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________________ ३०, वर्ष ४४, कि० १ में इसी बात को लेकर निश्वयवहारानंवि के कान मे कारण का निषेध करके साधनपने की स्थापना की है। ऐसा ही प्रवचन सार में चरणानुयोग चूलिका के शुरु साधनपने की स्थापना की ओर माधन की परिभाषा भी रखी कि "तेरे प्रसाद से अपने रूप को प्राप्त कर लू यहां पर वह प्राप्त करा दे, उससे प्राप्त हो जावे दोनों का निषेध करो मैं प्राप्त कर लू तेरे प्रसाद से अर्थात् तेरा अवलम्बन लेकर मैं प्राप्त कर लू, यह परि भाषा सभी निमित्तो के लिए बन जाती है । अतः निमित्त कर्ता नही, कराता नही, निमित्त से होता नही परन्तु जिसका अवलम्बन लेकर हम कार्य करते हैं वह निमित्त नाम पाता है यही परिभाषा बनती है। कर्मों में भी (मोहाटिक में चुंबक की तरह विवाद तो मानना है परन्तु कार्य हमारी प्रात्मशक्ति के अनुसार ही कम ज्यादा होता है । जब आत्मशक्ति कम है तब कर्म का तीव्र उदय कहलाता है जब आत्मशक्ति ज्यादा है तो कर्म का मद उदय कहलाता है । ! अगर कोई कहे कि उपादान उस समय की अपनी पर्याय योग्यता के अनुसार परिणयन करता है वहां निमित्त के सहयोग का क्या सवाल है ? उसका उत्तर है कि लगड़े बादमी की पर्याय योग्यता लकड़ी का सहारा लेकर चलने की है। भले बगे आदमी की योग्यता निरालम्बन चलने की है । इसलिए वह पर्याय्योग्यता कहने में भी निमित्त सापेक्षता आ जाती है। श्रनेकान्त वह दुख सुख का कर्ता, रागद्वेष का कर्ता, निमित को मानता है क्योंकि संसार में हमारे अपने सिवाय सभी पर है अतः सभी निमित्त हो सकते हैं इसलिए समस्त जीव अजीवादि के प्रति उसकी गम्भवना में राग-द्वेष रहता है, जो कि अनंतानुबंधि कहलाता है। इसलिए जो निमित्त को कर्ता मानता है वह मिध्यादृष्टि रहता है। आगम में कारणानुयोग और चनुयोग में नितिको कर्ता कहकर वर्णन किया है जो उाचार है अर्थात् निमित्त में कर्तापने का उपचार है वारत में कर्ता नहीं है, इसको लेकर समयसारजी में ऐसा कहा है कि जो ऐसे मानता है वह सांखामति है चाहे अरहतके मत का मानने वाला मुनि भी क्यों नही होवे । पहारी जीवो को समझाने की आचायों ने भाषा में वर्णन है नहीं तो व्यवहारी लोकों को समझ मे ही आ सकता था। जैसे कोट को छोटा हो गया कहना यह लौकिक भाषा वास्तव में तो पहनने वाला मोटा हो गया यह सही भाषा है | वैसे ही निमित्त को कर्ता कहने की लौकिक भाषा है सभी इसी भाषा का इस्तेमाल करते है जैसे उसने ऐसा कर दिया, मैंने ऐसा कर दिया आदि। परन्तु वास्तव में लौकिक भाषा का अर्थ तो हम ठीक समझते है परन्तु उसी भाषा का उपयोग परमार्थ कथन में आचार्य करते है तो हम उसी को लौकिक भाषा जैसा अर्थ न करके उसका परमार्थरूप अर्थ कर लेते हैं। वही असल मे हमारी अज्ञानता का मुख्य कारण है । अगर दो द्रव्यों की पर्याय का निमित्त मेत्तिक सम्बन्ध नहीं मानेगे तो संसार भी नही बनेगा अथवा उसका अभाव भी नही बनेगा। अगर उसमे कर्ता कर्म सम्बन्ध मान लिया तो कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। 00 ( पृ० २२ का शेपाश) 1 निमित्ताधीनदृष्टि का अर्थ है मिध्यादृष्टि क्योंकि यह मानता है कि निमित्त ने ऐसा कर दिया। मैं, मेरा सब कुछ, मोक्ष मार्ग भी निमित्त के आधीन है । अत: अपने भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ का ही मार्ग अपनाया है। पार्श्वनाथ मे अहिंसा, सत्य, अस्त्य और अरिग्रह का वर्णन इस प्रकार है-आया है जो स्थानाग सूत्र २६६ के अनुसार इस प्रकार है(१) सव्वातो पाणाति वायाओ वेरमणं । भगवान् महावीर ने इन चार अर्थात् स प्रकार के प्रणयात सेवित (अहिंसा) बहुत बल और जोर दिया है। जयन्ती के अवसर पर उनके आ नाना चाहिए। (२) एवं (ग) मुगाबाबाओ बेरमण । अर्थात् सभी प्रकार के असत्य से विपरीत (सत्य) (३) सव्वातो अदिन्न दाणाओ वेन्मणं । धत् सभी प्रकार के अदत्तादान से विरति ( अचौर्य ) (४) सम्पातो वाद णाओ वे मणं । अर्थात् सब प्रकार के बहिर्धा आदान से विरति । ( परिग्रह ) ( अपरिग्रह ) धर्मों के पालन पर अत: व इस महावीर महावाक्यों को अप 00
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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