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________________ सम्पादर्शन के तीन रूप स्वभाव से ही शिथिलता हो जाती है तथा अनंतानुबधी ही पता चलता है । इससे पहिले हर एक व्यक्ति अपने को कषाय के अभाव होने से अपराधी जीवो पर भी क्षमा- सम्यग्दृष्टि मानता है परन्तु अन्तर सम्यग्दर्शन होने के भाव आ जाता है। तथा संवेग गुण के होने से आत्मा के पश्चात ही पता चलता है। इन चिन्हों के द्वारा अपने धर्म और धर्म के फल तथा सामियों में अति उत्साह आप में देखकर पता लगा सकता है कि मैं कहाँ है? शोर अनुराग हो जाता है। और सभी प्रकार की संसारिक देखें-कि मेरी रुचि, चाहना पर-द्रव्यों के संग्रह की कुछ भोगों की अभिलाषायें शान्त हो जाती हैं क्योकि ससारिक कम हुई है या नहीं। यदि शरीर कुटुंबीजनों तथा धन सुखो की अभिलाषायें मिथ्यात्व के उदय मे ही होती हैं। आदि में लालसा कम नही हुई तो निश्चित ऐसा जीव सम्यग्दष्टि के संसार में न कोई शत्रु है न कोई मित्र इस सम्पदृष्टि नहीं है। ये बात अपने सम्यक्त्व के पहिचान कारण अपने कुट बीजनों से तथा अन्य सबन्धियों से राग की है । अमुक व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है या नहीं ? इसकी क्या न होने के कारण ससार के सभी जीवों के प्रति करुणा का पहिचान है ? इसके उत्तर के लिए मोक्ष मार्ग प्रकाशक भाव होता है, सबके हित की भावना होती है। इस गुण पृ० ३:४ पर कहा है 'वचन प्रमाण ते पुरुष प्रमाण हो है' को अनुकंपा गुण कहते हैं। तथा पुरुष के वचनों का भाव सच्ची प्रतीति हो है जिससे जिसकी जीव संज्ञा है वही आत्मा है । आत्मा स्वयं पुरुष की प्रमाणता हो जाती है फिर उसके वचनों में सिद्ध है अमूर्त है, चेतन है। इसके अतिरिक्त जितना भी किसी भी प्रकार का संदेह सम्यग्दृष्टि को नहीं होता और अजीव है वह सब अचेतन है ऐसी बुद्धि होती है। जिस यदि है तो वह निपिचत रूप से सम्यग्दृष्टि नहीं है। व्यक्ति में ये बाह्य चिन्ह देखे जाते हैं वह अनुमान से जाना सम्यग्दृष्टि द्वारा रचित शास्त्रो मे कही भी आगम के जाता है कि अमुक व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यावृष्टि ? विरुद्ध कोई भी वचन नहीं पाया जाता, जिससे उनके इतना विशेष है कि अनुमान ज्ञान सत्य भी होता है और सम्यक्त्व मे किसी भी प्रकार की शंका की जाय । क्योंकि असत्य भी हो सकता है। यदि हमने उसकी परीक्षा ठोक सम्यग्दर्शन के बिना ऐसी व्याख्या नहीं हो सकती। नहीं की हो तथा इसके लिए छह ढाला में भी कहा है - सारांश यह है कि इस मनुष्य भव को सार्थक बनाने के 'पर द्रव्यन ते भिन्न आपमे, रुचि सम्यक्त्व भला है।' लिए हमें अपने उपयोग को तत्व विचार में लगा कर भेद अर्थात सम्यग्दष्टि की परद्रव्यो में अरुचि तथा स्व-आत्मा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। भेद ज्ञान होने के पश्चात में रुचि हो जाती है। उसकी पर द्रव्यों की चाह नहीं अपने उपयोग को आत्म चिंतन में लगा कर अपनी आत्मा रहती ये सम्यग्दष्टि के अविनाभावी चिन्ह हैं, जिनसे से कर्मों को पृथक करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जाना जाता है और अपने प्रापका तो निश्चित आत्मा से कर्मों को पृथक करने के लिए सर्व प्रथम पता चल जाता है कि मैं कौन हूं सम्यग्दृष्टि या मिथ्या- कुछ समय के लिए एकान्त में बैठ कर जहां किसी प्रकार दष्टि ? जैसे किसी व्यक्ति के शरीर के किसी अंग में पीड़ा का संसार संबन्धी वाधा न हो सभी प्रकार प्रारंभ परिहोती है तो क्या उसको मालूम नही पड़ता कि मेरे को ग्रह का त्याग करके बैठना चाहिए, और विचार करना फलाने अंग में पीड़ा हो रही है। जिसको पीड़ा होती है चाहिए यह देह अचेतन है, यह देह में नहीं हूं इस देह में उसको अवश्य ही पता लगता है। इसी प्रकार जब रहने वाला इस देह से किंचित न्यून ज्ञायक स्वरूपी सम्यग्दर्शन हो जाता है तब उसको अवश्य ही पता लग चैतन्य का जो पिंड है वह मैं हूँ। मैं एक हूं अकेला हूं मेरा जाता है। ऐसा नहीं हो सकता कि सम्यग्दर्शन होने के कोई साथी सगा नहीं है, मैं अकेला जन्म लेता हूँ अकेला पश्चात स्वयं को पता न चले और यदि अपने सम्यग्दर्शन ही मरण को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त जितने भी होने में उसको संदेह है तो निश्चित मिथ्यादृष्टि है जैसे पदार्थ हैं चाहे चेतन हों अथवा अचेतन । सब पर हैं मैं कोई मिश्री खाये और उसको उसका स्वाद न आए ऐसा उन सबसे भिन्न हूं ऐसा वचन तथा मन से चिन्तवन करते नहीं हो सकता, परन्तु ठीक पता सम्यग्दर्शन होने के बाद (शेष पृ० २६ पर)
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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