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________________ अचचित भक्त कवि 'हितकर' और और 'बालकृष्ण' : डा० गंगाराम गर्ग विभास, ईमन, धनाश्री, सारंग, आसावरी तथा भैरु आदि कतिपय रागों में लिखित 'हितकर' के पद छोटे धौर भावपूर्ण हैं। दास्य भक्त के अनुरूप प्रभु के गुणगान की अपेक्षा 'दिनकर' ने आत्मनिवेदन को अधिक प्रमुखता दी है। अज्ञानान्धकार में भटके हुए 'हितकर' अपने उद्धार के लिए अधिक आतुर रहे है- भट्टारक सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्म यशोधर देवसेन के दो-दो पद तथा अपभ्रंश कवि बूचराज के आठ पद प्राप्त हो जाने से जैन पद परम्परा की पुरातनता तो अवश्य सिद्ध होती है किन्तु इसके वर्तन के श्रेय के अधिकारी ६० पदों के रचयिता गंगादास ही कहे जा सकते हैं। पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर भरतपुर मे प्राप्त एक गुटके में इनके विभिन्न राग भैरव, ईमन, परज, सोहनी, विलावल रेखता, चर्चरी, जैजैवन्ती, विभास, कान्हड़ो, रवमायच मे लिखित उक्त पद सग्रहीत है। गंगादास द्वारा आषाढ़ सुदि १५ सवत् १६१५ को लिखी गई रविवार व्रत कथा के आधार पर उनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने कवि की रचना 'आदिनाथ की विनती' को प्रशस्ति के आधार पर उसे नरसिंहपुरा जाति वाले तथा सूरत निवासी पर्वत का पुत्र बतलाया है । जैन भक्त गंगादास द्वारा प्रवर्तित यह पद परम्परा घोर श्रृंगारिक काल रीतिकाल मे अधिक विकसित हुई। प्रचुर पदों के रचयिता द्यानतराय, भूधरदास, बुधजन, नबलशाह, पार्श्वदास इसी काल मे आविर्भूत हुए । अभी तक अवचित भक्त कवि 'हितकर' और 'बालकृष्ण' का पद साहित्य क्रमशः अग्रवाल जैन मन्दिर दीग (भरतपुर) कोटडियान मन्दिर हूगरपुर (राज० ) मे प्राप्त हवा है। हितकर अग्रवाल जैन मन्दिर दीग (भरतपुर) में प्राप्त 'हेतराम' के नाम से लिखी 'चोबीस महाराजन की बधाई प्राप्त हुई है एक गुटके के पृ० ९८-१०३ पर अंकित इस रचना में तीर्थकरों के जन्मोत्सव के रूप मे जन्म सरकार, 'बाल-स्नान', दान, नृत्य, वाद्यवादन का वर्णन हुआ है । सम्भवतः इन्हीं हेतराम 'हितकरि' के उपनाम से पद लिखे । किंकर परत करत जिन साहब मेरो प्रोर निहारो । पतित उपारन दीन दयानिधि, सुभ्यों तो उपगारो । मेरे धोन पे मति जावो, अपनो सुजस विचारो । अज्ञानी वीसत है जग में, पक्षपात उर भारी । नाहीं मिलत महावत पारी, फंसे निरवारी हं छवि रावरी नैनन निरखी, श्रागम सुन्यौ तिहारी । जात नहीं भ्रम को तम मेरो, या बुक्खन को टारौ । 'घन' और 'चकोर' के प्रतिक्षण याद करते रहने में सम्त 'मोर' और 'बोर' के समान हो 'हितकर' का स्वभाव भी बन गया है। सोते-जागते, रात-दिन में किसी भी क्षण 'जिन प्रतिमा को वह अपनी आखो से ओमल नही कर पाते- प्यारी लागे भी जी मैंनू वाद लिहारी प्यारी । चोर चकोर मोर धन जैसे तेसे में नहि सुरति बिसारी । निसि बासर सोबत प्ररु जागत, इक छिन पलक टरत न टारी । 'सेव' ऊपर 'हितकरि' स्वामी, तुम करो कछु चाह हमारी ॥ 'म्हे थाका थे महांका' (मैं तेरा और तू मेरा) कहकर 'हितकर' वैष्णव भक्तो के समान अपने आराध्य से प्रगाढ़ सम्बन्ध प्रस्थापित किया है तथा जन्म-मरण से छुटकारा दिलवाने के लिए सैन्य भी प्रकट किया हैम्हे तो चाक सूं याही घरज करों छां हो जी जनराम जामन मरन महा दुख संकट, मेट गरीब नवाज | .
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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