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निमिसाधीन दृष्टि
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अगर जीव प्रायोग्यलब्धि में तत्व चितवन में उपयोग संस्कार को फिर मजबूत कर देता है। अगर वह ज्यादा लगाता है तो मिथ्यात्व ढीला पड़ने लगता है और करणलब्धि मजबूत हो जाता है तो जीव उस संस्कारो के आधीन में अपने स्वभाव को देखने की चेष्टा कराता है तब मिथ्यात्व हो जाता है। उस मस्कारो को मेटने के लिए उसका हटने लगता है। यहां पर ऐसा समझना चाहिए कि एक विरोधी उससे भी ज्यादा मजबूत सस्कार पैदा करना कमरे के किवाड़ बंद है और कहा जाता है कि किव ड खुले होगा। उसीका नाम प्रात्मानुभव है जिम्से पहले वाला बिना बाहर नहीं जा सकता है परन्तु साथ में सजी पचे न्द्रय संस्कार मिटे और नया नही आवे तभी संवर और को यह भी कहा जा रहा है कि तू चाहे तो किवाड़ खोल निर्जरा होती है। सकता है, किवाड़ खुले हुए ही है तेरे अ.गे बढ़ने की देरी है इससे यह निश्चित हआ कि यह जीव अपनी शक्ति जैसे हवाई अड्डे में फाटक बन्द रहता है और बन्द देख के अनुसार अपना बचाव कर सकता है। यह कर्म को कर वह खड़ा रहे तो यह उसकी खुशी है । परन्तु आगे ज्यादा निमित्त बनावे, कम बनावे यह उमी पर निर्भर है बढ़ता जाता है तो फाटक खुलता जाता यही बात कर्म के इसलिए यहां भी इसकी स्वाधीनता है। बारे में है। सभी चीज हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करती इसी के बारे मे प० टोडरमल जी तीन उदाहरण है। एक बार राग करने पर आत्मा पर उगी जाति का तीन प्रकार के कमों के बारे मे दिये है। सस्कार और मजबूत हो जाता है । इस प्रकार हर समय १. अधातिया कर्मों के निमित्त से बाहरी सामग्री का हमारे सस्कार मजबूत होते जाते है जब बहुत मजबूत हो सम्बन्ध बने है-यावत् कर्म का उदय रहे तावत् बाह्य जाते है तब आत्मा अपने ही सस्कारी के आधीन हा जाती सामग्री तैसे ही बनी रहे। है और तदरूप परिणमन अपनी इच्छा के विरुद्ध करने २. काह पुरुष के सिर पर मोहन धूलि परी है लगती है। यह हमारी अपनी पैदा की हुई पराधीनता है। तिसकरी सो पुरुष बावला भया'..."बावलापना तिस उस सस्कारो को तोड़ने के लिए उससे विपरीत सस्कारो मोहन धलि ही करी भया देखिए है। के उपाय करने होगे । जैसे पर मे, शरीर मे एकपने के ३. जैसे सूर्य के उदयकाल । वर्ष च सवा चकवीनि का सस्कार मजबूत करते जा रहे है उस सस्कार को तोड़ने के का संयोग होय, तहा रात्रि विषै. . . . . . 'सूर्यास्त का लिए शरीर से भिन्नपने के संस्कार पंदा करने को वैसी निमित्त पाय आप ही विछर है ऐना ही निमित नैमित्तिक चेष्टा कानी होगी। निरन्तर आत्मा के भिन्नपन को बनि रह्या है तसे ही कर्म का निमित्त नै मेत्तिक भाव जानो। भावना भानी पड़ेगी वह भी उतनी ही गहराई में जितनी
दूसरा उदाहरण मोह कर्म की अपेक्षा है। इसी शरीर में अपनेपने की भावना भाई है तब वे सस्कार बात को ऊपर में खिचाव नाम देकर कहा गया है । टेंगे इसीका नाम निर्जरा है। एक काटा चुभा हुअा है पहला उदाहरण अघाति कर्मों का है। अगर उसको निकालना है तो सुई को कांटे की लम्वाई से पं० जी ने नवमी अध्याय मे निमित्त के बारे मे ऐसा नीचा ले जाकर निकालना होगा। शरीर के एकत्वपने के कहा है कि एक कारण तो ऐसे है जाके भए कार्य सिद्धि हो संस्कारको तोड़ने के लिए उससे ज्यादा गहरा मजबूत सस्कार होय जैसे सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र की एकता। कोई कारण शरीर से भिन्नता का चाहिए । हम उतना पुरुपार्थ नही ऐन है जाके भए बिना तो कार्य न होप और जाक भए करते तब पहला संस्कार नहीं टूटता यही कर्म की थ्योरी कार्य होय या न भी होय जैन मुनि लिंग धारे बिना.. । है। राग का सस्कार मेटने को भी उतना जोरदार पुरु- कई कारण तो ऐसे हैं जो मुख्याने तो जाके भए कार्य षार्थ चाहिए तब गग मिटेगा । किसी व्यक्ति को माला होय अर काहू के बिना भए भी कार्य सिद्धि होय जैसे कहने की आदत पड़ गई। अब वह आदत से लाचार हो अनशनादि बाह्य तप । यहा पर भी साधन मे कारण का गया और च हे-अनचाहे जाने-अनजाने साला निकल जाता उपचार करके साधन को कारण कहा। वहां पर उसको है। जब एक बार साला निकलता है तो पहले के साधन ही मानना चाहिए कारण नहीं मानना चाहिए।