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देवगढ़ पुरातत्त्व को सँभाल में औचित्य
1 कुन्दन लाल जैन रिटायर्ड प्रिन्सिपल अभी १५ जुलाई १ को देवगढ़ जैसी पावन पुण्य- स्तम्भ गोल और चौकोर दोनों ही तरह के हैं उन पर स्थखी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वहां के जैन उकेरी गई कला तथा नाना तरह के बेलबूटे एवं चित्र शिल्प को देखकर हृदय गद्गद हो उठा। देवगढ़ मध्य विचित्रता अत्यधिक दर्शनीय एवं मनोरम हैं। यहां के रेलवे के मांसी वीना सेक्सन के बीच ललितपुर नामक मन्दिरों की स्थापत्य कला खजुराहो स्थापत्य से मिलती रेलवे स्टेशन से उत्तर पश्चिम की ओर लगभग ३२ कि० जुलती है। कहा जाता है कि यहां चालीस मन्दिरों का मी. दूर है । ललितपुर से बसें जाती रहती हैं । जैन मूर्ति परिसर था जो नवमी सदी से बारहवी सदी के बीच कला का अनुपम केन्द्र यह देवगढ़ क्षेत्र एक मुरम्य, सुंदर निर्मित हुए थे। वर्तमान में कुल इकतीस मन्दिर ही हैं पर एवं मध्य पहाड़ी पर अवस्थित है जिसकी तलहटी में वेत्र- जीर्णोद्धार के फलस्वरूप इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। वती (वेतवा) की कलकम धारा अवाध गति से बहती यहा का प्रमुख मन्दिर भ. शान्तिनाथ का है जो सर्वाधिक रहती है, इसे बुन्देलखंड की गंगा भी कहते हैं।
प्राचीन और प्रसिद्ध है। इसके सामने चन्देल नरेश कीर्तिबचपन में सुना था कि देवगढ़ में इतनी मूर्तियां है कि वर्मन के लेख युक्त एक विशाल स्तम्भ खड़ा हमा है जिस एक-एक चावल प्रति मूर्ति पर चढ़ाया जावे तो एक बोरी से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र का नाम कीर्तिनगर भी रखा चावल अपर्याप्त रहेगा। तब यह सब अतिशयोक्ति सा गया था। लगता था पर अब इस क्षेत्र के दर्शन से वह बात यथार्थ जहां नई धर्मशाला और म्यूजियम बना है वहां के हो गयी। इस क्षेत्र पर असंख्य जैन मूर्तियां है जिनमे बहुत पार्क में स्थित मानस्तम्भ में तीनों दिशाओ में तीन सी खणित है छ दीवारों में चिनी हुई है, कुछ परकोटे तीर्थकरो की प्रतिमाएं विराजमान है पर चौथी ओर कोई पर पडी है, कुछ जमीन के अन्दर गड़ी पड़ी है और कछ आचार्य एक चोटीधारी श्रावक या गृहस्थ को उपदेश देती यत्र-तत्र लुकी-छुी पड़ी हुई हैं।
हुई मुद्रा में विराजमान है जो एक अद्भुत मानस्तम्भ सा वहां के प्रतिभाशाली श्रमजीवी शिल्पियों ने युग युगो लगता है। यहा एकाकी प्रतिमाओं के अतिरिक्त द्वितीर्थी, तक अपने छनी हथोड़े की कला से जैन मूर्तियो का सर्जन कितीर्थी, चतुर्मुखी (सर्वतोभद्र) प्रतिमाएं एवं चौबीसीपट्ट किया वे आज पुगाव, इतिहास एवं शिल्पकला की बहु- बहुलता मे प्राप्त होते हैं । वितीर्थी प्रतिमानों में दो नमूने मूल्य धरोहर बन गई हैं। इन मूर्तियों के दर्शन कर उन बड़े महत्वपूर्ण एवं इतिहास तथा पुरातात्विक दृष्टि से शिल्पियों के प्रति श्रदा एवं कृतज्ञता से मस्तक झुक जाता उपयोगी और कलापूर्ण लगे। प्रथम तो बाहुबली, ऋषभहै और उनका पुण्य स्मरण किए बिना नही रहा जाता। देव एवं भरत की त्रितीर्थी है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है
देवगढ़ की मर्तियां पदमासन और खड्गासन (कायो. बाहुबली के चारों ओर माधवी लताओं एवं वमीठों का स्मर्ग मुद्रा) दोनों ही मुद्राओं की उपलब्ध हैं। यहाँ तीर्थकर चित्रण कलापूर्ण है तथा भारत के पादपीठ में भारत की प्रतिमाओं के अतिरिक्त उनके शासन देवता, यक्ष यक्षणियो मान चित्र अंकित है। यह मानचित्र अविभाज्य है जिसमें अष्टप्रातिहायो, कुबेर, सरस्वती अम्बिका, मयूरवाहिनी श्याम, वर्मा प्रादि सम्मिलित हैं पर नीचे श्री लंका का आदि की भी प्रतिमाएं उपलब्ध है। यहां कुछ जैन ऋषि कोई नामोनिशान नही है। बीच में भ. बादिनाथ की मुनियों की चरण पादुकाएँ भी प्राप्त है। पहा के मान कायोत्सर्ग प्रतिमा उत्कीर्ण है। इस त्रितीर्थी प्रतिमा से