रयाग आते पाते पांच हजार यात्री शिखर जी की यात्रा का एक और वर्णन मिलता है जब हो गये थे। इन यात्रियों को ले जाने के लिए ४०० रथ बादशाह सलीम का मुनीम हीरानंद मुनीम प्रयाग से। और भैल, ४०० घोड़े तथा २०० ऊँट थे। शिखर जी का यात्रा संघ चलाया-- अधिक च्यारस रच अर भैल, अश्व चारसौ तिनकी गैल। तिनि प्रयागपुर नगर सो, कोनो उद्धम सार । सतर बोयसो तिन परिभार, नर नारी गिनि पाँच हजार ॥४ संघ चलायों सिखिर कों, उतरो गगा पार ॥२२॥ ____ यात्रा वर्णन में मधुबन की वृक्षावलि का बहुत सुन्दर ठौर-ठौर पत्री बई, भई खबर जित तित्त । वर्णन किया है। यह भी लिखा है कि सभी यात्रियों ने घीठी माई सेन को, भावह जात निमित्त । २६॥ सीता नाला पर जाकर स्नान किया तथा वहीं पूजा की खरग से न तब उठि चले, हवे तुरंग प्रसवार । सामग्री तैयारकी और फिर गिरिराज की वदना संपन्न की। जाइ नंब जी को मिले, तजि कुटुंब घरबार ।२२७॥ माघ कृष्ण सप्तमी, सुक्रवार सुमवार । संवत सोलहस उनसठे, पाय लोग संघसौनठे। गिर सम्मेव पूजन कियो, उपज्यो पुण्य अपार ॥ केई उबरे केई मुण, केई महा जहमती हुये ॥२३॥ इस संघ के साथ आमेर के भट्टारक सुखेन्द्र कीर्ति एवं सवत १७३२ मे आमेर निवासी संघ ही नरहरदास । आचार्य महीचन्द थे। सभी यात्री मधुबन में उतरे जहां सुखानन्द साह घासीराम और उनके दोनो पुत्रों ने सम्मेद एक विशाल मन्दिर था। यहां के निवासियों के बारे में शिखर पर पचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करायी। इसी निम्न पंक्तियां लिखी हैं:समय प्रतिष्ठित हींकार यंत्र जयपुर के खिन्दूको के मन्दिर मधुबन के वासी नर नारि, सरल गरीब सुद्ध चितधारी। में विराजमान है। तम ऊपर प्रति वोछो चौर, लंबी चोटी स्याम सरीर। सम्मेदशिखर मुसलिम काल मे भट्टारकों का भी के ही मांगत ढोल बजाय,के ही कलस बंधाबत मार। आवागमन का केन्द्र रहा। संवत १५७१ मे भट्टारक प्रभा- बसतर विये बहुत हरसाय, तिनकू वान बिये बहु भाय। चन्द्र का पट्टाभिषेक शिखर जी मे ही हुआ था। इसी माघ सुकल एक सभवार, संगपति दीनी जिमनार ॥२२ तरह संवत १६२२ में भट्टारक चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक इस यात्रा संघ ने एक कार्य मेलणी का भी लिया संपन्न हुआ। और सबने मिलकर एक हजार ७० रुपया मन्दिर को भेंट हेमराज पाटनी बागर प्रदेश के सागपत्तन (सागवाडा) किया। इसके पूर्व मालाबों की बोली हुई थी और वह भी के निवासी थे। उन्होंने संघपति बनकर सम्मेदशिखर की आय मन्दिर को ही गई। उस समय सोने की मोहरों में यात्रा कर सबको साथ लिया था। इसी हेमराज ने अपनी माला होती थी। माला एक दिन पांच मोहर एवं एक यात्रा को चिरस्थायी बनाने के लिए मदारक रलवना से दिन २१ मोहरों में हुई थी। इस प्रकार मह शिखर
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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