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________________ विचारणीय: पद्मावती पूजन, समाधान का प्रयत्न 0 जस्टिस एम० एल० जैन अनेकान्त वर्ष ४३ कि. ३ जुलाई-सितंबर १९६० उपसर्ग किए, छोटे मोटे पहाड़ तक लाकर उनके समीप पृ०१६-१७ पर "भगवान पार्श्वनाथ के उपसर्ग का सही गिराए, तब घरणेन्द्र भगवान् को फणाओं के समूह से रूप" इस शीर्षक का एक लेख छपा है । लेखक हैं क्षुल्लक आवृत कर खड़ा हो गया और उसकी पत्नी मुनिराज चित्तसागर जी महाराज। पद्मावती पूजन पर उनकी दो पाश्र्वनाथ के ऊपर बहुत ऊचा वज्रमय छत्र तानकर स्थित आपत्तियां हैं - हो गई, लेकिनपहली तो यह कि मूर्तियो मे से नागकुमार देव धर- स पातु पार्श्वनाथोऽ-मान् यन्महिम्नव भूधरः, णेन्द्र का लोप हो गया है और मात्र पद्मावती ही दिखाई न्यषधि केवल भक्तिभोगिनी छत्र धारणम् । देती हैं: दूसरी यह कि "मुनिराज आर्यिका से भी ५-७ हाथ अर्थात् उपसर्ग का निवारण घरणेन्द्र पद्मावती ने किया था परन्तु इसी उपसर्ग के बीच उन्हें केवल ज्ञान हो दूर रहे ऐसा विधान होते हुए भी पद्मावती स्त्री पायी ने। गया और नागदपति का कार्य अपने आप समाप्त हो गया। महाव्रती मुनिराज पार्श्वनाथ को उठाकर अपने सिर पर गुणभद्र ने आगे बताया कि पर्वत का फटना, धरणेन्द्र कसे बिठाया और उसमे क्या कोई प्रकार का औचित्य का फणामण्डल का मण्डप तानना, पद्मावती के द्वारा है? समझ में नहीं आता ऐसा भहा और विचित्र विकल्प छत्र लगाया जाना, घातिया कर्मों का क्षय होना, केवलमूर्तिकार को कैसे आया ? उनका प्रेरक कोन रहा होगा? जान की प्राप्ति होना, धातुरहित परमौदारिक शरीर की उसमें क्या कोई बुद्धिमानी है या स्टट रूप फरेब कार्य प्राप्ति होना, जन्म-मरण रूप संसार का विधात होना, है ? यह सब विचारणीय है।" शम्बर देव का भयभीत होना, तीर्थकर नामकर्म का उदय पपावती प्रकरण में गुणभद्र ने अपने उत्तर पुराण में होना, सब विघ्नो का नष्ट होना, ये सब कार्य एक साथ लिखा है कि शम्बर नामक असुर ने तपोलीन पार्श्वनाथ प्रगट हुए। को देखा तो इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि पार्श्वनाथ को [लोकमानो विभङ्गन स्पष्ट प्राग्वैरबन्धनः सात दिन तक महा उपसर्ग जिसमें महावष्टि भी शामिल रोषात्कृत महाघोषो महावृष्टिमपातयत् । पी, अपने ध्यान से न डिगा सका। डिगाता भी तो कैसे? व्यधात्तदैव सप्ताहान्यन्यांश्च विविधान्विधिः जन्माभिषेक के समय जिन बालक भगवान के श्वास महोपसर्गान् शैलोपनिपातान्तानिनिवान्तकः] ॥३२॥ निश्वास से इन्द्र मूले के मानिंद झूलते रहते थे और अर्थात् उस असुर ने विभंगावधिज्ञान से पूर्वभव का जिनका शरीर वज वृषभनाराच संहनन का बना था ऐसे वैर बन्धन स्पष्ट देखा तो महाघोष किया और महावृष्टि बली प्रभु को शम्बर का उपसर्ग क्या कंपायमान कर की, सात दिन तक लगातार भिन्न-भिन्न प्रकार के महा सकता था? फिर नागदंपति तो आया भी सात दिन की (पृ० २५ का शेषांश) देरी से और वह भी उस समय जब केवलज्ञान होने में करते अपने उपयोग को पर पदार्थों से हटावे और निरंतर कुछ क्षण ही शेष थे। इसलिए नागदंपति का कोई योगहटाने का प्रयास करे। यही अपने में रहना है तथा यही दान उपसर्ग निवारण में नही था और थोड़ा था भी तो केवल ज्ञान व मुक्ति प्राप्ति का उपाय है। उत्तम संहनन केवलज्ञान होते ही उनका प्रयत्न (केवलं निषेधि) विफल के बिना मुक्ति भी नहीं होती। पर से हटने का उद्यम हो गया। इसके अतिरिक्त धरणेन्द्र किस कृतज्ञता को करें तो हमारे कर्मों की शक्ति क्षीण हो सकती है और प्रगट करने आया था? जिस समय पार्श्वनाथ का मामा आगामी भवो मे उत्तम संहनन की प्राप्ति और मुक्ति भी महिपाल पत्नी वियोग के कारण पञ्चाग्नि तप कर रहा हो सकती है। इसलिए पर-पदार्थों से विरक्ति कर सम्यग्- था उस समय पार्श्वनाथ के मना करने पर भी उसने दर्शन प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए। 卐 लकड़ी को काटा तो लकड़ी के भीतर स्थित सर्पदंपति के
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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