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________________ अपरिपही ही मारमवर्शन का अधिकारी (अन्तरंग) हेतु दर्शन मोहनीय रूप परिग्रह (जो मिथ्यात्व ही असम्भव-सी है। ही है) के क्षय आदि को ही कहा है एक बात और। जैन, निवृत्तिप्रधान धर्म है और 'अंतर हेऊ भरिणदा दंसण मोहस्स खयपहुवी।' इस तस्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में भी निवृत्ति की ही बात कही भांति सम्यग्दर्शन का मूल अपरिग्रह ही ठहरता है। फिर गई है-मोक्षमार्ग को प्रधान रखा गया है। सम्यग्दर्शजाश्चर्य है कि अपरिग्रह के सायात्मोपलब्धि को व्याप्ति नादि उसी के साधन हैं और इन साधनों का साधन भी पर लोगों को आपत्ति हो और वे मात्र पहिचान से बाह्य परिग्रह से निवृत्ति-अपरिग्रह-एकाकीपन ही है। फिर सम्यग्दर्शन के गुणगान में लगे हों और आत्मदर्शन को ऐसे मे कसे सम्भव है कि हम एकाकी होने की बात करें उत्पत्ति में वाधक मच्छ और बाह्य परिग्रह से भी नाता और पर-परिग्रह से जुड़े रहें ? फलतः-न तो सम्यग्दष्टि जोई-आत्मा को दिखा रहे हों ? विचारना यह भी होगा अन्तर परिग्रहों मे रत होता है और ना ही कोई मारमजिस सम्यग्दर्शन को पाचार्यों ने सराग और वीतराग के दृष्टा ऐसा कर सकता है। तथा ना ही परिग्रही-भाव भेदों में विभक्त किया है उनमें चौथे गणस्थान में सराग क्षण में आत्मदर्शन होता है। अधिक क्या खलासा करें? सम्यग्दर्शन होता है या वीतराग? यदि सराग होता है तो हमारा अभिप्राय निश्चय आत्मदर्शी से है-बनावटो या राग में आत्मदर्शन कैसे? यदि वीतराग सम्यग्दर्शन होता बाजारू प्रात्मदशियों से नही। है तो श्रेणी मारने पर कौनसा सम्यग्दर्शन होता है ? आदि। हम कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि हम जो भी लिखते पाठक इस पर विचार करें। हम इस पर आगे कुछ हैं--'स्वान्तः सुखाय' लिखते हैं और आगम के आलोक में लिखेंगे । यह तो हम पहिले ही लिख पाए हैं कि अरूपी लिखते हैं। किसी को रास न आए तो इसे छोड़ दें। आत्मा का शुद्ध-स्वरूप मोही छदमस्थ की पकड़ से बाह्य सचमुच आज के समार में विरले हैं जो जैन के मलहै और परिग्रह-सचय करते क्षण तो उसकी पकड़ सर्वथा अपार ग्रह पर दृष्टि द । (क्रमश:) (पृ० २६ का शेषांश) संस्कृत टीका के अनुसार इनमे मूल का विभाजन १२ सर्वेक्षण कार्यक्रम बनाया जा रहा है समय एक साधनो की अधिकारों में किया गया है। सीमा होने पर भी मैंने कुछ सर्वेक्षण कार्य जुन ९१ में उक्त सभी पाण्डुलिपियां कागज पर देवनागरी लिपि किया है। अब पत्राचार एवं अन्य माध्यमो से सम्पर्क में लिखी हुई है। परिचय से यह भी स्पष्ट है कि प्रायः किया जा रहा है। सभी प्रतियां उत्तर भारत की है। मात्र एक प्रति महा- नियमसार की प्राचीन पाण्डुलिपियो की खोज का राष्ट्र के कारंजा भंडार की है। कार्य निरन्तर चल रहा है । इस सन्दर्भ में देश के विभिन्न कन्नर लिपि में ताडपत्र पर लिखी प्रतियों में अभी राज्यो के शोध सस्थानों, पाइलिपि संग्रहालयो, मन्दिरों तक जिनकी सूचना मिली हैं, उनमें जैन मठ श्रवणबेलगोला के शास्त्र भंडारों, निजी संग्रहों के मालिकों से सम्पर्क जैन मठ मूरबिद्री, ऐलक पन्नालाल सरस्वती, भवन उज्जैन किया जा रहा है । खोज के क्रम में मध्यप्रदेश तथा दक्षिण को प्रतियां हैं । कुन्दकुन्द भारती दिल्ली में भी कुछ प्रतियाँ भारत की यात्रा का कार्यक्रम भी बनाया जा रहा है। सुरक्षित हैं। इनकी फोटो या जीराक्स हेतु सस्थाओं के सम्बद्ध व्यक्तियों, विद्वानों एवं कुन्दकुन्द प्रेमी जनों से मेरा सम्बर अधिकारियों से निवेदन किया है। विनम्र निवेदन है कि उनकी जानकारी मे कहीं भी नियमउत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर में विभिन्न सार की प्राचीन पांडुलिपि हो तो उसकी सूचना मुझे जे कालों में धार्मिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान होते रहे हैं। की कपा करें तथा उसकी जीराक्स या फोटो या माइकोइसमें मध्यप्रदेश की अहं भूमिका होना स्वाभाविक है। फिल्म उपलब्ध कराने में सहयोग करें। बता कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिपियां मध्य आवास-२६, विजयानगरम् कालोनी, प्रदेश में भी सुरक्षित होनी चाहिए। इसके लिए विस्तृत भेलूपुर, वाराणसी-१२१.१.
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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