SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देखो, कहीं श्रद्धा डगमगा न जाए पपचन शास्त्री संपादक 'अनेकान्त' जैसे हिन्दुओं के मूल ग्रन्थ वेद हैं और उन्हें ईश्वरकृत सुदृष्टि और द्रव्यलिंगी-मिथ्यादष्टि होने तक के दोन मानने जैसा विश्वास है। यह विश्वास कोरा ओर व्यय भांति के कथन हैं, और उसके उपदेशों से अनेकों जीवों के नहीं है-इनमें बड़ा का बल हिन्दू के हिन्दुत्व को कायम उद्धार होने की बात भी है। तब क्या गारण्टी है कि रखने में कारगर है। वैसे ही जैन आगम सर्वज्ञ-वाणी हैं हमारे काहि मानttru nare और ऐसी अदा ही जैनियो के जंनत्व को कायम रखे हुए आदि।' तो ऐसे वचनों से समाज की श्रद्धा डगमगा है। उक्त प्रकार की श्रद्धा जिस दिन क्षीण हो जायगी- जायगी और जैन की हानि ही होगी। तथा प्रश्न यह भी जनत्व भी लुप्त हो जायगा। जिनवाणी की परम्परित बड़ा होगा कि जो पूर्वाचार्यों को सम्यग् या मिथ्यावृष्टि पूर्वाचार्य ही कायम रखे रहे-वे लगाव रहित-अपरि होने जैसी सन्देहास्पद लाइन में खड़ा करने की बात कर ग्रही होने के कारण ही जिनवाणी के रहस्यो का उद्घाटन रहा हो, उसके वचनों को भी प्रामाणिकता कहाँ रहेगी। करने में समर्थ हुए । उन पूर्वाचार्यों में हमारी उत्कट श्रद्धा क्योकि वह भी तो उन्ही आचार्यों के वचनों को आधार है। यह कार्य रागी-द्वषो जनो के वश का नहीं था। बना अपनी सचाई घोषित कर रहा है, जिन्हें उसने स्वयं जब मूल वेदो की विविध व्याख्याएँ स्व-मन्तव्यानुसार सादेहास्पद स्थिति मे ला खड़ा किया हो। सो हमें परमहुई तो हिन्दू लोग कहीं सायणाचार्य, कहीं महीधराचार्य परित आचार्यों को सन्देहास्पद न मानकर उन्हें सावर, और कहीं महर्षि दयानन्द के मत को मानने वाले जैसे सर्वथा सम्यग्दृष्टि ही मानना चाहिए-ऐसा हमारा विविध भागों में बंट गए । वैसे ही जैनियो में भी मूल की निवदन है। विविध व्याख्याओ को लेकर अनेको मान्यताएं चल पड़ी यतः शुद्ध आत्मा सम्यग्ज्ञान स्वभावी है और सम्यग् - और विवाद पनपने लगे। जैसे कही सोनगढ़ी, कही जयपुरी ज्ञान में मुख्य कारण सम्यक्त्व है। लोक में भी जिसे हम और कहीं स्थितिपालक की मान्यताएं आदि । फिर भी सरल आत्मा की आवाज के नाम से कह दिया करते हैं आश्चर्य यह कि सभी अपने को मूलाम्नायी कहते रहे। उससे भी अन्तरंग-भाव का बोध होता है और सम्यग्ज्ञानी हिन्दुओ में विवाद होने पर भी किसी ने वेदकर्ता और के अन्तरग भावों से प्रसूत वाक्य को प्रमाणता होती है। ऋचावाहकको लांछित नही किया-सबको श्रद्धा उन पर ओर ऐसी प्रमाणता सम्यग्दष्टि में ही होती है। द्रव्यलिगी टिकी रही। ऐसे ही जैनियो मे भी आगमवाहक आचाया तो मिथ्याइष्टि होता है और उसका ज्ञान भी सम्बस्व और मल में श्रद्धा जमी रही और जमी भी रहनी चाहिए। बिना मिथ्या होता है पोर वचन भी उससे प्रभावित होते कदाचित् यदि कोई तर्कवादी व्यक्ति (परिग्रही को है। कदाचित् उसके उपदेश से कइयो को लाम भी मिल आत्मदर्शन होना मानने जसी परिग्रह-प्रेमियो को मान्यता- जाय; पर उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नही कहना सकता और नुरूप-भ्रान्त परिपाटी की भाति) अपने तर्कों के बल पर न उसमे (सम्यक्त्व के बिना) वैसे कथन की शक्ति होती आचार्यों को सम्देहास्पद स्थिति मे ला खड़ा करने की है जो 'आप्तोपशमनुलंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम्, तत्वोपदेशकोशिश करे और कहे कि जब 'सम्यग्दृष्टि को पहिवान कत' को समता को धारण कर सके। हमारे परम्परित दुर्लभ है.और मागम में ग्यारह अंग नो पूर्व के शाता को नाचार्य कुन्दकुन्दादि जैसा वस्तुतस्य का विवेचन कर
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy