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________________ ३२. ४४,कि.३ कितने लेखक परम्परित आचार्यों से महान् और सम्यग- सम्यग्दृष्टिवत् आगम की रक्षा में सन्नद्ध होता, तो हममें जानी हैं, जो उनकी मूल रचनाओं से लोगों को वचित आगम के प्रति प्रान्त-विविध मतभेद न होते और हमें कर स्वयं को आगे लाने में तत्पर होने जैसा कर रहे है आगम के सुरक्षित रहने का स्पष्ट संकेत मिलता। और लोगो को जिनवाणी का सही तत्त्व दे पा रहे है ? अन्त में निवेदन है कि यश अथवा अर्थ संग्रह से कभी-कभी हम सोचते हैं कि क्या हम उन जैसे श्रद्धानी तत्पर कई लेखक गण हमारे कथन को उनके प्रति बगावत भी नही जिन्होंने कुरान के भावो को तोड़-मरोड कर न समझें और ना हों एकाकी या संगठिन हो, हमारे प्रति लिखने जैसे दुःसाहस को बर्दाश्त नहीं किया था। काश, विद्रोह की सन्नद्ध हो-क्योंकि हम तो 'कहीं हमारी भरा हममे एक भी ऐसा कट्टर श्रद्धालु निकला होना जो न उगमगा जाए' इसी भाव में कुछ लिख सकते हैं। (पृ० ३ कवर का शेषांश) कि मैं घट बनाऊँ, उसके अनन्तर उसके आत्मप्रदेश चञ्चल होते हैं जिनसे हस्तादि व्यापार होता है। हस्त के व्यापार द्वारा मत्तिका को आर्द्र करता है पश्चात् दोनों हाथो मे उसे खूब गीली करता है, पश्चात मिट्टी को चाक के ऊपर रखता है, पश्चात् दण्डादि द्वारा चक्र को घुमाता है। इसी भ्रमण मे हस्त के द्वारा मिट्टी को घटाकार बनाता है। पश्चात् जब घट बन जाता है तब उसे सूत के द्वारा पृथक कर पश्चात् अग्नि में पका लेता है। यहां पर जितने व्यापार हैं सब जुदे जुदे है फिर भी एक दूसरे मे सहकारी कारण है किन्तु जब घट निष्पन्न हो जाता है तब केवल मिट्टी ही उपादान कारण रह जाती है। अनन्तर जब घट फूट जाता है तब भी मिट्टी ही रहती है। इसी आशय को लेकर अष्टावक्र गीता मे लिखा है "मत्तो विनिर्गतं विश्वं, मय्येव च प्रशाम्यति। मुवि कुम्मो जले बोचिः, कटकं कटके यथा ॥" जो पदार्थ जहाँ उदय होता है वही उसका लय होता है। यही कारण है कि वेदान्ती जगत का मूल कारण ब्रह्म मानते हैं । परमार्थ से देखा जाये तो आत्मा की विभावपरिणति ही का नाम संसार है किन्तु केवल आत्मा मे ही यह संसार नहीं हो सकता है। अतएव उन्होंने माया को स्वीकार किया है । इसका यह भाव है कि केवल ब्रह्म जगत का रचयिता नहीं। जब उसे माया का संसर्ग मिले तभी यह संसार बन सकता है । अब कल्पना करो कि यदि ब्रह्म सर्वथा शुद्ध था तब माया का ससर्ग कैसे हुआ? शुद्ध विकार होता नही अतएव मानना पड़ेगा कि यह माया का सम्बन्ध अनादि से है । यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि अनादि से सम्बन्ध है तो छुटे कैसे? उसका उत्तर सरल है कि बीज से अकुर होता है। यदि बीज दग्ध हो जावे तो अंकुरोत्पत्ति नही हो सकती। यही माया भव का बीज है। जब वास्तव तत्त्वज्ञान हो जाता है तब वह ससार का कारण जो भ्रमज्ञान है वह आप से आप पर्यायन्तर हो जाता है । (९, १०।१६।५१) ७. बहुत से मनुष्यों की यह धारणा हो गई है कि निमित्त कारण इतना प्रबल नही जितना उपादान होता है। यह महती भ्रान्ति है। कार्य की उत्पत्ति न तो केवल उपादान से होती है और न केवल निमित्त से किन्तु उपादान और सहकारी कारण के योग से कार्य उत्पन्न होता है। यद्यपि कार्य उपादान में ही होता है परन्तु निमित्त की सहकारिता बिना कदापि कार्य नही होता। जैसे कुम्भ मिट्टी से ही होता है परन्तु कुलालरूप निमित्त बिना कार्य नही होता । (२८॥१२॥५१) (वर्णीवाणी से साभार)
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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