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________________ तत्वावातिक में प्रयुक्त प्रम्प प्रदीप पुद्गल है । वह पुद्गल जाति को न छोड़कर परि- योनिप्राभत (जोणिपाहुड) तत्त्वार्थवार्तिक में किसी णामवश (परिणमन के कारण) मषि (राख) भाव को ने प्रश्न किया है कि क्या साधु पात्र में लाए हुए भोजन प्राप्त होता है । अत: दीपक की पुद्गल जाति बनी रहती की परीक्षा कर खा सकते है। इसके उत्तर में कहा गया है, अत्यन्त विनाश नही होता है। उसी प्रकार मुक्तात्मा है कि पात्र मे लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी का भी विनाश नहीं होता। योनिप्रामतज्ञ साधु को संयोग-विभाग आदि से होने वाले उपर्युक्त प्रश्न बीस महाकवि अश्वघोष के सौन्दरानन्द गुण-दोष विचार की उसी समय उत्पत्ति होती है। लाने के निम्नलिखित पद्य के अभिप्रायस्वरूप ग्रहण किया है- में भी दोष देखे जाते है, फिर विसर्जन मे अनेक दोष होते हैं। दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो स्नेहक्षयात् केवलमति यहां योनिप्राभूत से तात्पर्य निमित्तशास्त्र सम्बन्धी शान्तिम् । दिश न काचिट्ठिदिशं न काविद् वैवानति उस पथ से है, जिसके कर्ता आचार्य धरसेन (ईसवी सन् गच्छति नान्तरिक्षम् । एवं कृती निर्वतिमभ्युपेतः स्नेह- को प्रथम और द्वितीय शताब्दी का मध्य) है। वे प्रज्ञाभयात् केवलमेतिशान्तिम् ॥ सौन्दरनगद १६।२८।२६ श्रमण कहलाते थे। वि० सं० १५५६ मे लिखी हुई बहट्टि प्रवचनसार--तत्त्वार्थवातिक म आचार्य कुन्दकुन्द के परिणका नाम की ग्रथसूची के अनुसार वीर निर्वाण के प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथा " उद्धृत की गई है- ६० वर्ष पश्चात् धरसेन ने इस ग्रथ की रचना की थी। मरद व जियदु व जीवो अपदाचा रस्स पिच्छिदा हिंस।। अथ को कमाण्डिनी देवो से प्राप्त कर धरसन ने पुष्पदन्त पयदस्स पत्थि बधो हिंसामत्तण सभिदस्स ॥ प्रव. ३११७ और भतबलि नामक अपने शिष्यो के लिए लिखा था। जीव मरें या न मरे, परन्तु सावधानी को क्रिया नहीं श्वेताम्बा सम्प्रदाय में भी इस प्रथ का उतना हो आदर करने वाले प्रमादो के हिंसा अवश्य होती है और जो अपनी था, जितना दिगम्बर सम्प्रदाय में। धवला टीका के अनुकिया सावधानीपूर्वक करता है, जीवों की रक्षा करने में सार इमम यन्त्र मन्त्र की शक्ति का वर्णन है और इसके प्रयत्नशील है, प्रमाद नही करता है। उसके द्वारा हिंसा द्वारा पुद्गलानुभाग जाना जा सकता है"। निशीथचूशि हो जाने पर भी उसे बन्ध नही होता, पाप नहीं लगता। के कथनानुसार आचार्य सिद्धसन न जोणिपाहुड के आधार सिरसेन द्वात्रिशिका-राजवातिक मे एक पक्ति स अश्व बनाए थे। अग्रायणीय पूर्व का कुछ अश लेकर उधत" को यई है। यह पक्ति सिद्धसेन द्वात्रिंशिका में घरसेन ने इस प्रथ का उद्धार किया है। इतम पहले २८ प्राप्त होती है हजार गाथाएँ थी, उन्ही का सक्षिप्त कर के योनिप्राभूत वियोजयति चासुभिर्न च वधेन सयुज्यते ॥ सिद्ध. द्वा. ३।१६ मे कही है"। सन्दर्भ सूची १. तत्रानादिरूपिषु धर्माधर्माकाशजीवेश्वति रूपादिष्वा- ६. पटवण्डागम ---वर्गणाखण्ड ५।६।२६ दिमान् (५-४३) रूपिषु तु द्रव्येषु आदिमान् परिणा- ७. वेमादाणिद्धदा वेभादा ल्हुक्खदा बंधो ॥३२॥ समणिमोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिः । योगोपयोगी जीवेषु द्वदा समेंलुक्खदा भेदा ॥३३॥ (५-४५) जीवेष्वरूपिष्वपि सत्सु योगोपयोगी परिणामी षट्खडागम वर्गणाखड पृ०३० आदिमन्तौ भवतः। -तत्त्वार्थाधिगम भा. ८. गोम्मटसार जोवकांड गा. १९४, पचसग्रह ११८४ २. न्यायकुमुदचन्द्र प्र. भाग--प्रस्तावना पृ० ७१ । ६. तत्त्वार्थवार्तिक ४।१२।१० ४. वही ७१३ १०. सर्वार्थसिद्धि ४॥१२, ३. तत्त्वार्थवातिक ११४१६, ११. तत्त्वार्थ० १०।४।१७ १२. वही ७।१३।१२, १३. वही ७।१३३१२ ५. औदारिक काययोग। औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्य १४. डा. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास मनुष्याणाम् वैक्रियिक काययोगो वैक्रियिकमिश्रकाय पृ० ६७३। योगश्च देवषरकाणां ॥ षट्खण्डागम १५. वहा पृ० ६७४ ।
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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