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________________ तीर्थराज सम्मेद शिखर-इतिहास के आलोक में डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल तीर्थराज सम्मेदशिखर जैन धर्म का प्राण है। भगवान सका । वैसे दो हजार वर्ष पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्वाण बादिनाथ, वामपूज्य, नेमिनाथ एव महावीर को छोड़कर भक्ति में सम्मेदशिखर के बारे मे .सभी शेष २० तीर्थकरों एवं अगणित साधुओ ने यहाँ मे बीस तु जिरणवरिदा अमरासुर वंदिया धुद किलेसा । निर्वाण प्राप्त किया है । इसलिए इस पहाड का कण कण सम्मेदे गिरसिहरे णिग्वाण गया गमो तेसि ॥ वंदनीय है। यहां की पूजा, अर्चना एव वदना करने का यह भी आश्चर्य की बात है कि हमारे आचार्यों में से विशेष महत्व है । एक कवि ने इसकी पवित्रता से प्रभावित अधिकाश आचार्यों ने सम्मेदशिखर की वंदना अवश्य को होकर निम्न पक्तियों मे अपने भाव प्रगट किये हैं--- "एक होगी। आचार्य समन्तभद्र जैसे वादविवाद पारगत आचार्य बार बन्दै जो कोई ताहि नरक पशु गति नहीं" कितना जब वाद के लिए देश के एक कोने से दूसरे कोने तक बडा अतिशय है सम्मेदशिखर वदना का। कितना पावन है शास्त्रार्थ के लिए विहार किया तो वे भी सम्मेद शिखर यह क्षेत्र जिसकी वदना करना मानो चिन्तामणि रत्न पाना तो अवश्य आये होंगे फिर पता नही उन्होंने सम्मेद शिखर है । जब यात्री पहाड की वंदना करने लगता है या उसके के माहात्म्य का वर्णन क्यों नही किया। इसलिए मैं तो पांव पहाड़ की प्रथम सीढी पर पड़ते हैं तो उसके मन के इस अवसर पर वर्तमान आचार्यों, मुनियों, विद्वान लेखकों भाव ही बदल जाते है । जब वह पहाड चढकर प्रथम टोक से यही निवेदन करना चाहूंगा कि वे अपनी किसी एक के दर्शन करता है तो उसका मन गदगद हो जाता है और रचना में इस तीर्थराज के महात्म्य एव यहां की स्थिति जब सभी टोंको की वदना करता अंतिम टीक पार्श्वनाथ का अवश्य वर्णन करें जिमसे यहां का इतिहास बनता रहे। पर पहुच जाता है तो उसका मन प्रसन्नता में भर जाता वर्तमान में सम्मेदशिखर के इतिहास की खोज व गोध है और उसे ऐसा लगने लगता है कि मानो उसका मानव आवश्यक है । इतिहास लेखन के जितने प्रयास आज तक जीवन सफल हो गया और उसका मन निम्न पद्य कह होने चाहिये थे वे नहीं हो सके। महामनीषी प० सुमेरचद उठता है : जी दिवाकर ने सम्मेदशिखर के इतिहास को लिपिबद्ध णमोकार समो मंत्रो, सम्मेवाचल समो गिरि। करने का अवश्य प्रशंसनीय कार्य किया लेकिन उस पुस्तक पीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ में केवल टोकहो का ही वर्णन है। यहां के पिछले इतितीर्थराज सम्मेद शिखर का इतिहास भी उतना ही हास की ओर उसमे वर्णन नही हो सका। पुराना है जितना जैन धर्म का इतिहास पुराना है। दोनों यात्रा संघों का वर्णन : एक दूसरे से जुड़े हुए है । इसलिए हमारे इतिहाग लेखको यात्रा संघों का इतिहास ही शिखर जी के इतिहास ने सम्मेदशिखर के इतिहास लिखने की कभी आवश्यकता की एक कड़ी है। यहां के इतिहास की खुली पुस्तक है । ही नहीं समझी। जहां प्रतिवर्ष हजारों वर्षों से लाखों यात्री इस संबंध में मुझे संवत् १३८४ के यात्रा संघ का उल्लेख दर्शनार्थ आते रहते है उसका यह इतिहास तो गतिशील मिला है जिसमें चाकसू (राज.) के सघपति तीको एक है। प्रवाहमान है । यहाँ सघों के सघ वर्शनार्थ एवं वदनार्थ उसके परिवार ने शिखर जी की वंदना की थी। बाते जाते रहे इससे यहां इतिहास तो बनता रहा लेकिन सम्मेद शिखर के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला उसका मौलिक स्वरूप अधिक रहा और लिपिबद्ध नहीं हो एक और महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है वह है संवत १६५६
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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